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चरखा, अगस्त 2012
डम-डमा-डम-डम-डम, वन की रक्षा अपनी सुरक्षा
वनों का न करो नाश, जीवन हो जाएगा सत्यानाश
डम-डमा-डम-डम-डम, वन की रक्षा अपनी सुरक्षा
डमडोईया पंचायत झारखंड के चतरा जिला के अंतर्गत है। इस पंचायत में नौ वार्ड हैं और आबादी लगभग पांच हजार है। पंचायत के गांवों में मुख्य रूप से मुस्लिम, यादव, कोयरी, लोहार व बढ़ई जाति के लोग निवास करते हैं। 80 के दशक तक इस पंचायत के चारों ओर घने जंगल थे। यहां के जंगलों में सखुआ और सागवान की बहुलता थी। उन दिनों जंगल पर वन विभाग की पकड़ मजबूत थी। वर्ष 1992 में नक्सलियों ने इसी जंगल में वन विभाग के एक वनरक्षी (फॉरेस्टगार्ड) की हत्या कर दी। उसके बाद से जंगल पर से विभाग की पकड़ ढीली पड़ गई। विभाग के कर्मियों ने नक्सलियों के डर से जंगल की ओर रूख करना छोड़ दिया। हालांकि गांव में वन विभाग की संयुक्त वन प्रबंधन समिति कागज पर बखूबी चल रही है। परंतु इस समिति से गांव वालों को कोई लेना-देना नहीं है। गांव के लोगों का कहना है कि उन्होंने सुना है कि गांव में वन समिति गठित हुई है, लेकिन किसी को समिति के काम-काज के बारे में कोई जानकारी नहीं है। उन्होंने यह भी सुना है कि गांव के नाम पर समिति को विभाग ने सामुदायिक कार्यों के लिए कई तरह के सामान भी उपलब्ध कराए गए हैं। लेकिन यह सब कहां और किसके पास है, इसकी भी जानकारी उन्हें नहीं है। गांव के इंद्रजीत सिंह बताते हैं ‘सच्चाई यह है कि विगत 17 सालों से जंगल को लेकर वन विभाग की कोई एक्टिविटी देखने को नहीं मिली। विभाग ने जंगल को नुकसान पहुंचाने या लकड़ी काटने के आरोप में किसी के खिलाफ एक मुकदमा भी दर्ज नहीं किया है।
इंद्रजीत के इस बयान से स्पष्ट है कि विभाग ने जाने-अनजाने यहां के जंगलों की तरफ से आंखें मूंद रखी है। यही वजह है कि विगत एक-डेढ़ दशक में इस क्षेत्र में जंगलों का जमकर दोहन हुआ। तस्करों ने कतिपय स्थानीय लोगों की मदद से जंगलों का जमकर दोहन किया। जंगलों की अवैध कटाई कई वर्षों तक जारी रही और देखते ही देखते जंगल से बेशकीमती लकड़ियां गायब हो गईं। परिणाम यह हुआ कि एक-डेढ़ दशक में ही जंगल वीरान हो गए। जंगलों में बड़े-बड़े बेशकीमती पेड़ की जगह सिर्फ झाड़ियां ही शेष रह गई। इसका डमडोईया पंचायत के गांवों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। जंगलों की हरियाली गई तो गांव की खुशहाली भी छिन गई। गांवों के लोग सूखी लकड़ियों को भी तरसने लगे। चूल्हे के लिए जलावन का जुगाड़ करना भी मुश्किल होने लगा। पत्तल-प्लेट के रोजगार से जुड़े लोग भूखों मरने लगे। दतवन बेचकर जीवन बसर करने वालों के सामने भी संकट खड़ा हो गया। जंगली फलों और जड़ी-बूटियों के भी लाले पड़ने लगे। इनकी कमी गांव वालों को रह-रहकर सालने लगी। इन्हीं परिस्थितियों में रऊफ अंसारी ने वनों की सुरक्षा व संवर्धन के लिए गांव वालों को संगठित करने की मुहीम शुरू की।
पंचायत मुख्यालय डमडोईया गांव के चौपाल पर ग्रामीणों की बैठक बुलाई। बैठक में जंगल की सुरक्षा व संवर्धन की बात उठाई, तो सबने उनका समर्थन किया। राजेश्वर मोची और बलि महतो उनकी मुहीम के अहम कड़ी बने। राजेश्वर ने बैठक में ही जंगलों की सुरक्षा को लेकर प्रचार-प्रसार का बीड़ा उठाया। बलि महतो ने जंगल बचाने के लिए आजीवन जंगल की सुरक्षा में लगे रहने का वचन दिया। गांव के अन्य लोगों ने भी उन्हें साथ देने का वादा किया। पहली ही बैठक में ही सबने प्रण किया कि अब जंगल से न तो लकड़ियां काटेंगे और न ही दूसरे को काटने देंगे। जब तक जंगल फिर से समृद्ध नहीं हो जाएंगे, तब तक जंगल से एक घुरान के लिए किसी पेड़ की डाली तक नहीं काटेंगे। इसके बाद गांव वाले अपने इस फैसले से कभी डिगे नहीं। बैठकों का दौर और जंगलों की सुरक्षा को लेकर ग्रामीणों की चिंतन जारी रहा। इस दौरान जंगल बचाओ मुहिम के तिकड़ी रऊफ अंसारी, राजेश्वर मोची और बलि महतो अपनी-अपनी जिम्मेवारी भी निभाते रहे। रऊफ जंगलों की सुरक्षा के प्रति लोगों में जागरूकता लाने के लिए अभियान चलाते रहे। राजेश्वर का ढाक के साथ अनोखा प्रचार भी जारी रहा। हर सप्ताह राजेश्वर अपने गले से ढाक लटकाए गांव-गांव घूमता और लोगों से जंगल को नुकसान नहीं पहुंचाने की अपील करता। बलि महतो भी अपने वचन से कभी हटे नहीं। वह रोज सुबह उठते और एक हाथ में डंडा और दूसरे हाथ में छाता लिए जंगल की ओर निकल पड़ते। वह दिन का भोजन भी अपने साथ लिए जाते। एक बार जंगल की ओर निकल पड़ते तो फिर शाम को ही घर लौटते।
दिलचस्प बात तो यह है कि जंगल बचाओ अभियान में लगे उक्त तीनों लोग अपनी जिम्मेवारी पिछले कई वर्षों से निभाते आ रहे हैं। इनकी मेहनत और लगन का असर भी अब दिखने लगा है। इनके प्रयास और गांव वालों के सहयोग से डमडोईया गांव से पश्चिम उत्तर में करीब 50 हेक्टेयर में सखुआ का जंगल आबाद हो रहा है। इस जंगल में सखुआ के हजारों पेड़ आसमान से बातें कर रहे हैं। शरीर से उम्रदराज लेकिन मन-मिजाज से युवा व उत्साही बलि महतो से इसी जंगल में मुलाकात हुई। इस उम्र में भी जंगलों की सुरक्षा को लेकर उन्हें इतनी फिक्र क्यों है, इस पर उल्टे सवाल करते हुए वह कहते हैं ‘यही तो दुख है कि जंगलों को लेकर बाकी लोग बेफिक्र क्यों हैं? वह कहते हैं कि वे पढ़े-लिखे नहीं हैं, फिर भी मानव जीवन के लिए जंगल कितना जरूरी है, इसका एहसास उन्हें भली भांति है। पढ़े-लिखे लोगों की जंगलों के प्रति उदासीनता उनके समझ से परे हैं। ऐसा लगता है कि आने वाले संकटों से वे बिलकुल बेखबर हैं। जंगलों की रक्षा के लिए हर समुदाय को आगे आने की जरूरत है।
बहरहाल, डमडोईया में जंगल बचाओं मुहिम में लगी रऊफ, राजेश्वर व बलि की तिकड़ी ने सामुदायिक वन प्रबंधन के तहत वनों की सुरक्षा व संवर्धन में अहम योगदान देकर जंगलों के आसपास रहने वालों को एक नई राह दिखाई है। अब जरूरत है कि देश के दूसरे इलाके में भी सामुदायिक वन प्रबंधन का प्रयोग हो ताकि वीरान होते जंगलों में फिर से हरियाली लौटे आए।
वनों का न करो नाश, जीवन हो जाएगा सत्यानाश
डम-डमा-डम-डम-डम, वन की रक्षा अपनी सुरक्षा
रऊफ अंसारी ने वनों की सुरक्षा व संवर्धन के लिए गांव वालों को संगठित करने की मुहीम शुरू की। पंचायत मुख्यालय डमडोईया गांव के चौपाल पर ग्रामीणों की बैठक बुलाई। बैठक में जंगल की सुरक्षा व संवर्धन की बात उठाई, तो सबने उनका समर्थन किया। राजेश्वर मोची और बलि महतो उनकी मुहीम के अहम कड़ी बने। राजेश्वर ने बैठक में ही जंगलों की सुरक्षा को लेकर प्रचार-प्रसार का बीड़ा उठाया। बलि महतो ने जंगल बचाने के लिए आजीवन जंगल की सुरक्षा में लगे रहने का वचन दिया। गांव के अन्य लोगों ने भी उन्हें साथ देने का वादा किया।
जंगल बचाने के लिए 36 वर्षीय राजेश्वर मोची का प्रचार का तरीका थोड़ा अलग है। वह अपने बाएं कंधे से लटकाए ढाक के ताल से तान मिलाकर लोगों से जंगल बचाने की गुजारिश करते फिरता है। वह ढाक बजाकर लोगों को बड़े ही अनोखे अंदाज में यह बताता है कि जंगल जीवन के लिए जरूरी है। अगर जंगल नहीं बचेंगे तो जीवन भी संकट में पड़ जाएगा। डमडोइया में जंगल बचाने की कोशिश में लगा राजेश्वर एकलौता हीरो नहीं है। रऊफ अंसारी और बलि महतो भी जंगल बचाओ मुहिम में इनके भागीदार हैं। 35 वर्षीय रऊफ गांव के उपमुखिया हैं। वह जंगलों के प्रति लोगों में जागरूकता लाने के लिए तरह-तरह के कार्यक्रम बनाते हैं और उसे आयोजित करते हैं। बलि महतो की उम्र करीब 60 वर्ष है। वे सुबह से देर शाम तक जंगल की रखवाली करते हैं। किसी की क्या मजाल की बलि के सामने जंगल से एक पौधा भी उखाड़ ले। डमडोइया में राजेश्वर मोची, रऊफ अंसारी व बलि महतो जंगल बचाओ मुहीम की ऐसी तिकड़ी है, जिनके प्रयास से सामुदायिक वन प्रबंधन के तहत लगभग 50 हेक्टेयर क्षेत्र में जंगल तेजी से समृद्ध हो रहे हैं।डमडोईया पंचायत झारखंड के चतरा जिला के अंतर्गत है। इस पंचायत में नौ वार्ड हैं और आबादी लगभग पांच हजार है। पंचायत के गांवों में मुख्य रूप से मुस्लिम, यादव, कोयरी, लोहार व बढ़ई जाति के लोग निवास करते हैं। 80 के दशक तक इस पंचायत के चारों ओर घने जंगल थे। यहां के जंगलों में सखुआ और सागवान की बहुलता थी। उन दिनों जंगल पर वन विभाग की पकड़ मजबूत थी। वर्ष 1992 में नक्सलियों ने इसी जंगल में वन विभाग के एक वनरक्षी (फॉरेस्टगार्ड) की हत्या कर दी। उसके बाद से जंगल पर से विभाग की पकड़ ढीली पड़ गई। विभाग के कर्मियों ने नक्सलियों के डर से जंगल की ओर रूख करना छोड़ दिया। हालांकि गांव में वन विभाग की संयुक्त वन प्रबंधन समिति कागज पर बखूबी चल रही है। परंतु इस समिति से गांव वालों को कोई लेना-देना नहीं है। गांव के लोगों का कहना है कि उन्होंने सुना है कि गांव में वन समिति गठित हुई है, लेकिन किसी को समिति के काम-काज के बारे में कोई जानकारी नहीं है। उन्होंने यह भी सुना है कि गांव के नाम पर समिति को विभाग ने सामुदायिक कार्यों के लिए कई तरह के सामान भी उपलब्ध कराए गए हैं। लेकिन यह सब कहां और किसके पास है, इसकी भी जानकारी उन्हें नहीं है। गांव के इंद्रजीत सिंह बताते हैं ‘सच्चाई यह है कि विगत 17 सालों से जंगल को लेकर वन विभाग की कोई एक्टिविटी देखने को नहीं मिली। विभाग ने जंगल को नुकसान पहुंचाने या लकड़ी काटने के आरोप में किसी के खिलाफ एक मुकदमा भी दर्ज नहीं किया है।
इंद्रजीत के इस बयान से स्पष्ट है कि विभाग ने जाने-अनजाने यहां के जंगलों की तरफ से आंखें मूंद रखी है। यही वजह है कि विगत एक-डेढ़ दशक में इस क्षेत्र में जंगलों का जमकर दोहन हुआ। तस्करों ने कतिपय स्थानीय लोगों की मदद से जंगलों का जमकर दोहन किया। जंगलों की अवैध कटाई कई वर्षों तक जारी रही और देखते ही देखते जंगल से बेशकीमती लकड़ियां गायब हो गईं। परिणाम यह हुआ कि एक-डेढ़ दशक में ही जंगल वीरान हो गए। जंगलों में बड़े-बड़े बेशकीमती पेड़ की जगह सिर्फ झाड़ियां ही शेष रह गई। इसका डमडोईया पंचायत के गांवों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। जंगलों की हरियाली गई तो गांव की खुशहाली भी छिन गई। गांवों के लोग सूखी लकड़ियों को भी तरसने लगे। चूल्हे के लिए जलावन का जुगाड़ करना भी मुश्किल होने लगा। पत्तल-प्लेट के रोजगार से जुड़े लोग भूखों मरने लगे। दतवन बेचकर जीवन बसर करने वालों के सामने भी संकट खड़ा हो गया। जंगली फलों और जड़ी-बूटियों के भी लाले पड़ने लगे। इनकी कमी गांव वालों को रह-रहकर सालने लगी। इन्हीं परिस्थितियों में रऊफ अंसारी ने वनों की सुरक्षा व संवर्धन के लिए गांव वालों को संगठित करने की मुहीम शुरू की।
पंचायत मुख्यालय डमडोईया गांव के चौपाल पर ग्रामीणों की बैठक बुलाई। बैठक में जंगल की सुरक्षा व संवर्धन की बात उठाई, तो सबने उनका समर्थन किया। राजेश्वर मोची और बलि महतो उनकी मुहीम के अहम कड़ी बने। राजेश्वर ने बैठक में ही जंगलों की सुरक्षा को लेकर प्रचार-प्रसार का बीड़ा उठाया। बलि महतो ने जंगल बचाने के लिए आजीवन जंगल की सुरक्षा में लगे रहने का वचन दिया। गांव के अन्य लोगों ने भी उन्हें साथ देने का वादा किया। पहली ही बैठक में ही सबने प्रण किया कि अब जंगल से न तो लकड़ियां काटेंगे और न ही दूसरे को काटने देंगे। जब तक जंगल फिर से समृद्ध नहीं हो जाएंगे, तब तक जंगल से एक घुरान के लिए किसी पेड़ की डाली तक नहीं काटेंगे। इसके बाद गांव वाले अपने इस फैसले से कभी डिगे नहीं। बैठकों का दौर और जंगलों की सुरक्षा को लेकर ग्रामीणों की चिंतन जारी रहा। इस दौरान जंगल बचाओ मुहिम के तिकड़ी रऊफ अंसारी, राजेश्वर मोची और बलि महतो अपनी-अपनी जिम्मेवारी भी निभाते रहे। रऊफ जंगलों की सुरक्षा के प्रति लोगों में जागरूकता लाने के लिए अभियान चलाते रहे। राजेश्वर का ढाक के साथ अनोखा प्रचार भी जारी रहा। हर सप्ताह राजेश्वर अपने गले से ढाक लटकाए गांव-गांव घूमता और लोगों से जंगल को नुकसान नहीं पहुंचाने की अपील करता। बलि महतो भी अपने वचन से कभी हटे नहीं। वह रोज सुबह उठते और एक हाथ में डंडा और दूसरे हाथ में छाता लिए जंगल की ओर निकल पड़ते। वह दिन का भोजन भी अपने साथ लिए जाते। एक बार जंगल की ओर निकल पड़ते तो फिर शाम को ही घर लौटते।
दिलचस्प बात तो यह है कि जंगल बचाओ अभियान में लगे उक्त तीनों लोग अपनी जिम्मेवारी पिछले कई वर्षों से निभाते आ रहे हैं। इनकी मेहनत और लगन का असर भी अब दिखने लगा है। इनके प्रयास और गांव वालों के सहयोग से डमडोईया गांव से पश्चिम उत्तर में करीब 50 हेक्टेयर में सखुआ का जंगल आबाद हो रहा है। इस जंगल में सखुआ के हजारों पेड़ आसमान से बातें कर रहे हैं। शरीर से उम्रदराज लेकिन मन-मिजाज से युवा व उत्साही बलि महतो से इसी जंगल में मुलाकात हुई। इस उम्र में भी जंगलों की सुरक्षा को लेकर उन्हें इतनी फिक्र क्यों है, इस पर उल्टे सवाल करते हुए वह कहते हैं ‘यही तो दुख है कि जंगलों को लेकर बाकी लोग बेफिक्र क्यों हैं? वह कहते हैं कि वे पढ़े-लिखे नहीं हैं, फिर भी मानव जीवन के लिए जंगल कितना जरूरी है, इसका एहसास उन्हें भली भांति है। पढ़े-लिखे लोगों की जंगलों के प्रति उदासीनता उनके समझ से परे हैं। ऐसा लगता है कि आने वाले संकटों से वे बिलकुल बेखबर हैं। जंगलों की रक्षा के लिए हर समुदाय को आगे आने की जरूरत है।
बहरहाल, डमडोईया में जंगल बचाओं मुहिम में लगी रऊफ, राजेश्वर व बलि की तिकड़ी ने सामुदायिक वन प्रबंधन के तहत वनों की सुरक्षा व संवर्धन में अहम योगदान देकर जंगलों के आसपास रहने वालों को एक नई राह दिखाई है। अब जरूरत है कि देश के दूसरे इलाके में भी सामुदायिक वन प्रबंधन का प्रयोग हो ताकि वीरान होते जंगलों में फिर से हरियाली लौटे आए।