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आने वाले समय में पानी की कमी देश में बहुत बड़ी आफत पैदा करने वाली है। अब तक इसे सिर्फ एक शहरी समस्या की तरह देखा जाता रहा है और इसका समाधान नहरों, पाइपलाइनों और वॉटर हार्वेस्टिंग के जरिए खोजने के प्रयास किए जाते रहे हैं। लेकिन इसका असली खतरा शहरों पर नहीं, गांवों पर और खास तौर पर खेती पर मंडरा रहा है।
नदियों के पानी की बंदरबांट और सालोंसाल सुप्रीम कोर्ट में चलने वाली मुकदमेबाजी से इस मुश्किल का कोई हल नहीं निकलने वाला। भारतीय खेती में पानी की खपत बढ़ती जा रही है और आने वाले दिनों में यह और तेजी से बढ़ेगी। अंतरराष्ट्रीय जल संकट पर काम कर रही संस्था वॉटर रिसोर्सेज ग्रुप के एक अध्ययन के मुताबिक, 2030 तक देश में पानी की खपत मौजूदा 700 अरब घन मीटर से बढ़कर 1498 घन मीटर, यानी दोगुनी से भी ज्यादा हो जाएगी, और इसके 80 प्रतिशत हिस्से की जरूरत खेती के लिए पड़ेगी। इसी रिपोर्ट में 2030 तक चीन में पानी की मांग मात्र 818 अरब घन मीटर होने की बात कही गई है, हालांकि उसकी आबादी भारत से ज्यादा और क्षेत्रफल यहां का तीन गुना है।
हमारी शहरी जीवन शैली तो पानी की बर्बादी करती ही है, विशेषज्ञों के मुताबिक बहुत ज्यादा पानी बर्बाद करना भारतीय खेती का भी स्वभाव बन गया है। सिंचाई के काम आने वाले पानी का 40 फीसदी तो यहां भाप बन कर उड़ जाता है और फसलों के किसी काम नहीं आता। खेती में पानी की खपत बचाने के लिए सुझाव यह है कि पूरा खेत जोत कर उसमें बीज डालने के बजाय मशीनों के जरिए सिर्फ पौधे के जगह की मिट्टी ही तैयार की जाए। सिंचाई का काम भी ड्रिप मेथड के जरिए किया जाए, जिसमें पानी का इस्तेमाल सिर्फ पौधों की जड़ें सींचने में किया जाता है। अभी हमारी खेती का जो हाल है, उसमें ये उपाय किसानों को चुटकुले जैसे ही जान पड़ेंगे। लेकिन अभी दस-पंद्रह साल पहले तक कौन जानता था कि देश के ज्यादातर इलाकों में भूजल इतनी तेजी से नीचे जाएगा कि ट्यूबवेल सूख जाएंगे और कई जगहों पर उनकी दोबारा बोरिंग कराना भी नामुमकिन होगा।
समस्या का दूसरा पहलू यह है कि देश का एक चौथाई हिस्सा रेगिस्तान बनने की ओर बढ़ रहा है, जिसमें उत्तर प्रदेश, बंगाल, उड़ीसा और महाराष्ट्र के भी कई इलाके हैं। भारतीय उपग्रहों से इस रेगिस्तानीकरण की जानकारी लगातार आ रही है, लेकिन इसे रोकने के लिए अब तक कुछ नहीं किया जा सका है। अपने यहां किसी भी समस्या पर जान लगाकर काम तब तक नहीं किया जाता, जब तक वह जानलेवा नहीं बन जाती। समय रहते इस नजरिए को बदला नहीं गया तो इस आफत से निपटा नहीं जा सकेगा।
नदियों के पानी की बंदरबांट और सालोंसाल सुप्रीम कोर्ट में चलने वाली मुकदमेबाजी से इस मुश्किल का कोई हल नहीं निकलने वाला। भारतीय खेती में पानी की खपत बढ़ती जा रही है और आने वाले दिनों में यह और तेजी से बढ़ेगी। अंतरराष्ट्रीय जल संकट पर काम कर रही संस्था वॉटर रिसोर्सेज ग्रुप के एक अध्ययन के मुताबिक, 2030 तक देश में पानी की खपत मौजूदा 700 अरब घन मीटर से बढ़कर 1498 घन मीटर, यानी दोगुनी से भी ज्यादा हो जाएगी, और इसके 80 प्रतिशत हिस्से की जरूरत खेती के लिए पड़ेगी। इसी रिपोर्ट में 2030 तक चीन में पानी की मांग मात्र 818 अरब घन मीटर होने की बात कही गई है, हालांकि उसकी आबादी भारत से ज्यादा और क्षेत्रफल यहां का तीन गुना है।
हमारी शहरी जीवन शैली तो पानी की बर्बादी करती ही है, विशेषज्ञों के मुताबिक बहुत ज्यादा पानी बर्बाद करना भारतीय खेती का भी स्वभाव बन गया है। सिंचाई के काम आने वाले पानी का 40 फीसदी तो यहां भाप बन कर उड़ जाता है और फसलों के किसी काम नहीं आता। खेती में पानी की खपत बचाने के लिए सुझाव यह है कि पूरा खेत जोत कर उसमें बीज डालने के बजाय मशीनों के जरिए सिर्फ पौधे के जगह की मिट्टी ही तैयार की जाए। सिंचाई का काम भी ड्रिप मेथड के जरिए किया जाए, जिसमें पानी का इस्तेमाल सिर्फ पौधों की जड़ें सींचने में किया जाता है। अभी हमारी खेती का जो हाल है, उसमें ये उपाय किसानों को चुटकुले जैसे ही जान पड़ेंगे। लेकिन अभी दस-पंद्रह साल पहले तक कौन जानता था कि देश के ज्यादातर इलाकों में भूजल इतनी तेजी से नीचे जाएगा कि ट्यूबवेल सूख जाएंगे और कई जगहों पर उनकी दोबारा बोरिंग कराना भी नामुमकिन होगा।
समस्या का दूसरा पहलू यह है कि देश का एक चौथाई हिस्सा रेगिस्तान बनने की ओर बढ़ रहा है, जिसमें उत्तर प्रदेश, बंगाल, उड़ीसा और महाराष्ट्र के भी कई इलाके हैं। भारतीय उपग्रहों से इस रेगिस्तानीकरण की जानकारी लगातार आ रही है, लेकिन इसे रोकने के लिए अब तक कुछ नहीं किया जा सका है। अपने यहां किसी भी समस्या पर जान लगाकर काम तब तक नहीं किया जाता, जब तक वह जानलेवा नहीं बन जाती। समय रहते इस नजरिए को बदला नहीं गया तो इस आफत से निपटा नहीं जा सकेगा।