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योजना, अक्टूबर 2003
जैसे-जैसे आर्थिक विकास की दौड़ तेज होती जाती है वैसे-वैसे उपयोगी वस्तुओं का उत्पादन तो बढ़ता ही है, प्रदूषण का दायरा भी तेजी से फैलता जाता है। विकास और प्रदूषण में बैर नहीं है बशर्ते कि प्रदूषण निरोधक उपाय किए जाते रहें। प्रदूषण धीमा जहर है जो पर्यावरण और स्वास्थ्य दोनों के लिए हानिकर सिद्ध होता है।भौतिक समृद्धि और सुख सुविधा के साधन जुटाने वाली आधुनिक सभ्यता पेट्रोलियम और रासायनिक पदार्थों के इस्तेमाल पर निर्भर है। जैसे-जैसे आर्थिक विकास की दौड़ तेज होती जाती है वैसे-वैसे उपयोगी वस्तुओं का उत्पादन तो बढ़ता ही है, प्रदूषण का दायरा भी तेजी से फैलता जाता है। विकास और प्रदूषण में बैर नहीं है बशर्ते कि प्रदूषण निरोधक उपाय किए जाते रहें। प्रदूषण धीमा जहर है जो पर्यावरण और स्वास्थ्य दोनों के लिए हानिकर सिद्ध होता है। विकासशील देशों में प्रदूषण के प्रति यथेष्ट जागरुकता नहीं आई है। भारत में पिछले 14-15 वर्षों से प्रदूषण के दुष्परिणामों की चर्चा होने लगी है। जनहित याचिकाएँ भी दायर की जा रही हैं। जागरुकता बढ़ रही है। राजधानी में डीजल की बसों की जगह प्राकृतिक गैस (सीएनजी) की बसे चलाने का फैसला वाहन-जनित प्रदूषण घटाने के लिए ही किया गया।
अगस्त के पहले सप्ताह में देश के शीतल पेय बाजार पर काबिज हो चुकी दोनों बहुराष्ट्रीय कंपनियों के माल में कीटनाशकों के अवशेष पाए जाने की खबर से जो सनसनी-सी फैली उसके कई कारण थे। एक तो यह कि अमेरिकी कंपनियों का अधिक भरोसेमंद और जिम्मेदार माना जा रहा था—वे यहाँ भी अमेरिकी या यूरोपीय मानकों का पालन करती होंगी। दूसरा कारण यह धारणा थी कि अनाज या दूध की तरह बुनियादी चीज न होने के बावजूद जिस तरह शीतल पेय का प्रचार बढ़ रहा है वह विशेषकर बच्चों के स्वास्थ्य के लिए हानिकर है।
कोका कोला और पेप्सीको के विभिन्न ब्रांड के शीतल पेयों की जाँच जिस संगठन ‘विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र’ (सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट) ने की उसी ने इसी वर्ष 17 ब्रांड के बोतलबंद पानी की जाँच अपनी ‘प्रदूषण निगरानी प्रयोगशाला’ में की थी। फरवरी में प्रकाशित रिपोर्ट में दो बातें उभर कर आईं : (1) यूरोपीय मानक को आधार मानें तो अधिकांश नमूनों में लिंडेन (एच.सी.एच.), डी.डी.टी., मैंलाथिओन, क्लोपाइरीफास नामक कीटनाशक निरापद मात्रा से कई गुना अधिक हैं। (2) भारतीय मानकों में पेयजल (पोटेबल वाटर) की परिभाषा और प्रदूषण जाँच की विधि का वर्णन बेहद लचर है इसलिए वे कारगर नहीं कहे जा सकते।
विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र की जाँच रिपोर्ट आने के बाद भारत सरकार ने महसूस किया कि बोतलबंद पानी संबंधी मानक में सुधार किया जाना चाहिए। काफी विचार-विमर्श के बाद 18 जुलाई, 2003 को 1954 के खाद्य अपमिश्रण अधिनियम के अधीन नियमों में संशोधन की अधिसूचना जारी कर दी गई। संशोधित मानक पहली जनवरी, 2004 से लागू होंगे। इनके अनुसार एक लीटर में कोई भी कीटनाशक 0.0001 मिलीग्राम से अधिक नही होना चाहिए। और सब कीटनाशकों की मात्रा 0.0005 मिलीग्राम प्रति लीटर से अधिक नहीं होनी चाहिए। बोतलबंद पानी की जाँच या विश्लेषण अंतरराष्ट्रीय रूप से स्वीकार्य विधियों से किया जाएगा। यह विधान यूरोपीय मानक के अनुरूप है।
विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र ने 5 अगस्त को 12 ब्रांड के शीतल पेयों के वैज्ञानिक विश्लेषण के नतीजे प्रकाशित किए। इनके अनुसार (1) सभी प्रमुख ब्रांड कोका कोला और पेप्सीको के हिस्से बन चुके हैं। (2) इन सभी में यूरोपीय शीतल पेय मानक से कई गुना (30 से 36 गुना) अधिक कीटनाशक पाए गए हैं जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। (3) अमेरिका, यूरोप और विश्व स्वास्थ्य संगठन सब के मानक अलग-अलग हैं। केवल यूरोपीय मानक ही ऐसा है जिसमें विभिन्न कीटनाशकों की समग्र मात्रा को एक निर्धारित सीमा के अंतर्गत निरापद माना गया है इसलिए वही अधिक मौजूं है। (4) भारतीय मानक कार्यालय द्वारा निर्धारित शीतल पेय के मानक ऐच्छिक हैं इसलिए उनका अनुसरण न करने के लिए किसी कंपनी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई संभव नहीं है। (5) अमेरिका में खरीदे गए शीतल पेय स्वास्थ्य के लिए निरापद निकले।
विश्वभर में फैली और खरबों रुपए सालाना का व्यापार करने वाली और अरबों खर्च करके अभिनेताओं और क्रिकेट खिलाड़ियों से अपने माल की पैरवी कराने वाली कंपनियों को यह सब बहुत नागवार गुजरा। कोका कोला और पेप्सीको के प्रबंधकों अपने बचाव में कहा : (1) केंद्र की प्रयोगशाला मान्यता प्राप्त नहीं है अतः उसकी रिपोर्ट प्रामाणिक नहीं मानी जा सकती। (2) हमारे पेय पूर्णतः निरापद हैं जैसे कि अमेरिका में हैं, हम दोहरे मानदंड नहीं अपनाते। (3) केंद्र के खिलाफ मानहानि का दावा करेंगे (हालांकि ऐसा किया नहीं गया)।
‘दिल माँगे मोर’ और ‘ठंडा मतलब कोका कोला’ जैसे नारों और नफासत से बने विज्ञापनों के सहारे घर-घर में पैठ बनाने वाली कंपनियों को उम्मीद नहीं रही होगी कि संसद और कई विधानसभाओं के परिसर में उनके शीतल पेयों का कुछ समय के लिए ही सही निषेध हो जाए। जब उन्होंने दिल्ली हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया तो उसने सरकार से कहा कि वह निष्पक्ष जाँच कराए।
21 अगस्त को केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री सुषमा स्वराज ने संसद में मैसूर स्थित केंद्रीय खाद्य एवं तकनीकी अनुसंधान केंद्र तथा कोलकाता की केंदीय खाद्य प्रयोगशाला द्वारा दोनों कंपनियों के शीतल पेय की जाँच के नतीजों की जानकारी दी। उनको वे ही 12 ब्रांड के नमूने जाँच के लिए भेजे गए थे जिनकी जाँच केंद्र ने की थी। उन्होंने बताया कि ‘खाद्य अपमिश्रण निवारक’ नियमों में वर्णित मानक के अनुसार ये पेय उपभोग के योग्य हैं। किंतु उन्होंने स्वीकार किया कि ‘सात नमूनों में यूरोपीय मानक से अधिक कीटनाशक थे और पाँच में कम।' यानी—किसी हद तक विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र के विश्लेषण की पुष्टि हो गई। स्वास्थ्य मंत्री ने यह तो कहा ही कि पेयों में भी पानी की शुद्धता के बारे में यूरोपीय मानक अपनाए जाने की सोची जा रही है। उनको विपक्षी दलों की यह माँग स्वीकार करने में हिचक नहीं हुई कि समूचे मामले की जाँच के लिए संयुक्त संसदीय समिति नियुक्त की जाए।
शरद पवार की अध्यक्षता में यह समिति गठित हो गई है जो बोतल और डिब्बाबंद शीतल पेय और फल-रस में जल तत्व की शुद्धता के बारे में अपनी सिफारिश देगी। जैसा कि स्वास्थ्य मंत्री ने संकेत दिया इस श्रेणी के पेयों में जल तत्व की शुद्धता का मानक वही तय किया जाएगा जो बोतलबंद पानी के लिए निर्धारित किया गया है जिसे अगले वर्ष पहली जनवरी से अमल में लाया जाना है।
गैर-सरकारी संगठन की जाँच और केंद्र की सरकारी प्रयोगशालाओं के परीक्षण में फर्क क्यों आया? इसके कई कारण हो सकते हैं। जैसे केंद्र ने वर्षा पूर्व नमूने उठाए थे जबकि केंद्रीय संस्थानों ने अगस्त में 1 बैच का भी फर्क था। जाँच के तरीके में भी अंतर हो सकता है। पर यह महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्व इस बात का है कि सरकार ने नए मानक बनाने की जरूरत महसूस की है। पर यह तो समस्या का छोटा-सा पक्ष है। प्रदूषण की जड़ें गहरी हैं और वह चारों ओर फैला है।
अब कई सवाल उठते हैं जो नए मानक स्थिर करने की कवायद से अधिक महत्त्वपूर्ण और व्यापक हैं। सूत्र रूप में मूल प्रश्न है कि प्रदूषण रहित पेयजल और खाद्य पदार्थ हासिल करने के नागरिक के मौलिक अधिकार की रक्षा का। अमर्यादित औद्योगीकरण, रासायनिककरण और गाँवों से शहरों की ओर पलायन को मर्यादित करने का।
नए मानक स्थिर करने के बाद उनका अनुसरण कराने के लिए निगरानी की मुकम्मल व्यवस्था नहीं की गई तो ठोस नतीजे निकलना कठिन होगा। क्या आज की तारीख में खाद्य अपमिश्रण निवारक अधिनियम के नियमों पर अमल की निगरानी के लिए सरकार के पास यथेष्ट कर्मचारी हैं? क्या दो केंद्रीय प्रयोगशालाएँ इतने बड़े देश के लिए काफी हैं? निगरानी तंत्र मजबूत करने और आधुनिक उपकरणों से लैस नई प्रयोगशालाएँ खोलने की आवश्यकता है। ऐसा नहीं हुआ तो गंगा और यमुना को प्रदूषण रहित बनाने की योजनाओं की तरह खाद्य और पेय पदार्थों को प्रदूषण से नहीं बचाया जा सकता। अनेक नगरों में सीवर के पानी की शुद्ध करने के संयंत्र लगे हैं और उद्योगों ने भी इस्तेमालशुदा पानी का शोधन करने के संयंत्र लगा लिए हैं, लेकिन बहुत से काम नहीं कर रहे। इसलिए अरबों रुपए खर्च करके भी हमारी नदियाँ मैली की मैली हैं। इस ओर ध्यान दिया जाए तो नगर निगमों की जलापूर्ति व्यवस्था भी भरोसेमंद पेयजल दे सकती हैं। सच पूछा जाए तो नलों से दिए जाने वाले पेयजल के लिए भी मानक तय किए जाने चाहिए।
पानी ही नहीं हमारे लगभग सभी खाद्य पदार्थ कमोबेश प्रदूषित हैं। पिछले दशक के मध्य में भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने 12 राज्यों में बिकने वाले दूध में कीटनाशकों के पाए जाने की आधिकारिक रिपोर्ट तैयार की थी। छह राज्यों की प्रयोगशालाओं में दूध के नमूने जाँचे-परखे गए थे। 2,205 नमूनों में से 85 प्रतिशत में स्वीकार्य सीमा से अधिक एच.सी.एच. और 75 प्रतिशत में डी.डी.टी. के अवशेष पाए गए थे। भारतीय और विदेशी कंपनियों द्वारा तैयार बेबी फूड के 20 ब्रांड में से अधिकांश में इन कीटनाशकों के अवशेष मिले थे। इसके बाद फलों और सब्जियों तथा अनाजों में कीटनाशकों के अवशेष पाए जाने के मामले सामने आते रहे हैं। किंतु इस ओर संसद या सरकार का ध्यान नहीं गया और न कोई जन आंदोलन खड़ा हुआ।
इसके दो कारण हैं। एक तो यह मान लिया गया है कि खेती की पैदावार बढानी है तो कीटनाशकों का उपयोग बहुत जरूरी है। विकास की कीमत चुकानी ही पड़ेगी। दूसरा कारण है कि निरापद सीमा से अधिक कीटनाशक अवशेष तुरंत नुकसान नहीं पहुँचाते। उनका असर 10-20 वर्ष बाद होता है। ये कीटनाशक शरीर की वसा में जमा होते रहते हैं। इनसे उत्पन्न रोगों का कीटनाशकों से सीधा या प्रत्यक्ष संबंध नजर नहीं आता जबकि वास्तव में होता है। यही कारण है कि कैंसर जिगर और गुर्दे की खराबी के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता घट रही है।
हमारे यहाँ राजकीय प्रयोगशालाओं में खाद्य पदार्थों में कीटनाशकों, कैडमियम, आर्सेनिक, सीसा तथा अन्य विषैले द्रव्यों के कुप्रभाव की जाँच होती रहनी चाहिए। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पेयजल में क्लोरपाइरीफास 0.03 मिलीग्राम प्रति लीटर की मौजूदगी को निरापद माना है, लेकिन न्यूयार्क में पाया गया कि इस कीटनाशक के संपर्क में आने वाली जच्चाओं के बच्चों का वजन कम और सिर छोटे होते हैं। उसके घरेलू और व्यावसायिक उपयोग पर प्रतिबंध तो लगा ही, 2005 से खेती में भी उसका उपयोग निषिद्ध हो जाएगा। यूरोपीय यूनियन में भी सभी खाद्य पदार्थों की रासायनिक जाँच करते रहने की आवश्यकता महसूस की जा रही है जिससे कि प्रदूषण से उत्पन्न रोगों से बचा जा सके जिनके इलाज पर हर साल 69 अरब यूरो खर्च होते हैं।
भारत में मलेरिया की रोकथाम के लिए डी.डी.टी. का (जिसका उपयोग अमेरिका में नहीं होता) और खेती में कीटनाशकों का उपयोग होता है जिसके कारण भूजल भी प्रदूषि हो रहा है। टॉक्सिक लिंक्स नामक गैर-सरकारी संगठन के अध्यक्ष रवि अग्रवाल के अनुसार ‘अनजान किसान कीटनाशकों का आवश्यकता से अधिक इस्तेमाल करते हैं..... और गुजरात में हमने पाया कि उद्योगों के इस्तेमालशुदा पानी से गन्ने के खेत सींच रहे थे।’
इस संबंध में दो काम किए जाने चाहिए। धीरे-धीरे अधिक विषैले कीटनाशकों का उपयोग घटाकर कम जहरीले कीटनाशकों का इस्तेमाल बढ़ाया जाए। पीने और सिंचाई के लिए भूजल का इस्तेमाल बढ़ गया है और जितना निकाला जाता है उतना रिसकर नीचे तक नहीं पहुँचता, जिसके कारण हानिकारक तत्वों की सघनता बढ़ जाती है। इसलिए वर्षा जल संचय का अभियान शुरू होना चाहिए। खाद्य मंत्रालय में अतिरिक्त सचिव सतवंत रेड्डी की रिपोर्ट में भी कहा गया है कि बोतलबंद पानी बेचने वाली कंपनियों के लिए वर्षा जल संचय अनिवार्य किया जाना चाहिए और उनको ऐसी जगह संयत्र लगाने की अनुमति मिलनी चाहिए जहाँ भूजल प्रदूषण की संभावना कम हो या न हो। साथ ही जल शोधन यंत्र से निकले कचरे की समुचित निकासी की निगरानी की जाए। इस समिति ने और भी कई उपयोगी सुझाव दिए हैं। यह रिपोर्ट इसी वर्ष की है।
प्रदूषण के प्रति सरकारी हलकों में जागरुकाता बढ़ रही है। सवास्थ्य मंत्रालय खाद्य अपमिश्रण निवारक अधिनियम 1954 में संशोधन करने की सोच रहा है। केंद्रीय खाद्य मानक समिति की सिफारिशों पर आधारित एक संशोधित विधेयक लाने की तैयारी चल रही है जिसमें अपमिश्रण के लिए दंड का प्रावधान बढ़ाया जाएगा। दूसरे, सरकार खाद्य पदार्थों की जाँच-परख का तंत्र सुधारने के लिए विश्व बैंक से धनराशि लेने की बात कर रही है। खाद्य अपमिश्रण पर कारगर नियंत्रण के लिए केंद्र और राज्य सरकारों की भूमिका निश्चित करनी होगी।
भारतीय अर्थव्यवस्था में निजी क्षेत्र की भूमिका तेजी से बढ़ रही है। निजी क्षेत्र की इकाई चाहे वह देसी हो या विदेशी मुनाफे पर अधिक ध्यान देती है और सामाजिक दायित्व की उपेक्षा करती है। खाद्य पदार्थों में तो अपमिश्रण होता ही है नकली दवाइयों का कारोबार भी खूब फल-फूल रहा है। इससे यही सिद्ध होता है कि सरकार की भूमिका बढ़नी चाहिए, खासकर निगरानी और नियमन के मामले में। लोकतंत्र का तकाजा भी यही है।
(लेखक स्वतंत्र वरिष्ठ पत्रकार हैं)
अगस्त के पहले सप्ताह में देश के शीतल पेय बाजार पर काबिज हो चुकी दोनों बहुराष्ट्रीय कंपनियों के माल में कीटनाशकों के अवशेष पाए जाने की खबर से जो सनसनी-सी फैली उसके कई कारण थे। एक तो यह कि अमेरिकी कंपनियों का अधिक भरोसेमंद और जिम्मेदार माना जा रहा था—वे यहाँ भी अमेरिकी या यूरोपीय मानकों का पालन करती होंगी। दूसरा कारण यह धारणा थी कि अनाज या दूध की तरह बुनियादी चीज न होने के बावजूद जिस तरह शीतल पेय का प्रचार बढ़ रहा है वह विशेषकर बच्चों के स्वास्थ्य के लिए हानिकर है।
कोका कोला और पेप्सीको के विभिन्न ब्रांड के शीतल पेयों की जाँच जिस संगठन ‘विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र’ (सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट) ने की उसी ने इसी वर्ष 17 ब्रांड के बोतलबंद पानी की जाँच अपनी ‘प्रदूषण निगरानी प्रयोगशाला’ में की थी। फरवरी में प्रकाशित रिपोर्ट में दो बातें उभर कर आईं : (1) यूरोपीय मानक को आधार मानें तो अधिकांश नमूनों में लिंडेन (एच.सी.एच.), डी.डी.टी., मैंलाथिओन, क्लोपाइरीफास नामक कीटनाशक निरापद मात्रा से कई गुना अधिक हैं। (2) भारतीय मानकों में पेयजल (पोटेबल वाटर) की परिभाषा और प्रदूषण जाँच की विधि का वर्णन बेहद लचर है इसलिए वे कारगर नहीं कहे जा सकते।
विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र की जाँच रिपोर्ट आने के बाद भारत सरकार ने महसूस किया कि बोतलबंद पानी संबंधी मानक में सुधार किया जाना चाहिए। काफी विचार-विमर्श के बाद 18 जुलाई, 2003 को 1954 के खाद्य अपमिश्रण अधिनियम के अधीन नियमों में संशोधन की अधिसूचना जारी कर दी गई। संशोधित मानक पहली जनवरी, 2004 से लागू होंगे। इनके अनुसार एक लीटर में कोई भी कीटनाशक 0.0001 मिलीग्राम से अधिक नही होना चाहिए। और सब कीटनाशकों की मात्रा 0.0005 मिलीग्राम प्रति लीटर से अधिक नहीं होनी चाहिए। बोतलबंद पानी की जाँच या विश्लेषण अंतरराष्ट्रीय रूप से स्वीकार्य विधियों से किया जाएगा। यह विधान यूरोपीय मानक के अनुरूप है।
कोक और पेप्सी
विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र ने 5 अगस्त को 12 ब्रांड के शीतल पेयों के वैज्ञानिक विश्लेषण के नतीजे प्रकाशित किए। इनके अनुसार (1) सभी प्रमुख ब्रांड कोका कोला और पेप्सीको के हिस्से बन चुके हैं। (2) इन सभी में यूरोपीय शीतल पेय मानक से कई गुना (30 से 36 गुना) अधिक कीटनाशक पाए गए हैं जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। (3) अमेरिका, यूरोप और विश्व स्वास्थ्य संगठन सब के मानक अलग-अलग हैं। केवल यूरोपीय मानक ही ऐसा है जिसमें विभिन्न कीटनाशकों की समग्र मात्रा को एक निर्धारित सीमा के अंतर्गत निरापद माना गया है इसलिए वही अधिक मौजूं है। (4) भारतीय मानक कार्यालय द्वारा निर्धारित शीतल पेय के मानक ऐच्छिक हैं इसलिए उनका अनुसरण न करने के लिए किसी कंपनी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई संभव नहीं है। (5) अमेरिका में खरीदे गए शीतल पेय स्वास्थ्य के लिए निरापद निकले।
विश्वभर में फैली और खरबों रुपए सालाना का व्यापार करने वाली और अरबों खर्च करके अभिनेताओं और क्रिकेट खिलाड़ियों से अपने माल की पैरवी कराने वाली कंपनियों को यह सब बहुत नागवार गुजरा। कोका कोला और पेप्सीको के प्रबंधकों अपने बचाव में कहा : (1) केंद्र की प्रयोगशाला मान्यता प्राप्त नहीं है अतः उसकी रिपोर्ट प्रामाणिक नहीं मानी जा सकती। (2) हमारे पेय पूर्णतः निरापद हैं जैसे कि अमेरिका में हैं, हम दोहरे मानदंड नहीं अपनाते। (3) केंद्र के खिलाफ मानहानि का दावा करेंगे (हालांकि ऐसा किया नहीं गया)।
‘दिल माँगे मोर’ और ‘ठंडा मतलब कोका कोला’ जैसे नारों और नफासत से बने विज्ञापनों के सहारे घर-घर में पैठ बनाने वाली कंपनियों को उम्मीद नहीं रही होगी कि संसद और कई विधानसभाओं के परिसर में उनके शीतल पेयों का कुछ समय के लिए ही सही निषेध हो जाए। जब उन्होंने दिल्ली हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया तो उसने सरकार से कहा कि वह निष्पक्ष जाँच कराए।
सरकारी जाँच रिपोर्ट
21 अगस्त को केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री सुषमा स्वराज ने संसद में मैसूर स्थित केंद्रीय खाद्य एवं तकनीकी अनुसंधान केंद्र तथा कोलकाता की केंदीय खाद्य प्रयोगशाला द्वारा दोनों कंपनियों के शीतल पेय की जाँच के नतीजों की जानकारी दी। उनको वे ही 12 ब्रांड के नमूने जाँच के लिए भेजे गए थे जिनकी जाँच केंद्र ने की थी। उन्होंने बताया कि ‘खाद्य अपमिश्रण निवारक’ नियमों में वर्णित मानक के अनुसार ये पेय उपभोग के योग्य हैं। किंतु उन्होंने स्वीकार किया कि ‘सात नमूनों में यूरोपीय मानक से अधिक कीटनाशक थे और पाँच में कम।' यानी—किसी हद तक विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र के विश्लेषण की पुष्टि हो गई। स्वास्थ्य मंत्री ने यह तो कहा ही कि पेयों में भी पानी की शुद्धता के बारे में यूरोपीय मानक अपनाए जाने की सोची जा रही है। उनको विपक्षी दलों की यह माँग स्वीकार करने में हिचक नहीं हुई कि समूचे मामले की जाँच के लिए संयुक्त संसदीय समिति नियुक्त की जाए।
शरद पवार की अध्यक्षता में यह समिति गठित हो गई है जो बोतल और डिब्बाबंद शीतल पेय और फल-रस में जल तत्व की शुद्धता के बारे में अपनी सिफारिश देगी। जैसा कि स्वास्थ्य मंत्री ने संकेत दिया इस श्रेणी के पेयों में जल तत्व की शुद्धता का मानक वही तय किया जाएगा जो बोतलबंद पानी के लिए निर्धारित किया गया है जिसे अगले वर्ष पहली जनवरी से अमल में लाया जाना है।
गैर-सरकारी संगठन की जाँच और केंद्र की सरकारी प्रयोगशालाओं के परीक्षण में फर्क क्यों आया? इसके कई कारण हो सकते हैं। जैसे केंद्र ने वर्षा पूर्व नमूने उठाए थे जबकि केंद्रीय संस्थानों ने अगस्त में 1 बैच का भी फर्क था। जाँच के तरीके में भी अंतर हो सकता है। पर यह महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्व इस बात का है कि सरकार ने नए मानक बनाने की जरूरत महसूस की है। पर यह तो समस्या का छोटा-सा पक्ष है। प्रदूषण की जड़ें गहरी हैं और वह चारों ओर फैला है।
नियम और निगरानी
अब कई सवाल उठते हैं जो नए मानक स्थिर करने की कवायद से अधिक महत्त्वपूर्ण और व्यापक हैं। सूत्र रूप में मूल प्रश्न है कि प्रदूषण रहित पेयजल और खाद्य पदार्थ हासिल करने के नागरिक के मौलिक अधिकार की रक्षा का। अमर्यादित औद्योगीकरण, रासायनिककरण और गाँवों से शहरों की ओर पलायन को मर्यादित करने का।
नए मानक स्थिर करने के बाद उनका अनुसरण कराने के लिए निगरानी की मुकम्मल व्यवस्था नहीं की गई तो ठोस नतीजे निकलना कठिन होगा। क्या आज की तारीख में खाद्य अपमिश्रण निवारक अधिनियम के नियमों पर अमल की निगरानी के लिए सरकार के पास यथेष्ट कर्मचारी हैं? क्या दो केंद्रीय प्रयोगशालाएँ इतने बड़े देश के लिए काफी हैं? निगरानी तंत्र मजबूत करने और आधुनिक उपकरणों से लैस नई प्रयोगशालाएँ खोलने की आवश्यकता है। ऐसा नहीं हुआ तो गंगा और यमुना को प्रदूषण रहित बनाने की योजनाओं की तरह खाद्य और पेय पदार्थों को प्रदूषण से नहीं बचाया जा सकता। अनेक नगरों में सीवर के पानी की शुद्ध करने के संयंत्र लगे हैं और उद्योगों ने भी इस्तेमालशुदा पानी का शोधन करने के संयंत्र लगा लिए हैं, लेकिन बहुत से काम नहीं कर रहे। इसलिए अरबों रुपए खर्च करके भी हमारी नदियाँ मैली की मैली हैं। इस ओर ध्यान दिया जाए तो नगर निगमों की जलापूर्ति व्यवस्था भी भरोसेमंद पेयजल दे सकती हैं। सच पूछा जाए तो नलों से दिए जाने वाले पेयजल के लिए भी मानक तय किए जाने चाहिए।
प्रदूषित और खाद्य पदार्थ
पानी ही नहीं हमारे लगभग सभी खाद्य पदार्थ कमोबेश प्रदूषित हैं। पिछले दशक के मध्य में भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने 12 राज्यों में बिकने वाले दूध में कीटनाशकों के पाए जाने की आधिकारिक रिपोर्ट तैयार की थी। छह राज्यों की प्रयोगशालाओं में दूध के नमूने जाँचे-परखे गए थे। 2,205 नमूनों में से 85 प्रतिशत में स्वीकार्य सीमा से अधिक एच.सी.एच. और 75 प्रतिशत में डी.डी.टी. के अवशेष पाए गए थे। भारतीय और विदेशी कंपनियों द्वारा तैयार बेबी फूड के 20 ब्रांड में से अधिकांश में इन कीटनाशकों के अवशेष मिले थे। इसके बाद फलों और सब्जियों तथा अनाजों में कीटनाशकों के अवशेष पाए जाने के मामले सामने आते रहे हैं। किंतु इस ओर संसद या सरकार का ध्यान नहीं गया और न कोई जन आंदोलन खड़ा हुआ।
इसके दो कारण हैं। एक तो यह मान लिया गया है कि खेती की पैदावार बढानी है तो कीटनाशकों का उपयोग बहुत जरूरी है। विकास की कीमत चुकानी ही पड़ेगी। दूसरा कारण है कि निरापद सीमा से अधिक कीटनाशक अवशेष तुरंत नुकसान नहीं पहुँचाते। उनका असर 10-20 वर्ष बाद होता है। ये कीटनाशक शरीर की वसा में जमा होते रहते हैं। इनसे उत्पन्न रोगों का कीटनाशकों से सीधा या प्रत्यक्ष संबंध नजर नहीं आता जबकि वास्तव में होता है। यही कारण है कि कैंसर जिगर और गुर्दे की खराबी के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता घट रही है।
हमारे यहाँ राजकीय प्रयोगशालाओं में खाद्य पदार्थों में कीटनाशकों, कैडमियम, आर्सेनिक, सीसा तथा अन्य विषैले द्रव्यों के कुप्रभाव की जाँच होती रहनी चाहिए। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पेयजल में क्लोरपाइरीफास 0.03 मिलीग्राम प्रति लीटर की मौजूदगी को निरापद माना है, लेकिन न्यूयार्क में पाया गया कि इस कीटनाशक के संपर्क में आने वाली जच्चाओं के बच्चों का वजन कम और सिर छोटे होते हैं। उसके घरेलू और व्यावसायिक उपयोग पर प्रतिबंध तो लगा ही, 2005 से खेती में भी उसका उपयोग निषिद्ध हो जाएगा। यूरोपीय यूनियन में भी सभी खाद्य पदार्थों की रासायनिक जाँच करते रहने की आवश्यकता महसूस की जा रही है जिससे कि प्रदूषण से उत्पन्न रोगों से बचा जा सके जिनके इलाज पर हर साल 69 अरब यूरो खर्च होते हैं।
कीटनाशकों का नियमन
भारत में मलेरिया की रोकथाम के लिए डी.डी.टी. का (जिसका उपयोग अमेरिका में नहीं होता) और खेती में कीटनाशकों का उपयोग होता है जिसके कारण भूजल भी प्रदूषि हो रहा है। टॉक्सिक लिंक्स नामक गैर-सरकारी संगठन के अध्यक्ष रवि अग्रवाल के अनुसार ‘अनजान किसान कीटनाशकों का आवश्यकता से अधिक इस्तेमाल करते हैं..... और गुजरात में हमने पाया कि उद्योगों के इस्तेमालशुदा पानी से गन्ने के खेत सींच रहे थे।’
इस संबंध में दो काम किए जाने चाहिए। धीरे-धीरे अधिक विषैले कीटनाशकों का उपयोग घटाकर कम जहरीले कीटनाशकों का इस्तेमाल बढ़ाया जाए। पीने और सिंचाई के लिए भूजल का इस्तेमाल बढ़ गया है और जितना निकाला जाता है उतना रिसकर नीचे तक नहीं पहुँचता, जिसके कारण हानिकारक तत्वों की सघनता बढ़ जाती है। इसलिए वर्षा जल संचय का अभियान शुरू होना चाहिए। खाद्य मंत्रालय में अतिरिक्त सचिव सतवंत रेड्डी की रिपोर्ट में भी कहा गया है कि बोतलबंद पानी बेचने वाली कंपनियों के लिए वर्षा जल संचय अनिवार्य किया जाना चाहिए और उनको ऐसी जगह संयत्र लगाने की अनुमति मिलनी चाहिए जहाँ भूजल प्रदूषण की संभावना कम हो या न हो। साथ ही जल शोधन यंत्र से निकले कचरे की समुचित निकासी की निगरानी की जाए। इस समिति ने और भी कई उपयोगी सुझाव दिए हैं। यह रिपोर्ट इसी वर्ष की है।
स्वास्थ्य मंत्रालय के प्रयास
प्रदूषण के प्रति सरकारी हलकों में जागरुकाता बढ़ रही है। सवास्थ्य मंत्रालय खाद्य अपमिश्रण निवारक अधिनियम 1954 में संशोधन करने की सोच रहा है। केंद्रीय खाद्य मानक समिति की सिफारिशों पर आधारित एक संशोधित विधेयक लाने की तैयारी चल रही है जिसमें अपमिश्रण के लिए दंड का प्रावधान बढ़ाया जाएगा। दूसरे, सरकार खाद्य पदार्थों की जाँच-परख का तंत्र सुधारने के लिए विश्व बैंक से धनराशि लेने की बात कर रही है। खाद्य अपमिश्रण पर कारगर नियंत्रण के लिए केंद्र और राज्य सरकारों की भूमिका निश्चित करनी होगी।
भारतीय अर्थव्यवस्था में निजी क्षेत्र की भूमिका तेजी से बढ़ रही है। निजी क्षेत्र की इकाई चाहे वह देसी हो या विदेशी मुनाफे पर अधिक ध्यान देती है और सामाजिक दायित्व की उपेक्षा करती है। खाद्य पदार्थों में तो अपमिश्रण होता ही है नकली दवाइयों का कारोबार भी खूब फल-फूल रहा है। इससे यही सिद्ध होता है कि सरकार की भूमिका बढ़नी चाहिए, खासकर निगरानी और नियमन के मामले में। लोकतंत्र का तकाजा भी यही है।
(लेखक स्वतंत्र वरिष्ठ पत्रकार हैं)