Source
डाउन टू अर्थ, जनवरी 2018
पृष्ठभूमि
संस्कृति और समाज को सत्ता के एकहरे असहिष्णु तरीके पेश करने के खिलाफ जो आवाज उठी उसे प्रतिरोध की पहचान मिली। सरकार के प्रचार के परदे को हटाकर गैरबराबरी, अत्याचार और भ्रष्टाचार के सवाल उठाने वाले सिनेमा को प्रतिरोध के सिनेमा का खिताब मिला। इस सिनेमा को आम मध्यमवर्गीय दर्शक नहीं मिलते हैं पर यह सत्ता के गलियारों में हलचल मचा देती है। मई 2014 के बाद देश में जो स्वच्छता अभियान का राग गाया जा रहा है उसे मात्र एक फिल्म “कक्कूस” से बेसुरा होने का खतरा पैदा हो गया। तमिल भाषा में कक्कूस का अर्थ होता है शौचालय। जहाँ सोच वहीं शौचालय का राग अलापने वाले प्रशासन को कक्कूस की सोच से इतना डर लगा कि इस फिल्म को प्रतिबन्धित कर दिया गया। वजह यह कि सरकारी प्रचारों के इतर दिव्या भारती सरकार से सवाल पूछ रही थी कि आम नागरिकों की गन्दगी साफ करने के लिये मैनहॉल में उतरे सफाईकर्मी की मौतों का जिम्मेदार कौन है? क्या ये हमारे देश के नागरिक नहीं हैं , क्या इनके बुनियादी अधिकार नहीं हैं? सिनेमा के पर्दे पर नीतियों से टकराते से सवाल तमिलनाडु पुलिस को पसन्द नहीं आये और राज्य पुलिस ने उनका उत्पीड़न शुरू किया। सत्ता के प्रतिबन्ध के बाद दिव्या ने सोशल मीडिया का मंच चुना और फिल्म को यूट्यूब पर डाल दिया। आज दिव्या देश के कोने-कोने में घूम जमीनी दर्शकों को यह फिल्म दिखा सत्ता के दिखाए सच और जमीनी हकीकत का फर्क दिखा रही हैं। सत्ता से सवाल पूछती साहसी फिल्मकार दिव्या भारती से अनिल अश्विवी शर्मा के सवाल…
जनमानस के बीच “प्रतिरोध” अपनी जगह बना चुका है। जाहिर है सिनेमा इससे अछूता नहीं रहता और अब तो वह इस भावना की अगुवाई भी कर रहा है। अब आप बताएँ कि प्रतिरोध का सिनेमा क्या है?
भारतीय सिनेमा अपनी सौ साल की यात्रा पूरी कर चुका है। इस दौरान कई धाराओं का समावेश हुआ। जैसे, सत्तर के दशक में समानान्तर सिनेमा ने अपनी जगह बनाई। ठीक उसी तर्ज पर पिछले एक दशक में प्रतिरोध का सिनेमा अभियान शुरू हुआ है। यह सिनेमा पिछले दस सालों में ज्यादा-से-ज्यादा दर्शकों के बीच छोटे-बड़े सिनेमा के जरिए यात्रा कर चुका है। हमारा हमेशा से ही यह उद्देश्य रहा है कि जन सिनेमा अपनी सही दर्शकों तक पहुँचे। पिछले कुछ वर्षों में कई महत्त्वपूर्ण विषयों पर दस्तावेजी फिल्मों का निर्माण हुआ और हमने प्रयास किया कि गाँव, शहर और कस्बों के अधिक-से-अधिक दर्शक फिल्मों और फिल्मकारों से जुड़ें। सच एक नहीं होता उसके कई केन्द्र होते हैं और सिनेमा उसके एक केन्द्र को दिखाता है। सरकारी समावेशी भाषा में जातिवाद, सम्प्रदायवाद और शोषण के बोल को फिल्टर कर सिनेमा के पर्दे पर लाते हैं तो हम प्रतिरोधी हो जाते हैं। इन फिल्मों का कोई सुखद “द एंड” नहीं होता है बल्कि फिल्मों के जरिए सवाल उठाने की तैयारी के साथ ही फिल्मकार के सुकूृन का अन्त होता है और उसके पास सिर्फ सत्ता से टकराने का जुनून बचा रह जाता है। सिनेमा की धारा में ऐसे जुनूनी हमेशा से रहे हैं। सत्ता के साथ ही प्रतिरोध का जन्म होता है।
सत्ता आपको डरा रही है, मतलब वह आपसे डर रही है। तो क्या फिलहाल आपकी फिल्म कक्कूस इस प्रतिरोध की धारा की अगुवाई कर रही है?
सरकार के प्रचार के इतर जो सच है वही प्रतिरोध है। सरकारी जुमलेबाजी का चमकीला पर्दीला गिराकर सच दिखाएँगे तो आप प्रतिरोध वाली जमात के हिस्से में आएँगे। तो कक्कूस प्रचार के बरक्स वह हार दिखा रही है जहाँ एक खास तबके को किस तरह हाशिए की हदबन्दी से बाहर नहीं आने दिया जाता है। कक्कूस को हमने उदयपुर, दिल्ली और पटना के कुछ इलाकों में जमीनी दर्शकों के सामने प्रदर्शित किया और उनसे संवाद बनाया। जो इस फिल्म की पटकथा के सीधे-सीधे किरदार हैं इस सिनेमा का उससे बेहतर दर्शक और कौन हो सकता था, उनसे बेहतर समीक्षक कौन हो सकता है।
सिनेमा के एक आम दर्शक को कक्सूस क्यों देखनी चाहिए?
देश में स्वच्छता अभियान 2014 से जोर-शोर से चालू है। देश के कोने-कोने में इसका इतना प्रचार किया जा रहा है जबकि दूसरी योजनाओं की ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। अगर इस अभियान को राष्ट्रीय स्तर पर इतना महत्त्व दिया जा रहा है तो क्या हमने थोड़ा रुककर इससे जुड़े सफाईकर्मिर्यों पर थोड़ा गौर किया है। उन्हें इसकी नीतियों को हिस्सा बनाने के बार में सोचा है। शायद नहीं। एक अनुमान के मुताबिक, 8 लाख लोग इस काम से जुड़े हुए हैं। देश में हाथ से मैला ढोने की कुप्रथा गैरकानूनी घोषित हो चुकी है। लेकिन आज भी हजारों-लाखों मजदूर मैनहोल में उतरते हैं और हमारी गन्दगी और अन्य जहरीले स्रावों को अपने हाथों से साफ करते हैं। यह सिर्फ हमारे समाज के लिये एक शर्मिन्दगी की बात ही नहीं है, उनके जीवन के लिये खतरनाक भी है। सफाई कर्मचारियों की यूनियनों की मानें तो 1300 से ज्यादा मजदूर इन मौत के कुओं में अपनी जान गँवा चुके हैं। इनका जीवन क्या देश के किसी अन्य नागरिक से कम कीमती था? क्या ये देश के विकास के हिस्सा नहीं हैं?
आपने यह फिल्म बनाने की जरूरत क्यों महसूस की?
अक्टूबर, 2015 में मदुरै में दो सेप्टिक टैंक में जहरीली हवा से दम घुटने से मर गए। तब मैंने तय किया किया कि इन अभागे नागरिकों के नारकीय जीवन और उनके भयंकर कार्यस्थल के देश के सामने लाऊँगी। दो साल की कड़ी मेहनत से बनी कक्कूस यानी टॉयलेट बनी तो इसने स्थानीय सरकार व प्रशासन की नींदें उड़ा दीं। पहले तो उन्होंने इस फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगा दी। आखिर तमाम मुसीबतों के बीच मैंने यह फिल्म जुलाई 2017 को यूट्यूब पर अपलोड कर दी। अपलोड करने के कुछ ही दिन बाद पुलिस ने मेरे छात्र जीवन के नौ साल पुराने एक मामले को निकालकर गिरफ्तार कर लिया। (उस समय मैं लॉ फर्स्ट इयर की छात्रा थी और एक विद्यार्थी की मौत के बाद हुए आन्दोलन का हिस्सा थी) यहाँ यह कहना मुनासिब होगा कि इस पुराने मामले को निकालना सिर्फ कक्कूस की लोकप्रियता और उसके कारण प्रशासन की पोल खुलने की खीझ का ही नतीजा था। देश भर के फिल्मकारों और संस्कृतिकर्मियों ने जब मेरे जब पक्ष में आवाज उठाई तो प्रशासन को झुकना पड़ा।
इस फिल्म को लेकर आपको प्रतिक्रिया मिली? और, फिल्म बनाने के दौरान किन लोगों का साथ मिला?
यूट्यूब पर यह फिल्म अब तक पाँच लाख से ज्यादा लोग देख चुके हैं। इस फिल्म के लिये किसी से भी किसी तरह की फंडिंग नहीं ली गई। अपने दोस्तों की मदद और अपने संसाधनों की बदौलत ही मैंने इसे पूरा किया।
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