उल्लास की ऊंचाई को दर्शन की गहराई से जोड़ने वाले लोग पूरे जीवन को बस पानी का एक बुदबुदा मानते रहे हैं और इस संसार को एक विशाल सागर। इसमें पीढ़ियां आती हैं, पीढ़िया जाती हैं, युग आते हैं, युग जाते हैं ठीक लहरों की तरह। जीवन और मृत्यु की लहरों से लहराते इस भवसागर से पार उतारने का लक्ष्य रखने वाले समाज ने तरह- तरह के तालाब बनाए हैं और बहुत रुचि के साथ उनका नामकरण किया है। ये नाम तालाबों के गुणों पर, स्वभाव पर तो कभी किसी विशेष घटना पर रखे जाते थे। इतने नाम, इनते प्रकार कि कहीं नामकरण में भाषा का कोष कम पड़े तो बोली से उधार लेते थे तो कहीं ठेठ संस्कृत तक जाते थे।
सागर, सरोवर और सर नाम चारों तरफ मिलेंगे। सागर लाड़ प्यार में सगरा भी हो जाता है और प्राय: बड़े ताल के अर्थ में काम आता है। सरोवर कहीं सरवर भी है। सर संस्कृत शब्द सरस से बना है और गांव में इसका रस सैकड़ों बरसों से सर के रूप में मिल रहा है। आकार में बड़े और छोटे तालाबों का नामकरण पुलिंग और स्त्रीलिंग शब्दों की जोड़ियों से जोड़ा जाता रहा है : जोहड़- जोहड़ी, बंध- बंधिया, ताल- तलैया तथा पोखर- पोखरी। ये जोड़ियां मुख्यत: राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल में जगह- जगह हैं और सीमा पार नेपाल में भी। पोखर संस्कृत के पुष्कर से मिला है। और स्थानों पर गांव- गांव में पोखर थे लेकिन बंगाल में तो घर- घर पोखर हुआ करते थे। घर के पिछवाड़े में प्राय: छोटे- छोटे, कम गहराई वाले पोखर मछली पालने के काम आते थे। वहां तालाब के लिए पुष्करणी शब्द भी चलता रहा है। पुष्कर तो था ही। पुष्कर के बाद में आदर, श्रद्धासूचक जी शब्द लग जाने से वह सामान्य पोखर न रह कर एक अतिविशिष्ट तालाब बन जाता है। यह राजस्थान में अजमेर के पास पुष्करजी नामक प्रसिद्ध तीर्थ क्षेत्र है। यहां ब्रह्माजी का मंदिर है।
सबसे अधिक प्रचलित नाम तालाब ही है पर तालाबों के नामकरण में इस शब्द का उपयोग सबसे कम मिलता है। डिग्गी नाम हरियाणा, पंजाब और दिल्ली में चलता था। पानी रखने के छोटे हौज से लेकर बड़े तालाब तक डिग्गी नाम मिलता है। कभी दिल्ली में लालकिले के ठीक सामने लालडिग्गी नामक एक बड़ा तालाब था। अंबाला में अभी भी कई तालाब हैं और ये डिग्गी कहलाते हैं। डिग्गी शब्द दीघी और दीर्घिका जैसे संस्कृत शब्दों से आया है।
कुंड भी हौज जैसा ही छोटा और पक्का प्रकार है, पर कहीं- कहीं अच्छे खासे तालाबों का नाम कुंड या हौज मिलते हैं। मध्य प्रदेश के खंडवा शहर में कुंड नाम से जाने गए कई तालाब हैं। हौज़ का उदाहरण दिल्ली का हौजखास है जो अब तालाब से अधिक एक मोहल्ले की तरह पहचाना जाता है।
ताल कई जगह हैं पर इसी से मिलता- जुलता शब्द चाल एक क्षेत्र में ही सीमित होकर रह गया। यह क्षेत्र है उत्तर प्रदेश के हिमालय का। इन पहाड़ी जिलों में कभी गांव- गांव में चाल थीं। मैदानी गांव- शहरों में ताल आबादी के बीच या पास बनते हैं लेकिन पहाड़ी गांवों में चाल गांव से कुछ दूर ऊपर बनती थीं। चालों का उपयोग सीधे पीने के पानी के लिए नहीं होता था। लेकिन इन्हीं चालों के कारण गांव के झरने वर्ष भर चलते थे। पहाड़ों में पहली तेज बरसात के वेग को झेलने, अचानक आने वाली बाढ़ रोकने और वर्ष भर पानी चलाने के लिए चालों का चलन इतना अधिक था कि गांव अपने ऊपर के पहाड़ों में 30 से 40 तक चाल बना लेते थे।
चाल कोई 30 कदम लंबी, इतनी ही चौड़ी और कोई चार- पांच हाथ गहरी होती थी। यह किसी एक किस्से के जिम्मे नहीं होती, सभी इसे बनाना जानते थे और सभी इसकी सफाई में लगते थे। ये निस्तार के काम आतीं, गांव के पशुओं के अलावा वन्य पशुओं के लिए भी पानी जुटाती थीं।
हिमालय में चाल कहीं खाल है, कहीं तोली है तो कहीं चौरा भी। आसपास के गांव इन्हीं के नाम से जाने जाते हैं। जैसे उफरेंखाल या रानीचौरा और दूधतोली। ठेठ उत्तर के ये शब्द दक्षिण तक चले जाते हैं। केरल और आंध्र प्रदेश में चैर और चेरुबू शब्द तालाब के अर्थ में ही पाए जाते हैं।
चौकोर पक्के घाट से घिरे तालाब चोपरा या चौपरा और र का ड़ होकर चौपड़ा भी कहलाते हैं। चौपड़ा उज्जैन जैसे प्राचीन शहर में, झांसी जैसे ऐतिहासिक शहर में तथा चिरगांव जैसे साहित्यिक स्थान में भी हैं।
चौपरा से ही मिलता- जुलता एक नाम चौघरा है। चारों तरफ से अच्छे- पक्के घाटों से घिरा तालाब चौघरा कहलाता है। इसी का तिघरा भी है। इसमें एक तरफ, संभवत: आगौर की तरफ का कच्चा छोड़ दिया जाता था। चार घाट और तीन घाट से एकदम आगे बढ़कर अठघट्टी पोखर भी होते थे। यानी आठ घाट वाले। अलग- अलग घाटों का अलग- अलग उपयोग होता था। कहीं अलग- अलग जातियों के लिए अलग- अलग तालाब बनते थे तो कहीं एक ही बड़े तालाब पर विभिन्न जातियों के लिए अलग- अलग घाट बना दिए जाते थे। इसमें स्त्री और पुरुष के नहाने के लिए भी अलग प्रबंध होता। छत्तीसगढ़ में डौकी घाट महिलाओं के लिए तो डौका घाट पुरुषों के लिए बनते थे। कहीं गणेशजी तो कहीं मां दुर्गा सिराई जातीं तो कहीं ताजि़ए। सबके अलग घाट। इस तरह के तालाबों में आठ घाट बन जाते और वे अठघट्टी कहलाते थे।
अठघट्टी ताल तो दूर से चमक जाते पर गुहिया पोखर वहां पहुंचने पर ही दिखते थे। गुहिया यानी गुह्य, छिपे हुए पोखर। ये आकार में छोटे और प्राय: बरसाती पानी के जमा होने से अपने आप बन जाते थे। बिहार में दो गांव के बीच निर्जन क्षेत्र में अभी भी गुहिया पोखर मिलते हैं। अपने आप बने ऐसे ही तालाबों का और नाम है अमहा ताल। छत्तीसगढ़ी में अमहा का अर्थ है अनायास। गांवों से सटे घने वनों में प्राकृतिक रूप से निचली जमीन में पानी जमा हो जाता है। ढोर- डंगरो के साथ आते- जाते ऐसे तालाब अनायास ही मिल जाते हैं। उस रास्ते से प्राय: आने- जाने वाले लोग ऐसे तालाबों को थोड़ा ठीक- ठाक कर लेते हैं और उनको उपयोग में लाने लगते हैं।
अमहा का एक अर्थ आम तो है ही। आम के पेड़ से, बड़ी- बड़ी अमराइयों से घिरे ताल अमहा तरिया, ताल या आमा तरिया कहलाते हैं। इसी तरह अमरोहा था। आज यह एक शहर का नाम है पर एक समय आम के पेड़ों से घिरे तालाब का नाम था। कहीं- कहीं ऐसे ताल अमराह भी कहलाते। फिर जैसे अमराह वैसे ही पिपराह- पूरी पाल पर पीपल के भव्य वृक्ष। अमराह, पिपराह में पाल पर या उसके नीचे लगे पेड़ चाहे कितने ही हों, वे गिने जा सकते हैं, पर लखपेड़ा ताल, लाखों पेड़ों से घिरा रहता। यहां लाख का अर्थ अनगनित से रहा है। कहीं- कहीं ऐसे तालब को लखरांव भी कहा गया है।
लखरांव को भी पीछे छोड़े, ऐसा था भोपाल ताल। इसकी विशालता ने आसपास रहने वालों के गर्व को भी कभी- कभी घमंड में बदल दिया था। कहावत में बस इसी को ताल माना : ताल तो भोपाल ताल बाकी सब तलैया! विशालतम ताल का संक्षिप्तम विवरण भी चकित करता है। 11वीं सदी में राजा भोज द्वारा बनवाया गया यह ताल 365 नालों, नदियों से भरकर 250 वर्गमील में फैलता था। मालवा के सुलतान होशंगशाह ने 15वीं सदी में इसे सामरिक कारणों से तोड़ा। लेकिन यह काम उसके लिए युद्ध से कम नहीं निकला- और भोजताल तोड़ने के लिए होशंगशाह को फौज झोंकनी पड़ी। इतनी बड़ी फौज को भी इसे तोड़ने में तीन महीने लगे। फिर तीन बरसत तक ताल का पानी बहता रहा, तब कहीं जाकर तल दिखाई दिया। पर इसके आगर का दलदल 30 साल तक बना रहा। सूखने के बाद इसमें खेती शुरू हुई, तब से आज तक इसमें उम्दा किस्म का गेहूं पैदा होता चला आ रहा है।
बड़ों की बात छोड़ें, लौटकर आएं छोटे तालाब पर। उथले, कम गहरे छोटे आकार के तालाब चिखलिया कहलाते थे। यह नाम चिखड़ यानी कीचड़ से बना था। ऐसे तालाबों का एक पुराना नाम डाबर भी था। आज उसका बचा रूप डबरा शब्द में देखने को मिलता है। बाई या बाय भी ऐसे ही छोटे तालाबों का नाम था। बाद में यह नाम तालाब से हटकर बावड़ी में आ लगा। दिल्ली में कुतुब मीनार के पास राजों की बाय नामक बावड़ी आज इस शब्द की तरह पुरानी पड़ चुकी है।
पुराने पड़ गए नामों में निवाण, हद, कासार, तड़ाग, ताम्रपाली, ताली, तल्ल भी याद किए जा सकते हैं। इनमें तल्ल एक ऐसा नाम है जो समय के लंबे दौर को पारकर बंगाल और बिहार में तल्ला के रूप में आज भी पाया जाता है। इसी तरह पुराना होकर डूब चुका जलाशय नाम अब सरकारी हिन्दी और सिंचाई विभाग में फिर से उबर आया है। कई जगह बहुत पुराने तालाबों के पुराने नाम यदि समाज को याद रखने लायक नहीं लगे तो वे मिट जाते और उन्हें फिर एक नया नाम मिल जाता : पुरनैहा, यानी काफी पुराना तालाब। आसपास के तालाबों की गिनती में सबसे अंत में बने तालाब नौताल, नया ताल कहलाने लगते। वे पुराने भी पड़ जाते तो भी इसी नाम से जाने जाते।
गुचकुलिया ऐसे तालाब को कहते हैं जो होता तो छोटा ही है पर जो किनारे से गहरा हो जाता है। पल्लव भी ऐसे ही गहरे तालाब का पुराना नाम था। समय की तेज रफ्तार में यह नाम भी पीछे छूट गया है। आज इसकी याद दिल्ली के पास एक छोटे से कस्बे और ऐसे स्टेशन पल्लव के रूप में बच गई है, जिस पर रेलगाड़ियां बिना रुके दौड़ जाती हैं।
खदुअन छत्तीसगढ़ में ऐसे तालाबों को कहा जाता है, जिनका पानी बेहद साफ रहता है और पीने के काम में आता है। पनखत्ती तालाब केवल निस्तारी के काम आते हैं। इसी तरह लेंड्या ताल और खुर ताल निस्तारी, दिशा मैदान और पशुओं को पानी पिलाने के लिए होते हैं।
अलग- अलग स्वतंत्र रूप से बने तालाबों के अलावा कहीं- कहीं एक दूसरे से जुड़े तालाबों की सांकल बनाई जाती थी। एक का अतिरिक्त पानी दूसरे में, दूसरे का तीसरे में...। यह तरीका कम वर्षा वाले राजस्थान और आंध्र के रायलसीमा क्षेत्र में, औसत ठीक वर्षा वाले बुंदेलखंड और मालवा में तो अधिक वर्षा वाले गोवा और कोंकण में समान रूप से मिलता है। उत्तर में इनका नाम सांकल या सांखल ताल है तो दक्षिण में दशफला पद्धति।
तालाबों की यह सांखल मोटे तौर पर एकाधिक यानी दो से लेकर दस तालाबों तक जाती है। सांखल दो तालाबों की हो और दूसरा तालाब पहले के मुकाबले बहुत ही छोटा हो तो वह छिपीलाई कहलाता है। यानी पहले बड़े ताल के पीछे छिप गई तलाई।
लेकिन जो ताल सामने है और खूब सुंदर भी, उसका नाम चाहे जो हो, उसे सगुरी ताल भी कहते थे। जिस ताल में मगरमच्छ रहते थे, उसका नाम चाहे जितने बड़े राजा के नाम पर हो, लोग अपनी सावधानी के लिए चेतावनी के लिए उसका नाम मगरा ताल, नकया या नकरा ताल रख लेते थे। नकरा शब्द संस्कृत के नक्र यानी मगर से बना है। कुछ जगह गधया ताल भी हैं। इनमें मगर की तरह गधे नहीं रहते थे! गधा बोझ ढोने का काम करता है। एक गधा मोटी रस्सी का जितना बोझ उठा सके, उतनी रस्सी की लंबाई बराबर गहरा ताल गधया ताल कहलाता था। कभी- कभी कोई बड़ी दुर्घटना या घटना भी तालाब का पुराना नाम मिटा देती। यहां- वहां ब्रह्मनमारा ताल मिलते हैं। इनका नाम कुछ और रहा होगा, पर कभी उनमें किसी ब्राह्मण के साथ दुर्घटना घट गई तो बाद में उन्हें ब्राह्मनमारा की तरह याद रखा गया। इसी तरह का एक और नाम है बैरागी ताल। इसकी पाल पर बैठकर कोई कभी बैरागी बन गया होगा!
नदियों के किनारे नदया ताल मिलते हैं। ऐसे ताल अपने आगौर से नहीं, नदी की बाढ़ के पानी से भरते थे। नदियों के बदले किसी पाताली स्रोत से जुड़े ताल को भूफोड़ ताल कहते थे। ऐसे तालाब उन जगहों में ज्यादा थे जहां भूजल का स्तर काफी ऊंचा बना रहता था। उत्तर बिहार में अभी भी ऐसे तालाब हैं और कुछ नए भी बनाए गए हैं।
रख- रखाव के अच्छे दौर में भी कभी- कभी किसी खास कारण से एकाध तालाब समाज के लिए अनुपयोगी हो जाता था। ऐसे तालाब हाती ताल कहे जाते थे। हाती शब्द संस्कृत के हत शब्द से बना है और इसका अर्थ है नष्ट हो जाना। `हत तेरे की´ जैसे चालू प्रयोग में भी यह शब्द हत तेरे भाग्य की, यानी तो भाग्य नष्ट हो जाए जैसे अर्थ में है। हत- प्रभ और हत- आशा यानी हताश भी इसी तरह बने हैं। इस प्रकार हाती ताल छोड़ दिए गए तालाब के लिए अपनाया गया नया नाम था। लेकिन हाथी ताल बिल्कुल अलग नाम है- ऐसा तालाब जिसकी गहराई हाथी जितनी हो।
वापस हाती ताल लौटें। यह नाम संस्कृत से लंबी यात्रा कर थका दिखे तो सीधे बोली में से ताजे नाम निकल आते थे। फूटा ताल, फुटेरा ताल भी यहां- वहां मिल जाएंगे।
जिस तालाब पर कभी जनवासा बन गया, गांव की दस- बारह बरातें ठहर गईं, उसका नाम बराती ताल पड़ जाता था। लेकिन मिथिला (बिहार) का दुलहा ताल एक विशेष ताल है। मिथिला सीताजी का मायका है। उनके स्वयंवर की स्मृति में यहां आज भी स्वयंवर होते हैं। अंतर इतना ही है कि अब वर का चयन कन्या नहीं करती, कन्या पक्ष करता है। दुल्हा ताल पर कुछ निश्चित तिथियों पर कई लड़के वाले अपने लड़के को लेकर जमा होते हैं। फिर कन्यापक्ष के लोग उनमें से अपनी कन्याओं के लिए योग्य वर चुन लेते हैं। छत्तीसगढ़ में भी ऐसे कुछ ताल हैं। वहां उनका नाम दुलहरा ताल है।
कई तालाबों के नाम लंबी कहानियों में से निकले हैं। लंबे समय तक इन तालाबों ने समाज की सेवा की है और लोगों ने लंबे समय तक इनकी लंबी कहानियां ज्यों का त्यों याद रखा है। ऐसे तालाबों में एक विचित्र नाम है `हा हा पंचकुमारी ताल´ बिहार में मुंगेर के पास यह तालाब एक ऊंचे पहाड़ के नीचे बना है। कहानी में राजा है, उसकी पांच बेटियां हैं, जो किसी असंतोष के कारण ऊंचे पहाड़ से तालाब में डूब कर अपने प्राण दे देती हैं। उन पांचों के शोक में तालाब का मूल नाम भी डूब गया और फिर लोगों ने उसे हा- हा पंचकुमारी के नाम से ही याद रखा है आज तक।
बिहार में ही लखीसराय क्षेत्र के आसपास कभी 365 ताल एक झटके में बने थे। कहानी बताती है कि कोई रानी थी जो हर दिन एक नए तालाब में स्नान करना चाहती थी। इस विचित्र आदत ने पूरे क्षेत्र को तालाबों से भर दिया।इस कहानी के कोई सौ तालाब आज भी यहां मिल जाएंगे और इनके कारण ही इस इलाके का जल- स्तर उम्दा बना हुआ है।
पोखर प्राय: छोटे तालाब के लिए ही काम आता है पर बरसाने (मथुरा) में यह एक बड़े तालाब के लिए भी प्रयुक्त हुआ है। राधाजी के हाथ की हल्दी धोने का प्रसंग है। पोखर का पानी पीला हो गया। नाम पड़ गया पीली पोखर।
रंग से स्वाद पर आएं। महाराष्ट्र के महाड़ इलाके में एक तालाब का पानी इतना स्वादिष्ट था कि उसका नाम चवदार ताल यानी जायकेदार तालाब हो गया। समाज के पतन के दौर में इस तालाब पर कुछ जातियों के प्रवेश पर प्रतिबंध लग गया था। सन् 1927 में चवदार ताल से ही भीमराव अंबेडकर ने अछूतोद्धार का आंदोलन प्रारंभ किया था।
विचित्र तालाबों में आबू पर्वत (राजस्थान) के पास नखी सरोवर भी है, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसे देवताओं और ऋषियों ने अपने नखों से ही खोद डाला था। जिस समाज में साधारण माने जाने वाले लोग भी तालाब बनाने में पीछे नहीं रहते थे, वहां देवताओं का योगदान सिर्फ एक तालाब का कैसे होता?
गढ़वाल में सहस्रताल नामक एक क्षेत्र में सचमुच सैकड़ों तालाब हैं। हिमालय का यह इलाका 10 हजार से 13 हजार फुट की ऊंचाई पर है। यहां प्रकृति का एक रूप, वनस्पति विदा लेने की तैयारी करता है और दूसरा रूप हिम, अपना राज जमाने की। आसपास दूर-दूर तक कोई आबादी नहीं है। निकटतम गांव 5 हजार फुट नीचे है, जहां के लोग बताते हैं कि सहस्रताल उनने नहीं, देवताओं ने ही बनाए हैं।
जयपुर के पास बना गोला ताल विचित्र घटनाओं में से निकले तालाबों में सचमुच सचित्र वर्णन करने लायक है। यह गोल है इसलिए गोला नहीं कहलाया। कहा जाता है कि यह एक तोप के गोले से बना था। तब जयपुर शहर नहीं बसा था। आमेर थी राजधानी। जयगढ़ के राजा ने जयबाण नामक एक बड़ी तोप बनाई थी। इसकी मारक क्षमता बहुत अधिक थी। इसका गोला 20 मील की दूरी तक जा सकता था। तोप जयबाण जयगढ़ किले के भीतर ही बने तोप कारखाने में ढली थी। मारक क्षमता के परीक्षण के लिए इसे किले के बुर्ज पर चढ़ाया गया और गोला दागा गया। गोला गिरा 20 मील दूर चाकसू नामक एक स्थान पर। विस्फोट इतना था कि एक लंबा चौड़ा और गहरा गड्ढा बन गया। अगली बरसात में इसमें पानी भरा और फिर यह कभी सूखा नहीं।
इस तरह जयबाण तोप ने बनाया गोला ताल। जयबाण तोप फिर कभी चली नहीं। परीक्षण के बाद ही शांति स्थापित हो गई। कहते हैं कि इसके बाद किसी ने उस तरफ हमला करने की हिम्मत नहीं की। गोला ताल आज भी भरा है और चाकसू कस्बे को पानी दे रहा है। अणुबम या कहीं अणुशक्ति के शांतिमय उपयोग की बात बहुत हुई थी, हमारे यहां भी हुई। इसी राजस्थान के पोकरन में उसका विस्फोट हुआ पर कोई गोला तालाब नहीं बना। बनता तो विकिरण के कारण न बनने से भी ज्यादा नुकसान पहंचाता।
कभी- कभी किसी इलाके में कोई एक तालाब लोगों के मन में बाकी सबसे ज्यादा छा जाता, तब उसका नाम झूमर ताल हो जाता। झूमर है सिर का आभूषण। झूमर ताल उस क्षेत्र का सिर ऊंचा कर देता। तब प्यार में जैसे बेटे को कभी- कभी बिटिया कहने लगते है, उसे झूमरी तलैया कहने लगते। बिल्कुल भिन्न प्रसंग में एक झूमरी तलैया का नाम विविध भारती के कारण घर- घर पहुंच गया था।
भारती, भाषा की विविधता समाज का माथा ऊंचा करती थी।
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