साखर, संचय, हुनर, जैविकी : सूखे में सुख सार

Submitted by RuralWater on Sat, 10/10/2015 - 15:41

इंटरनेशनल नेचुरल डिजास्टर रिडक्शन दिवस, 13 अक्टूबर 2015 पर विशेष


.सूखा पहले कभी-कभी आता था; अब हर वर्ष आएगा। कहीं-न-कहीं; कम या ज्यादा, पर आएगा अवश्य; यह तय मानिए। यह अब भारत भौगोलिकी के नियमित साथी है। अतः अब इन्हें आपदा कहने की बजाय, वार्षिक क्रम कहना होगा। वजह एक ही है कि सूखा अब आसमान से ज्यादा, हमारे दिमाग में आ चुका है।

हमने धरती का पेट इतना खाली कर दिया है कि औसत से 10-20 फीसदी कम वर्षा में भी अब हम, हमारे कुएँ, हमारे हैण्डपम्प और हमारे खेत हाँफने लगे हैं। उलटबाँसी यह कि निदान के रूप में हम नदियों को तोड़-जोड़-मोड़ रहे हैं। हमारे जल संसाधन मंत्रालय, हमेशा से जल निकासी मंत्रालय की तरह काम करते ही रहे हैं।

वह हर सूखे का निदान, जल निकासी की एक नई योजना के रूप में पेश करता ही रहा है; पहले बोरवेल..इण्डिया मार्का, टयूबवेल, समर्सिबल, जेटपम्प। पौरुष के प्रतीक दशरथ मांझी पर बनी ताजा फिल्म देखकर हम तालियाँ पीटते जरूर हैं; किन्तु सच यही है कि हम नपुंसक हो चुके हैं। भरी जेब के घमण्ड के कारण हमें भी जल-संचयन संरचनाओं से ज्यादा, मशीन, बाँध, नहर और नदी जोड़ का भरोसा हो गया है। ये उलटे काम हैं; उलटे चित्र। इनसे सूखे का दुष्प्रभाव घटेगा नहीं, बल्कि बढ़ेगा।

यदि सूखे में भी सुख चाहिए, तो हमें चित्र सीधा करना होगा। सूखा आने पर हायतौबा मचाने या बजट खाने से भी चित्र सीधा होने वाला नहीं। सूखे से डरने की बजाय, इनके साथ रहना सीखना होगा। यह तभी होगा कि जब हम उपयोग का अनुशासन सीख लें। कम पानी और कम अवधि वाली फसलों को अपनाएँ।

सूखे में संजीवनी : चारा और मवेशी


चारा और मवेशी, सूखे में ढाल का काम करते हैं। इन्हे बचाएँ और बढ़ाएँ। गौर करने की बात है कि पूर्व में अकाल पूरे बुन्देलखण्ड में आया, लेकिन आत्महत्याएँ वहीं हुईं, जहाँ खनन ने सारी सीमाएँ लाँघी, जंगल का जमकर सफाया हुआ और मवेशी बिना चारा मरेे; बांदा, महोबा और हमीरपुर।

यदि खनन अनुशासित न हो; मवेशी न हों; मवेशियों के लिये पानी-चारा न हो; सूखे की भविष्यवाणी के बावजूद उससे बचाव की तैयारी न की गई हो, तो दुष्प्रभाव का बढ़ना स्वाभाविक है; बढ़ेगा ही। ऐसी स्थिति में सूखा राहत के नाम पर खैरात बाँटने के अलावा कोई चारा नहीं बचता। उसमें भी बंदरबाँट हो तो फिर आत्महत्याएँ होती ही हैं। ऐसे अनुभवों से देश कई बार गुजर चुका है।

यदि धरती का पेट भरा हो और मवेशियों के लिये पीने को पर्याप्त पानी और खाने को पर्याप्त चारे का इन्तजाम हो तोे एक क्या, हम तीन साला अकाल में भी जिन्दा रह सकते हैं। पीने के पानी और चारे के इन्तजाम से मवेशियों का जीवन तो बचेगा ही, उनके दूध से हमारी पौष्टिकता की भी रक्षा होगी। इसी तरह ईंधन का पूर्व इन्तजाम भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं।

कई ऐसे झाड़-झंखाड़, पत्ती व घास, जिन्हें हम बेकार समझकर अक्सर जला दिया करते हैं; उन्हें सुखाकर चारे और ईंधन के रूप में संजोने का काम अभी से शुरू कर दें। भारत का पारम्परिक ज्ञान एक नहीं, पाँच साला अकाल में भी जिन्दा रहने के ऐसे गुर जानता था।

राजस्थान और गुजरात के कम पानी वाले इलाकों में आज भी अकाल में आत्महत्याएँ नहीं होतीं। लालच और कर्ज आधारित खेती ने इस ज्ञान पर धूल डाल दी है। निष्कर्ष यह कि यदि जिस साल, जिस इलाके में वर्षा का जैसा औसत हो, हम उसके हिसाब से जीना सीख लें तो न हमें बाढ़ सताएगी और न सूखा।

बदलें फसल, चक्र और मीनू


क्या यह समझदारी नहीं कि ऐसे में मैं गन्ना-धान जैसी अधिक पानी वाली फसल की बजाय कम पानी वाली फसलों को प्राथमिकता दूँ? मोटे अनाज, दलहन और तिलहन की फसलें बोऊँ? यदि पानी वाली फसलें बोनी ही पड़े तो ऐसे बीजों का चयन करूँ, जिनकी फसल कम दिनों में तैयार होती हो? खेती के साथ बागवानी का प्रयोग करूँ? वैज्ञानिक कहते हैं कि फसल चक्र में अनुकूल की बदलाव की तैयारी जरूरी है। आइए, करें।

जरूरी है कि फसल और फसल चक्र का चुनाव करते समय मौसम और मिट्टी को आधार बनाएँ। अपनी खाद्य आदतें बदलें। खाने का मीनू वही बनाएँ, स्थानीय मौसम जिसकी इज़ाजत देता हो। यह सूखे में सुख के लिये भी अच्छा है, सेहत और जेब के लिये भी। जब, जहाँ, जितना पानी उपलब्ध हो, उतने में जीवन चलाने को अपनी आदत बनाएँ।

आईने में अक्स देखने का वक्त


13 अक्टूबर : अन्तरराष्ट्रीय आपदा न्यूनीकरण दिवस के इस मौके पर हमें यह आकलन भी करना ही चाहिए कि कहीं सूखे से मौत का कारण आसमान से कम बरसे पानी से ज्यादा, धरती के पेट में पानी संजोने के प्रयासों में आई कमी तो नहीं है? मनरेगा में तालाब तो बहुत बने, लेकिन वे कभी भरे क्यों नहीं?

सभी को पानी पिलाने का सर्वश्रेष्ठ तरीका, नदी जोड़ की अति महत्त्वाकांक्षी और खर्चीली परियोजना है या फिर आसमान से बरसी बूँदों को संजोने की वे पारम्परिक तकनीक, जिनके कारण जैसलमेर जैसे कम वर्षा के इलाके भी कभी बेपानी नहीं हुए?

गौर करने की बात है कि 1951 के भारत में जल की उपलब्धता 5177 घन मी प्रति व्यक्ति थी। अब यह घटकर 1650 घन मीटर हो गई है। सरकारी अध्ययन वर्ष-2050 तक इसके 1447 होने की बात कहता है, जबकि अन्य के मुताबिक वर्ष-2025 में ही प्रति व्यक्ति 1341 घन मी. से अधिक पानी उपलब्ध नहीं होगा।

हमारे पास सब कुछ है : कम पानी की फसलें, जीवनशैली, ज्ञान, वनक्षेत्र, हिमनद, लाखों तालाब-झीलें, हजारों नदियों का नाड़ीतंत्र, स्पंजनुमा शानदार गहरे एक्युफर। अकेले 861404 वर्ग किमी. फैला गंगा बेसिन ही 47 फीसदी खेत और 37 फीसदी आबादी को पानीदार बनाने में सक्षम है। यदि हम इनका ठीक-ठीक उपयोग और संरक्षण करना सीख लें, तो सूखे में स्यापा करने की जरूरत कभी नहीं पड़ेगी। कागज देखिए तो आँकड़े, आदेश और योजनाओं की कोई कमी नहीं। अगर ये सभी हकीक़त में तब्दील हो जाएँ, तो सच मानिए कि कोई अकाल हमें डराए नहीं।

संकट साफ है; फिर भी हम वर्षा, बर्फबारी और हिमनद के रूप में प्रतिवर्ष प्राप्त होने वाले 4000 अरब घन मी. पानी में से 2131 अरब घन मी. यूँ ही बह जाने देते हैं। शेष बचे 1869 से भी मात्र 1123 अरब घन मी. भू अथवा सतही जल के रूप में उपयोगी बचा पाते हैं। क्यों?

हम क्यों भूल जाते हैं कि मेसोपोटामिया से लेकर पाकिस्तान के लायलपुर, सरगोधा, माण्टगुमरी और भारत की राजधानी दिल्ली के उजड़ने-बसने का कारण पानी ही रहा? हमने जब-जब प्रकृति से लिया ज्यादा और दिया कम, तब-तब हमें उजड़ना पड़ा। हम यह समझने में क्यों असमर्थ हैं कि पानी की कमी होने पर बड़ी-से-बड़ी आर्थिक तरक्की टिक नहीं सकती ... या सब कुछ जानते हुए भी हम अकर्मण्य हो गए हैं?

जब भूजल का स्तर गिरता है, तो गुणवत्ता का स्तर स्वतः गिर जाता है। आँकड़ा है कि महाराष्ट्र में 89.7 प्रतिशत उपलब्ध पानी पीने योग्य नहीं है। भारत के 1.8 लाख गाँवों का पानी प्रदूषित है। दुनिया की 50 प्रतिशत कृषि भूमि खारी होने की ओर बढ़ रही है।

भारत के अन्य समुद्री इलाकों के साथ-साथ दुनिया का सबसे बड़ा तटवर्ती वन-सुन्दरवन इसी रास्ते पर है। इससे हो रही सेहत की बर्बादी का चित्र और भी खतरनाक है। यदि हमने इस चित्र को उलटने की कोशिश नहीं की, तो सूखे के दुष्प्रभावों से लड़ने की लड़ाई हमारी कमज़ोर ही पड़ेगी।

जल साक्षर हों : जल सामर्थ्य पहचाने


हमारे पास सब कुछ है : कम पानी की फसलें, जीवनशैली, ज्ञान, वनक्षेत्र, हिमनद, लाखों तालाब-झीलें, हजारों नदियों का नाड़ीतंत्र, स्पंजनुमा शानदार गहरे एक्युफर। अकेले 861404 वर्ग किमी. फैला गंगा बेसिन ही 47 फीसदी खेत और 37 फीसदी आबादी को पानीदार बनाने में सक्षम है। यदि हम इनका ठीक-ठीक उपयोग और संरक्षण करना सीख लें, तो सूखे में स्यापा करने की जरूरत कभी नहीं पड़ेगी। कागज देखिए तो आँकड़े, आदेश और योजनाओं की कोई कमी नहीं।

अगर ये सभी हकीक़त में तब्दील हो जाएँ, तो सच मानिए कि कोई अकाल हमें डराए नहीं। काश! कभी हम ऐसा कर पाये; सूखा राहत की बजाय सूखा डराए ही नहीं, ऐसा लक्ष्य बना पाएँ। उक्त परिदृश्य प्रमाण है कि नेता से लेकर अफ़सर तक सभी को पानी के मामले में साखर होने की जरूरत है; साखर यानी साक्षर!

सबसे अहम : जल पुनः उपयोग और जल संचयन


सूखे में सुख हेतु सबसे अहम कार्य दो हैं : पहला, उपयोग किये पानी का पुनः उपयोग; दूसरा : बूँद-बूँद का संरक्षण। यदि हम उपयोग किये पानी को पुनः साफ कर पुनः उपयोग में लाने की ठान लें, तो उद्योग, चारदीवारी वाली रिहायशी कॉलोनी से लेकर हर सम्भव घर में पानी की कुल खपत को शर्तिया 60 से 70 प्रतिशत तक घटाया जा सकता है। सोख्ता पिट, उपयोग किये पानी को पकड़कर धरती के पेट में बिठाने की सादी तकनीक है। हर गाँव के हर घर को इसे अपनाना ही चाहिए।

राजस्थान के परंपरागत जल संरक्षण प्रणाल 'टांका'दरअसल, देश के एक बड़े समुदाय को अभी भी यह समझने की जरूरत है कि हमारी परम्परागत छोटी-छोटी स्वावलम्बी जल संरचनाएँ ही हमें सूखे में भी पानी का वह स्वावलम्बन वापस लौटा सकती हैं, जो पिछले तीन दशक में हमने खोया है। इस दावे को यहाँ कागज पर समझना जरा मुश्किल है। लेकिन लेह, लद्दाख, कारगिल और लाहुल-स्पीति के शुष्क रेगिस्तानों को देखकर आसानी से समझा जा सकता है कि यदि पानी संजोने का स्थानीय कौशल न होता, तो यहाँ मानव बसावट ही न होती।

अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। आइए! भारत की पानी परम्परा को औजार बनाएँ। सूखे का रोना छोड़कर फावड़ा-कुदाल उठाए और आसमान से बरसी हर बूँद को सहेजने में जुट जाएँ, ताकि बूँदों को सूरज की नजर न लगे और हम पाँच साला अकाल में भी जिन्दा रह सके।

हुनर और कुटीर उद्योग


हाथ की कारीगरी सीखना-सिखाना, गाँव-गाँव स्थानीय उत्पाद आधारित कुटीर उद्योग लगाना; लगाने में मदद करना और उनसे बने सामान की बिक्री सुनिश्चित करना सूखे के दुष्प्रभाव को घटाने में विशेष सहयोगी भूमिका निभा सकते हैं। इन्हें बचाएँ और बढ़ाएँ। इनसे पलायन भी रुकेगा और किसान परिवारों में होने वाली आत्महत्याएँ भी। यही है अन्तरराष्ट्रीय आपदा न्यूनीकरण दिवस-2015 का स्थानीय सन्देश।