लेखक
इंटरनेशनल नेचुरल डिजास्टर रिडक्शन दिवस, 13 अक्टूबर 2015 पर विशेष
आषाढ़ में जो बरसा बस वही था, लगभग पूरा सावन-भादो निकल गया है और जो छिटपुट बारिश हुई है, उससे बुन्देलखण्ड फिर से अकाल-सूखा की ओर जाता दिख रहा है। यहाँ सामान्य बारिश का तीस फीसदी भी नहीं बरसा, तीन-चौथाई खेत बुवाई से ही रह गए और कोई पैंतीस फीसदी ग्रामीण अपनी पोटलियाँ लेकर दिल्ली-पंजाब की ओर काम की तलाश में निकल गए हैं।
मनरेगा में काम करने वाले मजदूर मिल नहीं रहे हैं। ग्राम पंचायतों को पिछले छह महीने से किये गए कामों का पैसा नहीं मिला है सो नए काम नहीं हो रहे हैं। सियासतदाँ इन्तजार कर रहे हैं कि कब लोगों के पेट से उफन रही भूख-प्यास की आग भड़के और उस पर वे सियासत की हांडी खदबदाएँ। हालांकि बुन्देलखण्ड के लिये यह अप्रत्याशित कतई नहीं है, बीते कई सदियों से यहाँ हर पाँच साल में दो बार अल्प वर्षा होती ही है।
गाँव का अनपढ़ भले ही इसे जानता हो, लेकिन हमारा पढ़ा-लिखा समाज इस सामाजिक गणित को या तो समझता नहीं है या फिर नासमझी का फरेब करता है, ताकि हालात बिगड़ने पर ज्यादा बजट की जुगाड़ हो सके। ईमानदारी से तो देश का नेतृत्व बुन्देलखण्ड की असली समस्या को समझ ही नहीं पा रहे हैं।
बुन्देलखण्ड की असली समस्या अल्प वर्षा नहीं है, वह तो यहाँ सदियों, पीढ़ियों से होता रहा है। पहले यहाँ के बाशिन्दे कम पानी में जीवन जीना जानते थे। आधुनिकता की अंधी आँधी में पारम्परिक जल-प्रबन्धन तंत्र नष्ट हो गए और उनकी जगह सूखा और सरकारी राहत जैसे शब्दों ने ले ली।
अब सूखा भले ही जनता पर भारी पड़ता हो, लेकिन राहत का इन्तजार सभी को होता है- अफसरों, नेताओं सभी को। इलाके में पानी के पारम्परिक स्रोतों का संरक्षण व पानी की बर्बादी को रोकना, लोगों को पलायन के लिये मजबूर होने से बचाना और कम पानी वाली फसलों को बढ़ावा देना; महज ये तीन उपचार बुन्देलखण्ड की तकदीर बदल सकते हैं।
मध्य प्रदेश के सागर सम्भाग के पाँच, दतिया, और जबलपुर, सतना जिलों का कुछ हिस्सा और उत्तर प्रदेश के झाँसी सम्भाग के सभी सात जिले बुन्दलेखण्ड के पारम्परिक भूभाग में आते हैं। बुन्देलखण्ड की विडम्बना है कि एक सांस्कृतिक और सामाजिक एक रूप भौगोलिक क्षेत्र होने के बावजूद यह दो राज्यों- मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में बँटा हुआ है।
कोई 1.60 लाख वर्ग किमी क्षेत्रफल के इस इलाके की आबादी तीन करोड़ से अधिक है। यहाँ हीरा, ग्रेनाईट की बेहतरीन खदानें हैं, जंगल तेंदू पत्ता, आँवला से पटे पड़े हैं, लेकिन इसका लाभ स्थानीय लोगों को नहीं मिलता है। दिल्ली, लखनऊ और उससे भी आगे पंजाब तक जितने भी बड़े निर्माण कार्य चल रहे हैं उसमें अधिकांश में ‘‘गारा-गुम्मा’’ (मिट्टी और ईंट) का काम बुन्देलखण्डी मजदूर ही करते हैं।
शोषण, पलायन और भुखमरी को वे अपनी नियति समझते हैं। जबकि खदानों व अन्य करों के माध्यम से बुन्देलखण्ड सरकारों को अपेक्षा से अधिक कर उगाह कर देता है, लेकिन इलाके के विकास के लिये इस कर का 20 फीसदी भी यहाँ खर्च नहीं होता है।
बुन्देलखण्ड के पन्ना में हीरे की खदानें हैं, यहाँ का ग्रेनाईट दुनिया भर में धूम मचाए हैं। यहाँ की खदानों में गोरा पत्थर, सीमेंट का पत्थर, रेत-बजरी के भण्डार हैं। इलाके के गाँव-गाँव में तालाब हैं, जहाँ की मछलियाँ कोलकाता के बाजार में आवाज लगा कर बिकती हैं। इस क्षेत्र के जंगलों में मिलने वाले अफरात तेंदू पत्ता को ग्रीन-गोल्ड कहा जाता है।
आँवला, हर्र जैसे उत्पादों से जंगल लदे हुए हैं। लुटियन की दिल्ली की विशाल इमारतें यहाँ के आदमी की मेहनत की साक्षी हैं। खजुराहो, झाँसी, ओरछा जैसे पर्यटन स्थल साल भर विदेशी घुमक्कड़ों को आकर्षित करते हैं। अनुमान है कि दोनों राज्यों के बुन्देलखण्ड मिलाकर कोई एक हजार करोड़ की आय सरकार के खाते में जमा करवाते हैं, लेकिन इलाके के विकास पर इसका दस फीसदी भी खर्च नहीं होता है।
बुन्देलखण्ड के सभी कस्बे, शहर की बसाहट का एक ही पैटर्न रहा है - चारो ओर ऊँचे-ऊँचे पहाड़, पहाड़ की तलहटी में दर्जनों छोटे-बड़े ताल-तलैया और उनके किनारों पर बस्ती। टीकमगढ़ जैसे जिले में अभी तीन दशक पहले तक हजार से ज्यादा तालाब थे। पक्के घाटों वाले हरियाली से घिरे व विशाल तालाब बुन्देलखड के हर गाँव- कस्बे की सांस्कृतिक पहचान हुआ करते थे।
ये तालाब भी इस तरह थे कि एक तालाब के पूरा भरने पर उससे निकला पानी अगले तालाब में अपने आप चला जाता था, यानी बारिश की एक-एक बूँद संरक्षित हो जाती थी। चाहे चरखारी को लें या छतरपुर को सौ साल पहले वे वेनिस की तरह तालाबों के बीच बसे दिखते थे। अब उपेक्षा के शिकार शहरी तालाबों को कंक्रीट के जंगल निगल गए। रहे- बचे तालाब शहरों की गन्दगी को ढोनेे वाले नाबदान बन गए।
गाँवों की अर्थ व्यवस्था का आधार कहलाने वाले चन्देलकालीन तालाब सामन्ती मानसिकता के शिकार हो गए। सनद रहे बुन्देलखण्ड देश के सर्वाधिक विपन्न इलाकों में से है। यहाँ ना तो कल-कारखाने हैं और ना ही उद्योग-व्यापार। महज खेती पर यहाँ का जीवनयापन टिका हुआ है।
कुछ साल पहले ललितपुर जिले में सीटरस फलों जैसे संतरा, मौसम्बी, नीबू को लगाने का सफल प्रयोग हुआ था। वैज्ञानिकों ने भी मान लिया था कि बुन्देलखण्ड की पथरीली व अल्प वर्षा वाली जमीन नागपुर को मात कर सकती है। ना जाने किस साज़िश के तहत उस परियोजना का न तो विस्तार हुआ और ना ही ललितपुर में ही जारी रहा।
कभी पुराने तालाब जीवनरेखा कहलाते थे। समय बदला और गाँवों में हैंडपम्प लगे, नल आये तो लोग इन तालाबों को भूलने लगे। कई तालाब चौरस मैदान हो गए कई के बन्धान टूट गए। तो जो रहे बचे, तो उनकी मछलियों और पानी पर सामन्तों का कब्जा हो गया। तालाबों की व्यवस्था बिगड़ने से ढीमरों की रोटी गई। तालाब से मिलने वाली मछली, कमल-गट्टे, यहाँ का अर्थ-आधार हुआ करते थे। वहीं किसान सिंचाई से वंचित हो गया। कभी तालाब सूखे तो भूगर्भ जल का भण्डार भी गड़बड़ाया।
बुन्देलखण्ड के सभी कस्बे, शहर की बसाहट का एक ही पैटर्न रहा है - चारो ओर ऊँचे-ऊँचे पहाड़, पहाड़ की तलहटी में दर्जनों छोटे-बड़े ताल-तलैया और उनके किनारों पर बस्ती। टीकमगढ़ जैसे जिले में अभी तीन दशक पहले तक हजार से ज्यादा तालाब थे। पक्के घाटों वाले हरियाली से घिरे व विशाल तालाब बुन्देलखड के हर गाँव- कस्बे की सांस्कृतिक पहचान हुआ करते थे। ये तालाब भी इस तरह थे कि एक तालाब के पूरा भरने पर उससे निकला पानी अगले तालाब में अपने आप चला जाता था, यानी बारिश की एक-एक बूँद संरक्षित हो जाती थी। आज के अत्याधुनिक सुविधा सम्पन्न भूवैज्ञानिकों की सरकारी रिपोर्ट के नतीजों को बुन्देलखण्ड के बुजुर्गवार सदियों पहले जानते थे कि यहाँ की ग्रेनाईट संरचना के कारण भूगर्भ जल का प्रयोग असफल रहेगा। तभी हजार साल पहले चन्देलकाल में यहाँ की हर पहाड़ी के बहाव की ओर तालाब तो बनाए गए, ताकि बारिश का अधिक-से-अधिक पानी उनमें एकत्र हो, साथ ही तालाब की पाल पर कुएँ भी खोदे गए। लेकिन तालाबों से दूर या अपने घर-आँगन में कुँआ खोदने से यहाँ परहेज होता रहा।
गत् दो दशकों के दौरान भूगर्भ जल को रिचार्ज करने वाले तालाबों को उजाड़ना और अधिक-से-अधिक टयूबवेल, हैण्डपम्पों को रोपना ताबड़तोड़ रहा। सो जल त्रासदी का भीषण रूप तो उभरना ही था। साथ-ही-साथ नलकूप लगाने में सरकार द्वारा खर्च अरबों रुपए भी पानी में गए। क्योंकि इस क्षेत्र में लगे आधेेेे से अधिक हैण्डपम्प अब महज ‘शो-पीस’ बनकर रह गए हैं। साथ ही जलस्तर कई मीटर नीचे होता जा रहा है। इससे खेतों की तो दूर, कंठ तर करने के लिये पानी का टोटा हो गया है।
कभी बुन्देलखण्ड के 45 फीसदी हिस्से पर घने जंगल हुआ करते थे। आज यह हरियाली सिमट कर 10 से 13 प्रतिशत रह गई है। यहाँ के जंगलों में रहने वाले आदिवासियों सौर, कौंदर, कौल और गोंडों की यह जिम्मेदारी होती थी कि वे जंगल की हरियाली बरकरार रखे। ये आदिवासी वनोपज से जीवीकोपार्जन चलाते थे, सूखे गिरे पेड़ों को ईंधन के लिये बेचते थे। लेकिन आजादी के बाद जंगलों के स्वामी आदिवासी वनपुत्रों की हालत बंधुआ मजदूर से बदतर हो गई।
ठेकेदारों ने जमके जंगल उजाड़े और सरकारी महकमों ने कागजों पर पेड़ लगाए। बुन्देलखण्ड में हर पाँच साल में दो बार अल्प वर्षा होना कोई आज की विपदा नहीं है। फिर भी जल, जंगल, जमीन पर समाज की साझी भागीदारी के चलते बुन्देलखण्डी इस त्रासदी को सदियों से सहजता से झेलते आ रहे थे।
पलायन, यहाँ के सामाजिक विग्रह का चरम रूप है। मनरेगा भी यहाँ कारगर नहीं रहा है। स्थानीय स्तर पर रोज़गार की सम्भावनाएँ बढ़ाने के साथ-साथ गरीबों का शोषण रोककर इस पलायन को रोकना बेहद जरूरी है। यह क्षेत्र जल संकट से निबटने के लिये तो स्वयं समर्थ है, जरूरत इस बात की है कि यहाँ की भौगोलिक परिस्थितियों के मद्देनज़र परियोजनाएँ तैयार की जाएँ। विशेषकर यहाँ के पारम्परिक जल स्रोतों का भव्य अतीत स्वरूप फिर से लौटाया जाये। यदि पानी को सहेजने व उपभोग की पुश्तैनी प्रणालियों को स्थानीय लोगों की भागीदारी से संचालित किया जाये तो बुन्देलखण्ड का गला कभी रीता नहीं रहेगा।
यदि बुन्देलखण्ड के बारे में ईमानदारी से काम करना है तो सबसे पहले यहाँ के तालाबों का संरक्षण, उनसे अतिक्रमण हटाना, तालाब को सरकार के बनिस्पत समाज की सम्पत्ति घोषित करना सबसे जरूरी है। नारों और वादों से हटकर इसके लिये ग्रामीण स्तर पर तकनीकी समझ वाले लोगों के साथ स्थायी संगठन बनाने होंगे।
दूसरा इलाके के पहाड़ों को अवैध खनन से बचाना, पहाड़ों से बहकर आने वाले पानी को तालाब तक निर्बाध पहुँचाने के लिये उसके रास्ते में आये अवरोधों, अतिक्रमणों को हटाना जरूरी है। बुन्देलखण्ड में केन, केल, धसान जैसी गहरी नदियाँ हैं जो एक तो उथली हो गई हैं, दूसरा उनका पानी सीधे यमुना जैसी नदियों में जा रहा है।
इन नदियों पर छोटे-छोटे बाँध बाँधकर पानी रोका जा सकता है। हाँ, केन-धसान नदियों को जोड़ने की अरबों रुपए की योजना पर फिर से विचार भी करना होगा, क्योंकि इस जोड़ से बुन्देलखण्ड घाटे में रहेगा। सबसे बड़ी बात, स्थानीय संसाधनों पर स्थानीय लोगों की निर्भरता बढ़ानी होगी।
कुछ जगह हो सकता है कि राहत कार्य चले, हैण्डपम्प भी रोपे जाएँ, लेकिन हर तीन साल में आने वाले सूखे से निबटने के दीर्घकालीन उपायों के नाम पर सरकार की योजनाएँ कंगाल ही नजर आती है। स्थानीय संसाधनों तथा जनता की क्षमता-वृद्धि, कम पानी की फसलों को बढ़ावा, व्यर्थ जल का संरक्षण जैसे उपायों को ईमानदारी से लागू करे बगैर इस शौर्य-भूमि का तकदीर बदलना नामुमकिन ही है।