सारांश एवं निष्कर्ष : ऊपरी महानदी बेसिन में जल संसाधन मूल्यांकन एवं विकास

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Source
पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर (मध्य प्रदेश) 492010, शोध-प्रबंध 1999

स्थिति एवं विस्तार


ऊपरी महानदी बेसिन दण्डकारण्य पठार के उत्तर, बघेलखण्ड पठार के दक्षिण तथा मैकाल श्रेणियों के पूर्व में 19047’ उत्तरी अक्षांश से 23007’ उत्तरी अक्षांश तथा 80017’ पूर्वी देशांतर से 83052’ पूर्वी देशांतर तक 73,951 वर्ग किमी क्षेत्र में विस्तृत है प्रशासनिक दृष्टि से इनके अंतर्गत मध्य प्रदेश के रायपुर, दुर्ग, राजनांदगाँव, बिलासपुर, रायगढ़ जिले के (जशपुर तहसील को छोड़कर) व कांकेर जिले के कांकेर तहसील का क्षेत्र आता है। इसके अंतर्गत 14,723 गाँव, 5239 पंचायतें, 90 विकासखंड, 61 तहसीलें एवं 68 नगर आते हैं। इस प्रदेश की जनसंख्या 1,33,26,396 व्यक्ति (1991) है।

ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि :


ऊपरी महानदी बेसिन ऐतिहासिक काल में दक्षिण कोसल के नाम से जाना जाता था। धार्मिक दृष्टि से महानदी को चित्रोत्पल्ला कहते हैं। बेसिन प्रदेश में सन 1741 से 1854 तक भोंसला, अंग्रेजों एवं मराठों के आधिपत्य में था। यह प्रदेश सन 1947 मध्यप्रांत एवं बरार राज्य का हिस्सा बना और सन 1956 में मध्य प्रदेश राज्य का हिस्सा बन गया, तब से यह आर्थिक, राजनैतिक, व्यापारिक एवं धार्मिक रूप में विख्यात है।

वैज्ञानिक संरचना :


ऊपरी महानदी बेसिन कडप्पा शैल समूह, धारवाड़ एवं गोंड़वाना शैल समूह द्वारा निर्मित है। इन शैल समूहों की मोटाई 30-35 मीटर तक है। यहाँ प्राचीनतम एवं नवीनतम दोनों क्रम की चट्टानें हैं।

वावच :


ऊपरी महानदी बेसिन पूर्व को झुकी हुई एक तश्तरी के रूप में है। जिसका मध्यवर्ती भाग चौरस तथा समुद्र सतह से लगभग 300 मी. ऊँचा है। इसका ढाल बहुत मंद है। इसके उत्तरी सीमांत भाग में लोरमी का पठार, पेंड्रा का पठार, छुरी की पहाड़ियाँ, उदयपुर की पहाड़ियाँ स्थित है जिनकी ऊँचाई सामान्यतया 1000 मीटर है। दक्षिण में राजनांदगाँव-दुर्ग उच्च भूमि, कांकेर पहाड़ी, तथा दक्षिण-पूर्व में रायपुर की उच्च भूमि स्थित है, जो 900 मीटर से अधिक ऊँची है। इसके पश्चिम में मैकल श्रेणी तथा मध्य में बिलासपुर एवं हसदो मांद का मैदान स्थित है। यह मैदान उच्च भू-भागों के मध्य स्थित महानदी तथा उसकी सहायक नदियों द्वारा लाई गई जलौढ़ मिट्टी के निक्षेपों द्वारा निर्मित है। यह मैदान बिलासपुर, हसदो मांद, शिवनाथपार का मैदान, महानदी दोआब एवं महानदी पार क्षेत्र के नाम से जाना जाता है।

अपवाह प्रणाली :


ऊपरी महानदी बेसिन में महानदी और उसकी सहायक नदियाँ सीमांत से निकलकर मध्यवर्ती मैदान में प्रवाहित होती है। नदी रायपुर उच्च भूमि की सिहावा पहाड़ियों में से निकल कर पहले उत्तर-पश्चिम, फिर उत्तर-पूर्व की ओर प्रवाहित होकर धीरे-धीरे प्रदेश से बाहर उड़ीसा राज्य की ओर निकलकर बंगाल की खाड़ी में गिरती है। यह एक सततवाहिनी नदी है जो मैदानी क्षेत्र काफी चौड़ी हो गई है। महानदी की प्रमुख सहायक शिवनाथ है, जो राजनांदगाँव उच्च भूमि से अवतीर्ण होकर अपनी सहायक लोगों के साथ राजनांदगाँव, दुर्ग तथा बिलासपुर जिले के पश्चिम भाग में जल प्रवाहित करती है। महानदी के उत्तर में आकर आने वाली नदियों में पैरी, जोंक व सुरगी मुख्य है। प्रदेश का 5.81 प्रतिशत अपवाह क्षेत्र सोन, नर्मदा, की सहायक बंजर तथा गोदावरी सहायक कोटरी आदि नदियों द्वारा अपवाहित किया जाता है। प्रदेश का 94.19 प्रतिशत अपवाह महानदी अपवाह क्षेत्र में आता है। इसमें हसदों, मांद, अरपा, मनिहारी, शिवनाथ, खारुन, सोंढूर, सूखा, तेल, तांदुला, लीलागर, हॉफ इत्यादि नदियों के जल क्षेत्र सम्मिलित हैं।

वायु :


ऊपरी महानदी बेसिन की जलवायु उष्ण कटिबंधीय मानसूनी प्रकार की है। जिसमें शीत ऋतु शुष्क व ठंडी तथा ग्रीष्म ऋतु होती है। दिसंबर वर्ष का सबसे ठंडा महीना होता है जब औसत तापमान 20 डिग्री सेल्सियस के आसपास रहता है। मई सबसे गर्म महीना होता जिसका औसत तापमान 35 डिग्री सेल्सियस से अधिक तथा अधिकतम तापमान 47 डिग्री सेल्सियस तक दर्ज किया है।

वर्षा का क्षेत्रीय वितरण 111 से 160 सेमी के मध्य रहता है। न्यूनतम वर्षा शिवनाथ पार के मैदान में होती है, जबकि उदयपुर की पहाड़ियों तथा राजनांदगाँव उच्च भूमि के दक्षिण भागों में अधिकतम वर्षा कवर्धा में 160 सेमी से अधिक होती है। अत: वार्षिक वर्षा की मात्रा में काफी भिन्नता पाई जाती है।

मौसमी परिवर्तनों के आधार पर यहाँ की तीन ऋतुओं - शीत ऋतु (नवम्बर से फरवरी) ग्रीष्म ऋतु - (मार्च से मध्य जून) और वर्षा ऋतु (जून से अक्टूबर) तक की है।

मिट्टी :


बेसिन में मुख्यत: स्थानीय वर्गीकरण के अनुसार कन्हार, मटासी, डोरसा, भाठा एवं कछारी मिट्टियाँ मिलती है परंतु यहाँ अधिकांशत: अवशिष्ट प्रकार की मिट्टियाँ हैं जो नदीघाटी तथा बाढ़ के मैदानी भागों में जलोढ़ कांप की मिट्टी के रूप में पाई जाती है। निम्न भूमियों में प्राय: चीका तुल्य मिट्टी पाई जाती है जो नमी प्राप्त होने पर काली रेगुर की भाँति चिपचिपी हो जाती है। सूखने पर इसमें दरारें पड़ जाती है। यह काफी उपजाऊ मिट्टी होती है। इसमें जल धारण करने की क्षमता अधिक होती है। अत: इसमें बिना सिंचाई के फसलें उगाई जाती है। उच्च प्रदेशों में लाल-पीली बजरीनुमा लेटेराईट मिट्टी पाई जाती है। यह मिट्टी कृषि की दृष्टि से अनुपजाऊ होती है, परंतु कहीं-कहीं इसमें मोटे अनाज जैसे - कोदो, कुटकी आदि की खेती की जाती है।

वनस्पति :


ऊपरी महानदी बेसिन में उष्ण कटिबंधीय पर्णपाती वनस्पतियाँ पाई जाती है। इस प्रदेश का एक तिहाई भाग 52,727.58 किलोमीटर (38.2 प्रतिशत) वनाच्छादित है। वन मुख्यत: कृषि अयोग्य उबड़-खाबड़ धरातल वाले उच्च भू-भागों तक ही सीमित प्रदेश में वनों का क्षेत्रीय वितरण असमान है। इस प्रदेश में मध्यवर्ती भाग प्राय: वनविहीन है, जबकि इसके सीमावर्ती भागों में वनों का विस्तार पाया जाता है। वन क्षेत्रों के विस्तार की दृष्टि से अग्रणी बिलासपुर जिला (42.64 प्रतिशत) है। इसके बाद रायपुर (36.5 प्रतिशत), राजनांदगाँव (35.2 प्रतिशत), रायगढ़ (31.0 प्रतिशत) एवं दुर्ग (11.0 प्रतिशत) का स्थान है।

यहाँ मुख्यत: साल, सागौन व मिश्रित वन पाये जाते हैं। बेसिन के दक्षिण-पश्चिम भाग को छोड़कर अन्य सभी भागों में साल के वनों की उपस्थिति मिलती है। दक्षिणी-पश्चिमी भाग में सागौन के वनों की प्रचुरता पाई जाती है। साल व सागौन के अतिरिक्त यहाँ तेंदू, हल्दू, साजा, सई, व खेर के वृक्ष भी पाये जाते हैं। यहाँ बांस भी बहुतायत में मिलता है। यह प्रदेश भारत वर्ष का प्रमुख तेंदूपत्ता उत्पादक प्रदेशों में से है। तेंदूपत्ते से बीड़ी बनाई जाती है। आय की दृष्टि से वनोपजों का विशेष महत्व है।

वन्य जीव :


बेसिन के प्रमुख वन्यपशु - शेर, चीता, गौर, जंगली भैंसा, भेड़िया, भालू, सांभर, नीलगाय, बारहसिंगा, चिंकारा, लोमड़ी, बंदर आदि है। वनों से कुछ कीट उत्पाद भी प्राप्त होते हैं जैसे - लाख, मधु तथा मोम आदि।

वन्य आधारित उद्योग :


ऊपरी महानदी बेसिन में वनों पर कई प्रकार के उद्योग आधारित हैं जैसे - बीड़ी उद्योग, फर्नीचर, लाख उद्योग, कोसा सिल्क, माचिस उद्योग आदि।

खनिज :


ऊपरी महानदी बेसिन में अनेक खनिज पाये जाते हैं जिनमें कोयला, लौह-अयस्क व चूना पत्थर प्रमुख है। कोयला उत्तरी भूमि में गोंडवाना क्रम की चट्टानों में पाया जाता है। यहाँ का कोयला उप-बिटूमिनस प्रकार का है। सेंदूरगढ़, हसदो, रायपुर, कोरबा, रायगढ़, मांदनदी तथा कंकानी कोयला प्राप्ति के प्रमुख क्षेत्र हैं।

लौह अयस्क के भंडार :


दुर्ग जिले में राजहरा की पहाड़ी में एवं दंतेवाड़ा जिले के रावघाट व बैलाडीला पहाड़ी में पाये जाते हैं। लौह अयस्क प्राप्ति के यहाँ चार प्रमुख क्षेत्र राजहरा, दल्ली पहाड़, महामाया तथा अरीडेंगरी देश में चूना पत्थर के विशाल भंडार पाये जाते हैं। यह मुख्यत: बिलासपुर, रायगढ़ जिले की सीमा के निकट, रायपुर, आरंग के साथ-साथ दुर्ग जिले में नंदनी-खुंदनी क्षेत्र तथा राजनांदगाँव जिले में रंजीतपुर एवं रनवीरपुरा में है।

कोयला, लोहा व चूना पत्थर के अतिरिक्त इस मैदानी प्रदेश में बाक्साईट, डोलोमाइट, अग्नि सहमिट्टी क्वार्टज व फ्लूओराइट भी पाये जाते हैं।

उद्योग :


महानदी बेसिन में उद्योगों का पर्याप्त विकास हुआ है। लोहा इस्पात, रसायन, सीमेंट, एल्युमिनियम, उर्वरक, सूती वस्त्र व जूट उद्योग आदि यहाँ विकसित प्रमुख उद्योग हैं। यहाँ भिलाई में लोहा इस्पात का विशाल कारखाना है। इसकी उत्पादन क्षमता प्रतिवर्ष चालीस लाख टन है। इस कारखानें में इस्पात से रेल के समान व छड़ें बनाई जाती है। चूना पत्थर के विशाल भंडारों के कारण इस प्रदेश में जामुल, मांढर, बैकुंठ तथा अकलतरा में सीमेंट उद्योग केंद्रित है। रायपुर तथा भिलाई के मध्य कुम्हारी में उर्वरक कारखाना स्थित है जिसमें सुपर फास्फेट, सल्फ्युरक एसिड, एल्युमिनियम सल्फेट आदि का उत्पादन होता है। कोरबा में सार्वजनिक क्षेत्र का एल्युमिनियम का विशाल कारखाना स्थित है, जहाँ एल्युमिनियम की सिल्लियों व छड़ों का उत्पादन होता है। यहाँ से विदेशों को भी एल्युमिनियम निर्यात किया जाता है। कोरबा में ताप विद्युत एवं रासायनिक खाद का कारखाना भी क्रियाशील है। कोरबा से लगभग 15 किमी की दूरी पर एक विस्फोटक पदार्थ निर्माण करने का कारखाना कार्यरत है। राजनांदगाँव नगर में सूती वस्त्र का एक कारखाना है जहाँ पॉपलीन, लांगक्लाथ, धोती, साड़ी, कंबल तथा जालीदार कपड़े निर्माण होता है। रायगढ़ में सूती व रेशमी वस्त्र (कोसा) उत्पादन होता है।

लघु उद्योगों के अंतर्गत यहाँ चावल व दाल मिल, तेल व आटा मिल, बीड़ी बनाना, लकड़ी चीरना प्रमुख है। इनके अतिरिक्त साबुन, लाख, पत्थर का सामान व फर्नीचर बनाना अन्य उद्योग है।

जनसंख्या :


ऊपरी महानदी बेसिन, मध्यप्रदेश राज्य का एक घना बसा प्रदेश है। सन 1991 जनगणना के अनुसार यहाँ की कुल आबादी 1,33,26,396 व्यक्ति है। जिसमें 67,050,43 (50.32 प्रतिशत पुरुष) एवं 66,21,353 (49.68 प्रतिशत) महिलायें हैं। जनसंख्या का औसत घनत्व 180 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी है। प्रदेश में जनसंख्या का वितरण असमान पाया जाता है। प्रदेश के सीमांत उच्च भागों पर जनसंख्या विरल रूप में है। इसके विपरीत मैदानी भागों में सघन जनसंख्या है। यहाँ दुर्ग जिला सर्वाधिक सघन बसा है, जबकि दण्डकारण्य क्षेत्र (कांकेर जिला) सबसे कम बसा है, क्योंकि यह भाग तीव्र ढाल वाले पहाड़ी पठारी तथा वनाआच्छादित है। दुर्ग जिला उपजाऊ मैदानी क्षेत्रों में स्थित है।

ऊपरी महानदी बेसिन में जनसंख्या वृद्धि दर प्रति दशक (1981-91) में 24.69 प्रतिशत है एवं लिंगानुपात 992 है। बेसिन कुल जनसंख्या का 19.05 प्रतिशत नगरीय एवं 80.05 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण है। आदिवासी बहुल रायगढ़ जिले में 80.31 प्रतिशत ग्रामीण जनसंख्या है एवं दुर्ग में 64.63 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण है। यहाँ एक लाख से अधिक जनसंख्या वाले नगर भिलाई नगर 95,360 (46.74 प्रतिशत) रायपुर 4,62,694 (59.96 प्रतिशत), बिलासपुर 1,92,396 (29.83 प्रतिशत), दुर्ग 1,66,931 (69.74 प्रतिशत), राजनांदगाँव 1,25,371 (55.28 प्रतिशत), कोरबा 1,24,501 (19.30 प्रतिशत) एवं कांकेर 20,702 (11.42) व रायगढ़ 90,265 (60.87 प्रतिशत) नगरीय जनसंख्या है। रायपुर इस प्रदेश का सबसे बड़ा नगर है। यह कृषि, व्यापार व शिक्षा का महत्त्वपूर्ण केंद्र है। कोरबा खनन नगर है जिसका विकास कोयला खनन के कारण ही संभव हो सका है। भिलाई लोहा इस्पात महत्त्वपूर्ण केंद्र है।

यहाँ साक्षरता 43.75 प्रतिशत है। प्रदेश के दुर्ग जिला में अधिक (47.86 प्रतिशत) एवं रायगढ़ में कम (33.46 प्रतिशत) साक्षर है (मानिचत्र क्रमांक 1.16)। बेसिन में 23.27 प्रतिशत जनसंख्या अनुसूचित जनजाति, 14.27 प्रतिशत अनुसूचित जाति एवं 62.50 जनसंख्या अन्य पिछड़ी तथा सामान्य जाति की है। अनुसूचित जाति की जनसंख्या बिलासपुर जिले में अधिक 18.11 प्रतिशत है एवं कांकेर तहसील में कम 4.61 प्रतिशत है।

यहाँ 42.92 प्रतिशत जनसंख्या मुख्य कार्यशील है। जिसमें 61.52 प्रतिशत पुरुष व 38.48 प्रतिशत महिलायें हैं। सबसे अधिक कार्यशील जिलों में 62.71 प्रतिशत एवं कम राजनांदगाँव जिलों में 20.67 प्रतिशत व्यक्ति कृषि मजदूर हैं।

कृषि :


ऊपरी महानदी बेसिन कृषि प्रधान प्रदेश है। यहाँ के निवासियों का प्रमुख उद्यम कृषि है। कृषि भूमि के 60.12 निरा फसल क्षेत्र एवं 18.37 प्रतिशत दोफसली क्षेत्र है। धान सर्वप्रमुख फसल है। यहाँ 73.18 प्रतिशत क्षेत्र में खरीफ फसलें एवं 26.82 प्रतिशत क्षेत्र में रबी फसलें उगाई जाती हैं। जिसमें कुल 88.97 प्रतिशत, गेहूँ 2.80 प्रतिशत, अन्य अनाज 8.23 प्रतिशत, दलहन फसलें 16.53 प्रतिशत, तिलहन 41.47 प्रतिशत भू-भाग पर उत्पन्न होती है एवं 33 प्रतिशत भाग पर व्यापारिक फसलें एवं 1.12 प्रतिशत पर साग-सब्जियाँ उगाते हैं। तिवरा, अरहर व कुलथी यहाँ पैदा होने वाली अन्य दालें हैं।

अलसी यहाँ की सर्वप्रमुख तिलहन फसल है। इसका उत्पादन मुख्यत: बेसिन के पश्चिमी भागों में होता है। मूंगफली, तिल व सरसों व सोयाबीन का भी थोड़ी मात्रा में उत्पादन होता है।

भूमि उपयोग में ग्रामीण वन 12.71 प्रतिशत, कृषि के लिये अप्राप्त भूमि 13.18 प्रतिशत, पड़ती भूमि 4.55 प्रतिशत पड़ती के अतिरिक्त अन्य कृषि अकृषि भूमि 9.44 प्रतिशत, निरा फसल क्षेत्र 60.12 प्रतिशत एवं दोफसली क्षेत्र 18.37 प्रतिशत है।

प्रदेश में 58.92 प्रतिशत क्षेत्र नहरों से, 25.32 प्रतिशत क्षेत्र नलकूपों, 5.93 प्रतिशत क्षेत्र तालाबों, 4.09 प्रतिशत क्षेत्र कुओं से सिंचित होता है। यहाँ नहर ही सिंचाई का मुख्य साधन है। यहाँ धान उत्पादन की प्रमुखता के कारण ही इस प्रदेश को धान का कटोरा कहा जाता है। धान मैदानी क्षेत्र में अधिक उगाया जाता है। गेहूँ प्रदेश के पश्चिमी भागों में उगाया जाता है। जहाँ कन्हार व डोरसा मिट्टी पायी जाती है। यहाँ उगाये जाने वाली दालों के अंतर्गत तिवरा सर्वप्रमुख है जो कुल बोये गये क्षेत्र के 13 प्रतिशत क्षेत्र में उगायी जाती है।

परिवहन के साधन :


ऊपरी महानदी बेसिन में तुलनात्मक रूप से परिवहन के साधन अधिक विकसित हैं। नर्मदा-सोनघाटी व गंगा की घाटी, कटनी-बिलासपुर रेलमार्ग द्वारा संबंद्ध है। मुंबई-हावड़ा रेलमार्ग भी बिलासपुर व रायपुर से होकर गुजरती है। भिलाई-राजहरा, रायपुर-धमतरी, रायपुर-महासमुंद-वाल्टेयर, बिलासपुर-कटनी व चांपा-कोरबा-गेवरा रोड आदि सभी रेलमार्ग मुंबई-हावड़ा रेलमार्ग से जुड़े हुए हैं।

सड़क परिवहन के अंतर्गत दो राष्ट्रीय राजमार्ग मुंबई-कोलकाता क्रमांक - 6 तथा रायपुर - धमतरी जगदलपुर विशाखापट्टनम राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक - 43 इस प्रदेश से होकर गुजरते हैं। बेसिन में सड़क मार्गों का जाल सा बिछा हुआ है। सीमांत उच्च प्रदेशों की तुलना में महानदी के मैदानी भाग में सड़क मार्गों का ज्यादा विकास हो सका है। बेसिन में वायु सेवाएँ भी उपलब्ध हैं। बेसिन में रायपुर से 14 किलो मीटर दक्षिण में स्थित माना में एकमात्र हवाई अड्डा है। यहाँ से भोपाल, जबलपुर, दिल्ली, नागपुर एवं मुंबई के लिये वायु सेवाएँ उपलब्ध हैं।

व्यापार :


बेसिन की अर्थव्यवस्था में कृषि सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। यहाँ ग्रामीण क्षेत्रों में 53 कृषि उपज मंडियाँ व 1964 साप्ताहिक बाजार हैं। नगरों में विशिष्टीकृत बाजार विकसित हो चुके हैं। यहाँ निर्यात व्यापार में चावल, तेंदू, लकड़ी तथा बांस आदि है। भिलाई से इस्पात उत्पाद, सीमेंट और बांस, एल्युमिनियम, रायगढ़ से कोसा, रेशम जैसे औद्योगिक उत्पादों का निर्यात विदेशों को भी किया जाता है। आयात व्यापार होजियरी सामान, गेहूँ, तेल, चमड़े का सामान, चीनी आदि उपभोग वस्तु है। कई औद्योगिक कच्चे माल जैसे कोयला, मैग्नीज, बॉक्साइट, कपास तथा पटसन का आयात देश के अन्य भागों से करना पड़ता है।

इस प्रकार बेसिन की अर्थव्यस्था कृषि प्रधान होते हुए भी बहुमुखी विकास की ओर अग्रसर है।

जलसंसाधन संभाव्यता :


जल संसाधन संभाव्यता, उपयोग एवं विकास की दृष्टि से वर्षा की मासिक एवं वार्षिक विचलनशीलता, वर्षा की प्रकृति एवं गहनता पर निर्भर है। ऊपरी महानदी बेसिन में 95 प्रतिशत वार्षिक वर्षा दक्षिणी-पश्चिमी मानसून द्वारा जून से सितंबर माह के मध्य होती है, शेष वर्षा शीतकालीन चक्रवातों द्वारा होती है। बेसिन में जल प्राप्ति का मुख्य स्रोत वर्षा है। वर्षा की क्षेत्री विभिन्नता के कारण बेसिन में दक्षिणी - पूर्व से उत्तर-पश्चिम की ओर वर्षा क्रमश: कम होती जाती है। बेसिन के उत्तर में स्थित पेंड्रा में 140 सेमी. वर्षा होती है। कवर्धा में 92 सेमी वर्षा होती है। वार्षिक वर्षा की मात्रा पश्चिम से पूर्व की ओर क्रमश: बढ़ती जाती है। यहाँ शीतकालीन वर्षा 7.15 प्रतिशत, सेंटीमीटर होती है। मानसून की वार्षिक 87.66 प्रतिशत, ग्रीष्मकालीन वर्षा 5.7 प्रतिशत होती है। सितंबर एवं अक्टूबर में निवर्तनकालीन मानसून से 4 से 16 प्रतिशत तक वार्षिक वर्षा प्राप्त होती है। कुल वार्षिक वर्षा की तीव्रता सर्वाधिक रायगढ़ जिले में 9.79 प्रतिशत एवं न्यूनतम कवर्धा में 6.66 प्रतिशत होती है। यहाँ मार्च, अप्रैल एवं मई सामान्यत: शुष्क महिने हैं। तथापि यह तथ्य स्पष्ट है कि प्रदेश में वर्षा की मात्रा में वर्ष दर वर्ष ह्रास की प्रवृत्ति दिखाई देती है। यद्यपि वर्षा की अधिक ह्रास दर (0.15 - 1.08 प्रतिशत) है जिससे धान उत्पादक क्षेत्र के लिये संकट की स्थिति उत्पन्न हो सकती है, साथ ही बेसिन के जल विकास प्रबंधकों हेतु एक चेतावनी है।

वर्षा तथा जल क्षेत्र :


बेसिन के सभी क्षेत्रों में वार्षिक वर्षा एवं संभाव्य वाष्पीय वाष्पोत्सर्जन के अंतर्संबंधों के अध्ययन से जल बजट की स्थित नष्ट हो जाती है। यहाँ औसत सामान्य वाष्पोत्सर्जन की मात्रा उत्तर से दक्षिण की ओर क्रमश: घटती जाती है। उत्तरी क्षेत्र में औसत संभाव्य, वाष्पीय वाष्पोत्सर्जन 1,596 मिली मीटर दक्षिणी क्षेत्र में 1857 मिली मीटर है। संभाव्य वाष्पीय वाष्पोत्सर्जन की इस क्षेत्रीय विषमता का प्रमुख कारण तापक्रम की भिन्नता, मिट्टी की संचित आर्द्रताग्राही क्षमता, वानस्पतिक आवरण एवं वार्षिक वर्षा की मात्रा है। बेसिन में जलाभाव की मात्रा में उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम की ओर क्रमश: वृद्धि होती है। इससे सामान्यत: दो स्थितियाँ निर्मित होती हैं। प्रथम, मानसून काल में संचित आर्द्रता से शीतकालीन जलीय आवश्यकता पूर्ण नहीं हो पाती। फलत: शुष्कता की स्थिति निर्मित हो जाती है। द्वितीय, मार्च तक मिट्टी में संचित आर्द्रता की समाप्ति के साथ शुष्कता की स्थिति निर्मित हो जाती है। सामान्यत: अधिक वर्षा वाले क्षेत्र अधिकतम जलाधिक्य के क्षेत्र हैं। इनमें कटघोरा में 695 मिमी, पेण्ड्रा में 700 मिमी, जांजगीर में 576 मिमी एवं बिलासपुर में 350 मिमी जलाधिक्य क्षेत्र है। बेसिन की औसत आर्द्रता पर्याप्तता 65.25 प्रतिशत है। अधिक आर्द्रता पर्याप्तता कटघोरा एवं पेंड्रा क्षेत्र में क्रमश: 63 एवं 61 प्रतिशत है। यहाँ वर्षा की लंबी अवधि, कुल वार्षिक की प्राप्ति, मिट्टी की उच्च जलधारण क्षमता इन क्षेत्रों में आर्द्रता पर्याप्तता का प्रमुख कारण है। आर्द्रता पर्याप्तता सर्वाधिक मानसून काल में 93 प्रतिशत होती है, जो अक्टूबर के पश्चात क्रमश: कम होते जाती है।

सूखा एवं बाढ़ :


ऊपरी महानदी बेसिन के विभिन्न केंद्रों पर वर्ष 1901-1995 की अध्ययन अवधि में वर्ष 1971-80 का दशक सर्वाधिक सूखाग्रस्त रहा है। इस अवधि में सर्वाधिक सूखाग्रस्त गरियाबंद एवं राजिम क्षेत्र वर्ष 91 में शुष्क रहा, जबकि बलौदा बाजार, भाठागाँव, मुंगेली एवं कटघोरा 1961-1971 की अवधि में सर्वाधिक शुष्क वर्ष रहे। साथ ही न्यूनतम शुष्क वर्ष 1901-1960 की अवधि में रहा है। देवभोग, गरियाबंद सर्वाधिक बाढ़ के क्षेत्र रहे हैं। 1964-1993 तक बेसिन में उत्तरी भाग में शुष्कता की आवृत्ति दक्षिणी भागों की तुलना में अपेक्षाकृत कम है। यहाँ उत्तरी भाग वनाच्छादित है। अत: शुष्क अवधि की आवृत्ति कम है जबकि बेसिन के दक्षिण का मैदानी भाग सूखे की चपेट में अधिक आता है तथापि यहाँ का कोई भी भाग सूखे से अप्रभावित नहीं है।

बेसिन में रायपुर एवं बिलासपुर जिले के सूखे के आंकड़े उपलब्ध हुए हैं, इस आधार पर रायपुर जिले में गरियाबंद एवं भाठागाँव (क्रमश: 60, 65 प्रतिशत) अत्यधिक क्षेत्र माने गये हैं। यहाँ के दक्षिण पश्चिम के मैदानी क्षेत्र शुष्क आर्द्र (सी - 1) आर्द्रता प्रदेश के अंतर्गत आते हैं।

धरातलीय जल :


ऊपरी महानदी बेसिन में धरातलीय जल उपलब्धता का 95.06 प्रतिशत (15,536 लाख घनमीटर जल) 18,585 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में विस्तृत महानदी प्रवाह क्रम की नदियों द्वारा संग्रहित होता है। शेष 4.94 प्रतिशत (482 लाख घन मी जल) 964 वर्ग किमी क्षेत्र में विस्तृत गंगा प्रवाह क्रम की नर्मदा एवं उसकी सहायक नदियों द्वारा प्राप्त होता है।

जल संग्रहण प्रणाली :


बेसिन की विभिन्न नदियों में वार्षिक जल संग्रहण एवं जलावाह की मात्रा में पर्याप्त क्षेत्रीय विषमताएँ एवं परिवर्तन दृष्टिगत होता है। रायपुर जिले में कुल जल संग्रहण क्षमता 2.16 लाख घनमीटर (11.81 प्रतिशत), दुर्ग 8.88 लाख घन मीटर (5.53 प्रतिशत), राजनांदगाँव 11.34 प्रतिशत लाख घनमीटर (5.07 प्रतिशत) रायगढ़ 18.33 लाख घन मीटर (7.73 प्रतिशत), बिलासपुर 23.96 लाख घन मीटर (10.8 प्रतिशत) एवं बस्तर जिले में 51.47 लाख घन मीटर (11.19 प्रतिशत) जल क्षमता संग्रहित है। यहाँ महानदी क्रम की हसदों नदी की उच्चतम मासिक जलावाह 714.14 लाख घन मीटर प्रति सेकेंड तथा न्यूनतम 4.06 लाख घन मीटर प्रति सेकेंड है। अरपा नदी की न्यूनतम जल प्रवाह 0.6 लाख घन मीटर प्रति सेकेंड एवं अधिकतम 130.6 लाख घन मीटर प्रति सेकेंड है।

सामान्यत: शिवनाथ एवं अरपा नदियों का 95 प्रतिशत जलावाह जुलाई से सितंबर की अवधि में होता है। महानदी एवं हसदों नदी में यह जून से नवंबर तक रहती है, क्योंकि इस भाग में वर्षा की अवधि लंबी है। सामान्यत: मासिक जलावाह मासिक वर्षा का अनुसरण करती है। मानसून अवधि उच्च जलावाह की अवधि है। सितंबर के पश्चात वर्षा की घटती दर के साथ-साथ जलावाह की मात्रा भी कम होते जाती है। इस अवधि में बेसिन में नदी जल प्रवाह अधिकतम 9.6 लाख घनमीटर में न्यूनतम 0.45 लाख घनमीटर तक अरपा नदी में रहता है। बेसिन के विभिन्न नदियों के जल प्रवाहमापी केंद्रों पर वार्षिक जलावाह में भी पर्याप्त विभिन्नता है। औसत वार्षिक जलावाह में भी पर्याप्त विभिन्नता है। औसत वार्षिक जलावाह की अधिकतम मात्रा 6,882.5 लाख घन मीटर प्रति सेकेण्ड बसंतपुर (महानदी) में है। शिवनाथ एवं हसदों का जलावाह क्रमश: 3,146 एवं 1,685 लाख घन मीटर सेकेंड है। न्यूनतम वार्षिक जलावाह गतौरा में 316.6 लाख घन मीटर प्रति सेकेंड है।

बेसिन में जलावाह की मात्रा भी वर्षा के वितरण की भाँति उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम की ओर क्रमश: घटते जाती है। अधिकतम जलावाह कटघोरा 1,005.00 मि. मि. एवं न्यूनतम मंगेली में 489 मिमी है।

वार्षिक वर्षा की भांति औसत जलावाह की मात्रा में भी अत्यधिक विचलनशीलता का मुख्य कारण प्रवाह क्षेत्र में वर्षा की अनियमितता एवं प्रयाप्तता में भिन्नता है। वार्षिक विचलनशीलता का यह प्रतिशत बम्हनीडीह में 32.5, जौंधरा में 32.5, गतौरा में 44.5 एवं बसंतपुर में 30.5 प्रतिशत है।

तालाब तथा जलाशय भी धरातलीय जल उपलब्धता के प्रमुख स्रोत हैं। जो ग्रामीण क्षेत्र के भूदृश्य हैं। बेसिन में गहरे छिछले एवं अधिक फैले तालाबों की संख्या अधिक है। वर्षा अवधि में इन तालाबों से छोटी नालियों की सहायता से ढाल में स्थित क्षेत्रों में सिंचाई हेतु जल उपलब्ध होता है।

जलाशयों का स्थानिक वितरण :


बेसिन में सतही जल के संग्रहण हेतु रविशंकर सागर परियोजना, दुधावा, मुरुमसिल्ली, सिकासार, कोडार, पैरीहाईडेम, कुम्हारी टैंक, केशवनाला, पिंड्रावन, सोंदूर, बलार, उदंती, तांदुला, खरखरा, खपरी, गोंदली, खारंग, सुरही, नवागाँव, धारा एवं बांगों जलाशय का निर्माण किया गया है। इसमें बड़ी, मध्यम एवं छोटी परियोजना के जलाशय सम्मिलित है।

महानदी पर रविशंकर सागर परियोजना वृहद परियोजना है, जिसकी रूपांकित जल क्षमता 909 लाख घन मीटर है। इस जलाशय से कुल 1,77,695 हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई होती है। मनियारी नदी पर मनियारी जलाशय निर्मित है, जिसकी जल संग्रहण क्षमता 147.81 लाख घन मीटर है, इससे 40,412 हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई की जाती है।

भूमिगत जल :


भू-गर्भजल उपलब्धता मुख्यत: चट्टानी सरंध्रता, चट्टानों की क्षमता एवं चट्टानी कणों की विभिन्नता पर निर्भर करती है। बेसिन की आर्कियन, ग्रेनाइट एवं नीस चट्टानों में प्राथमिक सरंध्रता के अभाव में अपक्षयित संधियों एवं दरारी क्षेत्र अच्छे जलागार हैं। गोंडवाना युगीन बालू का प्रस्तर एवं अपयचित चूना प्रस्तर अचछे भू-गर्भजल उपलब्धता के स्रोत हैं। इन अपचयित चट्टानी संस्तरों की मोटाई 15 से 30 मीटर तक है। बेसिन के विभिन्न भागों में भू-गर्भ जलस्तर गहनता में विषमता है। बेसिन की 60 प्रतिशत निरीक्षण कूपों में गहनता 0 से 5 मीटर तक है। बेसिन के दक्षिण - पश्चिम मैदानी क्षेत्र में भू-गर्भ जल-तल की गहराई 5 से 10 मीटर तक एवं न्यूनतम भूगर्भ जल स्तर अपचयित चूना प्रस्तर एवं कॉपयुक्त तटीय क्षेत्रों में 0 से 3 मीटर तक एवं न्यूनतम भू-गर्भ जलस्तर अपययित चूना प्रस्तर एवं कॉपयुक्त नदी तटीय क्षेत्रों में 0 से 3 मीटर तक है।

भूमिगत जल का ऋतुवार उतार-चढ़ाव :


बेसिन में मानसून अवधि में औसत जल सतह की गहराई 4.50 मीटर रहती है, परंतु कहीं-कहीं अपवाद है जहाँ मानसून काल में भी जल सतह 14.59 मीटर नीचे रहता है जैसे चक्रभाटा, बिल्हा, सारागाँव क्षेत्र आदि में मानसूनोत्तर अवधि में भू-गर्भ जलस्तर 1 मीटर से 8 मीटर तक होता है। बेसिन में औसत अधिकतम एवं न्यूनतम तल उतार-चढ़ाव क्रमश: 10.81 मीटर (बेलतरा) एवं 0.4 मीटर (काठाकोनी, तखतपुर विकास खंड में) है। संपूर्ण अध्ययन अवधि (1972-1996) में न्यूनतम उतार-चढ़ाव 0.04 मीटर कुरदुर में खोली (पथरिया) में सर्वाधिक उतार-चढ़ाव 21.11 मीटर पाया गया है। औसत भू-गर्भ जल उतार चढ़ाव 4.45 मीटर है।

भूमिगत जल संभाव्यता :


ऊपरी महानदी बेसिन में कुल उपयोगी भू-गर्भ जल भंडार 7,789.20 लाख घन मीटर है। वर्तमान में 618.42 लाख घन मीटर जल का उपयोग हो रहा है शेष 7,535.86 लाख घन मीटर का जल उपयोग भविष्य के लिये किया जाना है। बिलासपुर जिले में कुल भू-गर्भ जल पुन: पूर्ति 2,402.82 लाख घन मीटर वार्षिक है। रायपुर जिले में 3,080.04, दुर्ग जिले में 975.4, रायगढ़ जिले में 410.33 एवं कांकेर तहसील में 604.00 लाख घन मीटर है। बेसिन में सर्वाधिक पौड़ी उपरोरा विकासखंड में भूगर्भ जल पुन: पूर्ति की न्यूनता का मुख्य कारण कठोर कडप्पा शेल क्रम की चूना प्रस्तर चट्टानी संरचना तथा अधिक मात्रा में भूगर्भ जल निकासी है।

बेसिन में बिलासपुर जिले में भूगर्भ जल निकासी 86.17 लाख घन मीटर है, जो कुल भूगर्भ जल पुन: पूर्ति की 3.57 प्रतिशत है। भूगर्भ जल निकासी की सर्वाधिक मात्रा डभरा विकासखंड में है। यहाँ कुल प्राप्य भूगर्भ जल का 1.5 प्रतिशत (5.55 लाख घन मीटर) है, जल का निकास हुआ। बेसिन में भूगर्भ जल का न्यूनतम विकास 1.70 लाख घन मीटर वार्षिक पौड़ी उपरोरा विकासखंड में है जो कुल भूगर्भ जल प्राप्यता का 0.4 प्रतिशत है। अकलतरा, चांपा, सक्ती, जयजयपुर विकासखंडों में भूगर्भ जल निकासी की मात्रा 2.00 से 3.00 लाख घन मीटर वार्षिक है, जो कुल भू-गर्भ जल प्राप्यता का 5 से 10 प्रतिशत है। बेसिन में 39,200 वर्ग किमी क्षेत्र कुओं के लिये तथा 25,207 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र नलकूप के लिये उपयुक्त है। कुओं के लिये उपयुक्त क्षेत्र डोंगरगाँव विकासखंड एवं नलकूप के लिये सिमगा विकासखंड उपयुक्त है।

सिंचाई :


ऊपरी महानदी बेसिन में जल संसाधन उपयोग की दृष्टि से सिंचाई का स्थान महत्त्वपूर्ण है। यहाँ सिंचाई के मुख्य 3 साधन हैं नहर, तालाब एवं नलकूप। इनसे 12,38,084 हेक्टेयर भूमि विभिन्न साधनों से सिंचित है, यह संपूर्ण फसली क्षेत्र का 28.99 प्रतिशत है। जबकि मध्यप्रदेश का औसत 23.8 प्रतिशत है।

सिंचाई का वितरण :


बेसिन में सिंचाई के साधनों के विकास की प्रगति में विभिन्नता है क्योंकि अधिकतम सिंचाई कुओं एवं नहरों के द्वारा होती है। इसके साथ ही नलकूपों द्वारा सिंचाई में प्रगति हुई है। रायपुर जिले में नहरों द्वारा 43.18 प्रतिशत, बिलासपुर जिले में कुओं द्वारा 34.11 प्रतिशत, दुर्ग जिले में नलकूपों द्वारा 30.07 प्रतिशत, कांकेर जिले में तालाबों द्वारा 1.04 प्रतिशत, राजनांदगाँव जिले में कुओं एवं तालाबों द्वारा क्रमश: 7.97 प्रतिशत एवं 6.88 प्रतिशत है। रायगढ़ में तालाबों द्वारा 13.12 प्रतिशत है। ऊपरी महानदी बेसिन कृषि प्रधान क्षेत्र है। जहाँ जल की मात्रा अधिक होने से कृषि भूमि का उपयोग तीव्रता से हो रहा है। जहाँ सिंचाई की व्यवस्था नहीं है एवं भूमि का अधिकांश भाग पर्वतीय, पथरीला एवं दुर्गम है, वहाँ नहर निर्माण कर सिंचाई के विकास पर विशेष महत्व दिया गया है।

सिंचित फसलें :


बेसिन में शुद्ध बोया गया क्षेत्र 42,14,100 हेक्टेयर है जिसमें से 9,86,500 हेक्टेयर क्षेत्र शुद्ध सिंचित क्षेत्रफल के अंतर्गत आता है। सिंचित क्षेत्र का शुद्ध बोये गये क्षेत्र से यह 22.26 प्रतिशत है जो मध्यप्रदेश के सिंचित क्षेत्रफल 23.8 प्रतिशत से कम है। इसका कारण सिंचाई सुविधाओं का पर्याप्त विकास न हो पाना है।

सिंचाई का प्रभाव :


ऊपरी महानदी बेसिन में कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 66,62,428 हेक्टेयर क्षेत्र का 65.69 प्रतिशत भूमि कृषि योग्य है। जलीय संसाधनों की दृष्टि से यह बेसिन धनी है। यहाँ के सतही जल का 96 से 99 प्रतिशत जलावाह कृषि भूमि पर सिंचाई सुविधा प्रदान करती है। साथ ही 137 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि सतही जल एवं 120 लाख हेक्टेयर कृषिभूमि भूमिगत जल से सिंचित होती है, अर्थात उपलब्ध क्षमता का 75 प्रतिशत भाग बेसिन में प्रयुक्त हो रहा है। शेष 25 प्रतिशत उपलब्ध जलीय संसाधनों का उपयोग अभी तक नहीं हो पाया है। बेसिन में जल संसाधन विकास योजना पूर्व ही प्रारंभ हो गया था परंतु 20वीं शताब्दी का द्वितीय दशक जल संसाधन विकास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रहा है। यहाँ योजनाओं की कुल संख्या 1,109 है जो रायपुर, बिलासपुर, दुर्ग, राजनांदगाँव एवं कांकेर जिलों में क्रियान्वित है। इनकी रूपांकित एवं निर्मित क्षमता 1,14,259.00 हेक्टेयर एवं वास्तविक सिंचाई क्षमता 5,40,044.00 हेक्टेयर है। इस प्रकार की योजनाएं नदियों के सहारे स्थित हैं।

बेसिन में भूमिगत जलस्रोतों से सिंचाई कुओं के द्वारा सर्वाधिक 83.66 प्रतिशत एवं नलकूपों द्वारा 16.34 प्रतिशत भूभागों में होती है। इनका क्षेत्रफल कुंओं द्वारा 14.51 प्रतिशत एवं नलकूपों द्वारा 85.41 प्रतिशत भूभागों में सिंचाई होती है। अत: भूमिगत जल स्रोतों में यहाँ कुआँ एवं नलकूप प्रमुख है।

सिंचाई परियोजनाएँ :


ऊपरी महानदी बेसिन के जलाशयों में महानदी जलाशय (रविशंकर जलाशय परियोजना) मुरुमसिल्ली जलाशय, रुद्री जलाशय दुधावा जलाशय, हसदेव बांगों परियोजना एवं तांदुला जलाशय प्रमुख है। इनमें से महानदी जलाशय एक सुरक्षात्मक सिंचाई प्रदान करती है। बेसिन में विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में सिंचाई की ओर विशेष ध्यान दिया गया है। इससे मध्यम तथा गौण सिंचाई को महत्व मिला है। बेसिन में कृषि की प्रमुखता के कारण कृषि आधारित योजनाओं पर ही इस क्षेत्र का विकास निर्भर करता है क्योंकि बढ़ती जनसंख्या की प्रमुख आवश्यकता कृषि पर ही निर्भर है। इसके लिये (1) पड़ती एवं अकृषिगत भूमि को यथासंभव कृषि क्षेत्रों में परिवर्तित कर निरा फसली क्षेत्र में वृद्धि करना (2) सिंचाई के साधनों में वृद्धि कर सिंचित क्षेत्र में वृद्धि करना एवं (3) उद्वहन सिंचाई योजनाओं की स्थापना करना मुख्य है। यहाँ जल संसाधन विकास की पर्याप्त संभावनाएं है। कुछ उपलब्ध जलराशि का अधिकांश जल सिंचाई कार्यों में उपयोग में लाया जाता है।

सिंचाई जलाशय :


बेसिन में प्रतिग्राम जलाशयों के वितरण में असमानता है। बिलासपुर जिले में सर्वाधिक 4.33 तालाब प्रतिग्राम है एवं कम राजनांदगाँव जिले में 0.27 तालाब है। इसी तरह 40 हेक्टेयर से अधिक सिंचाई युक्त तालाबों की संख्या रायपुर जिले में अधिक (4.03) एवं दुर्ग जिले में कम 141 है एवं 40 हेक्टेयर से कम सिंचाई युक्त तालाबों की संख्या अधिक बिलासपुर में (15,199) एवं कम राजनांदगाँव जिले में (426) हैं। अर्थात कुल जलान्तर्गत क्षेत्र 5.06 प्रतिशत भाग 40 हेक्टेयर से अधिक एवं 94.94 प्रतिशत भाग 40 हेक्टेयर से कम सिंचाई युक्त तालाब का है।

सिंचाई समस्याएँ :


बेसिन में सिंचाई संबंधी समस्याओं के निराकरण हेतु निम्नलिखित सुझाव दिये गये हैं - (1) सिंचाई की विषमताओं को दूर करना (2) उपलब्ध जल द्वारा अधिकतम सिंचाई की व्यवस्था कर पैदावार बढ़ाना (3) सिंचाई प्रणाली में सुधार एवं विस्तार की आवश्यकता (4) प्रशासकीय समस्याओं को यथा संभव दूर करना (5) धरातलीय विषमताओं को सुव्यवस्थित करना, एवं (6) छोटे-छोटे बांध (स्टापडेम) बनाकर सिंचाई सुविधाओं का विस्तार करना (7) भूमिगत जल का उचित प्रयोग (8) अकृषिगत भूमि में विस्तार (9) कृषि में यंत्रीकरण एवं फसल चक्र में परिवर्तन।

ग्रामीण एवं नगरीय पेयजल :


ऊपरी महानदी बेसिन के ग्रामीण एवं नगरीय क्षेत्र पेयजल की समस्या से ग्रस्त है। बेसिन की कुल ग्रामीण जनसंख्या 1,05,92,481 व्यक्ति हैं एवं जल मांग 82.20 लाख मीटर प्रतिदिन है। बेसिन के ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल आपूर्ति के स्रोत तालाब है। यहाँ के प्राय: सभी ग्रामों में पेयजल आपूर्ति हेतु तालाबों के जल का प्रयोग विभिन्न कार्यों जैसे - पेयजल, कपड़ा धोने एवं अन्य निस्तारी कार्यों हेतु किया जाता है। फलस्वरूप जल में प्रदूषण की समस्या उत्पन्न होती है। बेसिन के ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल आपूर्ति के अन्य स्रोतों में नालें, नदियाँ एवं कुएँ है। बेसिन में तालाबों की संख्या 22,984, कुओं की संख्या 80,119 एवं नलकूपों की संख्या 25,625 है। कुल पेयजल साधनों की संख्या 28,854 है। ग्रीष्मकालीन समस्यामूलक ग्रामों की संख्या 7,494 है एवं पंप सेटों की संख्या 9.65 लाख है।

बेसिन में कुल 14,164 आबाद गाँव में से 13,853 गाँव साधन युक्त गाँव है, एवं 13,322 गाँव (94.05 प्रतिशत) समस्यामूलक ग्राम है। इसमें रायपुर जिले में 30.69 प्रतिशत, बिलासपुर 21.97 प्रतिशत, राजनांदगाँव 17.02 प्रतिशत, रायगढ़ 15 प्रतिशत दुर्ग 13.06 प्रतिशत एवं कांकेर जिले में 01.76 प्रतिशत गाँव पेयजल सुविधायुक्त ग्राम है। लेकिन वर्तमान में बढ़ती जनसंख्या, विभिन्न घरेलू कार्यों, औद्योगिक, निर्माण तथा उत्पादन कार्यों के लिये जल की खपत बढ़ गई है। जिससे प्रति व्यक्ति पंप सेटों की संख्या की दूर न्यून हो गया है। बेसिन में प्रति हजार जनसंख्या पर 5 नलकूप हैं।

बेसिन में भूमिगत जलस्तर नीचे हो जाने से ग्रामीण एवं नगरीय क्षेत्र में कुएँ सूख गये हैं, ऊपरी जलस्तर पर कार्यरत हैंडपंप और नलकूप बेकार हो गये हैं जिससे सिंचाई एवं पेयजल की समस्या गंभीर हो गई है। बेसिन के 14,164 गाँवों में से 13,322 गाँवों गर्मी के दिनों में पेयजल के संकट से ग्रसित हो जाते हैं। इसका कारण भूमिगत जलस्तर का नीचे चला जाना है। यह सर्वाधिक रायपुर जिले के 31.71 प्रतिशत गाँव, बिलासपुर जिले के 28.04 प्रतिशत, राजनांदगाँव जिले के 17.64 प्रतिशत, दुर्ग जिले के 14.50 प्रतिशत, रायगढ़ जिले के 5.99 प्रतिशत एवं कांकेर तहसील के 01.75 प्रतिशत गाँव समस्यामूलक गाँव के अंतर्गत आते हैं।

बेसिन में पेयजल व्यवस्था कराये गये कुछ 13,853 (94.69 प्रतिशत) गाँव में से रायपुर, बिलासपुर, रायगढ़, दुर्ग, राजनांदगाँव एवं कांकेर तहसील में हस्तचलित पंप प्रतिस्थापित है। प्रति हजार जनसंख्या पर रायगढ़, राजनांदगाँव एवं कांकेर तहसील में अधिक पेयजल सुविधायुक्त गाँव है। जबकि रायपुर, बिलासपुर एवं दुर्ग जिले अपेक्षाकृत सामान्य है।

जल पूर्ति के स्रोत :


ग्रामीण पेयजल स्रोतों में सर्वाधिक क्रमश: कुओं से 68.84 प्रतिशत, नलकूपों से 27.98 प्रतिशत एवं तालाबों से 03.17 प्रतिशत पेयजल की प्राप्ति होती है। सर्वाधिक कुआँ एवं नलकूप रायपुर जिले में (37.11 प्रतिशत) एवं कम रायगढ़ जिले में (11.48 प्रतिशत) हैं। तालाब अधिक दुर्ग जिले में (42.17) एवं कम रायगढ़ जिले में (6.11 प्रतिशत) है। समस्त ग्रामीण पेयजल साधनों में अधिक रायपुर जिले में (34.35 प्रतिशत) एवं कम रायगढ़ जिले में (10.74 प्रतिशत) है। इसकी अधिकता एवं न्यूनता की उपलब्धता का मुख्य कारण भूगर्भीय एवं धरातलीय जल में विषमताओं का पाया जाना है। अत: जल की मात्रा पर्याप्ता, सततता तथा उसके गुणों के आधार पर पेयजल साधनों की आपूर्ति की जाती है।

जल प्रदाय योजना :


ऊपरी महानदी बेसिन में नगरीय जल प्रदाय योजना का विकास पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत हुआ है। यहाँ तृतीय एवं चतुर्थ योजना में सर्वप्रथम बिलासपुर एवं रायपुर नगर में पेयजल योजना का निर्माण किया गया है। इसके पश्चात पांचवी एवं छठवीं योजना के अंत तक बेसिन के सभी नगरीय क्षेत्रों में पेयजल आपूर्ति हेतु नल जल योजना का विकास किया गया है। बेसिन में वर्तमान समय में भी जल आपूर्ति के स्रोत कुएँ है एवं द्वितीय महत्त्वपूर्ण साधन हस्तचलित पंप हैं। बेसिन के सभी नगरीय क्षेत्रों में पेयजल की समस्या विद्यमान है। वर्तमान में कुल नगरीय जनसंख्या 26,57,565 व्यक्ति हैं एवं विभिन्न स्रोतों से 8,22,920 लाख लीटर प्रतिदिन जल की आपूर्ति की जा रही है। इस प्रकार नगरीय क्षेत्रों में पेयजल के विकास की आवश्यकता है। बेसिन की कुल नगरीय जलापूर्ति 680 पंपों के माध्यम से की जाती है।

जल जनित रोग :


जल में प्रदूषण एवं जल के अनुचित प्रयोगों के कारण जलजनित रोगों का जन्म होता है। बेसिन की जल जनित रोगों में आंत्रशोध, खूनी पेचिश, हैजा, नारु एवं पीलिया का विशेष प्रकोप रायपुर, बिलासपुर एवं रायगढ़ में है। बिलासपुर जिले के पंडरिया, लोरमी, कोटा, गौरेला, मालखरोदा विकासखंडो में सर्वाधिक प्रभावित है।

इसका प्रमुख कारण दूषित जल, स्वास्थ्य सुविधा का अभाव आदि है। इन क्षेत्रों में जनसंख्या पर औसत 3.50 प्रतिशत आंत्रशोध फैला हुआ है। बेसिन में संपूर्ण अध्ययन अवधि में खूनी पेचिश, अतिसार, पीलिया जैसे जलजनित रोगों से प्रभावित ग्रामों की भी गंभीर स्थिति रही। सामान्यत: बेसिन के उत्तरी क्षेत्रों में प्रभावित प्रति हजार मृत्यु औसत 2 व्यक्ति है। पेंड्रा, मरवाही, गौरेला क्षेत्र में जलजनित ‘‘नारु रोग’’ का विशेष प्रकोप की इन क्षेत्रों के जल परीक्षण में आयोडीन की कमी का होना है। जो इस रोग के जन्म होने का एक प्रमुख कारण है।

औद्योगिक जलापूर्ति :


ऊपरी महानदी बेसिन में औद्योगिक विकास के लिये पानी की कमी नहीं है। महानदी एवं उनकी सहायक नदियों शिवनाथ, अरपा, मनियारी एवं खारुन नदियों पर निर्मित जलाशय एवं महानदी पर रविशंकर सागर परियोजना एवं हसदों नदी पर हसदो बांगो वृहत परियोजना है। साथ ही नलकूपों के माध्यम से विभिन्न औद्योगिक क्षेत्र, जामुल, मांढर, चांपा, अकलतरा औद्योगिक क्षेत्र एवं बिलासपुर औद्योगिक क्षेत्र में स्थित उद्योगों को जल पूर्ति वर्तमान में 450.25 लाख घनमीटर है। दुर्ग-भिलाई औद्योगिक क्षेत्र में जलापूर्ति के स्रोत जलाशय हैं। बिलासपुर में नलकूप, कोरबा, चांपा एवं अकलतरा क्षेत्र में जल पूर्ति हसदों नदी एवं हसदो नहर से होती है। बेसिन के संपूर्ण औद्योगिक जल पूर्ति का 50 प्रतिशत से अधिक जल का उपयोग औद्योगिक क्षेत्र में होता है। अकेले रविशंकर परियोजना से 40.839 लाख घनमीटर जलापूर्ति भिलाई नगर के लिये किया जाता है।

जल संसाधन का अन्य उपयोग :


जल संसाधन का मनोरंजन की दृष्टि से उपयोग वर्तमान में महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है। बेसिन के महत्त्वपूर्ण जल मनोरंजन क्षेत्रों में रविशंकर जलाशय, मुरुमसिल्ली जलाशय, दुधावा जलाशय, सिकासार जलाशय, खुड़िया जलाशय, खुंटाघाट जलाशय, हसदों बांगो जलाशय, कोरबा आदि है। जहाँ नौका-विहार, जल आखेट आदि अनेक जल-क्रीड़ाओं का प्रबंध किया गया है। बेसिन में नौ-परिवहन हेतु जल उपयोग नगण्य है।

मत्स्य उत्पादन :


मत्स्य पालन जल संसाधन विकास का महत्त्वपूर्ण पहलू है। ऊपरी महानदी बेसिन में उपलब्ध जल संसाधन क्षेत्र में 35,290.10 हेक्टेयर क्षेत्रफल में 5,37,551 मीट्रिक टन मत्स्य उत्पादन होता है। यह मत्स्योपादन विभिन्न जलाशयों में संग्रहित जल के माध्यम से संभव हो पाता है। यहाँ दुधावा, तांदुला, खारंग, हसदेव, बांगो, मनियारी, कोडार, गंगरेल, मुरुमसिल्ली, सोंदूर एवं मरौदा जलाशयों में वर्ष 1997-98 में कुल 5,37,551 मीट्रिक टन मत्स्योत्पादन हुआ था, जिसमें 180.29 लाख रुपये की आय की प्राप्ति हुई। यहाँ स्वच्छ जल की व्यापारी मछली (कतला, रोहू) का मुख्य रूप से उत्पादन एवं पालन किया जाता है। बेसिन में मत्स्य पालन मुख्यत: शासकीय एवं निजी मत्स्योपालन इकाइयों द्वारा किया जाता है। यहाँ कुल 921 इकाइयों द्वारा 1,71,228.45 हेक्टेयर जल क्षेत्र में मत्स्यपालन किया जाता है।

वर्तमान में पंचायती राज के क्रियान्वयन से मत्स्योत्पादन के क्षेत्रफल में वृद्धि हो रही है। बेसिन में कुल सिंचाई जलाशयों की संख्या 1,352 है जिसमें 74,173.05 हेक्टेयर जलक्षेत्र में मत्स्योत्पादन किया जाता है। इसमें रायपुर जिले में मत्स्योपालन संख्या 302, दुर्ग जिले में 349, राजनांदगाँव जिले में 247, बिलासपुर जिले में 178, रायगढ़ जिले में 74 एवं कांकेर (बस्तर) जिले में 202 सिंचाई तालाब है।

जल संसाधन समस्याएँ, संरक्षण एवं विकास :


ऊपरी महानदी बेसिन में जल संसाधन उपयोग धरातलीय जल एवं भूमिगत जल की उपलब्धता द्वारा निर्धारित होता है। यहाँ कुल धरातलीय उपलब्धता 1,41,165 लाख घन मीटर और भूमिगत जल उपलब्धता 1,11,132.93 लाख घन मीटर है। इसकी उपयोग गहनता से स्पष्ट होता है कि सर्वाधिक धरातलीय जल रायगढ़ जिले में 1.41 हेक्टेयर मीटर एवं कम 1.01 हेक्टेयर मीटर दुर्ग जिले में है। इसी तरह भूमिगत जल गहनता रायपुर जिले में 0.13 हेक्टेयर मीटर एवं कम राजनांदगाँव जिले में 0.06 हे. मी. है। धरातलीय एवं भूमिगत जल गहनता अधिक होने का प्रमुख कारण क्रमश: भूस्वरूप नदियों की अधिकता, जलाशयों का अधिक होना एवं वर्षाजल का समुचित भंडारण है।

बेसिन में धरातलीय जल का मुख्य स्रोत वर्षा एवं भूमिगत जल का कुआँ, नलकूप तथा पंपसेट आदि है। धरातलीय जल स्रोतों में तालाब, नदियाँ एवं जलाशय आदि से सिंचाई एवं अन्य घरेलू उपयोगों की जलापूर्ति की जाती है। ऊपरी महानदी बेसिन में जल संसाधन विकास की अनेक समस्यायें है। यहाँ सिंचाई के वितरण में पर्याप्त क्षेत्रीय विषमताएँ है। बेसिन के कई क्षेत्रों में विवेकहीन सिंचाई व्यवस्था के कारण जल जमाव की समस्या उत्पन्न हो जाती है। प्रशासकीय अक्षमता के फल स्वरूप सिंचाई विकास योजनाओं में विलंब होता है। बेसिन के उत्तरी क्षेत्रों में अनेक छोटे नाले एवं तालाब आदि है। साथ ही यहाँ प्रवाहित होने वाली नदियों पर मध्यम सिंचाई योजना का विकास नहीं हो पाया है, परंतु लघु सिंचाई योजना के द्वारा यहाँ के सूखे खेतों में सिंचाई की असीम संभावनाएँ हैं। वित्तीय समस्या एक महत्त्वपूर्ण समस्या है, जो जल संसाधन विकास की धीमी गति का कारण है। इसके साथ ही बेसिन के उत्तरी एवं दक्षिणी पूर्वी क्षेत्रों में धरातलीय विषमता एवं वनाच्छादित क्षेत्रों की तरह खेत बिखरे हुए हैं अत: सिंचाई योजनाओं का निर्माण अत्यंत व्ययपूर्ण है।

बेसिन में यद्यपि रविशंकर सागर परियोजना एवं हसदों बांगो वृहद परियोजना का निर्माण किया गया है तथापि इसके अपवर्ती क्षेत्रों में इस योजना का कोई लाभ नहीं मिल रहा है, जिससे सिंचाई का प्रतिशत नगण्य है।

जल की गुणवत्ता :


ऊपरी महानदी बेसिन के अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों में ग्रीष्मकाल में जलाभाव की स्थिति निर्मित हो जाती है। यहाँ के ग्रामीण क्षेत्रों में तालाबों के निस्तार कार्यों में प्रयोग के परिणामस्वरूप जल प्रदूषण की समस्या जन्म लेती है जो विभिन्न जल जनित रोगों का कारण है। उत्तरी पूर्वी क्षेत्रों के विभिन्न विकास खंडों के गुणवत्ता की दृष्टि से जल कठोर (कठोरता 300 से 800 मिलीग्राम/ लीटर) है साथ ही जल में आयोडिन की कमी है, परिणामस्वरूप नारु रोग एवं पेट से संबंधित अनेक रोगों की गंभीर समस्या है। सार्वजनिक नलों द्वारा जलापूर्ति क्षेत्रों में रखरखाव के पर्याप्त प्रबंध न होने, नगरीय क्षेत्रों में जल संग्राहकों से दूरस्थ स्थित जल आपूर्ति क्षेत्र में रखरखाव के पर्याप्त प्रबंध न होने के कारण जल के अपव्यय एवं दुरुपयोग की समस्या है।

भिलाई, कोरबा, चांपा, औद्योगिक क्षेत्रों में औद्योगिक अपशिष्ट पदार्थों के सीधे नदी जल में प्रवाहित किये जाने के कारण औद्योगिक जलप्रदूषण की गंभीर समस्या उत्पन्न हो गयी है। इन क्षेत्रों में नदियों के जल में प्रदूषण के कारण कार्बन डाइऑक्साइड की अधिकता जल जैविक ऑक्सीजन की कमी एवं जल में अम्लीयता में वृद्धि हो रही है, जो मानव स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव डालती है।

जल संसाधन विकास :


ऊपरी महानदी बेसिन में जल संसाधन विकास की विभिन्न समस्याओं के निराकरण हेतु अनेक प्रबंध किये जा रहे हैं। जिनमें सिंचाई की दोषपूर्ण प्रणाली में सुधार हेतु चंकबंदी योजना महत्त्वपूर्ण है। पुन: सिंचाई के विकास हेतु 50 हेक्टेयर के छोटे-छोटे खंडो में सामूहित सिंचाई व्यवस्था निर्माण किया जा सकता है। यहाँ के छोटे-छोटे नालों पर मिट्टी के छोटे-छोटे बांध बनाकर सिंचाई की सुविधाओं में विस्तार किया जा सकता है। पेयजल आपूर्ति हेतु भूगर्भ जल स्रोतों के विकास को पर्याप्त महत्त्व दी जा रही है। साथ ही वितरण व्यवस्था में सुधार, जल की दोषपूर्ण उपयोग की रोकथाम, वित्तीय प्रबंधन आदि किये जा रहे हैं। जल प्रदूषण की समस्या के समाधान हेतु औद्योगिक इकाईयों द्वारा पर्याप्त शुद्धिकरण के उपरांत ही जल नदियों में प्रवाहित किया जा रहा है।

जल संसाधन प्रदेश :


बेसिन के जल संसाधन के वर्तमान उपयोग की दृष्टि से तीन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है। - 1. निम्न उपयोगिता प्रदेश 2. मध्यम उपयोगिता प्रदेश 3. उच्च उपयोगिता प्रदेश। बेसिन के उत्तरी पूर्वी क्षेत्र न्यूनतम जल उपयोगिता प्रदेश के अंतर्गत है। इन क्षेत्रों में यद्यपि जल संसाधन पर्याप्त है तथापि अनेक तकनीकि कारणों से विकास की गति मंद है। यहाँ विकास की गति 5 प्रतिशत से कम है। बेसिन के अपेक्षाकृत मैदानी क्षेत्रों में जल संसाधन के विकास अन्य क्षेत्रों की तुलना में अच्छा हुआ है। इन क्षेत्रों में विकास की दर 10-20 प्रतिशत है। मैदानी क्षेत्रों में जल संसाधन विकास की दृष्टि से सर्वोपरि हैं। इन क्षेत्रों में महानदी, शिवनाथ, अरपा, हसदेव, बांगो, मनियारी एवं खारंग जलाशय सिंचाई योजना के परिणामस्वरूप जल संसाधन विकास की दर उच्च है। तथापि समग्र रुपेण बेसिन में जल संसाधनों का पर्याप्त विकास नहीं हो पाया है। बेसिन में सिंचाई के विकास की क्षेत्री विभिन्नता तथा ग्रामीण एवं नगरीय क्षेत्रों में पेयजल विकास की उपयोगिता विद्यमान है। बेसिन में जल की कुल सिंचित राशि 1,51,299 लाख घन मीटर है। जिसमें 1,41,165 लाख घन मीटर जल का उपयोग हो रहा है। अत: इस जल राशि को देखते हुए बेसिन में जल संसाधन विकास की असीम संभावनायें परिलक्षित होती हैं।

जल संरक्षण एवं प्रबंधन :


ऊपरी महानदी बेसिन के जल संसाधन उपलब्धता, वर्तमान जल उपयोग एवं अधिशेष जल राशि की पर्याप्ता के आधार पर तीन प्रमुख जल संसाधन विकास संभाव्यता प्रदेश परिलक्षित हैं - 1. उत्तरी पूर्वी पठारी क्षेत्र जहाँ जनसंख्या न्यून है, क्षेत्र ऊबड़-खाबड़ है, जल की आवश्यकता अधिक है। साथ ही अधिशेष जल की मात्रा भी अधिक है जिससे विकास की संभावनाएं अपेक्षाकृत कम है। 3. मध्यवर्ती मैदानी क्षेत्र में विकास की अवस्था मध्यम है। इस प्रदेश में पेयजल की समस्या के साथ ही सिंचाई का भी मध्यम विकास हुआ है। इस प्रदेश की विभिन्न नदियाँ महानदी, अरपा, बोराई इत्यादि पर लघु एवं मध्यम सिंचाई परियोजनाएँ विकसित किये जाने की पर्याप्त संभावनाएँ हैं। इस तरह जल संसाधन से मानव का गहरा एवं व्यापक संबंध है। जल सभी प्रकार के जीवों के लिये आवश्यक है।

ऊपरी महानदी बेसिन में धरातलीय जल का 1,41,165 लाख घन मीटर एवं भूमिगत जल का 11,134 लाख घनमीटर उपयोग हो रहा है। यहाँ वर्षा का औसत 1061 मिलीमीटर है एवं कुल फसली क्षेत्र का 60.12 प्रतिशत है। निरा फसल क्षेत्र गहनता 30.94 प्रतिशत है। इस आधार पर जल का अधिकतम उपयोग हो रहा है। पीने के लिये शहरों में 70 लीटर एवं ग्रामों में 40 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन जल उपलब्ध हो रहा है। औद्योगिक कार्यों में भी बहुतायत से जल का उपयोग हो रहा है जिससे भावी पीढ़ी के लिये जल की गंभीर समस्या बनी हुई। अत: जल संसाधन विकास के लिये जल का संरक्षण एवं जल का प्रबंधन किया जा रहा है।

ऊपरी महानदी बेसिन में जल का उपयोग कृषि के साथ-साथ उद्योगों में भी अधिक मात्रा में हो रहा है इसमें जनसंख्या एवं औद्योगिकीकरण के दबाव से जलीय समस्या हो गई है, इसे उपलब्ध भूमिगत जल एवं धरातलीय जलस्रोतों के आधार पर दूर किया जा रहा है। प्रदूषित जल का शोधन संयंत्रों द्वारा शुद्ध कर सिंचाई हेतु प्रयोग में लाना, पक्के जलाशयों, तालाबों एवं सिंचाई नहरों का निर्माण, जल की आनावश्यक बर्बादी को रोकना, भूगर्भिक जल का पुन: पूर्ति करना, जल के अनियंत्रित प्रवाह को रोकना एवं जल का वैज्ञानिक तरीके से उचित प्रयोग करना इत्यादि जल संरक्षण के उपाय, भविष्य की आवश्यकता को देखते हुए किया जा रहा है।

जल प्रबंधन :


ऊपरी महानदी बेसिन में वर्षा जल का उचित प्रबंधन किया जा रहा है। इसका प्रयोग घरेलू कार्य, औद्योगिक एवं सिंचाई आदि के लिये किया जा रहा है। बेसिन में वार्षिक वर्षा की मात्रा एवं वितरण के अनुसार भू-गर्भ जल पुनर्भरण के लिये वर्षा के जल का प्रबंधन आवश्यक है। अत: समय-समय पर बेसिन के कुछ भागों में जल का अध्ययन केंद्रीय भूमिगत जल बोर्ड, संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम तथा राज्य शासन की सहायता में कृत्रिम पुनर्भरण पर भू-जल समाधान मूल्यांकन परियोजना के माध्यम में किया गया है। बेसिन में भूमिगत जल में अभिवृद्धि के लिये वृक्षारोपण, मृदा में प्राकृतिक तत्वों की वृद्धि, जल प्रदूषण निवारण, जल प्रवाह का नियंत्रण, जल संग्राहकों की स्थापना, बाढ़ नियंत्रण एवं जल कर उचित प्रबंधन का जल संसाधन का मूल्यांकन एवं विकास किया गया है।

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ऊपरी महानदी बेसिन में जल संसाधन मूल्यांकन एवं विकास, शोध-प्रबंध 1999


(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

प्रस्तावना : ऊपरी महानदी बेसिन में जल संसाधन मूल्यांकन एवं विकास (Introduction : Water Resource Appraisal and Development in the Upper Mahanadi Basin)

2

भौतिक तथा सांस्कृतिक पृष्ठभूमि

3

जल संसाधन संभाव्यता

4

धरातलीय जल (Surface Water)

5

भौमजल

6

जल संसाधन उपयोग

7

जल का घरेलू, औद्योगिक तथा अन्य उपयोग

8

मत्स्य उत्पादन

9

जल के अन्य उपयोग

10

जल संसाधन संरक्षण एवं विकास

11

सारांश एवं निष्कर्ष : ऊपरी महानदी बेसिन में जल संसाधन मूल्यांकन एवं विकास