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बिजनेस-स्टैंडर्ड, 16 दिसम्बर 2011
विकसित देशों को विकासशील देशों के पास उपलब्ध पारिस्थितिकीय स्थान के उपभोग के बदले मुआवजा अवश्य देना चाहिए, यह तर्क कुछ वैसा ही होगा कि आप गुलामी के बदले में मुआवजा दीजिए। लेकिन इस बात का भी कोई नैतिक आधार नहीं है कि किसी पिता के पापों की सजा के लिए उसकी संतान जिम्मेदार है। किसी भी तरह से इस रवैये से नकदी तो निकलती है लेकिन विकासशील देशों के लिए उत्सर्जन के लिए गुंजाइश नहीं बची रह जाती।
जलवायु परिवर्तन पर आयोजित संयुक्त राष्ट्र के एक और सम्मेलन के अंत में वैश्विक समुदाय ने एक ऐसी राह पर हिचक के साथ कदम बढ़ाए हैं, जिसमें यदि उन्हें समय रहते सफलता मिलती है तो उस राह पर उन्हें अपनी रफ्तार मंद करने की जरूरत होगी। डरबन सम्मेलन के अंत में एक ऐसा समझौता सामने आया है जिस पर हर कोई अपनी उपलब्धि के लिए खुशी जताने के साथ-साथ मनमाफिक मांगें पूरी न होने को लेकर दुखी हो सकता है। लेकिन यदि समग्र रूप से देखें तो इसमें कुछ प्रगतिशील कदम उठाए गए हैं। इसमें भी सबसे उल्लेखनीय उपलब्धि एक नया 'प्रोटोकॉल' बनाने की है जो एक अन्य वैधानिक जरिया या कानूनी बाध्यताओं के साथ एक सहमति प्रस्ताव है-इसमें कानूनी बाध्यताओं की बात भारत के जोर देने पर जोड़ी गई है। इस पर वर्ष 2015 तक चर्चा होनी है ताकि वर्ष 2020 तक यह प्रभाव में आ जाए। स्पष्ट रूप से उस बात की पूरी तरह से कद्र की जा रही है कि 2020 तक तापमान में 1.5 से 2 डिग्री सेल्सियस की अनुमानित वृद्घि पर अंकुश लगाने के लिए जो कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं, उनसे लक्ष्य पूरा होता नहीं दिख रहा है। इसलिए यदि नए नियम 2020 तक ही अमल में आ पाएंगे, तब तक कुछ और दबाव के साथ रहना होगा या फिर वादों से बेहतर प्रदर्शन करना होगा।वर्ष 2020 के बाद अस्तित्व में आने वाले नियम विकसित और विकासशील देशों पर समान रूप से लागू होंगे। मगर यह 'साझा लेकिन अलग जिम्मेदारी (सीबीडीआर)' के सिद्घांत को नहीं खारिज करता। वास्तव में यह एक अंतर्राष्ट्रीय कानून के रूप में अधिक प्रतिस्थापित होगा और साथ ही वित्त और तकनीकी हस्तांतरण पर बाध्यकारी नियमों को मंजूरी देगा। इसलिए कानूनी बाध्यताओं के विचार पर भारतीय खेमे का अड़ियल प्रतिरोध समझना जरा मुश्किल लगता है। क्योटो प्रोटोकॉल के लिए एक दूसरी प्रतिबद्घता अवधि पर सहमति भी अन्य स्वागत योग्य कदमों में से एक है, हालांकि ब्रसेल्स में यूरोपीय संघ में कुछ बाधाओं को देखते हुए उसके अपने कानून के साथ उसकी अनुकूलता को लेकर सवाल उठते हैं। इसका अर्थ है कि कार्बन क्रेडिट में क्योटो-संबंधित 'स्वच्छ विकास तंत्र (क्लीन डेवलपमेंट मैकेनिज्म, सीडीएम)' बाजार वर्ष 2017 तक बरकरार रहेगा। यह और भी सहज रूप से चलेगा क्योंकि इस सम्मेलन में सीडीएम से जुड़े प्रणाली संबंधी कई मसलों को हरी झंडी दिखाई गई है। क्योटो प्रोटोकॉल की जगह लेने वाली व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में नए कारोबारी तंत्र को आकार देने का काम भी बचा हुआ है।
भारत के नजरिये से देखें तो ये कदम बेहद फायदेमंद हैं क्योंकि ये विकसित और विकासशील देशों के बीच के दायित्व को फिर से स्पष्ट करते हैं और कार्बन क्रेडिट के लुभावने बाजार के बरकरार रहने को सुनिश्चित करते हैं, जिससे कई भारतीय कंपनियों को लाभ पहुंचेगा। लेकिन व्यावहारिक रूप में क्योटो प्रोटोकॉल विकसित देशों से होने वाले उत्सर्जन के एक तिहाई पर ही लागू होगा क्योंकि अमेरिका इसमें शामिल नहीं है तथा जापान, रूस और कनाडा ने द्वितीय प्रतिबद्घता की अवधि से खुद को अलग कर लिया है। इस वजह से वर्ष 2020 के बाद की अवधि में सीबीडीआर सिद्घांतों को लागू करना इतना अहम है क्योंकि इससे शेष दो तिहाई विकसित देश भी कानूनी बाध्यता की जद में आ जाएंगे। आखिर वर्ष 2020 के बाद विकास में हिस्सेदारी और गुंजाइश (इक्विटी एंड स्पेस) के लिए सिद्घांतों को किस आधार पर तय करना चाहिए?
पूर्व में हम ऐतिहासिक उत्तरदायित्त्व की अवधारणा पर भरोसा जताते रहे हैं, जो सम्मेलन के दौरान एक बार फिर उभरा जिसने इस मामले में एक कानून बनाने के लिए प्रामाणिक आधार उपलब्ध कराया। हमारा ध्यान विकसित देशों के सम्मिलित उत्जर्सन पर केंद्रित रहा है जो विकासशील देशों के पास उपलब्ध कार्बन उत्सर्जन की सीमा को अपने दायरे में लाने की जद्दोजहद में रहे हैं, मकसद यही रहा कि कार्बन के घेरे को कम से कम किया जाए ताकि ताप वृद्घि को 1.5 से 2 डिग्री सेल्सियस के बीच में रोका जा सके। इस बिंदु का अधिक सख्त रूप यही तर्क देना होगा कि विकसित देशों को विकासशील देशों के पास उपलब्ध पारिस्थितिकीय स्थान के उपभोग के बदले मुआवजा अवश्य देना चाहिए, यह तर्क कुछ वैसा ही होगा कि आप गुलामी के बदले में मुआवजा दीजिए। लेकिन इस बात का भी कोई नैतिक आधार नहीं है कि किसी पिता के पापों की सजा के लिए उसकी संतान जिम्मेदार है। किसी भी तरह से इस रवैये से नकदी तो निकलती है लेकिन विकासशील देशों के लिए उत्सर्जन के लिए गुंजाइश नहीं बची रह जाती। एक और बात की मांग उठ सकती है कि विकसित देशों को न केवल उत्सर्जन के शून्य स्तर को हासिल करना चाहिए बल्कि उन्हें कार्बन सोखने वाली स्थापित तकनीक के जरिये नकारात्मक उत्जर्सन की ओर कदम बढ़ाना चाहिए।
यह कुछ ऐसी मांग होगी कि यूरोपीय मूल के लोगों से ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, कनाडा और अमेरिका छोड़ने के लिए कहा जाए ताकि वहां भारी तादाद में भारतीयों और चीनियों को विस्थापित कर बसाया जा सके। हिस्सेदारी (इक्विटी) के सिद्घांत को इस तरह से तैयार करना होगा जिस रूप में उसे स्वीकृति मिल सके, न कि कॉलेज स्तर पर होने वाले वाद-विवाद में तालियां बटोरने वाले बयान की तरह। वास्तविक मुद्दा विकास के लिए गुंजाइश और गरीबी के आगोश से बाहर आने को बेताब लोगों की ऊर्जा जरूरतों को ध्यान में रखने का है। न्याय का तकाजा यही कहता है कि इन लोगों को समायोजन के लिए कीमत नहीं अदा करनी चाहिए। प्रति व्यक्ति उत्सर्जन के एक निश्चित बुनियादी स्तर को उपलब्ध पर्यावरणीय स्थान पर पूर्वगामी शुल्क के तौर पर इस्तेमाल करना चाहिए, उसमें सहभागिता होनी चाहिए जो बचा हुआ हो।
जलवायु परिवर्तन से जुड़े वार्ताओं के ये दौर बेहद अहम हैं लेकिन सब कुछ इन्हीं तक सीमित नहीं है। एक बड़ा खेल हरित तकनीक के लिए हो रही दौड़ के रूप में खेला जा रहा है। पियू एनवायरनमेंटल ग्रुप के अनुसार वर्ष 2010 में अमेरिका ने हरित तकनीक पर जहां 54 अरब डॉलर खर्च किए तो वहीं 34 अरब डॉलर के खर्च के साथ चीन भी बहुत पीछे नहीं रहा। ब्लूमबर्ग के आंकड़ों के मुताबिक यह ऐसा साल भी रहा जहां अक्षय ऊर्जा (बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं को छोड़कर) में हुए 187 अरब डॉलर के निवेश ने नए कोयला/तेल/गैस आधारित संयंत्रों में हुए 157 अरब डॉलर के निवेश को पीछे छोड़ दिया। यह ऐसा मोर्चा है जहां भारत को तत्काल कदम उठाने चाहिए, जिसमें पवन और सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए लुभावने कदम उठाए जाएं।
ऐसा लगता है कि सरकारों की तुलना में ऊर्जा बाजार के खिलाड़ी ज्यादा आगे की सोच रहे हैं, शायद इसलिए कि उनके अनुमान के अनुसार नए ऊर्जा निवेश में सार्वजनिक नीतियों का चक्र भविष्य में किस दिशा में घूमने वाला है। वैश्विक संवाद प्रक्रिया और बाजार के बीच यह महत्त्वपूर्ण कड़ी है। लक्ष्य और समय सीमा से जुड़े स्पष्ट संकेत हरित तकनीक से जुड़ी अनिश्चितता को कम करते हैं। साथ ही ये संकेत कार्बन क्रेडिट बाजार के और सुचारू ढंग से चलने पर मुहर लगाते हैं। इस बाजार का अस्तित्व उत्जर्सन के सरकारी दिशानिर्देशों के दम पर ही है जो शायद जलवायु परिवर्तन वार्ताओं का सबसे बड़ा योगदान है। वैश्विक बातचीत महत्त्वपूर्ण है लेकिन ज्यादा अहमियत राष्ट्रीय और स्थानीय ऊर्जा के स्तर पर बदलाव की जरूरत है जिसके लिए हमें जीवनशैली, कारोबारी मंत्र और ऊर्जा संचालन में व्यापक परिवर्तन करने होंगे।