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प्रथम प्रवक्ता, 01 अगस्त, 2017
पंजाब की सरकारों ने सतलुज यमुना सम्पर्क नहर (एसवाईएल) के निर्माण में बाधाएँ उत्पन्न करने में कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ी। दोनों राज्य लम्बे समय से इस मुद्दे का हर चुनाव में राजनीतिक इस्तेमाल करते आ रहे हैं। हाल में सर्वोच्च न्यायालय से आए फैसले से साफ है कि अब पंजाब को अपने क्षेत्र में अधूरी पड़ी नहर का निर्माण करना ही होगा। परन्तु प्रश्न यही है कि जिस जमीन को सरकार किसानों को वापस कर चुकी है, उस पर निर्माण कैसे करेगी और यदि नहीं करती है तो सर्वोच्च अदालत के आदेश का पालन कैसे होगा।
कई बार दूसरों के लिये खोदे गये गड्ढे में उसे खोदने वाला ऐसा गिरता है कि उसे बाहर निकलने का रास्ता नहीं सूझता। पंजाब के तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह ने 2004 में विधानसभा में एक प्रस्ताव पारित कर एसवाईएल पर हरियाणा के साथ हुए समझौते को एकतरफा रद्द करने का ऐलान कर दिया था, जिसे बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने गैरकानूनी करार देते हुए खारिज कर दिया। इसके बाद भी पंजाब कानूनी दाँव पेंच खेलता रहा लेकिन 11 जुलाई, 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया कि पंजाब को हर हाल में अपने हिस्से की एसवाईएल पूरी करनी होगी। बीच में दस साल अकाली-भाजपा की सरकार रही, लेकिन अब फिर राज्य की बागडोर उन्हीं अमरिन्दर सिंह के हाथों में है, जिन्होंने 2004 में आने वाली सरकार के लिये गड्ढा खोदने का काम किया था। हर तरह से हाथ-पाँव मारने के बाद भी उससे बाहर निकलने का रास्ता उन्हें नहीं मिल रहा। अगर वह नहर का निर्माण नहीं कराते हैं तो सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना का सामना करना पड़ेगा। अगर अधूरी पड़ी नहर को बनवाते हैं तो उनकी पार्टी को बहुत बड़ा राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ेगा। एसवाईएल उनके गले में ऐसी अटक गई है कि न निगलते बन रही है और न उगलते। अमरिन्दर सिंह सरकार अब नया दाँव खेलने की कोशिश में है। चारों तरफ से घिरने के बाद वह केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार से बीच का रास्ता तलाशने की गुहार लगा रहे हैं।
यह पहला मौका नहीं है, जब पंजाब को सर्वोच्च न्यायालय से झटका लगा है। इससे पहले भी वह इसके लिये कई प्रयास कर चुका है कि उसके क्षेत्र में अधूरी पड़ी एसवाईएल का निर्माण नहीं करना पड़े। अकाली-भाजपा सरकार ने तो मामले को और पेचीदा बनाने के लिये एसवाईएल के लिये दशकों पहले अधिग्रहीत जमीन तक किसानों को वापस कर दी थी। यही कारण है कि सर्वोच्च न्यायालय के ताजा आदेशों का पालन करना पंजाब सरकार के लिये बहुत बड़ी चुनौती बन गई है। जो पेचीदगी दिखाई दे रही है, यह सब पंजाब के राजनीतिक दलों और सरकारों की ही खड़ी की हुई हैं। अमरिन्दर सिंह हों या प्रकाश सिंह बादल, दोनों ने पानी के सवाल पर लोगों की भावनाएँ भड़काने और उन्हें वोटों के रूप में कैश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पंजाब के पास पानी नहीं है कि रट दोनों ही लगाते आ रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट का साफ कहना है कि पानी है या नहीं है और हरियाणा व राजस्थान को कितना पानी दिया जाना है, इसका फैसला बाद में होगा। पहले पंजाब नहर का निर्माण पूरा करे, जो उसने वर्षों से लटकाकर रखा हुआ है। बमुश्किल पंजाब को दो महीने का समय सर्वोच्च न्यायालय से मिला है। अगली सुनवाई 7 सितम्बर को होनी है। तब तक उसे कार्रवाई करनी है लेकिन वह केन्द्र से गुहार लगाकर अब भी राजनीतिक दाँवपेंच चल रहा है, जो उसे भारी पड़ सकता है।
पहली नवम्बर 1966 को पंजाब रिऑर्गनाइजेशन एक्ट, 1966 के अन्तर्गत पंजाब को दो हिस्सों में बाँटकर हरियाणा को अलग राज्य बनाया गया था। इसके दस साल बाद 24 मार्च, 1976 को केन्द्र सरकार ने सतलुज यमुना लिंक नहर (एसवाईएल) के निर्माण की योजना बनाई। साथ ही पंजाब-हरियाणा को रावी-व्यास के अतिरिक्त पानी के आवंटन की अधिसूचना जारी की। दिसम्बर 1981 को हरियाणा और पंजाब के बीच जल सन्धि हुई। 8 अप्रैल, 1982 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पटियाला के कपूरी गाँव में पंजाब की ओर बनने वाली एसवाईएल की नींव रखी। इसके साढ़े तीन साल बाद 5 दिसम्बर 1985 को पंजाब विधानसभा में दिसम्बर 1981 को हुई जल संधि के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया गया। उस समय सुरजीत सिंह बरनाला (अकाली दल) मुख्यमंत्री थे। 30 जनवरी 1987 को राष्ट्रीय जल प्राधिकरण ने पंजाब सरकार को उसके क्षेत्र में एसवाईएल का निर्माण जल्दी पूरा करने को कहा। उस समय तक 90 प्रतिशत काम पूरा हो चुका था। यह वह दौर था, जब पंजाब में आतंकवाद सिर उठा रहा था। 1990 में हिंसा की कई घटनाएँ हुईं, जिसके बाद पंजाब में नहर का निर्माण रोक दिया गया। 2004 में, जिस समय कांग्रेस सरकार की अगुआई अमरिन्दर सिंह कर रहे थे, विधानसभा में एक प्रस्ताव पारित कर पंजाब टर्मिनेशन ऑफ एग्रीमेंट्स एक्ट लागू कर दिया। यानी एसवाईएल और पानी को लेकर हुए समझौते को एकतरफा रद्द करने का ऐलान कर दिया गया।
हरियाणा सरकार ने इस एकतरफा फैसले के खिलाफ केन्द्र को प्रतिवेदन दिया और हस्तक्षेप की माँग की। विधानसभा में पारित प्रस्ताव को अवैधानिक बताते हुए इसे रद्द करने की माँग की गई। केंद्र सरकार ने राष्ट्रपति के माध्यम से इस पर सर्वोच्च न्यायालय से राय देने को कहा।
सर्वोच्च न्यायालय ने इसके लिये पीठ की स्थापना की, जिसने पूरे मामले की विस्तार से सुनवाई की। अंतत: वहाँ से फैसला आया, जिसमें पंजाब सरकार के एकतरफा फैसले को रद्द कर दिया गया और एसवाईएल को पूरा करने को कहा गया लेकिन जैसा हर चुनाव से पहले होता है, पंजाब की तत्कालीन प्रकाश सिंह बादल सरकार ने 14 मार्च 2016 को पंजाब विधानसभा में सर्वसम्मति से एसवाईएल मालिकाना हकों का स्थानांतरण विधेयक 2016 पारित करते हुए नहर के लिये अधिग्रहित की गई किसानों की 3928 एकड़ जमीन बिना मुआवजा लिये लौटाने का फैसला कर दिया। इस फैसले को भी हरियाणा सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी, जिसकी सुनवाई भी चलती रही। राजनीतिक लाभ हासिल करने की मंशा से पंजाब में पार्टियों ने एसवाईएल को पाटने का काम भी शुरू कर दिया। इसके बाद हरियाणा सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय से अपील की कि नहर के निर्माण के लिये रिसीवर नियुक्त किया जाए। सर्वोच्च न्यायालय की पाँच जजों की पीठ ने यथास्थिति बनाए रखने के आदेश जारी करते हुए पंजाब के मुख्य सचिव और डीजीपी से कहा कि वो यह सुनिश्चित करें कि कोई नहर को नहीं पाटे। इसके बाद पंजाब सरकार ने विधानसभा में एक और प्रस्ताव पारित किया, जिसमें कहा गया कि एसवाईएल को नहीं बनने दिया जाएगा।
बहुत लंबे समय से दोनों ही राज्य सतलुज यमुना संपर्क नहर को लेकर राजनीति करते आ रहे हैं। जो दल विपक्ष की भूमिका में होता है, वह इस मसले को ज्यादा जोर-शोर से उठाता है ताकि लोगों की भावनाओं को वोट के रूप में कैश कर सके। सत्तारुढ़ पार्टी कानूनी तौर पर मसले को और पेचीदा बनाने पर तुल जाती है। ताकि राज्य की जनता को यह अहसास करा सके कि विपक्ष तो राजनीति कर रहा है, सरकार राज्य के हितों के लिये किसी भी स्तर तक जाने को तैयार है। कोई भी कुर्बानी देने को तत्पर है। ऐसे में जबकि सर्वोच्च न्यायालय की पीठ अपने फैसले में नहर के निर्माण का आदेश जारी कर चुकी है, तब हरियाणा में विपक्ष की भूमिका अदा करने वाली इंडियन नेशनल लोकदल ने हाल में पंजाब से लगती सीमाओं पर दस जगह जाम लगाने और वहाँ से हरियाणा में प्रवेश करने वाले वाहनों को रोकने का ऐलान किया। एक दिन उन्होंने इसका प्रयास भी किया। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने 11 जुलाई के ताजा आदेश में ऐसे दलों को भी धरने, प्रदर्शन और आंदोलन नहीं करने की नसीहत दी है। राज्य सरकार को यह सुनिश्चित करने को कहा है कि कोई भी राजनीतिक दल या संगठन इसे पेचीदा करने की कोशिश नहीं करने पाए। यानी सर्वोच्च अदालत ने साफ संकेत दे दिए हैं कि अब वह इस मुद्दे पर राजनीति नहीं, एक्शन चाहती है।