रिसर्च : पूर्वी तटीय क्षेत्रों में उपस्थित नदी-डेल्टाओं का महत्व तथा दवलेश्वरम बैराज के वार्षिक प्रवाह का विश्लेषण

Submitted by Hindi on Sun, 11/29/2015 - 15:35
Source
राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की, पाँचवी राष्ट्रीय जल संगोष्ठी, 19-20 नवम्बर, 2015

सारांश


प्रस्तुत लेख में पूर्वी तटीय डेल्टा तथा तटीय क्षेत्रों के महत्व दर्शाये गये हैं। भारत के पुर्वी तट पर मृदा प्रकार, जलवायु तथा डेल्टा की संरचना संक्षेप में दर्शाये गये हैं। गोदावरी नदी के दवलेश्वरम बैराज पर वार्षिक प्रवाह का विश्लेषण किया गया है तथा पाया गया कि 4 से 16 प्रतिशत नदी के पानी का उपयोग किया गया तथा शेष पानी समुद्र में बह गया। गोदावरी नदी पर दवलेश्वरम बैराज के उपर प्रस्तावित पोलावरम परियोजना के मुख्य लाभ भी दर्शाये गये हैं। तटीय क्षेत्रों के लिये वर्तमान तथा भविष्य की चुनौतियाँ संक्षेप में दर्शायी गयी हैं तथा शोध के मुख्य क्षेत्र सीमित स्वच्छ जल के स्रोतों की अविरत उपयोगिता के लिये पहचाने गये हैं।

Abstract
In the present paper the importance of the river deltas situated in east coastal areas are highlighted. The soil type, climate and formation of river deltas situated along the east coast of India are reviewed. Godavari river annual flows at Dowlaiswaram barrage were analyzed and found that only 4 to 16% of the river water being utilized and rest of the water is allowed to flow into the sea. The salient benefits of proposed Polavaram project on Godavari River above Dowlaiswaram barrage are also highlighted. The present and future threats for coastal areas are reviewed and the thrust areas of research and for sustainable utility of limited fresh water potentials have been identified.

प्रस्तावना


जीवन-यापन के लिये पानी के महत्व को नकारा नहीं जा सकता है तथा ताजा पानी के स्रोतों की पहचान व बचाव जोकि जलविज्ञानीय चक्र के एक भाग हैं तथा इसके उचित आकलन तथा प्रबन्धन के लिये ध्यान आकर्षित करते हैं न कि केवल हमारी वर्तमान की जरूरतों को पूरा करने के लिये अपितु आने वाली पीढ़ियों के लिये भी। भारत का 7500 कि.मी. लम्बा तट जल द्वीप समूह सहित है तथा 30 प्रतिशत से अधिक आबादी तटों पर अधिकतर शहरी क्षेत्रों मे रहती है। पिछले दो से तीन दशकों के दौरान भारतीय तटो में शहरीकरण तथा औद्योगिकरण में कई गुना वृद्धि हुई है। इस कारण तटीय जल संसाधनों की मात्रा तथा गुणवत्ता पर बहुत ज्यादा असर पड़ा है। तटीय पानी केवल समुद्री जल अतिक्रमण के कारण अशुद्ध नहीं हुआ है बल्कि मलजल तथा औद्योगिक जल के समुद्री जलदायी स्तर तन्त्र में रिसाव के कारण भी होता है जोकि एक चुनौती बन गया है।

जागरूकता तथा क्षेत्रीय जलविज्ञानीय चक्र की जानकारी की इन कमियों के होते हुए, सम्भव उपाय इस समस्या को चुनौती-पूर्ण बना सकते हैं। इन समस्याओं को सम्बोधित करने के लिये स्टेकहोल्डर जैसे क्षेत्रीय कर्मी, प्रबंधको, नीति निर्माताओं तथा अशासकीय संस्थाओं की भागीदारी को उचित महत्व दिया जाना चाहिए। इन बातों को ध्यान में रखते हुये नदियों के डेल्टा तथा तटीय क्षेत्रों को सुरक्षित रखने की आवश्यकता उच्च प्राथमिकता पर है। इसलिए इन क्षेत्रों के जल संसाधनो की गतिशील तथा स्थिर अवस्थाओं को समझना आवश्यक है जिससे तटीय क्षेत्रों मे जल संसाधनों के उचित विकास की प्रणाली उचित अन्तराविषयक वैज्ञानिक उपयोगों द्वारा की जा सके। चक्रवात, सुनामी तथा भारी मॉनसून वर्षा तटीय जलदायी स्तरों में और अधिक समस्या पैदा करते हैं। इस प्रपत्र में नदी-डेल्टाओं तथा तटीय क्षेत्रों विशेषतः भारत के पूर्वी तट के महत्व पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है।

डेल्टा का जलविज्ञान : एक संक्षिप्त जानकारी


डेल्टा का जलविज्ञान पानी का विज्ञान है जिसमें उन विधियों का अध्ययन किया जाता है जिसके द्वारा नदियों के डेल्टा बनते हैं। अन्य विषय जोकि जलविज्ञानीय अध्ययन में आते हैं - निक्षेप में अन्तरालीय जल का भू-रसायन, जल-अवसाद सम्बन्ध का भू-भौतिकी तथा जलदायी स्तर तन्त्र का हाइड्रोडायनामिक्स (जोन्स, 1969)। डेल्टा नदी के मुँह या ज्वार इनलेट पर अवसाद का निक्षेप है। विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी विषय पर बने मैग्रा हिल एनसाइक्लोपिडिया के अनुसार ▲ - जोकि ग्रीक अक्षर है पहली बार नील नदी के तिकौने डेल्टा के लिये हरोडोट्स द्वारा 5वीं शताब्दी बी.सी. में प्रयोग किया। आज तक 150 बड़े डेल्टा बन चुके हैं। सभी बड़ी नदियाँ डेल्टा रखती है। यह पिछले हिमनद काल के बाद समुद्री जल स्तर में वृद्धि का परिणाम है जिसने संसार के कई भागों में गहरी खाड़ी पैदा की है जोकि अभी तक भरी नहीं है (उदाहरण के लिये - एमेजन एस्चुअरी)। पूर्वी तटीय डेल्टाई क्षेत्रों की विस्तृत जानकारी वैदयानाद्यन (1991) द्वारा ‘‘क्चाटरनरी डेल्टास ऑफ इंडिया’’ नामक पुस्तक में दी गयी है।

संरचना तथा विकास


डेल्टा की आकृति तथा आन्तरिक बनावट दो बलों की प्रकृति तथा इन्टरएक्शन पर निर्भर करती है: नदी की धारा जिसमें अवसाद आ रहा हो, ज्वार इनलेट या सबमैराइन केनन तथा जलाशय की धारा तथा तरंग-कार्य जिसमें डेल्टा बनता है। इन बलों के इन्टरएक्शन से अवसाद ले जाने वाली सरिता सम्पूर्ण प्रभुत्व से डेल्टा बना सकती है या धारायों तथा तरंगो के सम्पूर्ण प्रभुत्व से अवसाद को चौड़े क्षेत्र में पुनः बाँट सकती है तथा इस दशा में कोई डेल्टा नहीं बनता है। यह इन्टरएक्शन डेल्टा की आकृति, बनावट तथा उत्तरजीविता के विषय में भूमिका निभाता है। जलविज्ञानीय प्रक्रियायें तथा डेल्टा फ्रंट के बनने में उनके कार्य स्क्रिपटीनाव (1969) द्वारा प्रस्तुत किए गए हैं।

भारत के पूर्वी तट की जलवायु


भारत के पूर्वी तट में गर्म उष्ण-कटिबंधीय जलवायु, तापमान की अल्पसीमा, अधिक आर्द्रता तथा मध्यम वार्षिक वर्षा होती है। उड़ीसा से कृष्णा डेल्टा तक समुद्री तट पर उष्ण कटिबंधी जलवायु होती है, कृष्णा डेल्टा से दक्षिण की ओर आर्द्र एंव शुष्क उष्ण-कटिबंधीय जलवायु पायी जाती है। सामान्यतः तटीय क्षेत्रों में उच्च आर्द्रता पूरे वर्ष के दौरान पायी जाती है। तमिलनाडु में आर्द्रता 60 प्रतिशत (जून) से 80 प्रतिशत (नवम्बर) तक बदलती है। उड़ीसा में यह 60 प्रतिशत (दिसम्बर से अप्रैल) से 80 प्रतिशत (जुलाई-अगस्त) रहती है। दोनों क्षेत्रों में सितम्बर में थोड़ी निम्न आर्द्रता पायी जाती है। पूरे वर्ष के दौरान वायु मध्यम गति से चलती हैं जोकि मानसून ऋतु में अधिक (15 कि.मी./घंटा) हो जाती हैं तथा अक्टूबर में कम (5 - 10 कि.मी./घंटा) हो जाती है। अक्टूबर से जनवरी तक वायु उत्तर-पूर्व से चलती है तथा ग्रीष्म ऋतु एवं मॉनसून में दक्षिण - पश्चिम से चलती है। तापमान फरवरी के अन्त से मई तक लगातार बढ़ता रहता है, सबसे गर्म महिना (30 डिग्री सेन्टीग्रेड) पुरी में, 35 डिग्री सेन्टीग्रेड मछली पटनम एवं चेन्नई में, 37 डिग्री सेन्टीग्रेड से 40 डिग्री सेन्टीग्रेड तक अन्दर के क्षेत्रों में। तटीय क्षेत्रों में सबसे ठंडा महिना (जनवरी) में तापमान 22 डिग्री सेन्टीग्रेड रिकार्ड किया जाता है तथा 19 से 20 डिग्री सेन्टीग्रेड अंदर के क्षेत्रों में। खाड़ी में जून के पहले सप्ताह में मॉनसून आता है। इस तरह की खाड़ियों की श्रृंखला में वर्षा जून से अक्टूबर के दौरान चलती है तथा मध्यम से भारी वर्षा करती है जिससे जुलाई - अगस्त सबसे आर्द्र महीने होते हैं। वर्षा के वितरण में बदलाव मुख्यतः इस तथ्य की वजह से है कि उड़ीसा तथा उत्तरी आन्ध्र प्रदेश में दक्षिण - पश्चिम मॉनसून से 78 प्रतिशत वर्षा होती है। दक्षिण से कृष्णा डेल्टा तक वर्षा में मुख्यतः कमी इस क्षेत्र के मॉनसून तथा सम्बन्धित अवनमनों के मुख्य इलाकों से दूर होने के कारण हैं। विजय कुमार (1993) ने तटीय डेल्टा की जलवायु तथा चक्रवात के विषय में अधिक जानकारी दी है।

मृदा


बे ऑफ बंगाल की ओर बहने वाली सभी बड़ी नदियों ने पुर्वी तट में बड़े डेल्टा बना दिए हैं। जलोढ मृदा में बनी डेल्टा की मृदा विभिन्न मुख्य पदार्थों से बनी है तथा सामान्यतः अल्प - जलोत्सरित है। ज्यादातर अवस्थाओं में डेल्टा मृदा वर्ष के एक बड़े भाग में आर्द्र रहती है। लो क्रोमा मोटल्स तथा ग्लेइंग उपमृदा संस्तर में आमतौर पर पाये जाते हैं। हुगली तथा महानदी डेल्टा की मृदा अम्लीय क्रिया (पी.एच. 4.5 से 6.5 सतह पर) दर्शाती है जबकि गोदावरी, कृष्णा तथा कावेरी डेल्टा की मृदा उदासीन से क्षारीय (पी.एच. 7.3 से 8.4 सतह पर) दर्शाती है। भूमि उपयोग मृदा आर्द्रता की दशाओं से प्रभावित होता है, जिससे चावल की उपज अच्छी होती है विशेषतः हुगली तथा महानदी डेल्टा की मृदा में। कम आर्द्र मृदा वाले डेल्टाओं में चावल, गन्ना, कपास, तम्बाकू, मिर्ची तथा दालें नहर के पानी की सहायता से उगाए जाते हैं।

डेल्टाई तथा पूर्वी तटीय समतल क्षेत्र


तटीय क्षेत्र भारत के पूर्वी तट पर उत्तर में गंगा नदी मुँह से पर्वतों की अविरल श्रृंखला की ओर अन्तःस्थल जोकि पूर्वी घाट बनाता है, उड़ीसा में 75 मीटर का कन्टूर, आन्ध्र प्रदेश में 100 मी. तथा तमिलनाडु में 150 मीटर के कन्टूर में यह क्षेत्र आता है। राजनैतिक दृष्टि से इस क्षेत्र में पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, आन्ध्रप्रदेश तथा तमिलनाडु, पांडिचेरी केन्द्र-शासित प्रदेश के भाग सम्मिलित हैं। पश्चिम बंगाल तटीय समतल क्षेत्र में 24 परगना तथा मिदनापुर जिले आते हैं तथा उड़ीसा तटीय समतल क्षेत्र में मयूर भंज का छोटा भाग, बालासोर का बड़ा भाग, कटक, पुरी तथा गंजम जिलों के भाग, आन्ध्र प्रदेश तटीय क्षेत्र में श्रीकाकुलम, विजिनागाराम, विशाखापटनम, पूर्वी एवं पश्चिमी गोदावरी, कृष्णा, गुंटुर, प्रकासम तथा नैलोर जिले सम्मिलित हैं जबकि तमिलनाडु में पूरा चिंगलेपुट तथा मद्रास, उत्तरी आरकोट का छोटा भाग, दक्षिणी आरकोट का अधिकांश भाग, पूरा थानजंवर, तिरूचिरापल्ली (करूर, कुलीतलई तथा मुसीरी तालुका के अलावा) पाँडिचेरी तथा करइकल क्षेत्र सम्मिलित हैं। पूर्वी तटीय क्षेत्र में मुख्य नदी डेल्टा तन्त्र का संक्षिप्त वर्णन आगे किया गया है तथा इन डेल्टाओं का स्थिति-मानचित्र तथा गोदावरी-कृष्णा डेल्टा का एरियल व्यू चित्र सँख्या 1 में दिखाए गए हैं।

चित्र (1) : महानदी, गोदावरी, कृष्णा तथा कावेरी नदियों की स्थिति तथा कृष्णा एवं गोदावरी डेल्टा का एरियल ब्यू

महानदी डेल्टा


महानदी बेसिन जोकि भारत के पूर्वी तट में स्थित पाँच अवसादी बेसिनों में से एक है, में महानदी, ब्रह्माणी, वैतरणी तथा उनकी सहायक नदियों द्वारा तटीय अवसाद जमा हो जाते हैं। अद्यस्थल में अवसाद ऊपरी जुरासिक/पूर्व-भावी क्रेटेशियस से वर्तमान समय तक प्री - कैमब्रियन अद्योभूमी पर पाये जाते हैं। मुख्य डेल्टा बनने की प्रक्रिया पूर्वभावी मिडिल मिओन्स के मुख्य प्रतिपायन के बाद शुरू हुई तथा वर्तमान तक कुछ उतार चढ़ाव के साथ लगातार जारी है। निधायतल बेसिन की और उन्नति लेट पूर्वभावी मियोन्स समय से परावर्तन भूकम्प सम्बन्धी आँकड़ों तथा समुद्र के किनारे बने कुँओं की खुदाई के साक्ष्य से स्पष्ट है। वर्तमान महानदी डेल्टा उन्नति प्रकार का तथा चाप - चक्र आकृति का है। विभिन्न जल निकासी प्रतिरूप, विभिन्न भू-आकृतिक रचनाओं जैसे समुद्रतट रिज, रेतीले टीलें, ज्वार मैदान की मौजूदगी यह दिखाते हैं कि यह डेल्टा उत्तर दिशा में सक्रिय रूप से बढ़ता जा रहा है। डेल्टाई प्रान्त में एक बदलती हुई पेलियो शोर रेखा क्वाटनरी काल में पाई गयी है। लैंडसैट इमेजरी, गुरूत्व, एरोमैग्नेटिक परिवर्तन भूकम्प सम्बन्धी तथा गहरी भूकम्प सम्बन्धी साउंडिंग सर्वेक्षण के अध्ययनों के आधार पर तीन मुख्य फ्रैक्चर प्रतिरूप महानदी बेसिन के तटीय मैैदान में पाये गए हैं।

गोदावरी डेल्टा


गोदावरी उप एरियल डेल्टा चार चरणों में विकसित हुआ है, इस डेल्टा का क्षेत्र (4163 वर्ग कि.मी.) राजमुन्दरी तथा वर्तमान तट के बीच में है जोकि आन्ध्र प्रदेश के उत्तरी पूर्वी भाग में स्थित है। यह जियोमारफोलॉजिकल तथा भूपटल अध्ययनों से सिद्ध हो चुका है। यह डेेल्टा वितरिकाओं द्वारा विभिन्न चरणों में निर्मित हुआ है जोकि तट की ओर बढ़ती हुयी तथा अवशेषों को दोनों तट की ओर छोड़ती हुई आगे बढ़ती है जिससे उसका चरणों में विकास हो रहा है। सबसे पुराना समुद्रतट रिज तृतीयक सैंडस्टोन के साथ सीधे सम्पर्क में माना जाता है जबकि अन्य तीनों तट रेखायें दक्षिण में तथा पहली तट रेखा के दक्षिण पूर्व में स्थित है। गोदावरी नदी ने स्वयं को समुद्र के जल स्तर में परिवर्तनों के अनुसार समायोजित कर लिया है तथा विभिन्न कटौतियों का योगदान दिया है तथा डेल्टा खण्डों को क्वाटरनरी अवधि में भर दिया है। यह समुद्री पर्यावरण की सबसे पुरानी तट रेखा 6500 बी.सी. की है तथा वर्तमान तट रेखा 1500 बी.सी. की है।

कृष्णा डेल्टा


विजयवाड़ा से वर्तमान तट तक फैला हुआ कृष्णा डेल्टा 4600 वर्ग कि.मी. क्षेत्रफल रखता है तथा दक्षिण की ओर 120 कि.मी. लम्बी तटीय रेखा से घिरा हुआ है। जियोमारफोलॉजिकल अभिव्यक्ति, भूपटल बदलाव, पेलियोचैनल के कटाव के सम्बन्ध, विभिन्न तट रेखाओं की अनुपस्थिति तथा जीव जमाव के आधार पर इसमें बारह जियोमारफिक इकाइयाँ पायी गयी हैं जिसमें पाँच नदी-सम्बन्धी तथा शेष समुद्री मूल की हैं। प्रत्येक नदी इकाई एक डेल्टा खण्ड तथा तट रेखा एक समुद्री यूनिट मानी जाती है। डेल्टा खण्ड को उनके शुरुआती तथा अन्त केे बिन्दुओं के आधार पर संख्या दी जाती है। तट रेखा के पुनः निर्माण से यह पाया गया कि यह डेल्टा पाँच स्पष्ट चरणो में विकसित हुआ है।

कावेरी डेल्टा


कोरामंडल तट का कावेरी डेल्टा भारतीय उप-महाद्वीप के महाद्वीपीय तट का एक भाग है। आधुनिक कावेरी डेल्टा के नीचे अनेक टेक्टोनिक खण्ड पाये जाते हैं। ये टेक्टोनिक खण्ड 6 से 8 कि.मी. मोटे अवसाद से भरे हुए हैं जिनकी आयु क्रिटेसियस से आधुनिक होती है। अतीत के क्रिटेसियस, पैलोसीन, इयोसीन, ओलिगोसीन तथा मियोसिन समय में पेलियों डेल्टा के अस्तित्व के साक्ष्य पाये गये हैं। अतीत के क्रिटेसियस अवधि के दौरान पेलियो डेल्टा उत्तर-पूर्व की ओर प्रगति कर रहा था लेकिन अनुवर्ती प्रगति की दिशा में (उत्तर पूर्व से पूर्व तथा दक्षिण पूर्व की ओर) एक परिवर्तन दर्शाता गया है। डेल्टा के विन्यास में ये परिवर्तन विभिन्न भूगर्भीय चरणों तथा जमा प्रणाली को एट्रीब्यूट कर सकते हैं। अद्य-स्थलीय मारफोलॉजिकल विश्लेषण ने तट रेखाओं की बहुत सारी विशेषतायें दिखाई हैं। उनका समय तथा स्थान के साथ परिवर्तन समुद्र के जल स्तर में परिवर्तन तथा तट की प्रगति दिखाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि डेल्टाओं का विकास उत्क्रामी तथा प्रतिगामी समुद्र-गति से सम्बन्धित स्थायी शैल्फ दशाओं में होता है।

प्रस्तावित इन्द्रा सागर-पोलावरम परियोजना


यह प्रस्तावित परियोजना गोदावरी नदी पर पोलावरम में स्थित है तथा इस परियोजना की अनुमानित लागत रू. 15,151 करोड़ है। जलाशय का एफ.आर.एल. 45.72 मी. तथा अधिकतम क्षमता 196 टी.एम.सी. है। इसके अलावा, गोदावरी नदी का 80 टी.एम.सी पानी दाँयी नहर द्वारा कृष्णा नदी में छोड़ना भी प्रस्तावित है तथा बाँई नहर द्वारा 25 टी.एम.सी. जल विशाखापटनम स्टील प्लॉट तथा अन्य प्रयोजनों के लिये छोड़ा जायेगा। इस परियोजना में कुल सिंचित क्षेत्र लगभग 7.2 लाख हेक्टेयर होगा तथा पीने के जल की सुविधा 256 गाँवों में होगी। इस परियोजना से जल-विद्युत संयन्त्र की लगभग 12 इकाईयाँ कुल 960 एम.डब्ल्यू. विद्युत पैदा करने के लिये प्रस्तावित है। इस परियोजना की स्थिति चित्र 1 में तथा दवलेश्वरम बैराज पर अन्तः प्रवाह, सरप्लस तथा उपयुक्त जल का ब्यौरा चित्र 2 में दिखाया गया है।

चित्र : दवलेश्वरम बैराज पर गोदावरी नदी का अन्तः प्रवाह, सरप्लस तथा उपयुक्त जल का ब्यौरा दर्शाती हुई बार चार्ट

वर्तमान स्थिति तथा अनुसंधान की आवश्यकताएँ


ताजा जल की उपलब्धता उसकी मात्रा तथा गुणवत्ता में हाइड्रोजियोलॉजिकल संस्थापन, जल विज्ञानीय दशाओं तथा जलदायी स्तर के गुणों की वजह से स्थानिक तथा कालिक भिन्नता दर्शाती है। ताजा भूजल उपलब्धता में स्थानीय भिन्नता डेल्टाइक तन्त्रों में पेलियो चैनल की उपस्थिति के कारण प्रभावित होती है। उपलब्धता के अलावा, सतह/भूजल का उपयोग किसी भी तटीय तन्त्र में स्थान तथा समय में समुद्री जल अतिक्रमण पर निर्भर करता है। भारतीय तटों का जल विज्ञान मॉनसून की वर्षा से प्रभावित होता है जिसमें मॉनसून ऋतु में भूजल पुनःभरण, मॉनसून तथा गैर मॉनसून दोनों ऋतुऔं में सतह जल की उपलब्धता प्रभावित होती है। आन्ध्रप्रदेश के तटीय क्षेत्र में सिंचाई डायवर्जन संरचनाओं की वजह से अच्छी तरह विकसित है। विशेषतः डेल्टाई मैदानों के निचले क्षेत्रों में पानी की माँग सतही जल स्रोतों के द्वारा गैर-मॉनसून ऋतु में पर्याप्त रूप से पूरी नहीं होती है। इन क्षेत्रों में जरूरत पूरा करने के लिये अधिक भूजल निष्कर्षण से काफी मात्रा में समुद्री जल अतिक्रमण हो सकता है। इन परिस्थितियों के साथ-साथ, रेत-खनन तथा एक्वाकल्चर अभ्यासों के कारण तटीय भूजल की लवणता और अधिक बढ़ गई है। इसलिए भू-भौतिकीय, भू-रासायनिक तथा समस्थानिक विधियों द्वारा लवणता समस्या को प्रभावशाली ढंग से हल किया जा सकता है। तटीय क्षेत्रों में नदी की शाखाओं/नालों के अन्तःप्रवाही तथा बहिस्राव प्रभावों का भी अध्ययन किया जाना चाहिए। वर्तमान तथा भविष्य की जलवायु परिवर्तन पर इन बातों को ध्यान में रखते हुए तटीय क्षेत्रों में भौमजल की लवणता को चित्रण करने के लिये एक सही पहुँच की आवश्यकता है। तटीय क्षेत्रों में भौमजल की लवणता के अलावा, पोषक तत्व संदूषण भी उथले भौमजल स्तर की दशा में विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है। तटीय क्षेत्रों में सतत विकास, भविष्य में जलवायु की दशाओं तथा बढ़ती हुई एन्थ्रोपोजेनिक गतिविधियों को ध्यान में रखते हुए नीचे लिखे गए प्रमुख विषयों का तटीय तथा डेल्टाई क्षेत्रों में अध्ययन किया जाना चाहिए (सत्याजीत राव एवं भीष्म कुमार 2010 )।

1. हाइड्रोजियोलॉजिकल संस्थापन तथा जल विज्ञानीय दशाओं के आधार पर तटीय क्षेत्रों का विभिन्न संवेदनशील क्षेत्रों में चित्रण।
2. भू-भौतिकीय, भू-रासायनिक तथा समस्थानिक विधियों द्वारा संवेदनशाील क्षेत्रों का चित्रण।
3. भूजल स्तर, पम्पिंग रेट, लवणता तथा पोषक तत्वों के उच्च संवेदनशील क्षेत्रों का अवलोकन।
4. सतही जल तथा भौमजल के अनुकूलतम उपयोग के लिये तथा भविष्य में जलवायु परिवर्तन (विशेषतः समुद्र जल स्तर में वृद्धि) से जूझने के लिये उपयुक्त गणितीय मॉडल का विकास।
5. फील्ड में वैज्ञानिक निष्कर्षों का परिपालन तथा उसका वर्तमान दशाओं को सुधारने के लिये प्रभाव।

परिणाम


प्रस्तुत लेख में भारत के पूर्वी तट का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया गया है। एन्थ्रोपोजेनिक गतिविधियों तथा प्राकृतिक उपद्रवों के कारण उत्पन्न वर्तमान चुनौतियाँ संक्षेप में बताई गई है तथा भविष्य की अनुसंधान की जरूरतों के लिये प्रमुख विषयों को पहचाना गया हैै। दवलेश्वरम बैराज पर गोदावरी नदी जल के ऐतिहासिक उपयोग तथा अधिकता का विश्लेषण किया गया है तथा पाया गया कि केवल कुल अन्तःप्रवाह का 4 से 16 प्रतिशत जल 1962 - 2003 की अवधी के दौरान इस्तेमाल किया गया।

सन्दर्भ


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सत्याजित राव, वाई.आर. भीष्म कुमार (2010), ग्राउंड वाटर सैलेनिटी करेक्टराइजेशन एलाँग आन्ध्रप्रदेश, पब्लिस्ड इन प्रोसीडिंग्स ऑफ ‘ब्रैन - स्ट्रामिगं सेसन ऑन सी वाटर इन्टूजन इन कोस्टल एरिया अन्डर वार फॉर वाटर प्रोगाम‘, आन्ध्रा यूनिवर्सिटी, विशाखापटनम, पी पी 56 - 59।
स्क्रिपटीनोव, एन.ए. (1969), हाइड्रोलॉजिकल प्रोसेस इन आफिंग्स एंड देयर रोल इन फॉरमेशन ऑफ ए डेल्टा फ्रन्ट, हाइड्रोलॉजी ऑफ डेल्टास, वोल्यूम -1, आई.ए.एस.एच./ए. आई. एस.एच. - यूनेस्को 164 - 171।

वैदयानाधन, आर. (1991), क्वाटरनरी डेल्टास ऑफ इंडिया, पब्लिस्ड बाई जियोलॉजिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया, दिसम्बर (1991)।
विजय कुमार, एस.वी. (1993), हाइड्रोलॉजी ऑफ डेल्टास एंड ईस्ट कोस्टल रीजन, स्टेट्स रिपोर्ट यू.एन.डी.पी. प्रोजेक्ट आई.एन.डी. /90/003, नेशनल इन्स्टीटयूट ऑफ हाइड्रोलॉजी, रुड़की।

डेल्टाई क्षेत्रीय केन्द्र, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, काकीनाड़ा