सीमित जल का वैज्ञानिक उपयोग

Submitted by Editorial Team on Sat, 10/14/2017 - 16:06
Source
प्रसार शिक्षा निदेशालय, बिरसा कृषि विश्वविद्यालय, राँची, जनवरी-दिसम्बर 2009

वर्षा जल, नदियों के जल, तालाब, झील आदि सब उसके तंत्र का हिस्सा है। जल विशाल पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा है। देश नदियों और समुद्रों के पानी का स्वयं तक ही सीमित रखना चाहते हैं, लेकिन जल किसी की निजी सम्पति नहीं होता। यह किसी व्यक्ति, कम्पनी या संस्था का नहीं हो सकता। जल संकट को कम करने और उस सम्बन्ध में उपायों को सुझाने तथा हल खोजने की जिम्मेदारी प्रत्येक व्यक्ति की है चाहे भूजल के रिक्तीकरण की समस्या हो,कम कृषि उत्पादकता हो या जलवायु की विविधता हो। पृथ्वी को जलग्रह भी कहा जाता है क्योंकि इसके 71 प्रतिशत भाग पर महासागरों का राज है। विश्व के जल भण्डार का केवल एक प्रतिशत हमारे उपयोग योग्य है। लगभग 97 प्रतिशत जल समुद्री खारा जल है और पृथ्वी के कुल जल भण्डार का 2.7 प्रतिशत ही स्वच्छ जल है। उस 2.7 प्रतिशत का भी काफी हिस्सा हिम नदी और पहाड़ों की चोटियों पर जमा हुआ है। विश्व के कुल जल का डेढ़ प्रतिशत से भी कम वास्तव में जीवित प्राणियों के उपयोग योग्य हैं।

प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता


एक स्वस्थ आदमी को वर्ष में औसतन 2000 घन मीटर जल की आवश्यकता होती है। यदि व्यक्ति के लिये जल की उपलब्धता 1000 घनमीटर से नाचे चली जाती है तो यह मान लिया जाता है कि पानी का अभाव हो गया है। यदि पानी का स्तर 500 घनमीटर से नीचे चला जाता है तो उस क्षेत्र में जल अकाल जैसे लक्षण पैदा होने लगते हैं। राजस्थान, ओड़िसा, गुजरात एवं आन्ध्र प्रदेश में अकाल जैसी स्थिति वाले शुष्क हिस्से में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 400 घनमीटर से भी नीचे चली गई हैं। देश की आजादी के समय जल की प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति उपलब्धता 6000 घनमीटर के करीब थी, जो घटकर पिछले पाच दशकों में 2200 घनमीटर जल की उपलब्धता मात्रा में घटने का यही हाल रहा तो आने वाले दशकों में देश के अधिकांश हिस्से अकाल की चपेट में आ जाएँगे।

ऐसी सम्भावना है कि 2050 तक देश की जनसंख्या 1640 मिलियन हो जाएगी। आबादी का आधा भाग शहरी होगा, आधा ग्रामीण। उनकी घरेलू जरूरतों को अगर सख्ती से शहरी क्षेत्रों में 200 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन और ग्रामीण क्षेत्रों में 100 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन तक सीमित कर दिया जाये तब भी 9 एम.एच.एम. जल की आवश्यकता होगी। यह ध्यान रखने की बात है कि भूजल शहरी जरूरतों को कम ही पूरा करता है, लेकिन सम्पूर्ण ग्रामीण जरूरतें इससे पूरी होती है।

वर्तमान में, सिंचाई कार्य में जल की खपत लगभग 83 प्रतिशत (524) बिलियन क्यूबिक मीटर) है। जिसमें 50 प्रतिशत जल सिर्फ धान फसल के उत्पादन में खर्च होता है, एवं अनुमान के अनुसार 1 किग्रा धान के उत्पादन में करीब 3000 ली. जल की आवश्यकता पड़ती है, इसलिये किसानों को सलाह दी जाती है कि उस तरह की फसल बोएँ जिसमें कम जल की आवश्यकता पड़ती है। वर्ष 2050 में सिंचाई क्षेत्र में उपलब्ध जल की लगभग 79 प्रतिशत मात्रा की खपत होगी। इससे अधिक-से-अधिक लाभ प्राप्त करने पर बल दिया जाना चाहिए। इस क्षेत्र में जल उपयोग की क्ष्मता में 10 प्रतिशत सुधार करने से घरेलू एवं औद्योगिक उपयोगों हेतु जल की उपलब्धता में 40 प्रतिशत तक सुधार हो सकता है। इसके साथ-साथ सिंचाई के लिये पानी का आवंटन समानता एवं सामाजिक न्याय पर आधारित होना चाहिए।

ड्रिप सिंचाई प्रणाली एक उपाय


जल संसाधन का एक बहुत बड़ा हिस्सा सिंचाई वितरण प्रणालियों से रिसाव के कारण व्यर्थ चला जाता है। इसलिये पानी के इस नुकसान को बचाने के लिये सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली की सख्त जरूरत है ताकि व्यर्थ हो रहे जल की बचत करके अधिक-से-अधिक क्षेत्रफल को सिंचाई के अन्तर्गत लाया जा सके, जिससे फसलों के उत्पादन में अधिकाधिक वृद्धि हो सके। सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली एक आधुनिक एवं प्रचलित विधि है जिसके प्रयोग द्वारा लगभग 50-70 प्रतिशत तक पानी की बचत की जा सकती है। सिंचाई की यह विधि विभिन्न प्रकार की मिट्टी ऊँची-नीची जमीन पहाड़ी क्षेत्रों में आसानी से प्रयोग में लाई जा सकती है। सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली पानी के समुचित प्रयोग की ऐसी विधि है जिसमें बूँद-बूँद पानी एवं उर्वरक सीधे पौधों की जड़ों में दिया जाता है ताकि पानी का रिसाव तथा वाष्पीकरण न्यूनतम हो और परिणामस्वरूप पानी की बचत हो सके।

ड्रिप सिंचाई प्रणाली में अन्य सिंचाई विधियों की तुलना में काफी कम पानी खर्च होता है। यह प्रणाली कपास गन्ना, अधिकतर फलों एवं सब्जियों के लिये सबसे ज्यादा उपयुक्त पाई गई है। पानी की बचत के अलावा इस विधि द्वारा 60-70 प्रतिशत श्रम की बचत की जा सकती है। इसके अतिरिक्त खारे पानी का भी सफल उपयोग इसके माध्यम से किया जा सकता है। इस सिंचाई प्रणाली द्वारा पौधों को आवश्यकतानुसार पानी दिया जाता है। इसके द्वारा उर्वरकों को भी पानी के साथ (फर्टीगेशन) देने की व्यवस्था होती है। सूक्ष्म सिंचाई में 30-50 प्रतिशत उत्पादन वृद्धि के साथ-साथ गुणवत्ता में भी वृद्धि की जा सकती है। इसके अलावा खाद की 25-40 प्रतिशत तक की बचत की जा सकती है। एवं खरपतवारों की समस्या को भी कम किया जा सकता है।

ड्रिप सिंचाई प्रणाली लगाने की लागत 30,000 से 70,000 रुपए प्रति हे. आती है जो कि फसल के प्रकार एवं बीज की दूरी पर निर्भर करती है। झारखण्ड के सीमान्त कृषकों के लिये बकेट कीट (30 लीटर) एवं ड्रम कीट (200 लीटर) भी बहुत उपयोगी सिद्ध होगा। बकेट कीट से 25 मी.2 तथा ड्रम कीट से 125 मी.2 क्षेत्रफल में सब्जियों के लिये सिंचाई किया जा सकता है।

मल्चिंग


मल्चिंग भी जल की बचत करने का अच्छा उपाय है। पौधों की मल्चिंग करने से 10 से 15 प्रतिशत जल की बचत तथा तापमान में 2 से 3 डिग्री से.ग्रे. की कमी होती है। मल्चिंग करने से खपतवार में भी नियत्रंण होता है। आजकल सिन्थेटिक एवं पॉलिथीन से भी मल्चिंग हो रही है। एक अनुमान के अनुसार एक हेक्टेयर खेत में मल्चिंग करने में 55 किग्रा. पॉलिथीन की आवश्यकता पड़ती है। हमारे देश में मल्चिंग करने की मशीन भी उपलब्ध है। जिसकी कीमत सात से आठ हजार रुपए है। एक अनुमान के अनुसार पूरे विश्व में 12.86 मिलियन हेक्टेयर में मल्चिंग हो रही है जबकि भारतवर्ष में यह आँकड़ा सिर्फ 500 हेक्टेयर है। इसलिये इस पद्धति को और आगे बढ़ाने की जरूरत है।

जल राज्य की सीमाओं को नहीं मानता। न केवल नदियाँ बल्कि भूजल स्रोत भी राज्य की सीमाओं के पार निकल जाते हैं। वर्षा जल, नदियों के जल, तालाब, झील आदि सब उसके तंत्र का हिस्सा है। जल विशाल पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा है। देश नदियों और समुद्रों के पानी का स्वयं तक ही सीमित रखना चाहते हैं, लेकिन जल किसी की निजी सम्पति नहीं होता। यह किसी व्यक्ति, कम्पनी या संस्था का नहीं हो सकता। जल संकट को कम करने और उस सम्बन्ध में उपायों को सुझाने तथा हल खोजने की जिम्मेदारी प्रत्येक व्यक्ति की है चाहे भूजल के रिक्तीकरण की समस्या हो,कम कृषि उत्पादकता हो या जलवायु की विविधता हो। आज भी लाखों लोगों कों सतत स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं है। जल हर व्यक्ति की आवश्यकता है। जल सम्बन्धी नीतियों कार्यक्रमों प्रयोगों को हर स्तर पर प्रचारित किये जाने की आवश्यकता है ताकि हर व्यक्ति उस सम्बध में जागरूक हो सके।

विभिन्न उपयोगों के लिये जल की माँग

 

पठारी कृषि (बिरसा कृषि विश्वविद्यालय की त्रैमासिक पत्रिका) जनवरी-दिसम्बर, 2009


(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

उर्वरकों का दीर्घकालीन प्रभाव एवं वैज्ञानिक अनुशंसाएँ (Long-term effects of fertilizers and scientific recommendations)

2

उर्वरकों की क्षमता बढ़ाने के उपाय (Measures to increase the efficiency of fertilizers)

3

झारखण्ड राज्य में मृदा स्वास्थ्य की स्थिति समस्या एवं निदान (Problems and Diagnosis of Soil Health in Jharkhand)

4

फसल उत्पादन के लिये पोटाश का महत्त्व (Importance of potash for crop production)

5

खूँटी (रैटुन) ईख की वैज्ञानिक खेती (sugarcane farming)

6

सीमित जल का वैज्ञानिक उपयोग

7

गेहूँ का आधार एवं प्रमाणित बीजोत्पादन

8

बाग में ग्लैडिओलस

9

आम की उन्नत बागवानी कैसे करें

10

फलों की तुड़ाई की कसौटियाँ

11

जैविक रोग नियंत्रक द्वारा पौधा रोग निदान-एक उभरता समाधान

12

स्ट्राबेरी की उन्नत खेती

13

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14

वनों के उत्थान के लिये वन प्रबन्धन की उपयोगिता

15

फार्मर्स फील्ड - एक परिचय

16

सूचना क्रांति का एक सशक्त माध्यम-सामुदायिक रेडियो स्टेशन

17

किसानों की सेवा में किसान कॉल केन्द्र

18

कृषि में महिलाओं की भूमिका, समस्या एवं निदान

19

दुधारू पशुओं की प्रमुख नस्लें एवं दूध व्यवसाय हेतु उनका चयन

20

घृतकुमारी की लाभदायक खेती

21

केचुआ खाद-टिकाऊ खेती एवं आमदनी का अच्छा स्रोत