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अमर उजाला, July 17, 2010
धरती से पानी खत्म होता जा रहा है। नदियां, नाले और झीलें सूख रही हैं। ग्लेशियर पिघल रहे हैं। जमीनी पानी दिनोंदिन नीचे खिसकता जा रहा है। पीने के पानी की विकराल होती समस्या के कारण मारपीट, धरना-प्रदर्शन, तोड़फोड़ की नौबत आने लगी है। दूसरी ओर हर वर्ष काफी बरसाती पानी यों ही बेकार चला जाता है, उसके प्रबंधन की समुचित व्यवस्था नहीं है। पानी के कुप्रबंधन के कारण प्रकृति की पूरी संरचना ही बिगड़ती लग रही है। इस कुप्रबंधन का सबसे बदतर उदाहरण मुंबई है, जहां महानगर के लोगों को पानी देने वाली चारों झीलें सूख रही हैं। दूसरी ओर बारिश में सड़कों पर जलभराव का मंजर वहां हर साल देखने को मिलता है।
दरअसल हमारे नीति नियंताओं का ध्यान किसी भी समस्या की ओर तब जाता है, जब पानी सिर के ऊपर से बहने लगता है। उनके लिए गंभीरता का मतलब महज यही है कि बारिश न होने पर वे जगह-जगह हवन, पूजा-यज्ञ करवाकर टीवी पर दिखा देते हैं और समस्या को भगवान की ओर खिसका कर चैन से सांस लेते हैं। वे बरसात के लिए महिलाओं के निर्वस्त्र होकर हल चलाने, बच्चों के कीचड़ में लोटने या मेढ़क-मेढ़की की शादी कराकर इंद्र देवता को रिझाने जैसे टोटकों को प्रसारित कराते हैं और अपने द्वारा पैदा की गई समस्याओं को ग्लोबल वार्मिंग का कारण बताकर ढंकने की कोशिश करते हैं।
चिंता की बात है कि हमारी नादानियों की वजह से गंगा को पानी देने वाले ग्लेशियर पिघल रहे हैं, जिन पर ५० करोड़ लोगों का जीवन निर्भर है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष २०५० तक दुनिया के चार अरब लोग पानी की कमी से प्रभावित होंगे। हालांकि आज भी एक अरब लोगों को साफ पानी नसीब नहीं है। असल में नदियों से नहरों का संजाल फैलाते समय जो गुलाबी तसवीर पेश की गई थी, वह महज दो-तीन दशकों में मटमैली हो गई। अधिकांश नहरों के अंतिम सिरे तक पानी नहीं पहुंचता। नहरें गाद से भर गई हैं। नदियों का पानी खेतों तक पहुंचने के बजाय वाष्प बनकर उड़ रहा है और नदियाें को सुखाता जा रहा है।
विकास के आधुनिक तौर-तरीकों के नाम पर हमने खेती और सिंचाई की पूरी संरचना ही बदल दी। पहले जमीनी पानी के बजाय परंपरागत जलस्रोतों से सिंचाई होती थी। मगर हमने तालाब, कुएं और झीलों जैसे पारंपरिक जलस्रोतों की उपेक्षा कर जगह-जगह ट्यूबवेल लगा भूमिगत जल का दोहन शुरू कर दिया। इस प्रचलन ने न केवल कुओं और तालाबों को पाटा, बल्कि भूमिगत जल को निचोड़ कर पूरे ऋतुचक्र को प्रभावित किया। अब हमें बरसाती पानी को बचाने के बारे में गंभीरता से सोचने की जरूरत है। बरसाती पानी के संचय से भूमिगत जलस्रोत को बेहतर करने के मामले में केरल का एक उदाहरण हमारे सामने है। वर्ष २००५ में केरल पब्लिक स्कूल ने अपनी २५० वर्ग मीटर छत से २,४०,००० लीटर बरसाती पानी संरक्षित कर भूमिगत जलस्रोत को इतना बढ़ा लिया कि अब वहां गरमियों में कुएं और ट्यूबवेल नहीं सूखते। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार, फिलहाल देश का १५ प्रतिशत भू-भाग गंभीर जल संकट से जूझ रहा है, जबकि २०३० तक ६० प्रतिशत भू-भाग में पानी की भीषण कमी हो जाएगी। ऐसे में, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे वही क्षेत्र सबसे पहले संकटग्रस्त होंगे, जहां भूमिगत जल का सर्वाधिक दोहन हो रहा है। हमें बरसाती पानी की हर बूंद के संरक्षण के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए।
दरअसल हमारे नीति नियंताओं का ध्यान किसी भी समस्या की ओर तब जाता है, जब पानी सिर के ऊपर से बहने लगता है। उनके लिए गंभीरता का मतलब महज यही है कि बारिश न होने पर वे जगह-जगह हवन, पूजा-यज्ञ करवाकर टीवी पर दिखा देते हैं और समस्या को भगवान की ओर खिसका कर चैन से सांस लेते हैं। वे बरसात के लिए महिलाओं के निर्वस्त्र होकर हल चलाने, बच्चों के कीचड़ में लोटने या मेढ़क-मेढ़की की शादी कराकर इंद्र देवता को रिझाने जैसे टोटकों को प्रसारित कराते हैं और अपने द्वारा पैदा की गई समस्याओं को ग्लोबल वार्मिंग का कारण बताकर ढंकने की कोशिश करते हैं।
चिंता की बात है कि हमारी नादानियों की वजह से गंगा को पानी देने वाले ग्लेशियर पिघल रहे हैं, जिन पर ५० करोड़ लोगों का जीवन निर्भर है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष २०५० तक दुनिया के चार अरब लोग पानी की कमी से प्रभावित होंगे। हालांकि आज भी एक अरब लोगों को साफ पानी नसीब नहीं है। असल में नदियों से नहरों का संजाल फैलाते समय जो गुलाबी तसवीर पेश की गई थी, वह महज दो-तीन दशकों में मटमैली हो गई। अधिकांश नहरों के अंतिम सिरे तक पानी नहीं पहुंचता। नहरें गाद से भर गई हैं। नदियों का पानी खेतों तक पहुंचने के बजाय वाष्प बनकर उड़ रहा है और नदियाें को सुखाता जा रहा है।
विकास के आधुनिक तौर-तरीकों के नाम पर हमने खेती और सिंचाई की पूरी संरचना ही बदल दी। पहले जमीनी पानी के बजाय परंपरागत जलस्रोतों से सिंचाई होती थी। मगर हमने तालाब, कुएं और झीलों जैसे पारंपरिक जलस्रोतों की उपेक्षा कर जगह-जगह ट्यूबवेल लगा भूमिगत जल का दोहन शुरू कर दिया। इस प्रचलन ने न केवल कुओं और तालाबों को पाटा, बल्कि भूमिगत जल को निचोड़ कर पूरे ऋतुचक्र को प्रभावित किया। अब हमें बरसाती पानी को बचाने के बारे में गंभीरता से सोचने की जरूरत है। बरसाती पानी के संचय से भूमिगत जलस्रोत को बेहतर करने के मामले में केरल का एक उदाहरण हमारे सामने है। वर्ष २००५ में केरल पब्लिक स्कूल ने अपनी २५० वर्ग मीटर छत से २,४०,००० लीटर बरसाती पानी संरक्षित कर भूमिगत जलस्रोत को इतना बढ़ा लिया कि अब वहां गरमियों में कुएं और ट्यूबवेल नहीं सूखते। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार, फिलहाल देश का १५ प्रतिशत भू-भाग गंभीर जल संकट से जूझ रहा है, जबकि २०३० तक ६० प्रतिशत भू-भाग में पानी की भीषण कमी हो जाएगी। ऐसे में, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे वही क्षेत्र सबसे पहले संकटग्रस्त होंगे, जहां भूमिगत जल का सर्वाधिक दोहन हो रहा है। हमें बरसाती पानी की हर बूंद के संरक्षण के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए।