सिंधु जल समझौता - विवाद और विकल्प

Submitted by RuralWater on Fri, 10/28/2016 - 10:33


सिंधु नदी घाटीसिंधु नदी घाटीभारत और पाकिस्तान के बीच सीमा पर बढ़े तनाव के बीच दोनों देशों में करीब 60 साल पहले हुआ जल समझौता फिर से विवादों का कारण बन गया है। केन्द्र सरकार ने सिंधु जल समझौते के विकल्पों पर काम करना शुरू कर दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस विवाद के बीच कहा था कि खून और पानी एक साथ नहीं बह सकते। इसके बाद से ही यह बहस तेज हो गई कि इसकी समीक्षा जरूरी है। हालांकि इसके सन्दर्भ में हुई बैठक में किसी बदलाव की जरूरत नहीं बताई गई।

कुछ नई बिजली परियोजनाएँ शुरू करने पर जोर दिया गया। तुलबुल परियोजना को फिर से शुरू करके पाकिस्तान को ज्यादा पानी लेने से रोका जा सकता है। पाकिस्तान का एक बड़ा हिस्सा सिंधु नदी के पानी पर आश्रित है। पाकिस्तान के बीच हुआ सिंधु जल समझौता विशेष ऐतिहासिक परिस्थिति की देन है, जिसमें विश्व बैंक ने मध्यस्थ की भूमिका निभाई। विश्व बैंक को उस समय ‘अन्तरराष्ट्रीय पुनर्निर्माण एवं विकास बैंक’ कहा जाता था।

1947 में देश के विभाजन के समय सिंधु और उसकी सहायक नदियों के हैडवर्क्स भारत में आ गए और ज्यादातर सिंचित इलाका पाकिस्तान में चला गया। इस सिंचाई व्यवस्था का ढाँचा सिंधु की सहायक नदियों रावी, व्यास, सतलुज पर खड़ा किया गया था। सिंधु जलतंत्र की शेष नदियाँ झेलम और चेनाब पर सिंचाई व्यवस्था का ढाँचा अविकसित ही था। भारत इन नदियों पर नदी तटीय अधिकारों का ऊपर वाला हिस्सेदार था और पाकिस्तान नीचे वाला हिस्सेदार था।

1 अप्रैल 1948 को भारतीय पंजाब ने पाकिस्तान को जाने वाली नहरों का पानी रोक दिया ताकि पूर्वी पंजाब के असिंचित क्षेत्रों के लिये सिंचाई व्यवस्था की जा सके। इससे पाकिस्तानी पंजाब में पानी की भयानक तंगी के हालात पैदा हो गए। इसे देखते हुए 30 अप्रैल 1948 को पाकिस्तानी पंजाब को पानी बहाल कर दिया गया। 4 मई 1948 को इस मुद्दे पर बातचीत के लिये एक सम्मेलन बुलाया गया।

इस सम्मेलन में एक समझौता हुआ, जिसमें पाकिस्तान ने भारतीय पंजाब के असिंचित क्षेत्रों के विकास के लिये पानी की जरूरत की बात स्वीकार की और पाकिस्तानी पंजाब के लिये पानी धीरे-धीरे कम करने पर सहमति बनी किन्तु यह समाधान स्थायी साबित नहीं हो सका। पाकिस्तान ने मामले को अन्तरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण में ले जाने का सुझाव दिया, जिसको भारत ने अस्वीकार कर दिया।

1951 में विश्व बैंक के अध्यक्ष यूजीन ब्लैक ने भारत और पाक प्रधानमंत्रियों को पत्र लिखकर बातचीत द्वारा इस मुद्दे के समाधान के लिये मध्यस्थता का प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव को दोनों देशों ने इन तीन सिद्धान्तों के आधार पर स्वीकार कर लिया।

1. सिंधु जल तंत्र के जल संसाधन वर्तमान और भविष्य की दोनों देशों की जरूरतों के लिये पर्याप्त हैं।
2. पूरे सिंधु जल तंत्र क्षेत्र को एक इकाई मानकर, सहकारिता पूर्वक इन जल संसाधनों को इस तरह विकसित किया जाये ताकि पूरे सिंधु जल तंत्र क्षेत्र का आर्थिक विकास आगे बढ़ाया जा सके।
3. सिंधु जल तंत्र क्षेत्र के जल संसाधनों के विकास और उपयोग की समस्या को राजनीतिक धरातल से अलग हटकर व्यावहारिक धरातल पर हल किया जाये। इसमें पिछली बातचीतों और राजनैतिक मुद्दों को दरकिनार रखा जाये।

इसके बाद कई बार बात खटाई में पड़ी और शुरू हुई। 1960 आते-आते सहमति बनने की दिशा में प्रगति स्पष्ट दिखने लगी। अन्ततः 19 सितम्बर 1960 को सिंधु जल समझौते पर कराची में हस्ताक्षर हो गए। भारत की ओर से प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू और पाकिस्तान की तरफ से फील्ड मार्शल मुहम्मद अयूब खां ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किये।

इस समझौते में प्रस्तावना के अलावा 12 धाराएँ और ए से एच तक परिशिष्ट शामिल हैं। धारा 2 के तहत पूर्वी नदियों रावी, व्यास और सतलुज का सारा पानी भारत के हिस्से में दिया गया। इसके अनुसार सीमावर्ती क्षेत्र में जहाँ सतलुज और रावी पाकिस्तान में पूर्णतः दाखिल होने से पहले सीमा के साथ-साथ बहती हैं। इस क्षेत्र में पाकिस्तान इन नदियों से घरेलू और गैर उपभोगीय प्रयोग के आलावा जरा भी पानी लेने का हकदार नहीं होगा।

रावी और सतलुज के पाकिस्तान में पूर्ण प्रवेश के बाद पाकिस्तान इन नदियों के पानी की उपलब्ध मात्रा का प्रयोग कर सकेगा, किन्तु वह कोई मात्रात्मक दावा नहीं कर सकेगा। सतलुज का पाकिस्तान में पूर्ण प्रवेश स्थल सुलेमान के ऊपर ‘नया हस्ताबन्द’ और रावी के मामले में पाकिस्तान में पूर्ण प्रवेश स्थल ‘बीआरबीडी’ साइफन के करीब डेढ़ मील ऊपर माना गया।

जब तक पाकिस्तान इन पूर्वी नदियों पर अपनी निर्भरता समाप्त करने के लिये, अपने हिस्से की पश्चिमी नदियों, सिंधु, झेलम और चेनाब से सिंचाई व्यवस्था का ढाँचा विकसित नहीं कर लेता, तब तक भारत अपने हिस्से के पानी में से विशेष छूट देकर पाकिस्तान को पानी देता रहेगा, यह छूट अवधि 1 अप्रैल 1960 से 31 मार्च 1970 तक होगी।

किसी भी सूरत में यह छूट अवधि 31 मार्च 1973 के आगे नहीं बढ़ाई जाएगी। धारा 3 के तहत पश्चिमी नदियों, सिंधु, झेलम और चेनाब पर पाकिस्तान को पूरे पानी का हक दिया गया, भारत इन नदियों से केवल सीमित कार्यों के लिये पानी का सीमित प्रयोग कर सकता था।

1 घरेलू प्रयोग के लिये
2. गैर उपभोगीय प्रयोग के लिये
3. परिशिष्ट सी के तहत सिंचाई के लिये (7 लाख एकड़ में सिंचाई)
4. परिशिष्ट डी के तहत जल विद्युत निर्माण के लिये

भारत इन पश्चिमी नदियों पर 3 लाख 60 हजार फुट पानी का भण्डारण भी कर सकेगा। सिंधु नदी जल तंत्र में भारत को कुल 20 प्रतिशत पानी ही प्राप्त हुआ है, उस पर पश्चिमी नदियों के अपने हिस्से का भी हम आज तक प्रयोग नहीं कर सके हैं, ऐसी स्थिति में बहुत से लोग इस समझौते को भारत के हित में न्यायपूर्ण नहीं मानते। फिर भी समीक्षा का अर्थ अभी के हालत में तो केवल अपने हिस्से के पानी के पूरे प्रयोग तक ही सीमित दिखता है। इस तरह की समीक्षा पर सवाल उठाना उचित नहीं है।

कई बार अन्तरराष्ट्रीय समझौतों को कूटनीतिक दबाव के रूप में भी प्रयोग किया जाता है, क्योंकि समझौतों का सम्मान करने की जिम्मेदारी दोनों सम्बन्धित पक्षों पर होती है।

पाकिस्तान तो हर समझौते को तोड़ने का काम करता रहता है, चाहे शिमला समझौता हो, लाहौर समझौता हो या आतंकवाद के खिलाफ कार्यवाही करने के आश्वासन हों, ऐसे में सिंधु जल समझौते की समीक्षा की बात कहने मात्र से भारत के अन्दर फिजूल का वितंडा महत्त्व नहीं रखता। हाँ, अन्तरराष्ट्रीय परम्पराओं का उल्लंघन पानी जैसे संवेदनशील मामले में हमें नहीं करना चाहिए, किन्तु अपने हिस्से के पानी का भी प्रयोग न करके फालतू की उदारता पाकिस्तान जैसे शरारती और हर तरह से दुश्मनी की कार्यवाहियाँ करने वाले देश के प्रति जारी रखने का भी कोई औचित्य दिखाई नहीं देता है।

अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध ठोस जमीनी सच्चाइयों पर निर्भर होने चाहिए, ख्याली आशाओं पर नहीं। ऐसी आशाएँ अनेक बार झूठी साबित हो चुकी हैं। सोशल मीडिया पर सिंधु जल संधि की समीक्षा की बात को युद्ध लोलुपता के रूप में चित्रित करना न्याय संगत नहीं ठहराया जा सकता।

 

 

 

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