संगम में नहाती हुई औरत

Submitted by Hindi on Tue, 10/07/2014 - 15:37
Source
साक्ष्य मैग्जीन 2002
जो कभी इला वास था
और अब इलाहाबाद
उसी तीर्थराज प्रयाग में
गंगा यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम में
नहाती हुई यह औरत
अपने पाप धो रही है
या सींच रही है अपने मुरझाए स्वप्न

गंगा की तेज और हिमशीत लहरें
उसके पयोधरों से टकरा रही हैं बार-बार
लहरों की थप-थप के सुख से पुलक उठी है प्रौढ़ा
शिथिल तन में आ गई है कसावट
और मन तैरता हुआ जा पहुंचा है तीस बरस पीछे
जब ऐसे ही नहा रही थी वह अपने गांव की नदी में
लहरें इसी तरह कर रही थीं स्पर्शाघात
उसी समय कहीं से आ गया था वह
अपनी गाय-भैंसों को पानी पिलाने

वह अद्भुत क्षण था
जब उन दोनों ने एक-दूसरे को देखा था
और वह देखना कुछ ऐसा
कि उसके बाद कुछ नहीं था उन चार आंखों के बीच
वहां सिर्फ प्यास थी और पानी था
इसके बाद वह रोज आने लगा था
गाय-भैंसों के बहाने
अपनी इच्छाओं को पानी पिलाने

दो अदृश्य इच्छाओं और एक दिखने वाली नदी का संगम
एक खेत बन गया था
जहां इसने बोए थे ढेर-से स्वप्न

फिर एक दिन
वह किसी गाय की तरह बांध दी गई दूसरे खूंटे से
और वह बैल की तरह जुत गया हल में

बाद में इस गाय-सी औरत को समझाया गया
कि अब उस खूंटे के अलावा किसी के बारे में
सोचना भी पाप है
पर बार-बार प्रतिज्ञा करने के बावजूद
अक्सर इससे हो ही जाता है
उसे याद करने का पाप

अब देखो न
इस समय भी जब यहां पुण्य सलिला में
धोने आई है यह अपने पाप
इससे फिर हो रहा है वही अपराध
पानी को छपकोरते इसके हाथ
थम गए हैं अचानक पाप-बोध से
गायब हो गया है सारा उल्लास

इस उल्लास के हत्यारे हम-आप
क्या नहीं कर रहे हैं कोई पाप