बुन्देलखण्ड परिचय
भारत के मध्य भाग में स्थित क्षेत्र को बुन्देलखण्ड कहते हैं। इसका इलाक़ा वर्तमान उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश राज्यों में स्थित है। मूल बुन्देलखण्ड में उत्तर प्रदेश के सात जिले (झाँसी, जालौन, हमीरपुर, ललितपुर, बाँदा, महोबा और चित्रकूट) और मध्य प्रदेश के छह जिले (दतिया, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, सागर और दमोह) आते हैं। मध्य प्रदेश का नरसिंहपुर जिला, जबलपुर जिले का पश्चिमी भाग और होशंगाबाद जिले का पूर्वी भाग, अनेक दृष्टियों से बुन्देलखण्ड के काफी करीब हैं।
बुन्देलखण्ड का प्राकृतिक परिदृश्य
बुन्देलखण्ड का इलाका मुख्यतः चट्टानी है। बुन्देलखण्ड के उत्तरी भाग में ग्रेनाइट एवं नीस, दक्षिणी भाग में बेसाल्ट, सेंडस्टोन और चूनापत्थर मिलता है। उत्तरी बुन्देलखण्ड में ग्रेनाइट की कम ऊँची और दक्षिणी बुन्देलखण्ड में सेंडस्टोन की अपेक्षाकृत अधिक ऊँची पहाड़ियाँ मिलती हैं। उत्तरी और मध्य बुन्देलखण्ड में कई स्थानों पर क्वार्ट्ज-रीफ ने स्थानीय चट्टानों को काटा है। इस इलाके में क्वार्ट्ज-रीफों ने कई किलोमीटर लम्बी किन्तु समान्तर पहाड़ियों का निर्माण किया है। बुन्देलखण्ड के ग्रेनाइटी इलाको में डोलेराइट डाइकें भी मिलती हैं। इन डाइकों ने भी स्थानीय चट्टानों को काटा है। भूजल वैज्ञानिकों का मानना है कि जल संरक्षण में क्वार्ट्ज-रीफ की तुलना में, डोलेराइट डाइकों की भूमिका अपेक्षाकृत कम महत्त्वपूर्ण है। सागर और दमोह जिलों में अधिकांश पहाड़ियों की ऊँचाई 300 से 380 मीटर के बीच है। इस क्षेत्र के मैदानी हिस्सों और घाटियों में मुख्यतः बेसाल्ट पाया जाता है। यह हिस्सा लगभग पठारी है। इस क्षेत्र के दक्षिण में नर्मदा नदी की घाटी है। नर्मदा घाटी का विस्तार पूर्व-पश्चिम दिशा में है।
बुन्देलखण्ड में मिलने वाली मिट्टियों का विकास इस क्षेत्र में मिलने वाली चट्टानों की टूटन और सड़न से हुआ है। आधुनिक वैज्ञानिक भाषा में इसे भौतिक और रासायनिक प्रक्रिया से हुआ अपक्षय कहते हैं। इस अपक्षय के परिणामस्वरूप मुख्यतः तीन प्रकार की मिट्टियाँ निर्मित हुई हैं। कहीं-कहीं उनके मिश्रण (मिश्रित मिट्टियाँ) भी मिलते हैं। स्थानीय लोग इन मिट्टियों को मार, काबर और राखड़ कहते हैं। मार मिट्टी काले रंग की उपजाऊ मिट्टी है। यह मिट्टी गेहूँ और कपास के लिये मुफीद है। काबर मिट्टी अपेक्षाकृत कम उपजाऊ एवं हलके काले रंग की मिट्टी है। राखड़ मिट्टी लाल और पीले रंग की होती है। यह सबसे कम उपजाऊ मिट्टी है। बुन्देलखण्ड के मैदानी इलाकों में काबर और मार मिट्टियाँ मिलती है। झाँसी और ललितपुर के बीच के पहाड़ी इलाकों और मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों में राखड़ मिट्टी मिलती है। इस मिट्टी में रेत, बजरी और कंकड़ के कण होते हैं। कृषि वैज्ञानिक इस मिट्टी को खेती के लिये अच्छा नहीं मानते।
बुन्देलखण्ड के अधिकांश क्षेत्रों में ज़मीन पठारी और ऊबड़-खाबड़ है। बहुत से इलाकों में मिट्टी की परत की मोटाई बहुत कम है। इस पठारी और ऊबड़-खाबड़ ज़मीन में सामान्यतः लाभप्रद खेती करना कठिन होता है। आधुनिक कृषि वैज्ञानिक बताते हैं कि बुन्देलखण्ड के मध्य क्षेत्र में मिलने वाली काली मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों और लाल मिट्टी में नाइट्रोजन और फास्फेट की कमी है।
बुन्देलखण्ड में कम ऊँची पहाड़ियाँ, संकरी घाटियाँ और घाटियों के बीच में खुले मैदान हैं। यह इलाका बंगाल की गर्म और आर्द्र एवं राजस्थान की गर्म जलवायु वाले इलाके के बीच स्थित है। यहाँ की जलवायु मुख्यतः अर्द्ध-शुष्क है। इस क्षेत्र में बरसात में अकसर बाढ़ की और गर्मी में सूखे की स्थिति बनती है। इस क्षेत्र में 90 प्रतिशत वर्षा जून से सितम्बर के बीच होती है। जुलाई और अगस्त सबसे अधिक गीले होते हैं। उत्तर के मैदानी हिस्सों को छोड़कर बाकी क्षेत्र की औसत बरसात 75 सेंटीमीटर से लेकर 125 सेंटीमीटर के बीच है। वर्षा का वितरण, असमान, अनिश्चित और निरापद खेती की दृष्टि से असनतुलित है।
बुन्देलखण्ड का लगभग पूरा क्षेत्र यमुना कछार में आता है। इस इलाके की मुख्य नदियाँ केन, बेतवा, टोंस, केल, धसान, बेबस, पहुज, उर्मिल, तेंदुआ, कुटनी, सोनार, बीला, जामनी, लखेरी और गुरुैया इत्यादि हैं। इस क्षेत्र में बड़ी नदियों का अभाव है।
आधुनिक कृषि वैज्ञानिकों ने अधिक उत्पादन लेने के लिये खेतों के ढाल, मिट्टी की किस्म, फसल, सिंचाई की आवश्यकता, सिंचाई स्रोत, जल उपलब्धता और लागत-लाभ इत्यादि के आधार पर सिंचाई की अनेक विधियों की खोज की है। वे, परिस्थितियों के अनुसार उपयुक्त सिंचाई विधि अपनाने की सलाह देते हैं। ग़ौरतलब है कि कृषि वैज्ञानिकों ने प्रयोगों के आधार पर ज्ञात किया है कि सभी प्रकार की मिट्टियाँ सिंचाई के लिये उपयुक्त नहीं होतीं। उनके अनुसार हल्की संरचना वाली कछारी मिट्टी और रेत, बजरी तथा चट्टानों के टुकड़े वाली उथली मिट्टी सिंचाई के लिये अनुपयुक्त होती हैं। कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार गहरी मिट्टी वाले उन्हीं खेतों में सिंचाई करना चाहिए जो लगभग समतल हों। उल्लेखनीय है कि जलवायु, फसल की किस्म और मिट्टी के गुणों का भी उत्पादन पर प्रभाव पड़ता है।
कृषि वैज्ञानिक बताते हैं कि अधिकतम उत्पादन लेने के लिये सिंचित खेत में मिट्टी की परत की मोटाई 150 सेंटीमीटर से अधिक होना चाहिए। कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार 100 सेंटीमीटर मोटाई वाली मिट्टी की परत से बहुत अधिक उत्पादन की अपेक्षा थोड़ी कठिन होती है। तीस सेंटीमीटर से कम मोटी परत में नमी अधिक देर तक नहीं टिक पाती। इस कारण उसे बार-बार सींचना पड़ता है। ऐसा करना ठीक नहीं है क्योंकि बार-बार सींचने से मिट्टी की ऊपरी उपजाऊ परत के बह जाने का खतरा होता है। कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार 30 सेंटीमीटर से कम मोटाई वाली ज़मीन से, सिंचाई के बावजूद अच्छे उत्पादन की अपेक्षा नहीं होती।
कृषि वैज्ञानिकों ने बुन्देलखण्ड के दतिया, छतरपुर और टीकमगढ़ को बुन्देलखण्ड कृषि जलवायु क्षेत्र में पन्ना जिले को कैमूर कृषि जलवायु क्षेत्र में और सागर एवं दमोह को विंध्यन हिल्स कृषि जलवायु क्षेत्र में स्थित माना है। आधुनिक कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार बुन्देलखण्ड कृषि जलवायु क्षेत्र में गेहूँ और ज्वार, कैमूर कृषि जलवायु क्षेत्र में गेहूँ और धान एवं विंध्यन कृषि जलवायु क्षेत्र में मुख्यतः गेहूँ उपयुक्त फसलें हैं।
बुन्देलखण्ड के परिचय से प्रारम्भ हो तालाबों तथा परम्परागत सूखी खेती में मौजूद जल विज्ञान के अनछुए साक्ष्यों पर खत्म होती है। इसलिये, इस पुस्तक में अनेक जगह, सूखी खेती से जुड़ी जानकारियाँ और मानसून के अन्तरालों के कुप्रभावों को कम करने वाले प्रयासों से जुड़ी प्रासंगिक सामग्री सम्मिलित की गई है। हकीक़त बयान करने वाले कुछ विवरण और स्थानीय किसानों के अनुभव दर्ज किये गए हैं। यह विवरण, जल विज्ञान की गहरी समझ, पानी और नमी की भूमिका तथा उसके योगदान को रेखांकित तथा उजागर करता है।उपर्युक्त प्राकृतिक परिस्थितियों में ही बुन्देलखण्ड की धरती पर भारतीय जल विज्ञान और जल प्रणालियों का विकास हुआ है। विकास यात्रा में अनुभव सहेजे गए हैं। अनुभवों को मार्गदर्शक स्वरूप प्रदान किया गया है। अगले पन्नों में जल विज्ञान और जल प्रणालियों के तकनीकी बिन्दुओं पर सिलसिलेवार चर्चा की गई है।
बुन्देलखण्ड में जल विज्ञान और जल प्रणालियाँ
बुन्देलखण्ड में मानवीय गतिविधियों का विकास का क्रम लगभग वही रहा होगा जो प्रदेश के अन्य क्षेत्रों में था इसलिये तत्कालीन पशुपालक तथा खेतिहर समाज ने आजीविका को सुनिश्चित करने की दृष्टि से सबसे पहले मौसम तथा स्थानीय बरसात के चरित्र को समझा होगा। बरसात के चरित्र की अनिश्चितता को समझने के बाद सूखे अन्तरालों की चुनौतियों से निजात पाने की रणनीति का विकास शुरू हुआ होगा। इसी कारण, बुन्देलखण्ड पानी की स्थानीय पाठशाला बना होगा। पानी को केन्द्र में रखकर, निरापद सूखी खेती तथा विभिन्न मिट्टियों के व्यवहार पर सतत चिन्तन-मनन हुआ होगा। सबसे पहले अधिक पानी चाहने वाली फसलों और केवल ओस में पकने वाली फसलों को पहचाना गया होगा। बरसात के मौसम में आने वाले सूखे किन्तु अनिश्चित अन्तरालों में मिट्टी में घटती नमी के विभिन्न बरसाती फसलों पर पड़ने वाले प्रभाव को समझा गया होगा। उसे समझने के बाद, खेतों की स्थिति और मिट्टी की परत की मोटाई के अनुसार उनमें उपयुक्त खरीफ फसलें बोने का सिलसिला प्रारम्भ हुआ होगा। बरसात के बाद, धरती की नमी तथा ओस के योगदान की समझ के आधार पर शीतकालीन फसलों का सिलसिला प्रारम्भ हुआ होगा। बीज, मिट्टी और पानी के अन्तरसम्बन्ध पर सैकड़ों सालों तक करके देखो और चिन्तन-मनन के बाद ही निरापद सूखी खेती की समझ बनी होगी। इसी कारण, पानी और नमी का अन्तर स्पष्ट हुआ होगा। इसी समझ ने बरसात के वितरण, खेतों की स्थिति तथा मिट्टी के आधार पर बरसाती खेती और मिट्टी, नमी और ओस के आधार पर शीतकालीन सूखी खेती की यह आसान की होगी।
इस अध्याय की कहानी बुन्देलखण्ड के परिचय से प्रारम्भ हो तालाबों तथा परम्परागत सूखी खेती में मौजूद जल विज्ञान के अनछुए साक्ष्यों पर खत्म होती है। इसलिये, इस पुस्तक में अनेक जगह, सूखी खेती से जुड़ी जानकारियाँ और मानसून के अन्तरालों के कुप्रभावों को कम करने वाले प्रयासों से जुड़ी प्रासंगिक सामग्री सम्मिलित की गई है। हकीक़त बयान करने वाले कुछ विवरण और स्थानीय किसानों के अनुभव दर्ज किये गए हैं। यह विवरण, जल विज्ञान की गहरी समझ, पानी और नमी की भूमिका तथा उसके योगदान को रेखांकित तथा उजागर करता है। यह रेखांकन एक ओर यदि खरीफ तथा रबी की असिंचित फसलों को निरापद बनाते नजर आता है तो दूसरी ओर फसलों तथा कृषि पद्धतियों की विविधता के माध्यम से परिमार्जित होते जल विज्ञान और जल प्रणालियों का यथार्थ पेश करता है। इस अध्याय में जल विज्ञान की चुनौतियों और योगदान को केन्द्र में रखकर भारतीय तथा पाश्चात्य जल विज्ञान के दृष्टिबोध की जगह-जगह सांकेतिक चर्चा की है। इस सांकेतिक चर्चा के कारण अनेक बार विषय से भटकाव प्रतीत होता है पर वह भटकाव न केवल कुछ साक्ष्य पेश करता है वरन अनेक मामलों में सोचने का अवसर तथा दिशाबोध भी प्रदान करता है।
इस अध्याय में बुन्देलखण्ड में चन्देल और बुन्देलाकालीन तालाबों, कुओं, बावड़ियों और खेतों में बनने वाली बंधियाओं का संक्षिप्त विवरण पेश किया है। इस विवरण का उद्देश्य चन्देल और बुन्देलाकालीन जल विज्ञान और जल प्रणालियों को समझने के लिये दृष्टिबोध प्रदान करना है। प्रसंगवश जानना उचित होगा कि बुन्देलखण्ड के काफी बड़े भूभाग पर चन्देल राजाओं ने दसवीं से तेरहवीं सदी तक और बुन्देला राजाओं ने पन्द्रहवीं सदी के मध्यकाल से अट्ठारहवीं सदी तक राज किया था। इन सभी राजाओं ने तालाबों के निर्माण में रुचि ली और खेती को निरापद बनाने वाली जल प्रणालियों को आगे बढ़ाया। तालाबों तथा परम्परागत खेती में मौजूद साक्ष्यों से पता चलता है कि एक ओर यदि तालाबों, कुओं और बावड़ियों की उपयुक्तता, उनके दीर्घ जीवन का रहस्य और स्थल चयन का आधार, भारतीय जल विज्ञान की समझ, शिल्पियों की दक्षता और समाज की आकांक्षाओं का प्रतिबिम्ब था तो दूसरी ओर खेतों में बनने वाली बंधियाओं से जुड़ा विवरण, ऐसा अकाट्य साक्ष्य प्रस्तुत करता है जो बुन्देलखण्ड के मौसम के उतार-चढ़ाव को झेलती और धरती के साथ तालमेल बिठाती सूखी खेती को यथासम्भव निरापद बनाता था।
बुन्देलखण्ड में जल संचय एवं जल दोहन की समृद्ध परम्परा रही है। इसके अन्तर्गत मुख्यतः तालाब, कुएँ, बावड़ियाँ और खेतों के निचले हिस्से में कच्ची एवं अस्थायी बंधियाओं का निर्माण किया गया था। इस किताब में बूँदों की इन विरासतों का संक्षिप्त परिचय देकर उनके वैज्ञानिक पक्ष की संक्षिप्त चर्चा की गई है।
श्रुतियों के अनुसार कूप, वापी, पुष्करनी और तड़ाग पानी उपलब्ध कराने या उसका संचय करने वाली संरचनाएँ हैं। इन संरचनाओं को खोदकर बनाया जाता है। कूप की लम्बाई-चौड़ाई या व्यास पाँच हाथ से पचास हाथ (एक हाथ = लगभग 0.46 मीटर) होता है। सीढ़ीदार कुएँ, जिसका व्यास पचास से एक सौ हाथ होता है, को वापी (बेर) कहते हैं। वापी में चारों ओर से या तीन ओर से या दो ओर से या केवल एक ओर से सीढ़ियाँ बनाई जाती हैं। सौ से एक सौ पचास हाथ व्यास अथवा लम्बाई के तालाब को पुष्करनी कहते थे। तड़ाग की लम्बाई या व्यास दो सौ से आठ सौ हाथ होता है। चन्देल राजाओं ने पुष्करनी को छोड़कर कूप, वापी और तड़ागों का निर्माण कराया था। लगता है, कूप, वापी और तड़ागों के निर्माण को स्थानीय परिस्थितियों ने नियंत्रित किया है।
चन्देलों ने विभिन्न आकार के तालाब बनवाए थे। चित्र सोलह में टीकमगढ़ का वीर सागर तालाब दर्शाया गया है। चन्देल राजा मदनवर्मन ने टीकमगढ़ जिले के मदनपुर ग्राम में 27.14 हेक्टेयर का मदनसागर तालाब बनवाया था। इस राजा द्वारा महोबा में बनवाया मदनसागर तालाब पूरे बुन्देलखण्ड प्रसिद्ध है। इस राजा के नाम से अनेक बावड़ियों का भी निर्माण हुआ है। इन बावड़ियों को मदन-बेरे भी कहा जाता है। अकेले टीकमगढ़ के बलदेवगढ़ बहार, पपावनी, झिनगुंवा, जिनागढ़ इत्यादि स्थानों में इनके अवशेष देखे जा सकते हैं। मदनवर्मन ने टीकमगढ़ जिले में एक हजार से अधिक तालाब बनवाए थे इसलिये इतिहास में उसकी पहचान सर्वाधिक तालाबों का निर्माण कराने वाले राजा के रूप में है।
पन्द्रहवीं सदी के मध्यकाल से लेकर अट्ठारहवीं सदी तक बुन्देलखण्ड पर बुन्देला राजाओं का आधिपत्य रहा। छत्रसाल सहित लगभग सभी बुन्देला राजाओं ने तालाब निर्माण की चन्देल परिपाटी को आगे बढ़ाया। उन्होंने चन्देल काल में बने कुछ तालाबों की मरम्मत की, कुछ का पुनर्निर्माण किया और अनेक नए तालाब बनवाए। कुछ तालाबों से सिंचाई के लिये नहरें निकालीं। उनके शासनकाल में बनाए तालाबों का आकार अपेक्षाकृत बड़ा था जो यह सिद्ध करता है कि चन्देल काल में जल विज्ञान की समझ, तालाब निर्माण की तकनीक और उसे प्रभावित एवं नियंत्रित करने वाले घटकों पर जल वैज्ञानिकों की निर्णायक पकड़ थी।गौरतलब है कि चन्देल कालीन तालाबों का निर्माण इतना सटीक था कि उनके फूटने के उदाहरण नहीं मिलते। चन्देल कालीन तालाबों के निर्माण में शिल्पियों ने व्यावहारिक समझदारी का ऐसा जोरदार गणित बैठाया था कि चाहे जितना पानी बरसे, वह (पानी) बाँध की पाल को लाँघ कर नहीं बहता था। चन्देल तालाबों में बाँध की ऊँचाई और वेस्टवियर की चौड़ाई में 1:7 का या उससे भी अधिक का अनुपात रखा जाता था। पाल के दोनों सिरों पर छोटी पहाड़ियों, पठारों या चारागाहों (चरचरी) की जमीन को काटकर, सही ऊँचाई पर वेस्टवियर का निर्माण किया जाता था। यही वे कुछ सांकेतिक साक्ष्य हैं जो बुन्देलखण्ड में निर्मित तालाबों में भारतीय जल विज्ञान का उजला पक्ष प्रस्तुत करते हैं।
बुन्देलखण्ड में तालाब निर्माण का कार्य राजाओं के अलावा सम्पन्न लोगों ने भी कराया था इसलिये हर गाँव में कम-से-कम एक तालाब अवश्य मिलता है। दक्षिणी बुन्देलखण्ड (सागर, दमोह और पन्ना क्षेत्र) में कम तालाब बनवाए गए हैं। उल्लेखनीय है कि सागर जिले की खुरई, देवरी और सागर के आसपास का इलाक़ा और दमोह जिले का हटा का इलाका काली मिट्टी का नमी सहेजने वाला इलाका है, इसलिये प्रतीत होता है कि इस इलाके में तालाबों के निर्माण को वरीयता नहीं मिली।
चन्देलों द्वारा बनवाए तालाबों को मुख्यतः निम्न दो वर्गो में बाँटा जा सकता है-
अ. पेयजल और स्नान हेतु तालाब-इन तालाबों पर घाट बनाए जाते थे।
ब. सिंचाई और पशुओं के लिये निस्तारी तालाब
चन्देलों द्वारा बनवाए तालाबों का एक और वर्गीकरण है। यह वर्गीकरण अधिक प्रसिद्ध है। इस वर्गीकरण के अन्तर्गत तालाबों को निम्नलिखित दो वर्गो में बाँटा जाता है-
क. स्वतंत्र तालाब (स्वतंत्र एकल संरचना)
ख. तालाब शृंखला (सम्बद्ध तालाबों की शृंखला, सांकल या शृंखलाबद्ध तालाब)
पन्द्रहवीं सदी के मध्यकाल से लेकर अट्ठारहवीं सदी तक बुन्देलखण्ड पर बुन्देला राजाओं का आधिपत्य रहा। छत्रसाल सहित लगभग सभी बुन्देला राजाओं ने तालाब निर्माण की चन्देल परिपाटी को आगे बढ़ाया। उन्होंने चन्देल काल में बने कुछ तालाबों की मरम्मत की, कुछ का पुनर्निर्माण किया और अनेक नए तालाब बनवाए। कुछ तालाबों से सिंचाई के लिये नहरें निकालीं। उनके शासनकाल में बनाए तालाबों का आकार अपेक्षाकृत बड़ा था जो यह सिद्ध करता है कि चन्देल काल में जल विज्ञान की समझ, तालाब निर्माण की तकनीक और उसे प्रभावित एवं नियंत्रित करने वाले घटकों पर जल वैज्ञानिकों की निर्णायक पकड़ थी। तालाबों के आकार में हुई उत्तरोत्तर वृद्धि सिद्ध करती है कि बुन्देलखण्ड की धरती पर भारतीय जल विज्ञान का क्रमिक विकास हुआ था। उसी विकास ने दीर्घायु जल संरचनाओं के निर्माण का रास्ता सुगम किया।
अनुपम मिश्र ने महाराजा छत्रसाल के बारे में एक कहानी का जिक्र किया है। इस कहानी के अनुसार छत्रसाल के बेटे जगतराज को गड़े हुए खजाने के बारे में एक बीजक मिला था। बीजक में अंकित सूचना के आधार पर जगतराज ने खजाना खोद लिया। जब इसकी जानकारी महाराजा छत्रसाल को लगी तो वे बहुत नाराज हुए। उन्होंने अपने बेटे को उस धन की मदद से चन्देल राजाओं द्वारा बनवाए सभी तालाबों की मरम्मत और नए तालाब बनवाने का आदेश दिया। कहा जाता है कि उस धन से 22 विशाल तालाबों का निर्माण हुआ। यह कहानी, तालाब निर्माण तकनीकों की सहज उपलब्धता, सामाजिक स्वीकार्यता और गड़े धन को परोपकार के कामों पर खर्च करने के सोच को उजागर करती है। बुन्देलों की नजर में परोपकार का अर्थ तालाब बनवाना या उनकी मरम्मत करवाना था। चित्र सत्रह में टीकमगढ़ का महेन्द्र सागर तालाब दर्शाया गया है।
कहा जाता है कि निर्माण लागत की दृष्टि से बुन्देला राजाओं द्वारा बनवाए तालाब, चन्देल राजाओं द्वारा बनवाए तालाबों की तुलना में महंगे और निर्माण की दृष्टि से जटिल थे बुन्देला तालाबों की जल संग्रहण क्षमता अधिक थी। वे पानी/नमी की बढ़ती आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये अधिक मुफीद, अधिक वैज्ञानिक और दीर्घजीवी थे दूसरे शब्दों में, वे बुन्देलखण्ड में उपलब्ध उन्नत भारतीय जल विज्ञान और निर्दोष निर्माणकला के कालजयी साक्ष्य थे। इन विशाल तालाबों का रखरखाव राजकीय अमले के द्वारा किया जाता था वहीं निजी तालाबों के रखरखाव की जिम्मेदारी ग्रामवासियों की थी।
बुन्देलखण्ड के राजाओं द्वारा बसाहट के निकट और छोटी-छोटी पहाड़ियों के ढाल पर बनवाए तालाब सामान्यतः छोटे आकार के हैं। ग़ौरतलब है कि बुन्देलखण्ड के कुछ इलाकों में, जहाँ छोटे आकार के तालाब बनाने के लिये उपयुक्त स्थल और अधिक मात्रा में बरसाती पानी मिलता था, वहाँ राजाओं ने पानी सहेजने के लिये तालाबों की शृंखलाएँ बनवाई थी। जो बरसाती पानी के अधिकतम संचय की साक्ष्य थीं। यह साक्ष्य स्थानीय टोपोग्राफी के सदुपयोग और रन-आफ के बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग का द्योतक है।
बुन्देलखण्ड के राजाओं ने उपयुक्त भौगोलिक परिस्थितियों में विशाल जलाशयों का भी निर्माण कराया था। बड़े तालाबों को सागर कहा जाता था। कुछ स्थानीय लोग, विशाल तालाबों को बनवाने वाले राजा की कीर्ति और उसकी महानता के प्रतीक के रूप में देखते हैं। इन तालाबों का नाम, उनको बनवाने वाले राजाओं के नाम पर रखा जाता था। बुन्देलखण्ड में बने विशाल तालाबों में कीरतसागर, मदनसागर और रहेलियासागर प्रमुख तालाब हैं।
चन्देल राजाओं के बाद जल संचय की परम्परा को आगे बढ़ाने का सिलसिला बुन्देला राजाओं के शासनकाल में भी जारी रहा। ओरछा नरेश महाराजा प्रतापसिंह ने 7086 कुएँ-बावड़ियाँ, 73 नए तालाब बनवाए और 450 चन्देल तालाबों का जीर्णोंद्धार कराया था। इनमें कुछ मिट्टी के तो कुछ चूने से जुड़े पक्के तालाब थे। महाराजा प्रतापसिंह ने सिंचाई सुविधा के लिये स्लूइस बनवाए और खेतों तक नहरों का निर्माण करवाया। तालाब बनवाने का सिलसिला विकसित बसाहटों तक सीमित नहीं था। कहा जाता है कि चन्देल और बुन्देला राजाओं ने टीकमगढ़ जिले के सघन वन क्षेत्रों में जंगली जीवों और जनजातीय लोगों के लिये लगभग 40 तालाब, बनवाए थे। इनमें से अभी भी 24 तालाब अस्तित्व में हैं। इतने सालों तक इन तालाबों का बने रहना बेहतर तकनीकी समझ का जीता-जागता प्रमाण है।
पिछले कुछ सालों में बुन्देलखण्ड के प्राचीन तालाबों के विभिन्न घटकों की भूमिका को ग्रहण लगा है। सबसे अधिक नुकसान तालाबों के कैचमेंटों का हुआ है। लगभग सभी कैचमेंटों में जंगल कटे हैं। उनके चारागाह विलुप्त हुए हैं। उनमें भूमि कटाव बढ़ा है। भूमि कटाव के कारण मुक्त हुई मिट्टी (गाद) पुराने तालाबों में जमा हो रही है। कैचमेंटों की भूमिका पर ग्रहण लगने के कारण तालाबों में गाद जमा होने लगी है। गाद जमा होने के कारण पुराने तालाबों की मूल भूमिका खतरे में पड़ गई है।अनुपम मिश्र कहते हैं कि तालाब निर्माण की परम्परा को समाज और बंजारों ने भी आगे बढ़ाया था। इसी क्रम में लाखा बंजारा द्वारा सागर नहर में बने तालाब का जिक्र मौजूं है। कहा जाता है कि पुराने वक्त में हजारों पशुओं का कारवाँ लेकर बंजारे व्यापार के लिये निकलते थे। वे गन्ने के क्षेत्र से धान के क्षेत्र में गुड़ ले जाते और फिर वहाँ से धान लाकर दूसरे इलाकों में बेचते थे। बंजारों के कारवाँ में सैकड़ों की तादाद में चरवाहे होते थे। बंजारे जहाँ पड़ाव डालते वहाँ पानी का प्रबन्ध होना आवश्यक होता था इसलिये जहाँ वे जाते वहाँ यदि पहले से बना तालाब नहीं होता तो वे वहाँ तालाब बनाना अपना कर्तव्य समझते थे। ऐसे ही किसी लाखा बंजारे ने सागर शहर में विशाल तालाब बनवाया था। यह उदाहरण इंगित करता है कि भारतीय जल विज्ञान तथा तालाबों के निर्माण की कला समाज की धरोहर थी और समाज का हर वर्ग उनके निर्माण के लिये स्वतंत्र था। बुन्देलखण्ड क्षेत्र के लोगों के अनुसार आज भी, हर गाँव में कम-से-कम एक पुराना तालाब जरूर है। आज भले ही पुराने तालाब बदहाली झेल रहे हों या विलुप्त हो गए हों, पर गुजरे वक्त में उन्होंने बखूबी अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह किया था।
मध्य प्रदेश के झील संरक्षण प्राधिकरण द्वारा प्रकाशित लेख एटलस में कुछ प्रमुख तालाबों की सूची, मौजूदा आकार, गाद की स्थिति और पानी की गुणवत्ता के बारे में संक्षिप्त विवरण दिया गया है। उपर्युक्त एटलस के अनुसार दतिया, टीकमगढ़, छतरपुर और पन्ना जिलों में बने कुछ पुराने तालाबों का विवरण निम्नानुसार है-
जिला | तालाब का नाम | प्रकार, वर्तमान क्षेत्रफल, गहराई और समस्या |
दतिया | करनसागर | मिट्टी का बाँध, 20 हेक्टेयर एवं 6 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| सीतासागर | मिट्टी का बाँध, 25 हेक्टेयर एवं 8 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| लाला का ताल | मिट्टी का बाँध, 148 हेक्टेयर एवं 7 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| असनई ताल | मिट्टी का बाँध, 15 हेक्टेयर एवं 6.5 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| नया ताल | मिट्टी का बाँध, 8 हेक्टेयर एवं 5 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| राधासागर | मिट्टी का बाँध, 2 हेक्टेयर एवं 4 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| रामसागर | मिट्टी का बाँध, 5 हेक्टेयर एवं 6 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| लक्ष्मणताल | मिट्टी का बाँध, 3 हेक्टेयर एवं 3.1 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| तरणतारण ताल | मिट्टी का बाँध, 10 हेक्टेयर एवं 8 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
छतरपुर | किशोर सागर | मिट्टी का बाँध, 3.318 हेक्टेयर एवं 10 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| सनतरी तलैया | मेसनरी, 3.602 हेक्टेयर एवं 3 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| परमानन्द तलैया | मिट्टी का बाँध, 0.664 हेक्टेयर एवं 4 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| ग्वालमंगरा या सिद्धेश्वर तालाब | मेसनरी, 3.642 हेक्टेयर एवं 5 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| रावसागर तालाब | मेसनरी, 5.163 हेक्टेयर एवं 6 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| रानी तलैया | मेसनरी, 3.035 हेक्टेयर एवं 5 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| प्रताप सागर | मेसनरी, 14.2 हेक्टेयर एवं 8 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| छुई खदान तलैया | मिट्टी का बाँध, 0.8 हेक्टेयर एवं 2.5 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| नरसिंह तलैया | मिट्टी का बाँध, 0.8 हेक्टेयर एवं 2.5 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| पाथापुर तलैया | मिट्टी का बाँध, 0.607 हेक्टेयर एवं 2 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| भैंसासुर मुक्तिधाम तलैया | मिट्टी का बाँध, 0.8 हेक्टेयर एवं 6 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
पन्ना | बेनीसागर | मिट्टी का बाँध/ मेसनरी बाँध, 7.9 हेक्टेयर एवं 6 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| धर्मसागर | मिट्टी का बाँध, 23.07 हेक्टेयर एवं 6 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| निरपत सागर | मिट्टी का बाँध, 75 हेक्टेयर एवं 5 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| लोकपाल सागर | मिट्टी का बाँध, 25 हेक्टेयर एवं 20 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| दहालन ताल | मिट्टी का बाँध, 7.33 हेक्टेयर एवं 4 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| पथरिया तालाब | मिट्टी का बाँध, 0.82.286 हेक्टेयर एवं 2 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| मिरजा राजा की तलैया | मिट्टी का बाँध, 0.94 हेक्टेयर एवं 2.5 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| राम तलैया | मिट्टी का बाँध, 1.315 हेक्टेयर एवं 2 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| मिसर तलैया | मिट्टी का बाँध, 1.376 हेक्टेयर एवं 2.5 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| मठिया तालाब | मिट्टी का बाँध, 4.043 हेक्टेयर एवं 3 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| सिंगपुर तालाब | मिट्टी का बाँध, 5.706 हेक्टेयर एवं 2.5 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| महाराजा सागर | मिट्टी का बाँध, 4.323 हेक्टेयर एवं 2.5 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
टीकमगढ़ | महेन्द्र सागर | मिट्टी का बाँध, 150-200 हेक्टेयर एवं 12.0 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| रेहिरा तालाब | मिट्टी का बाँध, 83 हेक्टेयर एवं 12.0 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| दीपताल (कारी ग्राम) | मिट्टी का बाँध, 250 हेक्टेयर एवं 8.0 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| बिंदावन सागर | मिट्टी का बाँध, 8.09 हेक्टेयर एवं 3.0 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| सैल सागर | मिट्टी का बाँध, 3.23 हेक्टेयर एवं 0.5 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
| रोरैया ताल | मिट्टी का बाँध, अप्राप्त एवं 0.5 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता |
इस विवरण में तालाब बनाने का उद्देश्य, निर्माण वर्ष, जल उपयोग पर सामन्ती एवं वर्ण व्यवस्था का प्रभाव, निर्माण एवं जल संग्रह में भारतीय जल विज्ञान की भूमिका, धरती का चरित्र और तालाबों के पर्यावरणी योगदान तथा बदहाली के कारण सम्मिलित नहीं है। झील प्राधिकरण द्वारा प्रकाशित एटलस बताता है कि लगभग सभी पुराने तालाबों में गाद का जमाव हुआ है। उनका पानी, पीने योग्य नहीं है।
मध्य प्रदेश के बंदोबस्त विभाग के रिकार्ड के अनुसार टीकमगढ़ जिले में चन्देल राजाओं द्वारा बनवाए तालाबों की संख्या 962 है। अधिकांश पुराने तालाब अब समाप्ति की कगार पर हैं। इनमें से 125 पुराने तालाबों की जमीन (डूब क्षेत्र) पर खेती होती है। उल्लेख के योग्य बचे तालाबों की संख्या 421 से कम है।
पिछले कुछ सालों में बुन्देलखण्ड के प्राचीन तालाबों के विभिन्न घटकों की भूमिका को ग्रहण लगा है। सबसे अधिक नुकसान तालाबों के कैचमेंटों का हुआ है। लगभग सभी कैचमेंटों में जंगल कटे हैं। उनके चारागाह विलुप्त हुए हैं। उनमें भूमि कटाव बढ़ा है। भूमि कटाव के कारण मुक्त हुई मिट्टी (गाद) पुराने तालाबों में जमा हो रही है। कैचमेंटों की भूमिका पर ग्रहण लगने के कारण तालाबों में गाद जमा होने लगी है। गाद जमा होने के कारण पुराने तालाबों की मूल भूमिका खतरे में पड़ गई है। कई तालाब सूख गए हैं। कुछ अपने अस्तित्व के लिये संघर्ष कर रहे हैं तो कुछ इतिहास के पन्नों में खो गए हैं। मध्य प्रदेश के जल संसाधन विभाग ने कुछ पुराने जलाशयों में बदलाव कर सिंचाई प्रारम्भ की है। यह बदलाव आधुनिक मापदंडों के अनुसार हुआ है। इन बदलावों के कारण, जलाशयों का भारतीय जल विज्ञान पक्ष नष्ट हो गया है। इसका असर तालाब के मूल अवदान और उम्र पर पड़ा है।
काशीप्रसाद त्रिपाठी के अनुसार चन्देल काल में तालाबों के आगौर में खेती वर्जित थी। इस वर्जना के कारण गाद जमाव और जल संग्रहण क्षमता कम होने का खतरा बहुत कम था। यही बुन्देलखण्डी वर्जना, तालाब के कैचमेंट की शुद्धता और येागदान को परिभाषित करती है। बुन्देलखण्ड में तालाब के आगौर को चारागाह के रूप में सुरक्षित रखा जाता था। चारागाहों के कारण, भूमि संरक्षित रहती थी और कैचमेंट से न्यूनतम गाद आती थी। तालाब के आसपास और निचले क्षेत्र में खेती की जाती थी। उसके निचले क्षेत्रों की मिट्टी में अधिक समय तक नमी बनी रहती थी। नमी उपलब्धता की लम्बी अवधि के कारण फसल का सही विकास होता था और उसके सूखने का खतरा कम रहता था। यह उदाहरण पानी और नमी की भूमिका को प्रतिपादित करता है। यह भारतीय जल विज्ञान है। यह विज्ञान पारिस्थितिकी गहन समझ के आधार पर येागदान को निर्धारित करता है।
काशीप्रसाद त्रिपाठी कहते हैं कि तालाब में जल भराव की हकीक़त को दर्शाने के लिये स्नानघाट की सीढ़ियों पर संकेतक लगाए जाते थे। इन संकेतकों से लोग परिचित होते थे। उन्हें हथनी, कुड़ी, चरई अथवा चौका के नाम से जाना जाता था। त्रिपाठी कहते हैं कि किन्हीं-किन्हीं तालाबों के बीच में अधिकतम जलस्तर दर्शाने के लिये पत्थर का खम्भा लगाया जाता था। इस खम्भे के शीर्ष पर जल स्तर के पहुँचते ही वेस्टवियर सक्रिय हो जाता था और समाज को तालाब के ओवर फ्लो होने की जानकारी हो जाती थी। यह बाढ़ की चेतावनी देने वाली सामाजिक व्यवस्था थी जिसके मूल में देशज जल विज्ञान था। त्रिपाठी के अनुसार बुन्देलखण्ड का इलाका व्यवसाय की दृष्टि से अविकसित और खेती आधारित इलाका था। बुन्देलखण्ड में राजाओं को करों से बहुत कम आय होती थी। इसके बावजूद, चन्देल राजाओं ने तालाब निर्माण पर अपार धन व्यय किया था। चन्देल राजाओं के राजधर्म पालन करने के कारण, अल्प जल और कम आबादी वाले बुन्देलखण्ड को जीवन मिला। इसने उनकी कीर्ति में चार चाँद लगाए। किंवदन्तियाँ हैं कि चन्देल राजाओं के पास पारस पत्थर था। उन्होंने इस पत्थर की मदद से लोहे को सोने में बदला और प्राप्त धन को तालाबों की पाल पर बने मन्दिरों के आसपास गाड़ दिया। किवदन्तियों के फेर में पड़े बिना कहा जा सकता है कि तालाबों के निर्माण के माध्यम से राजाओं का राजधर्म और जल विज्ञान का मानवीय चेहरा उजागर हुआ।
चन्देल राजाओं की आय का मुख्य साधन कृषि राजस्व था। त्रिपाठी कहते हैं कि अधिसंख्य तालाबों का निर्माण हुआ तो खेती का रकबा बढ़ा। लोग रोज़गार में लग गए। व्यापारी व्यवसाय में, किसान खेती में और मजदूरी बेलदार एवं दक्ष कारीगर तालाब निर्माण और उनकी मरम्मत में लग गए। जल विज्ञान का अवदानी घटक, समज की आजीविका का ज़रिया बना। जब पूरे समाज के हाथ में काम आया तो समाज में सम्पन्नता आई। यही चन्देलों के सुशासन का मूल मंत्र था। यही जल विज्ञान आधारित अर्थ व्यवस्था थी।
चन्देल राजाओं ने अपने शासनकाल में बुन्देलखण्ड के विभिन्न इलाकों में तालाबों (तड़ागों), कुओं, (कूपों) और बावड़ियों (बेरे या वापियों) का निर्माण कराया था। कहा जाता है कि चन्देल राजाओं ने तालाब निर्माण की शुरुआत बेतवा से केन नदी के बीच के सूखा प्रभावित, लम्बे और अविकसित इलाके से की थी। कुओं और बावड़ियों का निर्माण उन्होंने बसाहटों और प्रमुख मार्गों पर कराया था। राजाओं द्वारा बनवाए अधिकांश तालाब नहर विहीन थे यह तथ्य इंगित करता है कि तालाबों के निर्माण का उद्देश्य सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराना नहीं था। चन्देल और बुन्देला राजाओं के वक्त में, बुन्देलखण्ड के मध्य प्रदेश वाले हिस्से में तालाबों, बंधियाओं और बावड़ियों का निर्माण हुआ था। भारतीय एवं विदेशी पुरातत्ववेत्ताओं और इतिहासकारों ने बंधियाओं को छोड़कर तालाबों और बावड़ियों के पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक पक्षों पर काफी शोध किया है। लेकिन शोध पत्रों में तलाबों और बावड़ियों के निर्माण का प्रयोजन, प्रयुक्त तकनीकों, पर्यावरणी पक्ष और धरती से उनके सह-सम्बन्धों का विवरण अनुपलब्ध है। यही बात, किसी हद तक बंधियाओं के बारे में कही जा सकती है। खैर, कारण कुछ भी हों पर एक बात साफ है कि बुन्देलखण्ड के विभिन्न क्षेत्रों की परिस्थितियों से मेल खाती तालाब निर्माण की तकनीकों और बरसात की अनिश्चितता के कुप्रभाव को यथासम्भव कम करने वाली जल प्रणालियों से सम्बल पाती निरापद सूखी खेती के तकनीकी पक्षों को समझने की दिशा में बहुत कम काम हुआ है। इसके अतिरिक्त, भारतीय जल विज्ञान और जल प्रणालियों की प्रासंगिकता को आधुनिक विज्ञान के नजरिए से कभी परखा या समझा ही नहीं गया है। हो सकता है, प्रस्तुत समझ कुछ नए विकल्प पेश करे।
बुन्देलखण्ड में जल विज्ञान के आयाम
अगले पन्नों में बुन्देलखण्ड के प्राकृतिक परिदृश्य, जल एवं नमी संरक्षण, निरापद खेती में पानी की भूमिका, विकल्प चयन और तालाबों के कतिपय तकनीकी पक्षों की चर्चा की गई है। इस चर्चा में स्थानीय किसानों के विचारों के साथ-साथ कुछ अध्ययन निष्कर्ष भी पेश किये गए हैं। वास्तव में, यह चर्चा, बुन्देलखण्ड की जल विज्ञान की समझ और जल प्रणालियों के योगदान की गौरव गाथा है। इस गाथा को राजा महाराजाओं, सम्पन्न लोगों, शिल्पियों और किसानों ने अपने-अपने धर्म और दायित्व का पालन कर, अमलीजामा पहनाया था। इस अध्याय में बुन्देलखण्ड का प्राकृतिक परिदृश्य सम्मिलित किया गया है। अगले पैराग्राफ में उसकी प्रासंगिकता को स्पष्ट किया गया है।
बुन्देलखण्ड में जल संरक्षण
चन्देल राजाओं ने अपने शासनकाल में बुन्देलखण्ड के विभिन्न इलाकों में तालाबों (तड़ागों), कुओं, (कूपों) और बावड़ियों (बेरे या वापियों) का निर्माण कराया था। कहा जाता है कि चन्देल राजाओं ने तालाब निर्माण की शुरुआत बेतवा से केन नदी के बीच के सूखा प्रभावित, लम्बे और अविकसित इलाके से की थी। कुओं और बावड़ियों का निर्माण उन्होंने बसाहटों और प्रमुख मार्गों पर कराया था। राजाओं द्वारा बनवाए अधिकांश तालाब नहर विहीन थे यह तथ्य इंगित करता है कि तालाबों के निर्माण का उद्देश्य सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराना नहीं था। ऐसी स्थिति में यह यक्ष प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि वे कौन सी बन्धनकारी परिस्थितयाँ थीं जिनके कारण, बड़े पैमाने पर तालाब निर्माण की परम्परा की नींव पड़ी। राजाओं और सम्पन्न समाज ने तालाब निर्माण परम्परा को आगे बढ़ाया।
काशीप्रसाद त्रिपाठी के अनुसार, प्रारम्भ में बुन्देलखण्ड का समाज घूमन्तू पशुपालक समाज था। बुन्देलखण्ड में जल विज्ञान के विकास ने जल संरचना निर्माण को सहज बनाया। परिणामस्वरूप घूमन्तू पशुपालक समाज धीरे-धीरे खेती की ओर मुड़ा और खेतीहर समाज बना। यह बदलाव इंगित करता है कि तालाबों में संचित पानी की बूँदों ने सूखी खेती को आसान और आजीविका को सशक्त आधार प्रदान किया। कहा जा सकता है कि सम्भवतः यही वे बन्धनकारी परिस्थितियाँ थीं जिन्होंने धरती और बरसात के चरित्र को ध्यान में रखकर, राजाओं को तालाब बनाने के लिये प्रेरित किया। तालाब निर्माण ने घूमन्तू समाज की अस्थायी बसाहटों को स्थायी बसाहटों में बदला, तालाबों के निर्माण ने आजीविका और सूखी खेती के सम्बन्धों को किसी हद तक आसान किया। निरापद होती सूखी खेती ने घूमन्तू समाज को जीवनयापन का बेहतर जरिया दिया।
अपनी उपयोगिता के चलते कालान्तर में तालाबों में पानी की बूँदों को संचित करने का काम, राजाओं का राजधर्म और सम्पन्न लोगों का सामाजिक दायित्व बन गया। समाज और सामन्तों के सहयोग से हजारों की संख्या में बने तालाब भारतीय जल विज्ञान के कालजयी साक्ष्य हैं।
बुन्देलखण्ड के नहरविहीन प्राचीन तालाबों की हकीक़त इंगित करती है कि राजाओं ने धरती में नमी के स्तर को बनाए रखने के उद्देश्य से तालाबों का निर्माण कराया होगा। इस उद्देश्य को हासिल करने के कारण निश्चय ही आसपास के क्षेत्र में जलवायु सनतुलन, उथला भूजल स्तर, नदियों में सतत जल प्रवाह और खेतों में नमी की अवधि में सुधार हुआ होगा। खेतों में नमी की अवधि के बढ़ने से फ़सलों के विकास और उत्पादकता में सुधार हुआ होगा। इसके अलावा ज़मीन में हरी घास की उपलब्धता बढ़ी होगी। पशुपालन को सहारा मिला होगा। इस मिश्रित व्यवस्था के कारण कृषि कार्य के लिये बैल, खेतों को खाद एवं परिवार के लिये अनाज, घी, दूध की आपूर्ति आसान हुई होगी। अनुमान है कि तालाबों में आजीविका को आधार प्रदान करने वाली मछली पालन, सिंघाड़ा और कमलगट्टा पैदा करने जैसी अनेक गतिविधियों के अवसर उपलब्ध हुए होंगे। यह सही है कि तत्कालीन वर्ण व्यवस्था तथा सामन्ती व्यवस्था ने अपने मानदंडों के अनुसार उपर्युक्त गतिविधियों को संचालित और नियंत्रित किया होगा पर उपर्युक्त प्रयासों से बुन्देलखण्ड के सर्वाधिक अभावग्रस्त इलाके के प्राकृतिक संसाधनों (मुख्यतः पानी, मिट्टी और वनस्पति) का आधार सशक्त हुआ होगा। यह, ग्रामीण अर्थव्यवस्था का स्वावलम्बी प्राचीन मॉडल है जिसकी बुनियाद भारतीय जल विज्ञान और परम्परागत जल प्रणालियों पर टिकी है। इस देशज मॉडल में, स्थानीय संसाधन, एक दूसरे के सहयोग से खेती/पशुपालन की आवश्यकताएँ पूरी करते हैं। गाँव का धन गाँव में रहता है। ग्रामीण खुशहाली स्थायित्व हासिल करती है। यह जल विज्ञान के सार्थक योगदान का प्रतिफल है। यही समावेशी विकास है। चन्देलों और बुन्देलों के उपर्युक्त योगदान के कारण जल संस्कृति पल्लवित हुई। इस संस्कृति के प्रमाण बुन्देलखण्ड के समाज के लोक व्यवहार में दृष्टिगोचर होते हैं।
चन्देल राजाओं के प्रयासों से लगता है कि उन्होंने खेती पर आश्रित समाज की ज़रूरतों को पहचान कर स्थानीय पारिस्थितिकी और धरती के गुणों से तालमेल बिठाते हुए तालाबों का निर्माण कराया था। इन तालाबों के निर्माण की फिलासफी बहुत सरल थी। जैसी स्थानीय परिस्थिति वैसा संरचना चयन और निर्माण। इस फिलासफी के अनुसार जिस स्थान पर निस्तार तालाब के लिये उपयुक्त परिस्थितियाँ उपलब्ध थीं वहाँ निस्तारी तालाब, जहाँ रिसन तालाब के निर्माण की सर्वाधिक उपयुक्त परिस्थितियाँ उपलब्ध थीं वहाँ रिसन तालाब और जहाँ क्वार्ट्ज-रीफ की पहाड़ियाँ मौजूद थीं।आधुनिक अर्थशास्त्रियों और योजनाकारों द्वारा छीजते प्राकृतिक संसाधनों वाले इलाकों में, गरीबी दूर करने के लिये, जल तथा मृदा संरक्षण को कारगर हथियार के रूप में अपनाया जा रहा है। उल्लेख है कि जल तथा मृदा संरक्षण का आधुनिक मॉडल, पाश्चात्य विकल्पों तथा अवधारणा पर आधारित है। उसकी आत्मा विदेशी है। उससे भारतीय जल विज्ञान और जल प्रणालियाँ अनुपस्थित हैं।
चन्देल राजाओं के प्रयासों से लगता है कि उन्होंने खेती पर आश्रित समाज की ज़रूरतों को पहचान कर स्थानीय पारिस्थितिकी और धरती के गुणों से तालमेल बिठाते हुए तालाबों का निर्माण कराया था। इन तालाबों के निर्माण की फिलासफी बहुत सरल थी। जैसी स्थानीय परिस्थिति वैसा संरचना चयन और निर्माण। इस फिलासफी के अनुसार जिस स्थान पर निस्तार तालाब के लिये उपयुक्त परिस्थितियाँ उपलब्ध थीं वहाँ निस्तारी तालाब, जहाँ रिसन तालाब के निर्माण की सर्वाधिक उपयुक्त परिस्थितियाँ उपलब्ध थीं वहाँ रिसन तालाब और जहाँ क्वार्ट्ज-रीफ की पहाड़ियाँ मौजूद थीं, वहाँ प्राकृतिक रूप से मौजूद उपयुक्त स्थल पर जल संग्रह हेतु जलाशय बनाए गए।
कहीं-कहीं ढाल पर तो कहीं छोटी नदियों पर वेस्टवियर वाले एकल या शृंखलाबद्ध बाँध। इस फिलासफी का अक्षरशः पालन करने के कारण संरचना निर्माण में विविधता रही और अभावग्रस्त बुन्देलखण्ड पानीदार बना रहा। क्षेत्र के प्राकृतिक जलचक्र का सनतुलन कायम रहा। बारहमासी तालाबों का निर्माण हुआ। कुओं और बावड़ियों से भरपूर पानी मिला और नदी नाले बारहमासी बने। यह भारतीय जल विज्ञान की विलक्षण समझ का साक्ष्य था। यह पानी की बूँदों का अवदान था। आजीविका जुटाने के लिये सब को सब जगह पानी मिला।
यह पानी का विकेन्द्रीकृत मॉडल है। यह मॉडल हर बसाहट में न्यूनतम पानी उपलब्ध कराता है। कहा जा सकता है कि उपर्युक्त व्यवस्था को लागू करने से बुन्देलखण्ड के अधिकांश इलाके में जल स्वावलम्बन हासिल हुआ। प्रत्येक जल संरचना अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल रही। समाज को आजीविका का आधार मिला। यही पानी की पुरातन समझ है।
बुन्देलखण्ड में निरापद खेती
प्राचीन काल में बुन्देलखण्ड में सूखी खेती की जाती थी। बुन्देलखण्ड की पुरानी सूखी खेती के विकास को समझने के लिये वर्तमान काल की परिस्थितियों को आधार बनाना होगा। माना जा सकता है कि पुराने समय में इस क्षेत्र की खेती को प्रभावित करने वाली प्रमुख परिस्थितियाँ, आज की परिस्थितियों से थोड़ी बेहतर किन्तु सम्भवतः निम्नानुसार रही होंगी-
1. दक्षिणी बुन्देलखण्ड को छोड़कर बाकी इलाके की ज़मीन मुख्यतः उथली, असमतल और अपेक्षाकृत कम उपजाऊ रही होगी।
2. मध्य-बुन्देलखण्ड की राखड़ ज़मीन में अधिक समय तक पानी सहेजने के गुण की कमी रही होगी।
3. बुन्देलखण्ड में मौसम की अनिश्चितताएँ विद्यमान रही होंगी।
4. आज की तुलना में प्रति किसान खेती का रकबा अधिक रहा होगा।
5. प्रति हेक्टेयर कृषि उत्पादन भले ही कम हो पर उसके कारण छोटे किसानों की आजीविका पर जानलेवा संकट नहीं रहा होगा।
टीकमगढ़ जिले के महाराजपुरा ग्राम के 75 वर्षीय किसान रमेश कुमार बताते हैं कि मध्य बुन्देलखण्ड का अधिकांश इलाका ऊँचा-नीचा, कम उपजाऊ और उथली मिट्टी वाला है। खेती को निरापद बनाने के लिये पुराने समय में किसानों ने बरसात के चरित्र और ज़मीन की हकीक़त को समझ कर बंधिया व्यवस्था अपनाई थी। इस व्यवस्था के अन्तर्गत खेत को समतल हिस्सों में बाँटकर लगभग तीन फुट ऊँची बंधिया (मेढ़) डाली जाती थी। बंधिया के कारण खेत पर बरसा पानी खेत में ही रहता था। उसका काफी बड़ा हिस्सा ज़मीन में रिसता था। इस कारण नमी का संरक्षण होता था और खेत की मिट्टी बहने से बच जाती थी।
खेत में जमा अतिरिक्त बरसाती पानी को निकालने के लिये मुखड़ा छोड़ा जाता था। इस मुखड़े का मुँह पत्थर से बन्द रखा जाता था। रमेश कुमार कहते हैं कि बुन्देलखण्ड में पुराने समय में एक फसल लेने का रिवाज था। कुछ लोग, निचले भाग में स्थित खेतों में, जहाँ बरसात में पर्याप्त पानी जमा होता था, धान लगाते थे। धान लगाने वाले किसान, रबी सीजन में फसल नहीं लेते थे। इसी तरह, रबी की फसल लेने वाले किसान, बरसाती फसल नहीं लेता था। लोग यही फसल चक्र अपनाते थे।
रबी में फसल बोने के पहले खेत में जमा पानी बाहर निकाल दिया जाता था। जब खेत का पानी निकल जाता था और बतर आ जाती थी तो नमी के स्तर और खेत की मिट्टी के चरित्र के आधार पर गेहूँ या चने की फसल बोई जाती थी। यह व्यवस्था टीकमगढ़, दतिया एवं छतरपुर जिलों में अपनाई जाती थी। रमेश कुमार कहते हैं कि सोयाबीन आने के बाद से भारतीय जल विज्ञान द्वारा पोषित परम्परागत कृषि प्रणाली गड़बड़ा गई है और किसानों की न्यूनतम सुनिश्चित आय पर अनिश्चितता का साया है।
टीकमगढ़ जिले के बौरी ग्राम के निवासी दुर्गाप्रसाद कहते हैं कि राजा-महाराजाओं ने लगभग सभी पुराने ग्रामों में तालाब बनवाए थे। किसी-किसी गाँव में एक अधिक से तालाब थे। इन तालाबों के कारण गाँव में जल कष्ट नहीं था। दतिया के महेश कुमार मिश्र के शब्दों में यद्यपि दतिया बुन्देलखण्ड की पथरीली धरती पर बसा है उसके चतुर्दिक बने तालाब, बावड़ियाँ और चौपड़े बारहों महीने पानी से लबालब भरे रहते थे। नगर के भीतर स्थित कुओं और कुइयों में पानी रहता था। तालाबों पर मनुष्यों और जानवरों के लिये अलग-अलग घाट होते थे।
बुन्देलखण्ड की परम्परागत खेती का आधार, प्राचीन राजकीय सहयोग और किसानों बरसों के अनुभव का प्रतिफल था। चूँकि किसानों की आजीविका का प्रमुख साधन खेती था इसलिये हर किसान खेती का हानि-लाभ, जिसका सीधा सम्बन्ध नमी/पानी के योगदान से है, को समझता था। यह सही हो सकता है कि उसकी आर्थिक स्थिति और उपलब्ध साधन, प्रयासों की लक्ष्मण रेखा तय करते हों पर सैकड़ों सालों तक खेती करने के कारण, जो नमी/पानी, मिट्टी और बीज की परम्परागत समझ बनी होगी वह किसी भी दृष्टि से उन्नीस नहीं थी।महेश कुमार मिश्र लिखते हैं कि दतिया की यह जल सम्पन्नता भी बुन्देलखण्डी जनमानस की दृष्टि में एक प्रकार की विपन्नता थी। अन्यत्र लोग कहा करते थे कि दतिया में अपनी कन्या को नहीं व्याहना, वरना वे कुएँ से पानी भरते-भरते बूढ़ी हो जाएँगी। मिश्र कहते हैं कि देखते-ही-देखते पचास साल के भीतर यह परिवर्तन हो गया है कि बुन्देलखण्ड के जल सम्पन्न क्षेत्र भी अब बूँद-बूँद जल के लिये तरसने लगे।
ग्रामीण क्षेत्रों में गाये जाने वाले वर्षा गीत, सावन, मल्हार इत्यादि झूठे मालूम पड़ने लगे हैं क्योंकि उनमें जिन लक्षणों का वर्णन है, वे अब वर्षों तक प्रगट नहीं हेाते। वे लिखते हैं कि ग्रामों, बस्तियों और नगरों के आसपास जंगल और डांगें हुआ करती थीं जिनमें बरसाती नदियाँ और नाले बहा करते थे। छेटी-छोटी टोरियों और पहाड़ों में कल-कल की ध्वनि पैदा करते झरने निकलते थे। वे अब सब लुप्तप्राय हो गए हैं।
मधुकर मिश्र कहते हैं कि जब पानी नहीं था तब लोग केवल पशु पालन करते थे और नदियों के तटों को काटकर जमीन समतल कर खेत बना लेते थे। इन खेतों में धान, गन्ना, जौ, चना, मसूर पैदा करते थे। खरीफ में कोदों, कुटकी, लठारा, समां, शाली एवं तिल्ली (तिल) बोते थे। आत्महत्या की सम्भावनाओं से मुक्त, सहज जीवन गुजर-बसर का जरिया था। वह दौर, बीते दिनों की भूली-बिसरी कहानी भर रह गया है।
बुन्देलखण्ड की परम्परागत खेती का आधार, प्राचीन राजकीय सहयोग और किसानों बरसों के अनुभव का प्रतिफल था। चूँकि किसानों की आजीविका का प्रमुख साधन खेती था इसलिये हर किसान खेती का हानि-लाभ, जिसका सीधा सम्बन्ध नमी/पानी के योगदान से है, को समझता था। यह सही हो सकता है कि उसकी आर्थिक स्थिति और उपलब्ध साधन, प्रयासों की लक्ष्मण रेखा तय करते हों पर सैकड़ों सालों तक खेती करने के कारण, जो नमी/पानी, मिट्टी और बीज की परम्परागत समझ बनी होगी वह किसी भी दृष्टि से उन्नीस नहीं थी।
किसान की जद्दोजहद के कारण बरसात के मिजाज और मिट्टी के गुणों से तालमेल बिठाती खेती की ऐसी निरापद पद्धति विकसित हुई जो आजीविका को आधार प्रदान करने की कसौटी पर खरी उतरती थी। इस अनुक्रम में उसने मौसम को समझकर उत्पादन सुनिश्चित करने के लिये नियम तय किये होंगे। कहा जा सकता है कि प्राचीन कृषि पद्धति करके देखो, परिणामों को समझो और फिर कम घाटे वाली निरापद खेती अपनाओ के सिद्धान्त पर आधारित होगी। इसी समझ के आधार पर, उसने जैसी खेत की परिस्थितियाँ वैसी फसल का सिद्धान्त अपनाया। निरापद खेती विकसित करने में सबने अपनी-अपनी भूमिका का निर्वाह किया।
इस क्रम में कहा जा सकता है कि बुन्देलखण्ड के किसानों के लिये मौसम की अनिश्चित्ता, खेतों की भौगोलिक स्थितियाँ, उथली मिट्टी और भूमि का कटाव लाइलाज समस्या नहीं था। जल विज्ञान की समझ और जल प्रणालियों की मदद से उन्होंने इन समस्याओं का हल खोज लिया था। बुन्देलखण्ड के किसानों द्वारा अपनाई परम्परागत कृषि पद्धति के अध्ययन से प्रतीत होता है कि बंधिया बनाना, एक फसल लेना और खेत की स्थिति के अनुरूप फसल का चुनाव करना कुछ ऐसी बातें हैं जो किसानों की पानी से जुड़ी व्यावहारिक विज्ञान आधारित समझ को स्पष्ट करती है।
बुन्देलखण्ड के किसानों ने निरापद खेती के लिये अप्रत्यक्ष जल संरक्षण का तरीका अपनाया था। अप्रत्यक्ष जल संरक्षण से आशय पौधों के जीवन की निरन्तरता के लिये नमी के वांछित स्तर को बनाए रखना तथा मिट्टी के गुणों में सुधार है। तालाब के निचले भागों में खेती करना उसी सोच का परिणाम है। उन्होंने गोबर के खाद का उपयोग कर जमीन की क्वालिटी और नमी संरक्षण की अवधि में सुधार कर बूँदों का सहयोग सुनिश्चित किया था।
बूँदों की संस्कृति में दमोह, नरसिंहपुर और जबलपुर जिले के पश्चिमी भाग की काली मिट्टी वाले क्षेत्र में प्रचलित हवेली (बंधिया) प्रणाली के बारे में उल्लेख है। यह प्रणाली, वर्षाजल की मदद से खरपतवार को नष्ट करने वाली देशज व्यवस्था है। यह व्यवस्था मिट्टी का कटाव रोकती है तथा नमी सहेज कर रबी की फसल का इष्टतम उत्पादन सुनिश्चित करती है। इस व्यवस्था से क्षेत्र का भूजल स्तर सुधरता है तथा नदियों के प्रवाह को सम्बल मिलता है।
काली मिट्टी वाले क्षेत्र में प्रचलित हवेली (बंधिया) प्रणाली के बारे में लेख है कि यह प्रणाली, वर्षाजल की मदद से खरपतवार को नष्ट करने वाली भारतीय व्यवस्था है। यह व्यवस्था, खरपतवार को नष्ट करने के अतिरिक्त, मिट्टी का कटाव रोकती है तथा नमी सहेज कर रबी की फसल का इष्टतम उत्पादन सुनिश्चित करती है।
वर्तमान युग में जलाशयों इत्यादि से नहरों को निकाल कर सिंचाई की जाती है। यह सबसे अधिक प्रचलित तरीका है। यह तरीका फसल की जल आवश्यकता को कृत्रिम तरीके से पूरा करता है। इस तरीके में, पानी की पूर्ति, माँग की तुलना में सामान्यतः अधिक होती है। बहुत सा पानी नष्ट होता है और अल्प समय के लिये सिंचित खेतों में जलमग्नता पनपती है। इस तरीके से खेती करने के लिये रासायनिक खाद, खरपतवार और कीटनाशक दवाएँ, बाजार में उपलब्ध बीज तथा विदेशी मदद की आवश्यकता होती है। रासायनिक खाद, खरपतवार और कीटनाशक दवाओं के कारण मानवीय स्वास्थ्य पर कुप्रभाव पड़ता है, मिट्टी में अवांछित दोष पनपते हैं तथा उसके बंजर होने का खतरा होता है।
प्राचीन काल से भारत के विभिन्न भागों में तालाब निर्माण की परम्परा रही है। ये तालाब जैसलमेर और बाड़मेर के मरुस्थली शुष्क इलाके से लेकर ठंडी जलवायु वाले कश्मीर और कश्मीर से अतिवर्षा वाले इलाकों तक में बनाए गए हैं। मरुस्थली शुष्क इलाकों में तालाबों का निर्माण उथले वाटर-टेबल वाले इलाके में किया गया था। अन्य इलाकों में बिना रिसन वाली ज़मीन पर निस्तारी तालाब और रिसन वाली ज़मीन पर रिसन तालाबों का निर्माण हुआ है। दूसरे शब्दों में, भारतीय जल वैज्ञानिकों ने प्रकृति से सहयोग लेकर निर्माण स्थल की प्राकृतिक परिस्थितियों के अनुरूप निर्माण किये।बुन्देलखण्ड की परम्परागत कृषि व्यवस्था इंगित करती है कि भारतीय जल विज्ञानियों ने पानी का अपव्यय करने वाली नहर प्रणाली के स्थान पर फसलों की जड़ों के आसपास नमी उपलब्ध कराने वाली किफायती विधि अपनाई। उन्होंने मिट्टी में नमी संरक्षण को सुनिश्चित कर, फसलों की पानी की आवश्यकता की पूर्ति की। इसके लिये धरती के ढाल (स्थानीय भूआकृतियों) का सहारा लिया। गोबर का खाद काम में लाकर मिट्टी की जल संधारण क्षमता सुधारी। बेहतर उत्पादन लेने के लिये रासायनिक खेती, बाजार पर उपलब्ध बीज तथा विदेशी मदद नहीं ली। यह विवरण परम्परागत तथा मौजूदा पद्धतियों की परस्पर तुलना का अवसर प्रदान करता है।
पुराने तालाबों का तकनीकी पक्ष
प्राचीन काल से भारत के विभिन्न भागों में तालाब निर्माण की परम्परा रही है। ये तालाब जैसलमेर और बाड़मेर के मरुस्थली शुष्क इलाके से लेकर ठंडी जलवायु वाले कश्मीर और कश्मीर से अतिवर्षा वाले इलाकों तक में बनाए गए हैं। मरुस्थली शुष्क इलाकों में तालाबों का निर्माण उथले वाटर-टेबल वाले इलाके में किया गया था। अन्य इलाकों में बिना रिसन वाली ज़मीन पर निस्तारी तालाब और रिसन वाली ज़मीन पर रिसन तालाबों का निर्माण हुआ है। दूसरे शब्दों में, भारतीय जल वैज्ञानिकों ने प्रकृति से सहयोग लेकर निर्माण स्थल की प्राकृतिक परिस्थितियों के अनुरूप निर्माण किये।
जब तालाबों के निर्माण को राजाश्रय मिला तो भारतीय जल विज्ञान फला-फूला। कुशल शिल्पियों ने टिकाऊ निर्माण किये। हर क्षेत्र और हर परिस्थिति से निपटने के लिये जल प्रणालियाँ विकसित हुईं। चन्देल और बुन्देला राजाओं ने स्थानीय भूगोल और धरती के चरित्र को ध्यान में रख बूँदों की उन विरासतों और प्रणालियों को प्राथमिकता दी जो खेती को सीधे-सीधे लाभ पहुँचाती थीं। उन्होंने महंगे और विशाल तालाबों का निर्माण राजकोष से कराया। उन्होंने, भूजल स्तर को सतह के करीब रखने और नदियों में अधिकतम समय तक जलप्रवाह सुनिश्चित करने के लिये विभिन्न आकार के तालाबों के निर्माण का और राजमार्गों तथा व्यापारिक मार्गों पर पेयजल सुलभ कराने के लिये कुपों और बावड़ियों के निर्माण का विकल्प चुना।
उन्होंने आबादी के पास छोटे तालाब और बसाहट से दूर बड़े तालाबों का निर्माण कराया। कहा जाता है कि समूचे बुन्देलखण्ड में 600 से अधिक बड़े तालाब और 7000 से अधिक छोटे तालाब बनवाए गए थे। इन तालाबों की डूब की ज़मीन का रकबा लगभग 57,700 हेक्टेयर था। बसाहटों में कच्चे कुएँ और पक्के कुएँ (जुड़ाई वाले) बनाए गए थे। अभावग्रस्त बुन्देलखण्ड में तालाबों का बारहमासी चरित्र हकीक़त में स्थानीय स्तर पर विकसित उन्नत जल विज्ञान के व्यावहारिक पक्ष की प्रासंगिकता का साक्ष्य है।
मध्य बुन्देलखण्ड के अधिकांश भाग में ग्रेनाइट और समान भूजलीय गुणों वाली नीस (कायान्तरित चट्टान की किस्म) पाई जाती है। दक्षिण बुन्देलखण्ड में सेंडस्टोन और चूनापत्थर मिलता है। चट्टानों के गुणों को ध्यान में रख चन्देल राजाओं ने तालाब निर्माण के लिये बहुत सहज तकनीक अपनाई। इस तकनीक के अन्तर्गत क्वार्ट्ज-रीफ की पहाड़ियों के बीच बहने वाली छोटी-छोटी नदियों और नालों पर मिट्टी के बाँध बनाकर पानी रोका। उन्होंने यथा सम्भव, खोदकर तालाबों का निर्माण किया। ग़ौरतलब है कि वे तालाब जिनमें संचित जल और खोदकर निकाली मिट्टी के आयतन का अनुपात 1.5 से 4.5 के बीच होता है, बेहतर होते हैं।
लोकोद्यम संस्था, झाँसी के कृष्णा गाँधी और सुनन्दा किर्तने के अनुसार इन बाँधों की नींव की चौड़ाई 60 मीटर या उससे अधिक रखी जाती थी। उनमें नींव की चौड़ाई एवं बाँध की ऊँचाई का अनुपात कम-से-कम 7:1 रखा जाता था। आधुनिक दृष्टि से यह सुरक्षित अनुपात है। चन्देल तालाबों की पाल मिट्टी की होती थी। पाल के दोनों तरफ पत्थरों के ब्लाक लगाए जाते थे। यह डिज़ाइन परमार काल के भीमकुण्ड और भोपाल के बड़े तालाब की पाल की डिज़ाइन से मेल खाती है।
चन्देल तालाबों का आकार यथा सम्भव चन्द्राकार या अर्द्ध-चन्द्राकार होता था। यह वैज्ञानिक तथ्य है कि चन्द्राकार या अर्द्ध-चन्द्राकार तालाबों में अधिक पानी जमा होता है। पानी का वेग कम करने के लिये कहीं-कहीं तालाब के बीच में टापू छोड़े जाते थे। पाल की ऊँचाई और वेस्टवियर की चौड़ाई का अनुपात सुरक्षित रखा जाता था। इस कारण तालाब पूरी तरह सुरक्षित रहता था। कृष्णा गाँधी और सुनन्दा किर्तने का आलेख इंटरनेट पर उपलब्ध है।
मोतीलाल विज्ञान महाविद्यालय भोपाल के पूर्व प्रोफेसर आर.के. श्रीवास्तव ने टीकमगढ़ क्षेत्र का भूवैज्ञानिक अध्ययन किया है। डॉ. श्रीवास्तव के अनुसार टीकमगढ़ जिले में क्वार्ट्ज रीफ की पहाड़ियाँ, जो जिले में मुख्यतः उत्तर पूर्व-दक्षिण पश्चिम दिशा में कई किलोमीटर लम्बी पट्टियों के रूप में पाई जाती हैं, प्राकृतिक और कृत्रिम तालाबों के निर्माण के लिये आदर्श परिस्थितियाँ उपलब्ध कराई हैं। वे, भूमिगत जलप्रवाह को संरक्षित करने के लिये प्राकृतिक अवरोधकों का काम करती हैं। डॉ. श्रीवास्तव के अनुसार, क्वार्ट्ज रीफ की पहाड़ियों की इसी विशेषता का उपयोग कर टीकमगढ़ जिले में अनेक पुराने तालाबों का निर्माण किया गया है।
इस अनुक्रम में वे कहते हैं कि महेन्द्रताल का निर्माण टीकमगढ़ के निकट पाई जाने वाली क्वार्ट्ज रीफ द्वारा उपलब्ध कराई प्राकृतिक साइट पर हुआ है। उनके अनुसार यह भूजल रीचार्ज के लिये आदर्श स्थिति है। उल्लेखनीय है कि सम्पूर्ण बुन्देलखण्ड में इस प्रकार की आदर्श स्थितियों की संख्या हजारों में है। उनका उपयोग कर बड़े पैमाने पर भूजल रीचार्ज गतिविधियों को संचालित किया जा सकता है।
डॉ. श्रीवास्तव का मानना है कि क्वार्ट्ज रीफ द्वारा नियंत्रित तालाबों के प्रभाव क्षेत्र में बेहतर भूजल रीचार्ज होता है, सूखे कुओं के दिन फिरते हैं, नदी-नाले बरहमासी बनते हैं और भूजल स्तर में अपेक्षाकृत कम गिरावट देखी जाती है। चित्र अट्ठारह में सम्पूर्ण बुन्देलखण्ड क्षेत्र में क्वार्ट्ज रीफ के वितरण को दर्शाया गया है। इस चित्र में क्वार्ट्ज रीफ को छोटी-छोटी रेखाओं के रूप में दिखाया गया है।
परमार राजाओं ने दसवीं सदी में भोजपुर में भीमकुण्ड और भोपाल में बड़े तालाब का निर्माण कराया था। इन दोनों तालाबों के वेस्टवियर बनाने में जुदा-जुदा तकनीक का उपयोग किया गया है। भोजपुर के तालाब का वेस्टवियर चट्टान काटकर बनाया है वहीं भोपाल के तालाब में तीन स्थानों से पानी निकाला था। परमार काल में दो स्थानों पर बनने वाले तालाबों के वेस्टवियर की तकनीक का अन्तर उनकी साइट पर उपलब्ध टोपोग्राफी और अपनाए विकल्पों के कारण है।लेखक को यह नक्शा और क्वार्ट्ज रिफ पहाड़ी के चित्र बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाँसी के भूविज्ञान विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. एस.पी. सिंह ने उपलब्ध कराए हैं। इस नक्शे को देखने से पता चलता हैं कि बुन्देलखण्ड क्षेत्र में ग्रेनाईट समूह की कठोर चट्टानों को क्वार्ट्ज रीफों ने उत्तर-पूर्व : दक्षिण पश्चिम की दिशाओं में काटा है। इस क्षेत्र में वे सिंध, धसान, पहुज, बेतवा जैसी नदियों को भी काटती हैं।
लेखक का मानना है कि मौजूद टोपोग्राफी और जल प्रवाह की दिशा का अच्छी तरह अध्ययन कर जल संचय तथा भूजल रीचार्ज के लिये अति उत्तम साइटों का चयन किया जा सकता है। इस आधार पर बनी संरचनाओं का, जल संकट कम करने के सनदर्भ में बहुत महत्त्व है।
पूरे मध्य बुन्देलखण्ड में क्वार्ट्ज रीफों की जल अवरोधक किन्तु कम ऊँची अनेकों पहाड़ियाँ मौजूद हैं। इन जल अवरोधक पहाड़ियों के सामने जल संचय कर विभिन्न आकार के अनेक तालाबों का निर्माण किया जा सकता है। डॉ. श्रीवास्तव के अनुसार, टीकमगढ़ जिले का अधिकांश इलाका पठारों की ऐसी शृंखला के रूप में है जिनके बीच-बीच में छोटी-छोटी नदियों की घाटियाँ मिलती हैं।
इस भौगोलिक वास्तविकता के कारण, यह इलाका भूजल रीचार्ज के लिये आदर्श है। लगता है कि पुराने राजाओं ने बुन्देलखण्ड की इस विशेषता को पहचानकर उपयुक्त स्थानों पर तालाबों का निर्माण कराया था। इसके अलावा, राजाओं ने कुछ तालाबों का निर्माण ग्रेनाइटी चट्टानों में मौजूद भ्रंशों और सनधिस्थलों पर कराया था जो भूजल रीचार्ज के लिये आदर्श स्थिति है। यह भारतीय जल विज्ञान का अविवादित साक्ष्य है।
इंटरनेट पर उपलब्ध गाँधी और किर्तने के आलेख के अनुसार बुन्देलखण्ड इलाके में अनेक चन्देल तालाबों का निर्माण कम ऊँचाई वाली क्वार्ट्ज पहाड़ियों के बीच के इलाके में किया गया है। पहाड़ियों के बीच गिरा सारा पानी सतही जल और भूजल भण्डार के रूप में कैद हो जाता है। लेखक का मानना है कि प्रकृति ने बुन्देलखण्ड को जो उपयुक्त प्राकृतिक स्थल और भूगर्भीय परिस्थितियाँ उपलब्ध कराई हैं उनका अधिकाधिक उपयोग किया जाना चाहिए। इस तथ्य को, आगे विस्तार से स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है।
उपर्युक्त वर्णित भौगोलिक एवं भूवैज्ञानिक परिस्थितियों में बने तालाबों में जमा बरसाती पानी रिसकर जमीन में उतरता था, भूजल भण्डारों का संवर्धन करता था और क्वार्ट्ज-रीफ की खड़ी प्राकृतिक दीवारों के बीच कैद हो जाने के कारण नष्ट नहीं हो पाता था। क्वार्ट्ज-रीफ की खड़ी प्राकृतिक दीवारों के बीच विकसित भूजल भण्डार, खेती और पशुपालन पर मानसून पर निर्भरता कम करते थे। प्रतीत होता है कि चन्देल राजाओं ने सफेद रंग की इन अल्पपारदर्शी क्वार्ट्ज-रीफ के चरित्र और पहाड़ियों से घिरे मैदानी इलाकों के नीचे जमीन के उथले एक्वीफरों की भूजल क्षमता को समझ कर ही, उनके साहचर्य में अधिकांश जल संरचनाओं का निर्माण किया है। स्थानीय घटकों की समझ के आधार पर सम्पन्न जल संरचनाओं से जुड़ा उपर्युक्त विवरण, भारतीय जल विज्ञान के विलक्षण दृष्टिबोध का साक्ष्य है। इससे आधुनिक विज्ञान भी असहमत नहीं हो सकता।
कृष्णा गाँधी और सुनन्दा किर्तने के अनुसार बुन्देलखण्ड के पुराने तालाबों के वेस्टवियर बनाने में चूने का गारा काम में लाया गया है। कुछ इलाकों में परस्पर जुड़े तालाबों की चेन या शृंखला भी बनाई गई हैं। तालाबों की पाल के दोनों तरफ पत्थरों के ब्लाक लगाए गए हैं और पाल को सुरक्षित करने के लिये चूने के गारे से जुड़ाई की गई है। वे कहते हैं कि बड़े तालाब की परिधि लगभग चार किलोमीटर तक होती थी। उनका आकार यथा सम्भव गोलाकार होता था।
गौरतलब है कि परमार राजाओं ने दसवीं सदी में भोजपुर में भीमकुण्ड और भोपाल में बड़े तालाब का निर्माण कराया था। इन दोनों तालाबों के वेस्टवियर बनाने में जुदा-जुदा तकनीक का उपयोग किया गया है। भोजपुर के तालाब का वेस्टवियर चट्टान काटकर बनाया है वहीं भोपाल के तालाब में तीन स्थानों से पानी निकाला था। परमार काल में दो स्थानों पर बनने वाले तालाबों के वेस्टवियर की तकनीक का अन्तर उनकी साइट पर उपलब्ध टोपोग्राफी और अपनाए विकल्पों के कारण है। यह जल विज्ञान की समझ का भी परिचायक है। जल विज्ञान की समझ दूसरा उदाहरण, तालाबों की पाल की पिचिंग में प्रयुक्त तराशे भारी पत्थर तथा कमला पार्क स्थित सुरंग के निर्माण में चूने के गारे का उपयोग है। यह, जहाँ जैसी परिस्थित वहाँ वैसी तकनीक के उपयोग का उदाहरण प्रतीत होता है।
सर्वविदित है कि एक ओर, आधुनिक युग में बने तालाबों और जलाशयों की सबसे गम्भीर समस्या गाद का जमाव है, वहीं भारतीय जल विज्ञान के सिद्धान्तों के आधार पर सैकड़ों साल पहले बने हजारों तालाब लगभग गाद विहीन हैं। पुराने तालाबों में यदि गाद का जमाव हुआ है तो वह पिछले 50-60 सालों की देन है। इसी क्रम में कहा जा सकता है कि कुछ पुराने तालाब, जिनकी डिजाइन में हाल ही में बदलाव किया गया है, उनमें गाद जमाव की समस्या पनपी है।
मानसूनी जलवायु और गाद का चोली-दामन का साथ है। आश्चर्यजनक है कि भारतीय जल विज्ञानियों ने इस हकीक़त को न केवल समझ लिया था वरन् उसका हल भी खोज लिया था। इस कथन की पृष्ठभूमि में पुराने तालाबों में आने वाली गाद एवं तालाब से बाहर निकलने वाले गादयुक्त पानी के गणित को समझना उपयोगी होगा। इस गणित की प्रासंगिकता अद्भुत है। यही गणित तालाबों को दीर्घायु बनाने में सहायक होता है। इस गणित का संकेत अध्याय एक के अन्त में दिया जा चुका है। एक ओर गाद विहीन तालाब, भारतीय जल विज्ञान की श्रेष्ठता के कालजयी साक्ष्य हैं तो दूसरी ओर वे पाश्चात्य जल विज्ञान में दीक्षित इंजीनियरों के लिये अबूझ पहेली से कम नहीं है।
बूँदों की विरसतों की भूमिका की बहाली
बदलता परिदृश्य
बुन्देलखण्ड में नैसर्गिक संसाधनों का परिदृश्य और खेती के नजरिए में बदलाव हो रहा है। बुन्देलखण्ड में पहला बदलाव नैसर्गिक संसाधनों को लेकर है। ज्ञातव्य है कि सन 1950 में बुन्देलखण्ड में लगभग 40 प्रतिशत जंगल थे जो अब घटकर 26 प्रतिशत से भी कम हैं। दूसरा नैसर्गिक बदलाव बरसात को लेकर है। पिछले कुछ सालों से बरसात के चरित्र में असामान्य बदलाव देखा जा रहा है। इस बदलाव के कारण सूखे की अवधि और बाढ़ की फ्रीक्वेन्सी बढ़ रही है। आईआईटी दिल्ली, सेंटर फॉर रूरल डेवलपमेंट एंड टेक्नोलॉजी और विज्ञान शिक्षण केन्द्र उत्तर प्रदेश ने पिछले बीस (सन 1978 से 1998 तक) साल के आँकड़ों का अध्ययन कर अनुमान लगाया है कि 1978, 1980, 1982, 1984, 1986 और 1992 से 1995 के सालों में बाढ़ का प्रकोप और सन 1978 1979, 1980, 1984, 1986, 1990 और 1993 से 1995 में बुन्देलखण्ड के चार जिलों में गम्भीर सूखा देखा गया था।
सन 1995 की गर्मी में बाँदा (उत्तर प्रदेश) में दिन का अधिकतम तापमान 52 डिग्री सेंटीग्रेड पहुँच गया था। ज्ञातव्य है कि मध्य प्रदेश का सर्वाधिक तापमान छतरपुर, नौगाँव और खजुराहो में रिकॉर्ड किया जाता है। मौसम के असामान्य व्यवहार के कारण बुन्देलखण्ड में वर्षा दिवस घट रहे हैं, कम समय में अधिक पानी बरस रहा है और उसकी फसल हितैषी भूमिका घट रही है। किसी-किसी साल ठंड के मौसम में पाला पड़ रहा है। कुछ लोगों को यह बदलाव, जलवायु बदलाव के सम्भावित प्रभाव से घटित होता प्रतीत हो रहा है। उनका मानना है कि आने वाले दिनों में यह प्रवृत्ति और अधिक गम्भीर स्वरूप लेगी।
बुन्देलखण्ड में तीसरा बदलाव खेती के पुराने नज़रिए में है। यह बदलाव सन 1960 के दशक के बाद हरित क्रान्ति के रूप में सामने आया। परिणामस्वरूप उन्नत खेती की अवधारणा लागू हुई और अधिक पानी चाहने वाले उन्नत बीज, रासायनिक खाद, कीटनाशक, ट्रैक्टर, बिजली से चलने वाले सेंट्रीयूगल और समर्सिबल पम्प प्रचलन में आये। सरकार ने उन्नत खेती से जुड़े लगभग हर इनपुट को सब्सिडी और कर्ज के माध्यम से प्रोत्साहित किया। सरकार और वित्तीय संस्थाओं के मिलेजुले प्रयासों से किसान की प्रवृत्ति में बदलाव आया और कर्ज आधारित खेती को प्रोत्साहन मिला।
तीसरे बदलाव के अनुक्रम में लेखक का मानना है कि आधुनिक खेती बाह्य इनपुट आधारित खेती है। वह एक जटिल डायनिमिक सिस्टम की तरह से होती है। उससे लाभ तभी मिलता है जब पूरा सिस्टम बिना व्यवधान के काम करे। अर्थात आधुनिक खेती तभी सफल है जब मौसम साथ दे, पूरे वक्त आदर्श परिस्थितियाँ उपलब्ध हों और सभी बाहरी घटकों का उपयुक्त समय पर पूरा-पूरा सहयोग मिले। प्रसंगवश उल्लेख है कि आधुनिक खेती अपनाने के कारण कतिपय प्रकरणों में छोटी जोत वाले किसानों को प्रति हेक्टेयर अधिक उत्पादन मिला पर यह स्थिति हर साल नहीं रही। कुछ लोगों को लगता है कि छोटे किसानों के लिये परम्परागत खेती का देशज मॉडल ही निरापद है। लगता है कि बुन्देलखण्ड का मौजूदा जल संकट और खेती के क्षेत्र में आ रही दुश्वारियाँ, बूँदों की विरासत के समयसिद्ध नजरिए में आये बदलाव के कारण हैं।
पुराने तालाबों की भूमिका की बहाली - सम्भावनाएँ
झील संरक्षण प्राधिकरण का लेक एटलस इंगित करता है कि बुन्देलखण्ड के प्राचीन तालाब बदहाली के दौर से गुजर रहे हैं। सही मायनों में वे लगभग वेन्टीलेटर पर हैं। नजरिया, हालात एवं परिस्थितियों के बदलने के कारण उनकी वास्तविक भूमिका की बहाली की राह में अन्तहीन कठिनाइयाँ हैं। बुन्देलखण्ड के प्राचीन तालाबों का निर्माण भारतीय जल विज्ञान की फिलासफी के आधार पर हुआ था। चूँकि उस जल विज्ञान को जानने समझने और काम में लाने वाली पीढ़ी लगभग अनुपलब्ध है इसलिये लेखक को लगता है कि पाश्चात्य जल विज्ञान की मदद से बुन्देलखण्ड के प्राचीन तालाबों की मूल भूमिका की बहाली सम्भव नहीं है।
विदित हो कि भूमि उपयोग को छोड़कर बुन्देलखण्ड का भूगोल और भूविज्ञान यथावत है इसलिये उनकी भूमिका की आंशिक बहाली की सम्भावनाएँ मरी नहीं हैं। यह कहना किसी हद तक सही होगा कि चन्देल और बुन्देला काल के तालाबों के वैज्ञानिक पक्ष की प्रासंगिकता आज भी उतनी ही है जितनी पुराने समय में थी।
भारतीय जल विज्ञान की समझ के आधार पर आगे बढ़ने से आंशिक बहाली सम्भव है। अतः जो लोग, भारतीय जल विज्ञान की पुरातन समझ के आधार पर पुराने तालाबों के बारहमासी और गाद मुक्त चरित्र को सुनिश्चित कर सकें, को ही जिम्मेदारी सौंपी जाये।
यह कहना प्रासंगिक है कि आधुनिक युग में जल संरचनाओं के निर्माण के काम में कोताही बिल्कुल नहीं है। पहले की तुलना में कई गुना अधिक धन और अवसर उपलब्ध हैं पर जल संरचनाओं की आत्मा और निर्माणकर्ताओं का दृष्टिबोध विदेशी हो गया है। इसी कारण, जल संचय का काम, अपनी धार, अपना बारहमासी चरित्र तथा समाज से लगाव खो रहा है। यह किताब, बुन्देलखण्ड क्षेत्र के विसराए ज्ञान को आगे लाने, प्राचीन तालाबों और खेती की पुरानी निरापद एवं समयसिद्ध पद्धति के पक्ष में शोध करने और सम्भावित अवसरों तथा साक्ष्यों को खोजने की पुरजोर वकालत करती है।
भारत का परम्परागत जल विज्ञान (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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