राहत की रस्म अदायगी

Submitted by RuralWater on Thu, 01/11/2018 - 11:52
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डाउन टू अर्थ, जनवरी 2018

2009 में बुन्देलखण्ड में सूखे से निपटने के लिये 7,266 करोड़ रुपए का पैकेज जारी हुआ लेकिन अब तक इसका 50 प्रतिशत ही खर्च हो पाया है। पैकेज के लिये तीन साल की समयसीमा भी रखी गई। 2009-10 से 2012-13 के बीच तीन सालों में मात्र 40 प्रतिशत पैसा ही खर्च हो सका।राष्ट्रीय वर्षा सिंचित क्षेत्र प्राधिकरण (एनआरएए) योजना आयोग के तहत बनाई गई नोडल एजेंसी है जो बुन्देलखण्ड पैकेज के तहत धन जारी करने के लिये है, साथ ही यह इस पैकेज का समय-समय पर मूल्यांकन भी करती रही है। बुन्देलखण्ड का नाम सुनते ही पथरीले और सूखाग्रस्त इलाके की तस्वीर जेहन में उभरती है। इस सूखे को केन्द्र, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश सरकारों ने अब तक एक उद्योग के रूप में तब्दील कर दिया है। इस उद्योग को नेता व नौकरशाह मिलजुल कर फलने-फूलने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे।

इसी का नतीजा है कि करीब एक दशक पहले क्षेत्र के लिये जारी 7000 करोड़ रुपए से अधिक के पैकेज का अब तक आधा ही खर्च हो पाया है। झाँसी के रक्सा गाँव के किसान बलवान सिंह गुस्से में ऐसा ही कहते हैं। वह कहते हैं कि सूखे से निपटने के लिये केन्द्र सरकार ने पैकेज की घोषणा तो कर दी लेकिन उसका क्रियान्वयन सुनिश्चित करना मुनासिफ नहीं समझा। यही कारण है कि यह पैकेज बस कागजों में ही क्रियान्वित हो रहा है।

उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के जिलों में फैले बुन्देलखण्ड क्षेत्र के समग्र विकास के लिये 19 नवम्बर, 2009 को हुई कैबिनेट बैठक में 7,266 करोड़ रुपए स्वीकृत किये गए। 3,606 करोड़ रुपए प्रदेश के लिये और 3,760 करोड़ रुपए मध्य प्रदेश के लिये जारी किये गए। पैकेज के लिये तीन साल की समयसीमा भी रखी गई। 2009-10 से 2012-13 के बीच तीन सालों में मात्र 40 प्रतिशत पैसा ही खर्च हो सका।

राष्ट्रीय वर्षा सिंचित क्षेत्र प्राधिकरण (एनआरएए) योजना आयोग के तहत बनाई गई नोडल एजेंसी है जो बुन्देलखण्ड पैकेज के तहत धन जारी करने के लिये है, साथ ही यह इस पैकेज का समय-समय पर मूल्यांकन भी करती रही है।

एनआरएए के मूल्यांकन के अनुसार, 30 नवम्बर 2011 तक प्राधिकरण ने उत्तर प्रदेश को कुल आवंटन राशि में से 860.973 करोड़ रुपए जारी किये, लेकिन खर्च हुए केवल 280.99 करोड़ रुपए जबकि मध्य प्रदेश को कुल आवंटन का 1,129.92 करोड़ रुपए जारी किये गए और खर्च मात्र 424.4 करोड़ रुपए। बुन्देलखण्ड पैकेज की समीक्षा से पता चला है कि उत्तर प्रदेश में अब तक कुल आवंटन का 16.57 प्रतिशत और पिछले दो वर्षों में मध्य प्रदेश में 21.70 प्रतिशत खर्च किया गया।

बुन्देलखण्ड के भारी-भरकम पैकेज के क्रियान्वयन नहीं होने की गूँज भी संसद में बीते साल गूँजी। संसद के मानसून सत्र (2016) के दौरान 28 जुलाई, 2016 को लोकसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में योजना राज्य मंत्री राव इंद्रजीत सिंह ने यह माना कि यूपीए सरकार ने बुन्देलखण्ड क्षेत्र में सूखे से निपटने के लिये स्वीकृत धनराशि में भारी अनियमितताएँ बरतीं। यह जानकारी दोनों राज्य सरकारों ने दी। राव ने सदन को बताया कि अनियमितता बरतने वाले 50 अधिकारियों पर प्रशासनिक कार्रवाई की गई है। जिन अफसरों पर कार्रवाई की गई उनमें से 17 उत्तर प्रदेश के और 33 अधिकारी मध्य प्रदेश से हैं।

राव ने जानकारी दी है कि पैकेज को 12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) के दौरान पिछड़ा क्षेत्र अनुदान निधि (बीआरजीएफ) के तहत बढ़ाया गया था। पिछले तीन वर्षों (2013-14 से 2015-16) के दौरान 898.12 करोड़ उत्तर प्रदेश के लिये और 694.09 करोड़ रुपए मध्य प्रदेश को जारी किये गए।

बुन्देलखण्ड पैकेज के क्रियान्वयन के लिये योजना आयोग द्वारा बनाई गई नोडल एजेंसी एनआरएए ने भी 2016 में अपनी समीक्षा में इस बात की नाराजगी व्यक्त की कि स्वीकृत पैसे का कुछ प्रतिशत ही खर्च हो पाया है। प्राधिकरण के अनुसार, 2013-14 के लिये पैकेज के अन्तर्गत उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के लिये 1400 करोड़ रुपए की स्वीकृत किये गए। इनमें से उत्तर प्रदेश को 690.25 करोड़ रुपए जबकि मध्य प्रदेश को 527.57 करोड़ रुपए दिये गए।

एनआरएए के अनुसार, झाँसी और ललितपुर में विकास कार्यों के लिये आवंटित 1005 करोड़ रुपए में से महज 179 करोड़ रुपए के काम पूरा होने की पुष्टि हो पाई है। यह कुल आवंटित निधि का केवल 18 प्रतिशत है। इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि अन्य क्षेत्रों के लिये जारी धनराशि कितनी प्रतिशत खर्च हो पा रही है। यहीं नहीं एनआरएए ने यह भी स्वीकार किया कि पैकेज के तहत स्वीकृत मंडी के निर्माण के लिये 320 करोड़ रुपए उपयुक्त भूमि की अनुपलब्धता के कारण उपयोग नहीं किये जा सके।

पैकेज के सही तरीके से लागू नहीं होने का कारण पलायन


बुन्देलखण्ड को दिये गए इतने बड़े राहत पैकेज के सही तरीके से खर्च होने के कारण लाखों की संख्या में स्थानीय लोग बेरोजगार की तलाश में पलायन होने पर मजबूर हो रहे हैं। रेलवे से मिली जानकारी के अनुसार, 2015-16 में बुन्देलखण्ड के प्रमुख रेलवे स्टेशनों से लगभग 18 लाख लोग अनारक्षित डिब्बों का टिकट कटाकर राजधानी दिल्ली पहुँचे।

पलायन करने वाली आबादी बुन्देलखण्ड की कुल जनसंख्या का 10 फीसदी है। अतर्रा से 99,294, बांदा से 10,3567, झाँसी से 7,45,968, मौर्यपुर से 66,939, महोबा से 2,88,313, खजुराहो से 1,71,852, कुलपहाड़ से 28,920, हरपालपुर से 1,70,821, मानिकपुर से 54,657 और चित्रकूट से 61,452 लोग अनारक्षित डिब्बे में चढ़कर दिल्ली पहुँचे। अकेले राजधानी की ओर ही लोगों का पलायन नहीं हुआ बल्कि बड़ी संख्या में मुम्बई और सूरत की ओर भी लोगों ने रुख किया। मजबूर होकर लोग पलायन कर रहे हैं।

स्थानीय अधिकारियों के अनुसार, इस क्षेत्र में लगभग 60 से 70 प्रतिशत लोग कृषि पर जीवित रहते हैं, बहुत से लोगों के पास खेती खराब होने के बाद कुछ नहीं बचता है। ऐसे में क्षेत्र से पलायन अब तक दुष्चक्र बन गया है।

बुन्देलखण्ड के पारम्परिक तालाबों की बनावट यहाँ के प्राकृतिक हालात के देखते हुए की गई थी। ये तालाब इस तरह बनाए गए थे कि एक तालाब के पूरा भरने पर उससे निकल पानी अगले तालाब में अपने आप चला जाता था, यानी बारिश की एक-एक बूँद संरक्षित हो जाती थी। अब यहाँ के अधिकतर पारम्परिक तालाब सूख गए हैं। 2004 से 2008 तक बुन्देलखण्ड में भयंकर सूखा पड़ा, जिसे देखते हुए सरकार ने बुन्देलखण्ड पैकेज की घोषणा की थी। यह पैकेज काफी बड़ा और कई परतों में है। इसमें 11 विभाग हैं।

हर विभाग में कई योजनाएँ बनाईं गईं। माना गया कि बुन्देलखण्ड क्षेत्र सूखा प्रभावित इलाका है, इसलिये पैकेज को सूखा से निपटने के लिये डिजाइन किया गया। लेकिन, विडम्बना यह है कि पैकेज निर्माण में स्थानीयता व पारम्परिकता का ध्यान नहीं रखा गया। पैकेज में विभाग, मद या योजना के लिये स्थानीय स्तर से किसी से सुझाव नहीं माँगा गया, सीधे केन्द्रीय स्तर से योजनाएँ बनाई गईं। इसमें कृषि, सिंचाई बागवानी सहित 11 विभागों की योजनाओं पर फोकस किया गया। सिंचाई विभाग ने कुओं, नहरों या चेकडैम का लक्ष्य रखा।

यह सब पहले से तय था, लेकिन गाँव की जरूरत या प्राकृतिक हालात पर ध्यान नहीं दिया गया। करोड़ों खर्च करके मंडियों का निर्माण तो कर दिया गया, लेकिन इसमें अनाज कहाँ से आएगा, इस पर विचार नहीं किया गया। पूरे पैकेज में जनता से दूरी और पर्यावरण मानकों की घोर अनदेखी की गई, जिसके कारण भी यह पूरी तरह से असफल हो गया।

शोपीस बनी ग्रामीण मंडियाँ


बुन्देलखण्ड पैकेज से करोड़ों रुपए खर्च करके 163 ग्रामीण अवस्थापना केन्द्र का निर्माण कृषि उपज मंडी समिति द्वारा कराया गया है। प्रत्येक मंडी की लागत करीब 2 करोड़ रुपए है, लेकिन बनने के बाद सभी मंडियाँ बन्द हैं। बुन्देलखण्ड के सात जिले यानी झाँसी, ललितपुर, जालौन, महोबा, चित्रकूट, बाँदा और हमीरपुर में 143 मंडियाँ बनाई गईं हैं। मंडियों के निर्माण का मुख्य उद्देश्य किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य दिलाना है। हर जिले में मंडियों का निर्माण इस प्रकार किया गया है कि यह गाँव के 10 किलोमीटर के दायरे में है।

वर्तमान में बुन्देलखण्ड में हर जिले में एक बड़ी मंडी है, लेकिन झाँसी व महोबा की मंडी दूसरे जनपदों की अपेक्षा ज्यादा बड़ी है, जिस कारण से किसान यहीं उपज बेचना पसन्द करते हैं। सरकार का मानना है कि किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य नहीं मिलता, जिस कारण से किसान औने-पौने दामों पर अपनी उपज को बिचौलियों को बेच देते हैं। उम्मीद थी कि मंडियों के बनने से किसान अपनी उपज अपने गाँव के नजदीक बेच सकेंगे और उन्हें अच्छी आय होगी। लेकिन, हालात ठीक उल्टे हुए, जिन्हें देख किसान खुद को ठगा सा महसूस करता है। नई बनी मंडियों में किसान अपनी उपज बेचने जाता है तो उसे आढ़तिया ही नहीं मिलता।

बुन्देलखण्ड के झाँसी जिले के 24 गाँवों में ये मंडियाँ बनी हैं, जो हमेशा बन्द रहती हैं। अंबाबाय और पुनावलीकलां में बनी मंडियाँ दो साल पहले मंडी समिति को हैंडओवर हो चुकी हैं। रक्सा और दतिया को जाड़ने वाली सड़क पर रक्सा से पाँच किलोमीटर दूर मुख्य रोड पर ही ग्रामीण अवस्थापना निधि से मंडी का निर्माण कराया गया है। मंडी का निर्माण 28 फरवरी 2013 में ही पूरा हो गया। इसकी निर्माण लागत 1.56 करोड़ रुपए आई। इसमें चार दुकानें बनाईं गईं हैं। दुकानें भी सभी को आवंटित हो चुकी हैं लेकिन, खुलती नहीं हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह खेती का न होना है। मंडी को चोरों से बचाने एवं रखवाली के लिये आठ-आठ घंटे की शिफ्ट में तीन चौकीदार रखे गए हैं। चौकीदार रामतीरथ का कहना है कि यहाँ कोई आता ही नहीं, इसलिये वह हमेशा इसे बन्द रखते हैं।

अंबाबाय गाँव के पास बनी मंडी के बारे में किसान रामबहोर का कहना है कि जनप्रतिनिधियों ने इन मंडियों की ओर ध्यान ही नहीं दिया, जिसके कारण ये मंडियाँ वीरान हो गईं हैं। मंडियों की सुरक्षा चौकीदारों के भरोसे हैं। आम किसान को इसका कोई भी फायदा नहीं मिल सका है। किसानों का कहना है कि यह मंडी साल में एक दो बार ही खुलती है। वनगुवाँ गाँव के किसान सुनील सिंह का कहना है कि मंडियों को बनाने से पहले क्षेत्र के आम किसानों से कोई बातचीत नहीं की गई।

सरकार को समझ में आया तो मंडी बना दी, लेकिन किसी ने यह नहीं सोचा कि जब किसान के पास अनाज ही नहीं है तो वह बेचेगा क्या? सारी योजनाएँ ऊपर से ही थोप दी गईं। उनका कहना है कि बड़े कास्तकारों का अनाज ही इन मंडियों में खरीदा जाता है। हम जैसे छोटे कास्तकारों को उल्टे पाँव लौटा दिया जाता है। यह मंडी कब खुलती है, पता ही नहीं चलता है। इसका कोई फायदा आम किसानों को नहीं है। क्षेत्र में पानी की बहुत कमी है। इस पर पैकेज में किसी प्रकार की व्यवस्था नहीं की गई है। बस सरकार ने मंडी बना दी। यह हमारे किसी काम की नहीं है।

अंबाबाय गाँव के किसान महेश राजपूत बताते हैं कि हमारा क्षेत्र मध्य प्रदेश की सीमा से सटा हुआ है। बुन्देलखण्ड की मुख्य पैदावार गेहूँ है, जिसका मूल्य मध्य प्रदेश में ज्यादा मिलता है। ऐसे में यहाँ के किसान मध्य प्रदेश में ही गेहूँ बेचना ज्यादा पसन्द करते हैं। यहाँ के मंडियों में क्यों बेचेंगे।

पहली बारिश में ही नहर टूटी


मध्य प्रदेश के जिले टीकमगढ़ में बुन्देलखण्ड पैकेज के तहत जामनी नदी पर गाँव हरपुरा से लेकर मडिया तक नहर का निर्माण किया गया है। 45.8 किलोमीटर लम्बी इस नहर के लिये 37.95 करोड़ रुपए का बजट स्वीकृत किया गया। वर्ष 2011-12 से शुरू हुआ निर्माण का कार्य 15 जून 2016 को पूरा करना था, लेकिन यह 2017 तक पूरा नहीं हुआ। वहीं, घटिया निर्माण सामग्री के चलते 2016 में पहली बारिश में बोरी, शिवराजपुर, पडवार के पास नहर टूटकर बह गई है। इसकी जाँच आज तक नहीं कराई गई।

हमीरपुर के कुरारा ब्लाक के खंडोर गाँव में हैण्डपम्प के चारों और सोकपिट का निर्माण किया गया लेकिन निर्माण के बाद ही ये ध्वस्त हो गए। गाँव वाले बताते हैं कि सोकपिट के निर्माण में घटिया निर्माण सामग्री का प्रयोग किया गया था। बुन्देलखण्ड सहित पूरे देश के दूसरे हिस्सों में पानी व सूखा मुक्ति पर वर्षों से कार्य कर रहे जल, जन जोड़ो अभियान के राष्ट्रीय समन्वयक संजय सिंह का कहना है कि बुन्देलखण्ड में स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार योजनाओं का नियोजन नहीं किया गया।

इस कारण यहाँ की जरूरत के हिसाब से योजना नहीं बनी। पैकेज वरदान साबित हो सकता था, अगर यहाँ की परम्परागत जल संरचनाओं का पुनरोद्धार कर दिया गया होता। पैकेज में ऐसी बहुत सी परियोजना शामिल की गईं, जिनमें लागत अधिक और लाभ कम था। आधारभूत संरचनाओं के विकास के नाम पर मंडी जैसे बड़े निर्माण जैसे बड़े प्रोजेक्टों को बनाया गया। जबकि यहाँ उत्पादन वृद्धि के लिये सिंचाई और कृषि में नवाचार के तौर पर पहुत ध्यान नहीं दिया गया।

पैकेज में अनयिमितता को देखते हुए तत्कालीन सरकार ने बुन्देलखण्ड पैकेज निगरानी कमेटी का गठन किया। इसका अध्यक्ष वकील व सामाजिक कार्यकर्ता भानू सहाय को बनाया गया। पैकेज में व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर केन्द्र व राज्य सरकार के खिलाफ उन्होंने धरना प्रदर्शन किया, लेकिन नतीजा शून्य निकला। योजना आयोग के तत्कालीन उपाध्यक्ष मोेंटेक सिंह अहलुवालिया ने कई बार बुन्देलखण्ड का दौरा कर अनियमितताओं का जाँच की और कई अफसरों को सस्पेंड करने तक की संस्तुति की, लेकिन कुछ नहीं हुआ।

बुन्देलखण्ड पैकेज को जमीन पर उतारने वाले पूर्व केन्द्रीय ग्रामीण विकास राज्य मंत्री प्रदीप जैन आदित्य कहते हैं कि तत्कालीन केन्द्र सरकार ने बुन्देलखण्ड पैकेज के क्रियान्वयन में भरपूर मदद की, लेकिन राज्य सरकार ने काफी अनदेखी। योजना को केन्द्र बेजता है, लेकिन उसके सही क्रियान्वयन की जिम्मेदारी राज्य की है, जिसमें उसने लापरवाही की। बाद के समय भी किसी भी सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया।