रिसर्च : बिहार के भूजल में आर्सेनिक का कहर

Submitted by Hindi on Fri, 12/04/2015 - 14:40
Source
राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की, पाँचवीं राष्ट्रीय जल संगोष्ठी, 19-20 नवम्बर, 2015

सारांश


प्रकृति में कुछ तत्व ऐसे पाए जाते हैं जिनका प्रवेश यदि मानव शरीर में किसी भी प्रकार हो जाए तो मनुष्य नाना प्रकार के असाध्य रोगों से ग्रस्त हो जाता है। आर्सेनिक भी इसी श्रेणी में आता है जो भूमंडल में हर जगह उपलब्ध है। पेयजल में इसकी घुलनशील मात्रा जहाँ मानक सीमा की लक्ष्मण रेखा के पार हुई नहीं कि स्वास्थ्य पर उल्टा प्रभाव पड़ने लगता है और मनुष्य कई लाइलाज बिमारियों से ग्रसित हो जाता है। प्रस्तुत आलेख में आर्सेनिक जनित असाध्य शारीरिक व्याधियों के कारण निहित त्रासदियों को उजागर करते हुए विवेचना की गई है।

Abstract
Arsenic occurs naturally in the earth’s crust and is widely distributed in the environment. The presence of arsenic in exceeding limits and its related problems of drinking water prevailing in many parts of the world is well documented. Long-term exposure to arsenic in drinking water can cause cancer in the skin, lungs, bladder and kidney. The symptoms and signs of arsenic poisoning may be reduced through the improvement of drinking water quality. Arsenic free water or decrease in arsenic level in the drinking water source is essential for overall development. This paper therefore, generally highlights the toxic effects of arsenic impact on human health.

 

परिचयः


भूमि एवं जल सीमित संसाधन है। जनसंख्या वृद्धि के कारण इन संसाधनों पर निरन्तर दबाव बढ़ता ही जा रहा है। भूूधरा पर जीवन के निर्माण में जल आधरभूत कारक है। जल के बिना पृथ्वी पर जीव की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। जल ही जीवन है और जल का कोई विकल्प भी नहीं है। यदि मनुष्य, पशु-पक्षी, पेड़ पौधों एवं फसलों को प्यास लगी हो तो पानी चाहिए। किसी की भी प्यास केवल पानी से ही बुझेगी। पानी साफ, स्वच्छ एवं पीने योग्य होना चाहिए। मनुष्य के भौतिकतावादी दृष्टिकोण, विज्ञान और तकनीकी की निरन्तर प्रगति, बढ़ता औद्योगीकरण तथा शहरीकरण, खेतों में पैदावार बढ़ाने के लिये रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग, कीटनाशकों का अनियन्त्रित प्रयोग तथा जनमानस की प्रदूषण के प्रति प्रर्याप्त जानकारी का अभाव इत्यादि के कारण है जिससे आज जल प्रदूषण की समस्या ने अति भयंकर रूप धारण कर लिया है। परिणामस्वरूप आर्सेनिक निहित जल प्रदूषण का प्रकोप सुरसा की मुँह की तरह बढ़ता ही जा रहा है। भूजल में आर्सेनिक प्रदूषण दक्षिण एशिया में भारत एवं बांग्लादेश के एक बड़े भूभाग में विकट समस्या बन चुका है।

आर्सेनिक एक ऐसा अनदेखा दुश्मन है जो पानी में छिपकर मानव शरीर पर आक्रमण कर देता है क्योंकि पानी में आर्सेनिक किस मात्रा में घुला हुआ है इसका पता आँखों से तथा जीभ के स्वाद से लगा पाना असम्भव है। लेकिन जल के बिना भला कोई कब तक रह सकता है और कौन सा पेयजल शुद्ध है और कौन सा आर्सेनिक से प्रदूषित है इसका पता आँखों से देखकर लगा पाना मुश्किल है क्योंकि दोनों ही परिस्थितियों में स्वाद तथा रंग और गंध में कोई अन्तर नहीं आता है। गाँवों में खासकर ग्रामीणों की स्थिति तो पेयजल प्राप्त करने के लिये और भी कष्टदायक है क्योंकि उन्हें अक्सर दूर-दूर तक चलकर पीने का पानी लाना पड़ता है (चित्र 1) और अगर यह पता लग भी जाये कि उसमें आर्सेनिक घुला है तो भी कुछ नहीं कर सकते। आम नागरिक उसे पीने के लिये मजबूर हैं क्योंकि और कोई वैकल्पिक व्यवस्था भी नहीं है। और जल के बिना कोई कब तक रह सकता है, वह विवश है।

विज्ञान, चिकित्सा तथा तकनीकी क्षेत्र में आर्सेनिक की विषाक्तता को लम्बे समय से जाना जाता रहा है। भारत में आर्सेनिक सबसे पहले पश्चिम बंगाल बेसिन क्षेत्र में सन 1978 में रिपोर्ट किया गया तथा वर्ष 1983 में आर्सेनिक के विषैलेपन की जाँच सर्वप्रथम स्कूल ऑफ ट्रॉपीकल मैडीसन (STM) तथा ऑल इंडिया इंस्टीच्यूट ऑफ हाइजिन (AIIH) तथा पब्लिक हेल्थ विभाग (PHD) ने की। यहाँ पर यह देखा गया कि वहाँ के लोग आर्सेनिक जनित डरमॉटोसिस (त्वचा रोग) से प्रभावित है।

चित्र : पेयजल प्राप्त करने के लिए कष्टदायक यात्रा (बहुत कठिन है डगर पनघट की)

 

 

पर्यावरण में आर्सेनिक के स्रोतः


प्राकृतिक पर्यावरण में आर्सेनिक भूमि के अन्दर 5 से 6 मि.ग्रा./लि. तक पाया जाता है। इसकी अधिकतर मात्रा चट्टानों में पायी जाती हैै। मानव जनित कार्यकलापों के कारण आर्सेनिक के स्रोत निम्नलिखित हो सकते हैं।

1. खदानों की सक्रियता से
2. कीटनाशकों के प्रयोग से
3. कोयला के द्वारा
4. उत्पादकों द्वारा कोयला दहन से

पर्यावरण में आर्सेनिक के रिसाव करने वाले उद्योग हैं- शीशा उद्योग, रंजक, एनामल उद्योग, वस्त्र उद्योग, दुर्गंधनाशक रसायन उद्योग, आतिशबाजी बनाने वाली इकाइयाँ एवं औषधि उद्योग। सूचना प्रौद्योगिकी के विभिन्न उपकरणों में बढ़ता गैलियम आर्सेनाइड का उपयोग भी पर्यावरण में आर्सेनिक विषाक्तता का एक प्रमुख कारक है।

पर्यावरण में आर्सेनिक का वहन, जल के माध्यम से होता है। जल ही पर्यावरणीय आर्सेनिक का सबसे बड़ा स्रोत है। अप्रदूषित क्षेत्र में सतही जल की आर्सेनिक मात्रा परिस्थिति अनुसार बदलती है पर लाक्षणिक आँकड़े यह बताते हैं कि सतही जल में प्रति लीटर या उससे कम जल मात्रा में कुछ माइक्रोग्राम आर्सेनिक हो सकता है। समुद्र जल में आर्सेनिक साधारणतः 0.001-0.008 मि.ग्राम/लीटर मात्रा में पाया जाता है। परन्तु भूजल में आर्सेनिक देश में जल प्रदूषण की एक अलग और खतरनाक तस्वीर पेश कर रहा है। देश की राजधानी दिल्ली सहित पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, राजस्थान सहित देश के कुछ और प्रदेशों की भूजल सम्पदा पर आर्सेनिक अपनी पैठ बना चूका है। भारत में पश्चिम बंगाल के दस जिलों में भूजल आर्सेनिक की मात्रा डब्लू.एच.ओ. के अनुज्ञेय सीमा (0.01 मि.ग्राम/लीटर) (10 पी.पी.बी.) से ज्यादा पायी गई है। उत्तर प्रदेश में यूनिसेफ की 2003-04 और 2009-10 की दो रिपोर्टों के आधार पर जानकारी आई है कि उत्तर प्रदेश के 20 जिले आर्सेनिक से प्रभावित हैं और 31 जिले ऐसे हैं जहाँ पर आर्सेनिक की सम्भावना व्यक्त की गई है।

मनुष्य में पर्यावरणीय आर्सेनिक मुख्यतया जल तथा भोजन के माध्यम से पाचन नली में तथा दूषित वायु से श्वसन द्वारा फेफड़ों तक पहुँचता है। त्रिसंयोजी आर्सेनिक (AS-III) के घुलनशील यौगिकों का लगभग 95 प्रतिशत अंश मानव शरीर की पाचन नली में भोजन द्वारा अवशोषित होकर पहुँचता है। इसके पश्चात यह मनुष्य के रक्त में मिलता है जहाँ यह रक्त कणों में उपस्थित हीमोग्लोबीन से जुड़कर शरीर के विभिन्न अंगों तक पहुँचता है। हमारे शरीर में आर्सेनिक मुख्यतः नाखून, बाल, त्वचा एवं फेफड़ों में संचयित होता है। स्वास्थ्य संगठनों के अनुसार पेयजल में आर्सेनिक की अनुमेय परास 0.01 मि.ग्रा./लीटर है। इससे अधिक मात्रा में होने पर यह कई विकार जैसे-गला बंद हो जाना, त्वचा कैंसर, पाचन क्रिया में अवरोध, पैरों में मरोड़, वमन, हाथों व पैरों में चकते आदि उत्पन्न करता है। इसकी विषाक्तता की समस्या यह है कि प्रारम्भ में रोगी का सामान्यतया उपचार अन्य रोग समझकर कर लेने से समस्या विभीषिका के रूप में परिवर्तित हो जाती है।

आर्सेनिक की समस्या अर्जेन्टिना, भारत (पश्चिम बंगाल एवं अन्य क्षेत्र) थाईलैंड, मैक्सिको, संयुक्त राष्ट्र, चीन (आन्तरिक मंगोलिया), अमेरिका और बांग्लादेश जैसे देशों में पायी गई है (चित्र 2)।

विश्व मानचित्र में आर्सेनिक समस्या से प्रभावित देशों की उपस्थिति

आर्सेनिक का मानव शरीर पर दुष्प्रभावः


आर्सेनिक पदार्थ का विषैलापन रासायनिक और भौतिकी पदार्थों के रूप पर, शरीर में प्रवेश करने के मार्ग, ग्रहण करने की मात्रा और कालसीमा पर, खान-पान में होने वाले मूल पदार्थ तथा ग्रहण करने वालों की उम्र और लिंग भेद पर निर्भर करता है। देश के कई भागों के भूजल में आर्सेनिक की मात्रा ज्यादा पाई गई है जिसके कारण लोगों को चर्म कैंसर, किडनी का फेल होना, गॉल ब्लेडर का कैंसर, समय से पहले ही वृद्धावस्था के लक्षण आदि देखने को मिल रहे हैं। आर्सेनिक की दीर्घकालिक विषैलता का परिणाम त्वचा, स्नायुमंडल, यकृृत, नाड़ी और श्वसन नलिका पर दिखाई देता है। मानव शरीर में अजैविक आर्सेनिक का साँस लेने की क्रिया से और खाने की चीजों से अंतःग्रहण होता है। साँस लेने की क्रिया से ऐसा कभी-कभी या फिर सिगरेट पीने के दौरान होता हैै। तम्बाकू में आर्सेनिक की मात्रा के हिसाब से हमेशा सिगरेट (Chain Smoker) का उपयोग करने वाला आदमी करीब कुछ माइक्रोग्राम से 20µg तक आर्सेनिक रोज साँस द्वारा लेता है। अन्य पदार्थों में ज्यादातर जैविक आर्सेनिक पाया जाता है और उसकी मात्रा करीब 1.0 मि.ग्राम/कि.ग्राम होती है। जलचर प्राणी, मछली में करीब 5.0 मि.ग्रा./कि.ग्रा. तक आर्सेनिक हो सकता है। पेयजल में साधारण तौर पर प्रति लीटर कुछ माइक्रोग्राम ही आर्सेनिक होता है। यह मात्रा अनुज्ञेय सीमा (10 माइक्रोग्राम/लीटर) से ज्यादा बढ़ने पर गम्भीर स्वास्थ्य परिणाम दिखाई देने लगते हैं। समस्या वहाँ पर अधिक है जहाँ आर्सेनिक की घुलनता भूगर्भ के उद्गम से होती है।

बहुत सारे त्वचारोग के लक्षण ज्यादातर अजैविक आर्सेनिक पदार्थों के दीर्घकालीन सेवन से या उसके सम्पर्क में आने से दिखाई देते हैं। पेयजल माध्यम से दीर्घकालिक अजैविक आर्सेनिक पदार्थों के अंतःग्रहण से हथेली और तलवों पर एक विशिष्ट सिमेट्रीक हायपरकिरॉटोसिस रोग हो जाता है। दीर्घस्थायी आर्सेनिक के सम्पर्क में रहने से लीवर सीरॉसिस होता है। आर्सेनिक ऑक्साइड के दीर्घकालिक सम्पर्क में रहने से फेफड़ों का कैंसर भी पाया गया है। सतत आर्सेनिक प्रदूषित पानी पीने से मधुमेह और गॉईटर जैसी बीमारियाँ भी होती हैं। आर्सेनिक की वजह से त्वचा, यकृृत, फेफड़ों, यूरिनरी ब्लॅाडर, प्रोस्टेट और हीमोपॉट्रीक और लिम्फॉटीक कोशिकाओं का कैंसर भी हो सकता है। आर्सेनिक की चपेट में आकर मनुष्य असमय ही वृद्ध होने लगता है और चलने फिरने से लाचार हो जाता है। यहाँ तक कि कैंसर का भी शिकार हो जाता है। चरम सीमा में तो वह खाने के लिये भी दूसरे के हाथों का मोहताज हो जाता है। चेहरे की प्राकृतिक चमक तथा सुंदरता भी नष्ट हो जाती है (चित्र 3)।

आर्सेनिक प्रभाव का मानव शरीर पर हद्यविदारक तथा भयावह रुपआर्सेनिक के कार्सिनोजेनिक होने की वजह से कम से कम मात्रा या फिर नगण्य/शून्य मात्रा में उसका सम्पर्क होना चाहिए। आर्सेनिक की विषैलता, उसका मानवीय शरीर पर होने वाले दुष्प्रभाव उसकी उपलब्धता, मनुष्य के शरीर के साथ उसका सम्पर्क और प्रौद्योगिकी चिकित्सा की कीमत, इन सबको ध्यान में रखते हुए कुछ नियंत्रक संस्थाओं ने आर्सेनिक की पीने के पानी में अनुज्ञेय सीमा स्तर पर पुनः निरीक्षण किया है। तालिका क्रमांक 1 में विविध संस्थाओं ने आर्सेनिक की तय की गयी अनुज्ञेय मात्रा दी गयी है।

विविध संस्थानों और देशों द्वारा आर्सेनिक की तय की गयी अनुज्ञेय मात्रा

बिहार में आर्सेनिक की स्थितिः


बिहार में 2002 में जादवपुर विश्वविद्यालय (जेयू) द्वारा गंगा किनारे स्थित भोजपुर और बक्सर जिलों के 237 गाँवों का अध्ययन किया गया। जाँच में 237 गाँवों में से 202 गाँव आर्सेनिक के चपेट में पाये गए। पानी के जाँचे गए 9596 नमूनों में आर्सेनिक की मात्रा स्वीकृत सीमा से अधिक थी।

2003-04 में यूनीसेफ ने बिहार के पश्चिम चम्पारन, पूर्वी चम्पारन, सीतामढ़ी, मधुबनी, सुपौल, अररिया, किशनगंज, पूर्णिया और कटिहार जिलों का अध्ययन किया (चित्र 4 तथा तालिका 2)। यहाँ के जाँचे गए 3152 नमूनों में से 4.9 प्रतिशत में आर्सेनिक की मात्रा अनुज्ञेय सीमा 10 पीपीबी से ज्यादा पाई गई।

हालिया महावीर कैंसर शोध संस्थान, पटना द्वारा बिहार के विभिन्न जिलों में 322 स्थानों के पानी के नमूनों एवं 120 लोगों के खून के नमूनों की जाँच की गई जिसमें आर्सेनिक की मात्रा तय सीमा से बहुत ही ज्यादा मिली जो मानव शरीर को विभिन्न तरीकों से अत्यधिक नुकसान पहुँचा रहा है।

तालिका 2 और चित्र 4 बिहार के भूजल में आर्सेनिक की अधिकता वाले जिलेबिहार के कई जिलों के भूजल में आर्सेनिक की मात्रा तय सीमा से अत्यधिक पाई गई है और विभिन्न संस्थानों द्वारा किये गये शोधों के परिणाम चौंकाने वाले हैं (चित्र 4 तथा तालिका 2)। सबसे ज्यादा प्रभावित जिले भोजपुर और बक्सर हैं। भोजपुर के ओझा पट्टी में तो आर्सेनिक की अधिकता के कारण गाँव के गाँव इसके दुष्परिणामों को झेलने पर मजबूर हो गये हैं और देखा गया है कि कैंसर के रोगियों की संख्या यहाँ सबसे अधिक है। यहाँ तक कि नवजात बच्चे भी अपंगता का शिकार हो जा रहे हैं और उनका क्रमिक विकास ठीक से नहीं हो पा रहा है। महिलाओं में भी स्तन एवं गर्भाशय के कैंसरों के लक्षण पाये जा रहे हैं। वहीं बक्सर के सिमरिया गाँव और तिलकराज के हाता सहित कई गाँवों के भूजल में आर्सेनिक की दृष्टमय मात्रा भारतीय मानक सीमा की लक्ष्मण रेखा को पार कर बहुमुल्य मानव जीवन का हरण करने से नहीं चूक रही है।

बिहार के भूजल में आर्सेनिक की मात्रा, बढ़ने के कारण यहाँ का पानी दिन-प्रतिदिन जहरीला होता जा रहा है। बिहार की राजधानी पटना के दानापुर व फुलवारी शरीफ क्षेत्रों के भूगर्भीय जलों में आर्सेनिक की अधिकता ने शोधकर्ताओं को भी घबराहट वाली सोच पर मजबूर कर दिया है। आर्सेनिक की अधिकता से प्रभावित भूजल के दैनिक प्रयोग (पेयजल के रूप में) से न केवल कैंसर अपितु बच्चों, युवाओं समेत सभी के अपंग, मंदबुद्धि, चर्मरोग समेत अंगों के असाध्य रोगों के होने का खतरा भी बढ़ता ही जा रहा है। आर्सेनिक के कारण मानव शरीर के जो अंग सबसे ज्यादा प्रभावित होते है वे हैं- लीवर, रक्तधमनियाँ, आंत तथा गर्भाशय। आर्सेनिक प्रभावित क्षेत्रों में मानव शरीर के इन्हीं अंगों में कैंसर के लक्षण सबसे ज्यादा पाये गये हैं। प्रभावित क्षेत्रों में आर्सेनिक का दुष्प्रभाव गर्भस्थ बच्चों पर भी देखने को मिल रहा है जिसके कारण नवजात शिशु अपंग पैदा हो रहे हैं तथा उनका प्राकृतिक (शारीरिक तथा मानसिक) विकास ठीक से नहीं हो पा रहा है। इसके साथ शरीर की त्वचा की कुरूपता के कारण नैसर्गिक सुंदरता नष्ट हो रही है।

हाल के शोध परिणामों से यह पता चला है कि बिहार की राजधानी पटना के दानापुर क्षेत्र में गंगा के किनारे बसे गाँवों और फुलवारी शरीफ में जानीपुर गाँव के मुर्गियाचक के भूजल में आर्सेनिक की मात्रा ने भारतीय मानक संस्था की तय सीमा को लांघ लिया है। गंगा के किनारे अवस्थित दानापुर के शहरी इलाकों के भूजल में आर्सेनिक की अधिकता इस बात का संकेत है कि अगर समय रहते हम सचेत नहीं हुए और प्रभावी कदम नहीं उठाये गये तो राजधानी के भूजल का पानी जहर बन जायेगा क्योंकि राजधानी पटना का शहरी विस्तार जनसंख्या दबाव के कारण इन्हीं क्षेत्रों में होने जा रहा है और राज्य सरकार की विभिन्न विकास योजनायें भी इन्हीं क्षेत्रों में केन्द्रित होने जा रही है।

 

उपसंहारः


पृथ्वी पर मानव जीवन को बनाये रखने के लिये आवश्यक प्राकृतिक संसाधनों में स्वच्छ जल सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। आर्थिक उन्नति, सामाजिक विकास एवं पर्यावरण के संरक्षण के लिये, जल एक अति महत्त्वपूर्ण संसाधन है। विश्व की 20 प्रतिशत जनता को स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं है। पृथ्वी पर उपलब्ध जल का केवल 3 प्रतिशत ही पीने योग्य है। मनुष्य की कुल जल आवश्यकता की लगभग 80 प्रतिशत पूर्ति भूजल से होती है। बीसवीं शताब्दी के दौरान स्वच्छ जल संसाधनों पर पड़ने वाले भार में आकस्मिक वृद्धि हुई है। स्थिति की गम्भीरता को देखते हुये यह अति आवश्यक हो जाता है कि आर्सेनिक की उपस्थिति का भूजल में गहन अध्ययन किया जाये तथा इससे उत्पन्न दुष्प्रभावों के समाधान के लिये उपयुक्त उपाय तलाशे जायें। आर्सेेेनिक जनित गम्भीर स्वास्थ्य समस्याओं का कोई सस्ता इलाज तथा सर्वसुलभ दवाई उपलब्ध नहीं है। सावधानियाँ बरतना ही एकमात्र उपाय है और इसे जितनी जल्दी हो सके अपनाना चाहिए ताकि और नुकसान न होने पाये।

पानी की जरूरत आम आदमी को आर्सेनिक का जहर पीने से रोक नहीं पा रही है। रोटी, कपड़ा और मकान की तरह पेयजल आम आदमी की रोजमर्रा की सबसे अहम जरूरत है। ऐसे में जबकि प्रदेश भर में भूजल स्तर तेजी से नीचे जा रहा है, पानी का संकट होना लाजमी है। पीने के साफ पानी का कोई विकल्प नहीं होने से आर्सेनिक युक्त पानी पेयजल के रूप में इस्तेमाल करने की मजबूरी है।

अगर समय रहते बिहार के भूजल में आर्सेनिक की रोकथाम के प्रभावी उपाय नहीं किए गए तो प्रदेश की अधिकांश आबादी असमय तमाम जानलेवा तथा असाध्य बीमारियों का शिकार हो जायेगी।

 

आभारः


इस प्रपत्र को हिन्दी भाषा में लिखने तथा भेजने की अनुमति प्रदान करने के लिये लेखक श्री आर. डी. सिंह, निदेशक, राष्ट्रीय जल संस्थान, रुड़की का अत्यन्त अभारी हूँ।

 

 

सन्दर्भः


1. ए.पी.एच.ए. (1996) स्टैंडर्ड मैथड्स ऑफ एनालाइसिस ऑफ वाटर एण्ड वेस्ट वाटर.
2. बी.आई.एस. (1991) इण्डियन स्टैंडर्ड स्पेसीफिकेशन ऑफ ड्रिंकिंग वाटर, बी.एस.10500:2012.
3. चढ्ढा डी.के. एण्ड सिन्हा रे.एस.पी. (1999) हाई इन्सीडेन्स ऑफ आर्सेनिक इन ग्राउन्ड वाटर इन वेस्ट बंगाल.
4. सी.जी.डब्लू.बी. रिपोर्ट (2002) आर्सेनिक हैजार्डस इन ग्राउन्ड वाटर इन बंगाल बेसिन (वेस्ट बंगाल इण्डिया एण्ड बांगलादेश)

राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, बाढ़ प्रबन्धन अध्ययन केन्द्र वाल्मी परिसर, फुलवारी शरीफ, पटना- 801505 बिहार, ईमेलः srk9266@gmail.com