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राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), 13 फरवरी 2016
पिछली यूपीए सरकार का यह महत्त्वाकांक्षी विचार था कि गाँवों के खेतिहर मजदूरों के पास रोजगार पहुँचाया जाये। इसके जरिए उनकी माली हालत में सुधार कर उन्हें और गरीब होते जाने से रोकना मकसद था। आय बढ़ाकर उनकी क्रय शक्ति बढ़ाते हुए प्रकारान्तर से ग्रामीण क्षेत्र को भी अर्थव्यवस्था के विकास से जोड़ना था। इसके गुणात्मक परिणाम दिखे भी हैं। गाँवों में मजदूरों का जीवन-स्तर बदला है और उनकी क्रयशक्ति बढ़ी है। ऐसे लाभान्वितों के उदाहरण अनगिनत हैं। वहीं इसका एक दूसरा पक्ष भी है। खेती-किसानी को इसने गहरे प्रभावित किया है। दूसरे इस पर होने वाले परिव्यय का एक बड़ा हिस्सा ‘राजस्व रिसाव’ का शिकार हुआ है। इसलिये यह माँग उठती रही है कि मनरेगा की समीक्षा की जाये और उसमें व्यय किये जाने वाले धन को किसी फूलप्रूफ तरीके से जरूरतमन्दों तक पहुँचाया जाये। यह ठीक है कि इतने बड़े देश में किसी कार्यक्रम को भ्रष्टाचार और धांधली से नहीं बचाया जा सकता। फिर भी अनियमितताएँ अगर नियमित हैं, तो इनको दुरुस्त करने की विधि ढूँढनी चाहिए। इसको इस-उस सरकार के खातों में देखने से बचना चाहिए। मनरेगा के इन्हीं पहलुओं पर प्रस्तुत है-हस्तक्षेप
मनरेगा में यह व्यवस्था अनिवार्यत: की गई है कि इस कार्यक्रम के लिये धन की कमी नहीं होने दी जाएगी। धन की कमी होने के चलते पड़ने वाले विपरीत प्रभावों को बार-बार दस्तावेज में लाया गया है। आज की स्थिति में मनरेगा में किसी भी अस्थायी प्रकार की कमी को नहीं सहा जा सकता। मनरेगा हाल में चार साल से चले आ रहे धन की कमी के दौर से उभरा है। किसी भी सूरत में यह अतार्किक माँग नहीं है। अगर यूपीए दो तथा राजग के बजट प्रावधानों में 2010 के बाद से वास्तविक परिव्यय के साथ-साथ रफ्तार बनाई रखी होती तो समूचा कार्यक्रम खासा प्रभाव छोड़ने में सफल हो जाता। मनरेगा के दस साल पूरा होना वैसे तो खुशियों का मौका होना चाहिए था, पुरसुकून अहसास का मौका होना चाहिए था और होना चाहिए था संकल्पबद्ध होने का। लेकिन मनरेगा की दसवीं वर्षगाँठ के इस मौके पर इस योजना के धन जारी करने तक के लिये संघर्ष करना पड़ रहा है।
कार्य की माँग के अनुरूप धन मुहैया कराने की नाकामी न केवल इस कानून की घोर उल्लंघना है बल्कि यह इसके बुनियादी सिद्धान्त को ही कमतर कर देती है। बुनियादी सिद्धान्त यह कि यह रोजगार की गारंटी देने वाली योजना है।
योजना के दस साल पूरे होने के उपलक्ष्य में पिछले दिनों नई दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित कार्यक्रम में प्रमुख वक्ताओं का ज्यादातर समय कार्यक्रम के लिये उपलब्ध धन की व्याख्या करने में बीता। इसलिये जरूरी जान पड़ता है कि रिकॉर्ड दुरुस्त रखे जाएँ और ऐसे मानक स्थापित किये जाएँ जिनसे धन के प्रवाह-जो इस कार्यक्रम के कारगर साबित होने की सर्वाधिक आवश्यक शर्त है की जाँच-परख और मूल्यांकन किया जा सके।
ऐसे सकारात्मक संकेत थे कि अरुण जेटली अपने बजट भाषण में वादा की गई राशि के बकाया तीन हजार करोड़ रुपए की राशि जारी करने की घोषणा कर सकते हैं। इसके लिये 30 दिसम्बर, 2015 को ग्रामीण विकास मंत्री ने भी पत्र लिखा था। लेकिन यह घोषणा नहीं की गई।
आज स्थिति यह है कि चौदह राज्यों में मनरेगा को नकारात्मक कोष का सामना करना पड़ रहा है। कई अन्य राज्य ऐसे भी हैं, जिनके लिये ग्रामीण विकास मंत्रालय धन की व्यवस्था करने की स्थिति में नहीं है। इसका अर्थ हुआ कि छत्तीसगढ़, आन्ध्र प्रदेश, असम, ओड़िशा, सिक्किम और उत्तर प्रदेश समेत इन चौदह राज्यों में या तो जरूरत के मुताबिक काम नहीं कराए जा सकेंगे या फिर मजदूरी में असामान्य तरीके से विलम्ब होगा-ये दोनों स्थितियाँ इस कानून का बुनियादी रूप से घोर उल्लंघन हैं।
वर्ष 2015-16 के शुरू में बजट भाषण में वित्त मंत्री द्वारा इस कार्यक्रम के लिये धन की कमी न होने देने की घोषणा के बाद से लगातार आस्तियाँ मिल रही थीं। साल के शुरू से ही धन की कमी न होने की उम्मीद बँध गई थी। जेटली ने इस कार्यक्रम के लिये 34 हजार करोड़ रुपए से कुछ ज्यादा की धनराशि का प्रावधान किया था। इसके अलावा, पाँच हजार करोड़ रुपए की धनराशि की अतिरिक्त व्यवस्था करने का वादा भी किया था।
धन का प्रबन्ध होने तथा ग्रामीण विकास मंत्रालय तथा राज्य सरकारों द्वारा माँग पूरा करने के प्रयासों के चलते रोजगार सृजन को गति मिली। ग्रामीण विकास मंत्रालय ने बताया कि इस वित्तीय वर्ष की दूसरी और तीसरी तिमाही में रोजगार सृजन का स्तर बीते पाँच वर्षों की सम्बद्ध तिमाहियों की तुलना में ज्यादा रहा। समय से भुगतान भी बीते वर्ष 27 फीसद की तुलना में इस वर्ष खासा बढ़कर 45 फीसद के स्तर पर जा पहुँचा।
वित्त मंत्री ने फरवरी, 2015 को अपने बजट भाषण में पाँच हजार करोड़ रुपए की अतिरिक्त व्यवस्था करने का वादा किया था और ग्रामीण विकास मंत्रालय के पास धन समाप्त हो जाने के बावजूद उस पाँच हजार करोड़ रुपए में से मात्र दो हजार करोड़ रुपए की धनराशि ही जारी की गई। लेकिन बजट भाषण में जितनी राशि के लिये वादा किया गया था, उसकी बकाया राशि जारी करने की कोई आस्ति नहीं दी गई थी।
राज्य सरकारों की ओर से कामगारों की मौजूदा और आकलित माँग को पूरा करने के लिये अतिरिक्त धन जारी करने के तमाम आग्रह किये गए हैं। सच तो यह है कि तीन हजार करोड़ रुपए की इस अतिरिक्त धनराशि भी मौजूदा माँग पूरा करने के लिये पर्याप्त नहीं होगी और मनरेगा में यह व्यवस्था अनिवार्यत: की गई है कि इस कार्यक्रम के लिये धन की कमी नहीं होने दी जाएगी।
धन की कमी होने के चलते पड़ने वाले विपरीत प्रभावों को बार-बार दस्तावेज में लाया गया है। आज की स्थिति में मनरेगा में किसी भी अस्थायी प्रकार की कमी को नहीं सहा जा सकता। मनरेगा हाल में चार साल से चले आ रहे धन की कमी के दौर से उभरा है।
किसी भी सूरत में यह अतार्किक माँग नहीं है। अगर यूपीए दो तथा राजग के बजट प्रावधानों में 2010 के बाद से वास्तविक परिव्यय के साथ-साथ रफ्तार बनाई रखी होती तो समूचा कार्यक्रम खासा प्रभाव छोड़ने में सफल हो जाता। वर्ष 2010-11 में मनरेगा पर वास्तविक परिव्यय 39,377 करोड़ रुपये था।
सीपीआई-आरएल (कन्ज्यूमर प्राइस इंडेक्स-रूरल लेबर्स) के अनुसार, मुद्रास्फीति की दर 2010-11 में 9.9 फीसद, 2011-12 में 8.3 फीसद, 2012-13 में 10.1 फीसद, 2013-14 में 11.6 फीसद तथा 2014-15 में 6.7 फीसद रही। इस प्रकार, एक के बाद एक वर्ष में मनरेगा पर कुल परिव्यय को 2010-11 के स्तर पर ही बनाए रखा जाये (सीपीआई-आरएल के आधार पर मुद्रास्फीति की धनराशि को ध्यान में रखते हुए) तो 2015-16 में मनरेगा की बजट राशि 61,445 करोड़ रुपए होनी चाहिए थी। जीडीपी का प्रतिशत स्तर बनाए रखने के लिये यह जरूरी था।
मनरेगा का मूल्याँकन
दस साल पहले महात्मा गाँधी नेशनल रूरल इम्पलॉयमेंट गारंटी एक्ट (मनरेगा) ने विकास की नए सिरे देश ही नहीं बल्कि विश्व भर में अनूठी गाथा लिखनी शुरू की थी। इसे संसद के दोनों सदनों ने ध्वनिमत से पारित किया था। उम्मीद जतलाई गई थी कि इसे एक राष्ट्रीय कार्यक्रम के रूप में लागू किया जाएगा जिसमें किसी प्रकार के भेदभाव की कोई जगह नहीं होगी। किसी एक का दूसरे पर हावी होने की स्थिति नहीं होगी।
बीते वर्ष प्रधानमंत्री ने इस कार्यक्रम को लेकर संसद में एक नकारात्मक टिप्पणी की थी कि यह कार्यक्रम नाकामी की एक जीती-जागती मिसाल के रूप में सहेज कर रखा जाएगा। ऐसा करके ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा आयोजित ‘मनरेगा के दस साल का समारोह’ एक सकारात्मक और अधिक समावेशी आयोजन कहा जाएगा।
समय के साथ इस योजना का कार्यान्वयन एक सा नहीं रहा। देश की भौगोलिक स्थितियों ने इस पर प्रभाव डाला। योजना के तहत माँग पर कार्य मुहैया कराने, बेरोजगारी भत्ता देने तथा मजदूरी में विलम्ब की सूरत में हर्जाना दिये जाने जैसी व्यवस्थाएँ आजाद भारत में निश्चित ही कामगारों के लिये उल्लेखनीय कानूनी प्रावधान हैं।
इस कानून में कामगारों के सम्मान को बेहद तरजीह दी गई है। इसलिये कुछ लिहाज से सम्भावनाओं के अनुरूप नतीजे न देने के बावजूद इस कार्यक्रम ने बीते दस सालों में जितनी शानदार उपलब्धियाँ हासिल की हैं, उनके चलते यह कार्यक्रम राष्ट्रीय गर्व का सबब बन चुका है। इसके दस साल पूरे होने पर समारोह का आयोजन तो बनता ही है।
लेखक द्वय सामाजिक कार्यकर्ता हैं।