सुदूर संवेदन एवं भौगोलिक सूचना तंत्र प्रणाली के प्रयोग द्वारा जल संसाधनों का अनुप्रयोग

Submitted by Hindi on Mon, 12/26/2011 - 10:06
Source
राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान, चतुर्थ राष्ट्रीय जल संगोष्ठी, 16-17 दिसम्बर 2011

जल मानव जीवन के लिए प्रकृति द्वारा प्रदत्त एक अनमोल देन है। जल मनुष्य के जीवन, कृषि तथा जल विद्युत परियोजनाओं के लिए आवश्यक संसाधन है। वर्षा जल का सामयिक तथा स्थानिक रूप से असमान होना, बाढ़ एवं सूखा आदि समस्याओं का प्रमुख कारण है। बाढ़ एवं सूखा जैसी समस्याओं सहित अन्य विविध समस्याओं के समाधान तथा जल की निरंतर मांग में वृद्धि होने के कारण, जल संसाधनों का उचित उपयोग तथा प्रबंधन अति आवश्यक है। जल संसाधनों का सर्वेक्षण तथा मानचित्र प्रभावी जल प्रबंधन के लिए आवश्यक कार्य है। स्थलाकृति मानचित्रण, हवाई छायांकन जैसी परम्परागत विधियों का प्रयोग काफी समय लेता है और इसकी कुछ सीमाएं भी हैं। सुदूर संवेदन एवं भौगोलिक सूचना तंत्र प्रणाली का उपयोग पिछले कुछ वर्षों में एक आधुनिक पद्धति के रूप में किया जा रहा है।

सुदूर संवेदन विधि द्वारा एक बड़े क्षेत्र का मापन अत्यधिक कम समय में किया जा सकता है। पिछले लगभग 20 वर्षों में विभिन्न क्षमताओं के सुदूर संवेदन उपग्रह अंतरिक्ष में स्थापित किए गए हैं, जिससे निरंतर सुदूर संवेदन आँकड़े प्राप्त किए जा रहे हैं। इन आँकड़ों का साफ्टवेयर द्वारा विश्लेषण करके भूमि से संबंधित अनेकों मानचित्र बनाए जा सकते हैं। परन्तु जल संसाधन के उपयुक्त प्रबंधन के लिए उपयोग में लाए जा रहे निर्देशों तथा अन्य विधियों के लिए सुदूर संवेदन आँकड़े पर्याप्त नहीं है। इन आँकड़ों का उपयोग करने हेतु भौगोलीय सूचना तंत्र प्रणाली एक आधुनिक तकनीक है। सुदूर संवेदी और भौगोलीय सूचना तंत्र प्रणालियों का जल संसाधन एवं प्रबंधन के अनेक क्षेत्रों, जैसेः भू-उपयोग/भू-आच्छादन वर्गीकरण, बाढ़ मैदान प्रबंधन, जल विभाजकों का मानचित्रण एवं प्रबंधन, आवाह क्षेत्र अध्ययन, हिमाच्छादन मानचित्रण, जलाशय अवसादन, जलगुणवत्ता अध्ययन और भूजल अध्ययन इत्यादि में अत्यधिक उपयोग किया जा रहा है। इस प्रपत्र में सुदूर संवेदन एवं भौगोलिक सूचना तंत्र तकनीकी के उपयोग पर प्रकाश डाला गया है।

सुदूर संवेदन एवं भौगोलिक सूचना तंत्र प्रणाली के प्रयोग द्वारा जल संसाधनों का अनुप्रयोग (Application of water resources through use of remote sensing and geographic information system)


सारांश:


जल मानव जीवन के लिये प्रकृति द्वारा प्रदत्त एक अनमोल उपहार है। जल मनुष्य के जीवन, कृषि तथा जल विद्युत परियोजनाओं के लिये आवश्यक संसाधन है। वर्षाजल का सामयिक तथा स्थानिक रूप से असमान होना, बाढ़ एवं सूखा आदि समस्याओं का प्रमुख कारण है। बाढ़ एवं सूखा जैसी समस्याओं सहित अन्य विविध समस्याओं के समाधान तथा जल की निरन्तर मांग में वृद्धि होने के कारण, जल संसाधनों का उचित उपयोग तथा प्रबन्धन अति आवश्यक है। जल संसाधनों का सर्वेक्षण तथा मानचित्रण प्रभावी जल प्रबंधन के लिये आवश्यक कार्य है। स्थलाकृति मानचित्रण हवाई छायांकन जैसी परम्परागत विधियों का प्रयोग काफी समय लेता है और इसकी कुछ सीमायें भी है। सुदूर संवेदन एवं भौगोलिक सूचना तंत्र प्रणाली का उपयोग पिछले कुछ वर्षों में एक आधुनिक पद्धति के रूप में किया जा रहा है। सुदूर संवेदन विधि द्वारा एक बड़े क्षेत्र का मापन अत्यधिक कम समय में किया जा सकता है। पिछले लगभग 20 वर्षों में विभिन्न क्षमताओं के सुदूर संवेदन उपग्रह अंतरिक्ष में स्थापित किये गये हैं, जिससे निरंतर सुदूर संवेदन आंकड़े प्राप्त किये जा रहे हैं। इन आंकड़ों का सॉफ्टवेयर द्वारा विश्लेषण करके भूमि से संबंधित अनेक मानचित्र बनाये जा सकते हैं। परंतु जल संसाधन के उपयुक्त प्रबंधन के लिये उपयोग में लाये जा रहे निदर्शों तथा अन्य विधियों के लिये सुदूर संवेदन आंकड़े पर्याप्त नही हैं। इन आंकड़ों का उपयोग करने हेतु भौगोलीय सूचना तंत्र प्रणाली एक आधुनिक तकनीक है। सुदूर संवेदी और भौगोलीय सूचना तंत्र प्रणालियों का जल संसाधन एवं प्रबंधन के अनेक क्षेत्रों, जैसे : भू-उपयोग/भू-आच्छादन वर्गीकरण, बाढ़ मैदान प्रबंधन, जल विभाजकों का मानचित्रण एवं प्रबंधन, आवाह क्षेत्र अध्ययन, हिमाच्छादन मानचित्रण जलाशय अवसादन, जलगुणवत्ता अध्ययन और भूजल अध्ययन इत्यादि में अत्यधिक उपयोग किया जा रहा है। इस प्रपत्र में सुदूर संवेदन एवं भौगोलिक सूचना तंत्र तकनीकी के उपयोग पर प्रकाश डाला गया है।

Abstract


Water is one of the most precious gifts of nature to living beings. Water resources are essential for human life, agriculture and hydroelectric power generation. On account of erratic distribution of rainfall both in time and space, the country is subjected to cycles of floods and drought with the increase in demand for water for various purpose and to mitigate the twin problems of floods and droughts faced by the country, a coordinated approach for optimum utilization and proper management of these precious resource are of prime importance. Surveying and mapping is basic to effective water management. Use of traditional methods, such as topographical mapping and aerial photography are time consuming and having several limitations. In the recent years, Remote Sensing and Geographic Information System techniques are being used as modern technique. Remote sensing systems are used to collect and analyze information about resources and environment over large areas in a very less time interval. In the last twenty years, Remote Sensing Satellites of different capabilities have been established and with the help of these satellites, remote sensing data are being received at a regular interval. With the analysis of these data several land use/land cover maps can be prepared. But the available remote sensing data are not sufficient for using different models and other techniques for optimum utilization of water resources. Geographic information system is one of the modern techniques for the use of these available remote sensing data. Remote Sensing and GIS techniques are being used mostly for different areas of water resource management e.g., land use/land cover mapping, flood plain mapping watershed mapping and watershed management command area study, snow cover mapping, reservoir sedimentation water quality study. The present paper deals with the use of remote sensing and GIS techniques for the application of water resources.

प्रस्तावना


जल हमारे मानव जीवन के लिये एक अत्यधिक बहुमूल्य उपहार है। जल संसाधन मानव जीवन कृषि एवं जल शक्ति उत्पादन के लिये अत्यन्त आवश्यक है। हमारे देश में वर्षा का सामयिक एवं स्थानिक रूप में अनियमित वितरण होने के कारण बाढ़ एवं सूखे की समस्या पाई जाती है। विभिन्न उद्देश्यों के लिये जल की मांग में निरंतर वृद्धि एवं देश के द्वारा बाढ़ एवं सूखे की समस्याओं के समाधान के लिये इस बहुमूल्य संसाधन का इष्टतम उपयोग एवं उपयुक्त प्रबंधन अति आवश्यक है। इसके अतिरिक्त सिंचाई एवं जल निकासी तंत्र के लिये जल संसाधनों का उपयुक्त विकास एवं प्रबंधन अति आवश्यक है। सतही जल के साथ-साथ भूजल के लिये भी जल संसाधनों का समाकलित प्रबंधन अति आवश्यक है। जल संबंधित समस्त समस्याओं जैसे बाढ़, सूखा उपयुक्त सिंचाई प्रबंधन इत्यादि के समाधान हेतु उपयुक्त जल प्रबंधन पद्धतियों को स्वीकार करने की आवश्यकता है। नदियों एवं आवाह क्षेत्रों के जल नियंत्रण, वितरण एवं आवंटन संबंधी समस्याओं के समाधान के लिये जल संसाधन स्रोतों की जानकारी होना अत्यन्त आवश्यक है।

प्रभावी जल प्रबंधन सर्वेक्षण एवं मानचित्रण की मूल आवश्यकता है। रूढ़िवादी अभियांत्रिकी अध्ययनों के लिये स्थलाकृति मानचित्र, हवाई फोटोग्राफी एवं भू-सर्वेक्षण आवश्यक पद्धतियाँ हैं। परन्तु इन समस्त पद्धतियों का प्रयोग महँगा, अधिक समय लेने वाला तथा कठिन है। जल संसाधनों के प्रभावी प्रबंधन के लिये सुदूर संवेदी एवं भौगोलिक सूचना तंत्र तकनीकें उपयुक्त सूचनाओं का आधार तैयार करने में सहायता प्रदान करती है। भूमि एवं जल संसाधनों से संबंधित विभिन्न विशिष्टताओं के अध्ययन के लिये उपग्रह द्वारा प्रदत्त सुदूर संवेदी आंकड़े एवं भौगोलिक सूचना तंत्र द्वारा प्रदत्त विश्लेषण क्षमताएँ तकनीकी दृष्टि से उपयुक्त पद्धति प्रदान करती है। यह उल्लेखनीय है कि सुदूर संवेदी तकनीक की कुछ सीमाएँ हैं। जिनके कारण इनके प्रयोग द्वारा रूढ़िवादी सर्वेक्षण तकनीकों को आधुनिक तकनीकों में पूर्णतः परिवर्तित करना संभव नहीं है।

सुदूर संवेदन, शुद्ध एवं वास्तविक समय मूल्यांकन निर्धारण एवं अन्तरदेशीय जल संसाधनों के पूर्वानुमान का निंरतर प्रबोधन एवं भविष्यवाणी करता है। इस तंत्र का प्रयोग विभिन्न प्लेटफार्मों उदाहरणतः उपग्रह एवं वायुयान से पृथ्वी की सतह को प्रेक्षित करने के लिये किया जाता है तथा यह विशाल क्षेत्रों पर संसाधनों एवं पर्यावरण के बारे में सूचनाओं के एकत्रीकरण एवं विश्लेषण की सम्भावनाओं को दर्शाता है। सुदूर संवेदी तकनीकें पृथ्वी की सतह से उत्सर्जित या परावर्तित विद्युत चुम्बकीय ऊर्जा को एकत्रित करती हैं। ये विशिष्टताएँ उपग्रह या वायुयान के प्रयोग द्वारा प्राप्त सुदूर संवेदी आंकड़ों के मापन, मानचित्रण एवं प्रबोधन की सम्भावनाएँ प्रदान करती हैं। उपग्रह से प्राप्त चित्र, विभिन्न-भू-आच्छादन विशिष्टताओं के प्रबोधन एवं मापन हेतु निम्न लागत एवं सशक्त सम्भावनाएं प्रदान करते हैं सुदूर संवेदी आंकड़ों के उपयोग का एक महत्त्वपूर्ण लाभ जल विज्ञानीय प्रबोधन एवं निदर्शन के लिये स्थानिक एवं कालिक सूचनाओं के जनन की सुविधा है, जो जल प्रबंधन अध्ययन में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं।

अनेक जल संबंधी अध्ययनों के लिये केवल सुदूर संवेदी आंकड़े पर्याप्त नहीं हैं। इन आंकड़ों को अन्य स्रोतों से एकत्र आंकड़ों के साथ विलय करना आवश्यक है। किसी अध्ययन हेतु स्थानीय सुदूर संवेदी आंकड़ों में वर्षा, वाष्पन, वनस्पति, भू-आकारिकीय एवं मृदा आंकड़े विचारणीय हैं। इसके अतिरिक्त अन्य सूचनाएँ जैसे ट्यूबवैल की स्थिति एवं प्रकार, वर्षा एवं वर्षामापी इत्यादि के बारे में जानकारी उपलब्ध होना आवश्यक है। इन उपलब्ध जानकारियों को विभिन्न मानचित्रों द्वारा भौगोलिक सूचना तंत्र की सहायता से प्रदर्शित किया जा सकता है। भौगोलिक सूचना तंत्र, आंकड़ों के एकत्रीकरण, प्रबंधन एवं प्रदर्शन का एक सशक्त सॉफ्टवेयर है तथा इसका प्रयोग जलविज्ञान एवं जल संसाधन संबंधी अध्ययनों में प्रभावी रूप से किया जा सकता है। भौगोलिक सूचना तंत्र में सुदूर संवेदी आंकड़ों के प्रयोग को चित्र 1 में दर्शाया गया है।

जल संसाधन के विकास और प्रबंधन के साथ प्रकृति की कई समस्याएँ संबद्ध है, जैसे बाढ़ और सूखे की स्थिति जल ग्रसनता, जलाशय अवसादन में वृद्धि, जल गुणता प्रदूषण, हिमाच्छादन क्षेत्र का मूल्यांकन एवं दुर्गम क्षेत्र अध्ययन आदि। इन सभी समस्याओं के समाधान के लिये सुदूर संवेदन आंकड़ों और जी.आई.एस. को मिश्रित करके एक व्यवस्थित दृष्टिकोण के माध्यम के प्रयोग की आवश्यकता है। सुदूर संवेदन और भौगोलीय सूचना तंत्र प्रणाली का प्रयोग जल संसाधन और जल प्रबंधन के अनेक क्षेत्रों जैसे भू-उपयोग/भू-आच्छादन का वर्गीकरण, बाढ़ मैदानी प्रबंधन, जल विभाजकों का मानचित्रण एवं प्रबोधन आवाह क्षेत्र का अध्ययन, भूजल अध्ययन एवं निर्णय लेने हेतु जी.आई.एस. के अनुप्रयोग आदि में अधिक से अधिक हो रहा है।

भू-उपयोग/भू-आच्छादन वर्गीकरण


भू-आच्छादन अर्थात पृथ्वी की सतह पर उपलब्ध मृदा, वनस्पति, जल, शहरीकरण इत्यादि का आवरण मानव गतिविधियों एवं प्राकृतिक तत्वों पर निर्भर है। भूमि आच्छादन का बहु-स्पैक्ट्रमी वर्गीकरण, जल संसाधनों के लिये प्रथम स्थापित सुदूर संवेदी, अनुप्रयोग हेतु सर्वप्रथम स्थापित किया गया। कृषि, वन प्रबंधन, शहरीकरण एवं भूमि सतह एवं सतह की ऊपरी मृदा से होने वाली वाष्पीकरण क्रिया (जिसका प्रत्यक्ष संबंध वनस्पति से होता है) के कारण भूमि की भौतिक विशिष्टताएँ परिवर्तित हो जाती हैं। जिसके परिणामस्वरूप अपवाह की मात्रा, आर्द्रता और भूजल पुनः पूरण अधिक प्रभावित होते हैं। अनेक अनुसंधानकर्ताओं ने विभिन्न उपग्रह आंकड़ों से प्राप्त भू-आच्छादन वर्गीकरण का जल संसाधन के अध्ययन में अन्तर्वेषी आंकड़ों की तरह उपयोग किया गया है। भू-उपयोग की विशिष्टताओं के मानचित्रण द्वारा उनके सतही अभिलक्षण का अध्ययन किया जा सकता है। स्वस्थ हरी वनस्पति, स्पेक्ट्रम दृश्यता और निकट अवरक्त क्षेत्रों में विविध विशेषताएँ होती हैं जबकि शुष्क मिट्टी के दोनों स्पेक्ट्रमों में अपेक्षाकृत एक स्थिर परिवर्तन होता है। इस प्रकार उपयुक्त बहुस्पेक्ट्रमी आंकड़ों का उपयोग करके भूमि पर उपलब्धता विविध विशिष्टताओं को विभेदित किया जा सकता है। सुदूर संवेदन द्वारा आंकड़ों का जलविज्ञानीय निदर्श में परिवर्तन करने में उपयोग होता है। बहुत से जलविज्ञानीय निर्देशों में वनस्पति मापदण्ड का संबंध निदर्श के घटकों (जैसे वाष्पीकरण रोकना) के चयन पर निर्भर करता है। सुदूर संवेदन तकनीकी द्वारा भू-उपयोग/भू-आच्छादन हेतु अनुसंधान के रूप में सुदूर संवेदन का उपयोग जलविज्ञान निदर्शों में हो रहा है। इन प्रयासों से भूमि की सूचनाओं को केन्द्रित करके एस.सी.एस.अफवाह वक्र संख्या विधि के द्वारा धारा प्रवाह भविष्यवाणी में प्रयोेग कर सकते हैं।

बाढ़ग्रस्त क्षेत्र का प्रबंधन


नदी आकृति, नदी विस्तार, बाढ़ विस्तार की सीमाएँ एवं अवधि के बारे में विश्वसनीय आंकड़े, उपयुक्त बाढ़ नियंत्रण परियोजनाओं की योजनाओं के लिये आवश्यक हैं। बाढ़ के खतरे वाले क्षेत्रों का क्षेत्रीकरण करने हेतु परम्परागत तरीकों से बाढ़ के तटों और तटबंधों के ऊपर से प्रवाहित होने वाले जल का अनुमान लगाने के लिये भू-आकृति मानचित्रों एवं नदी ज्यामिति मानचित्रों जिन्हें भू-सर्वेक्षण द्वारा प्राप्त किया जाता है, के आधार पर बाढ़ अपवाह को नदी में से प्रवाहित किया जाता है। उपग्रह से प्राप्त सुदूर संवेदन आंकड़ों की उपलब्धता ने बाढ़ की गति का अध्ययन काफी सरल कर दिया है। सुदूर संवेदन तकनीकी द्वारा उपग्रह से प्राप्त आंकड़ों की सहायता से समस्त उपलब्ध घटनाओं के बारे में विश्वसनीय सूचना प्राप्त की जा सकती हैं।

सुदूर संवेदन तकनीक, विभिन्न परिमाण की बाढ़ों के बाढ़ आप्लावन क्षेत्र के बारे में सूचना प्रदान कर सकती है, ताकि बाढ़ परिमाण का बाढ़ प्रभावित क्षेत्र के साथ संबंध स्थापित किया जा सके। उच्च क्षमता वाले उपग्रह आंकड़े, बाढ़ ग्रस्त क्षेत्र एवं बाढ़ नियंत्रण कार्यों के बारे में उपयोगी सूचना प्रदान करते हैं। किसी विशेष पुनरावृत्ति काल के लिये बाढ़ विस्तार का आकलन किया जा सकता है। निकटवर्ती कन्टूरों से नियमित ऊँचाई के लिये बाढ़ आप्लावन क्षेत्रों की सूचना प्राप्त की जा सकती है। जो बाढ़ ग्रस्त क्षेत्र के लिये मानचित्र बनाने हेतु अत्यधिक महत्त्वपूर्ण निवेश है।

जी.आई.एस. बाढ़ से प्रभावित क्षेत्र का निर्धारण करने एवं बाढ़ के कारण जलस्तर में वृद्धि होने के कारण बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रों की भविष्यवाणी कराने के लिये विस्तृत सीमा वाला सॉफ्टवेयर प्रदान करता है। जी.आई.एस. आकारकीय आंकड़ा बेस, एकत्रित स्थानिक आंकड़ों जैसे आकारकीय ऊँचाई नमूना तथा भविष्य में होने वाली बाढ़ की घटनाओं का पूर्वानुमान लगाने में सहायक हो सकती है। जी.आई.एस. डाटाबेस में कृषि, सामाजिक, अर्थव्यवस्था, सूचना तंत्र, जनसंख्या एवं मूलभूत संरचना के आंकड़े भी एकत्र किये जा सकते हैं। इन आंकड़ों की सहायता से बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों हेतु नीति निर्धारण पुनरुद्धार योजना एवं क्षति मूल्यांकन करने में सहायता प्राप्त होती है।

जल विभाजक क्षेत्रों का मानचित्रण एवं प्रबोधन


जल, भू-संसाधनों एवं उनकी उत्पादकता के संरक्षण के लिये जलविभाजकों की उचित योजना आवश्यक है। इस उद्देश्य के लिये जलविभाजकों का अभिलक्षण एवं विश्लेषण मूलभूत आवश्यकता है। जलविभाजक अभिलक्षणों में भूविज्ञानीय, जल भूवैज्ञानिक, भू-आकारिकीय, जलवैज्ञानिकीय मृदा, भू-आवरण, भू-उपयोग आदि प्राचलों का मापन शामिल है। प्रबंधन की आवश्यकताओं के आकलन हेतु एरियल एवं अंतरिक्ष में लगे सुदूर संवेदन संवेदकों का प्रयोग जलविभाजक क्षेत्र के अभिलक्षणों हेतु किया जा सकता है। सुदूर संवेदी आंकड़ों की सहायता से विभिन्न फिजियोग्राफिक प्राचलों जैसे आकार संरचना, भौगोलिक स्थिति, जल निकासी ढाँचा इत्यादि की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। जलनिकासी बेसिन में लिये गए मापनों द्वारा सरिता संख्या, लम्बाई एवं प्रवणता का आकलन किया जा सकता है। सुदूर संवेदन तकनीकी सहायता से विभिन्न प्रकार के जलविभाजक क्षेत्रों में भू-उपयोग परिवर्तन एवं भू-अपक्षरण के मध्य अपवाह एवं अवसाद के लिये परस्पर संबंध स्थापित किया जा सकता है।

आवाह क्षेत्र का अध्ययन


जल प्रबंधन में भारी निवेश के बाद भी हमारी सिंचाई परियोजनाओं के निराशाजनक प्रदर्शन के कारण आवाह क्षेत्र में जल प्रबंधन पर विशिष्ट ध्यान देने की आवश्यकता है। आवाह क्षेत्र, जल निकासी सीमाओं के मध्य एक नहर प्रणाली द्वारा सिंचित किया जा सकने वाला कुल क्षेत्र है। सुदूर संवेदन तकनीक आवाह क्षेत्र में भूमि जल संसाधनों के उपयुक्त प्रबंधन द्वारा अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने में एक उपयोगी भूमिका प्रदान कर सकती है। जल की सीमित मात्रा की उपलब्धता के कारण आवाह क्षेत्रों में सिंचाई के लिये जल की आपूर्ति का प्रबंधन एक महत्त्वपूर्ण समस्या है। इसके सामाधान हेतु आवाह क्षेत्रों में सिंचाई हेतु कुल मांग एवं आपूर्ति की पूर्ण जानकारी होना आवश्यक है। अधिक क्षेत्रों को सिंचाई प्रणाली के अंतर्गत लाने के कारण कृषि उत्पादन, आकलन एवं प्रभावी जल प्रबंधन के लिये फसल का प्रबोधन भी आवश्यक हो जाता है। इसके अतिरिक्त सुदूर संवेदन तकनीक योजना बनाने एवं निर्णय लेने में एक सहायक भूमिका प्रदान कर सकती है। सिंचित भूमि, फसल के चयन तथा उत्पादन उपलब्धि के आकलन में सुदूर संवेदन तकनीकों की उपयोगिता, विभिन्न अनुसंधानों में प्रमाणित हुई है। भूमिगत जल उपलब्धता के वास्तविक आंकड़े एवं सतह जल निर्धारण के सुदूर संवेदित आंकड़ों के सम्मिश्रण द्वारा एवं भूमिगत जल के संयुग्मी उपयोग हेतु योजनाएँ तैयार की जा सकती हैं।

जल ग्रसनता एवं मृदा लवणता


आवाह क्षेत्र में जल ग्रसनता और मृदा लवणता उन कुछ प्रमुख भूमि अपक्षरण प्रक्रियाओं में से हैं, जो मृदा और भूमि संसाधनों के आर्थिक और प्रभावी प्रयोग को प्रतिबंधित करते हैं। आवाह क्षेत्रों में जल ग्रसनता के निर्धारण के लिये बहुस्पेक्ट्रम और बहुकालिक दूरसंवेदी आंकड़े बहुत उपयोगी होते हैं। उपग्रह आंकड़ों द्वारा जल ग्रसन क्षेत्रों और बाढ़ का त्वरित और अधिक विश्वसनीय चित्रण किया जा सकता है जल ग्रसनता दो स्थलाकृति घटकों (1) स्थानीय प्रवणता कोण एवं (2) जल निकासी क्षेत्रों पर निर्भर करती है। जल ग्रसनता की संभावना, जल निकासी क्षेत्रों की वृद्धि होने से बढ़ती है और स्थानीय प्रवणता कोण में कमी होने पर घट जाती है। क्योंकि जल ग्रसनता स्थलाकृति से संबंधित है अतः अंकीय भूभाग निदर्शन (डी.टी.एम.) जल ग्रसनता क्षेत्रों का पता लगाने में सहायता कर सकता है। डी.टी.एम. प्रवणता आदि के बारे में सूचना प्रदान करते हैं जो कि परिणामतः जल ग्रसनता के लिये संदेहास्पद क्षेत्रों के बारे में जानकारी प्रदान करते हैं।

आवाह क्षेत्रों में जल ग्रसनता क्षेत्र का अवलोकन करने के लिये उपलब्ध खुले कुँओं में नियमित अन्तराल पर मानसून से पूर्व और मानूसन के पश्चात वर्ष में दो बार प्रेक्षण लिये जाते हैं। जल की गुणवत्ता ज्ञात करने करने के लिये भी आंकड़े एकत्र किये जाते हैं। इस प्रकार एकत्र किये गये आंकड़ों का प्रयोग जल लेख और जल के जलदायी स्तर की गहराई के मानचित्र तैयार करने के लिये किया जाता है। इन मानचित्रों का उपयोग आवाह क्षेत्र में जल ग्रसन क्षेत्रों के चयन में किया जा सकता है। क्षेत्र का वास्तविक आंकड़ा, जो बिंदु आंकड़ों के रूप में उपलब्ध है, का प्रयोग कर भूजल गहराई वितरण मानचित्रों को जी.आई.एस. में तैयार किया जा सकता है। इन मानचित्रों की सहायता से उथली भूमि जल क्षेत्र में जल ग्रसनता के लिये अति संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान की जा सकती है। सामान्यतः 0-1.5 मीटर पर भूमि जल उपलब्धता वाले क्षेत्रों को जल ग्रसन या लवणता प्रभावित क्षेत्रों के रूप में स्वीकार किया जाता है।

हिम आवरण अध्ययन


हिम, पर्वतीय क्षेत्रों में, वर्ष के एक महत्त्वपूर्ण भाग में, जलविज्ञानीय चक्र का एक महत्त्वपूर्ण घटक है। हिम आवरण मापन, प्रतिकूल जलवायु परिस्थितियों और सुदूरता की वजह से कठिन है, परंतु विश्वसनीय नहीं है। हिम अक्सर पृथ्वी पर अनियमित तरीकों से जमा होती है और वायु में पुनः वितरित होती है। इस प्रकार एक छोटी दूरी पर हिम गहराई और इसके लिये हिम तुल्य जल में व्यापक परिवर्तन प्रदर्शित होता है। परिणामतः हिम आवरण के बिन्दु मापन से अपर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है। हिमालय बेसिनों में दुर्गमता के कारण हिम, आवरण प्रबोधन की सीमाएँ हैं। हिम, उच्च परावर्तनता के कारण, पृथ्वी की सतह पर उपलब्ध वस्तुओं में एक है, जिसका दृश्य या इन्फ्रारेड सुदूर संवेदन प्रतिबिम्बों से सरलता से चयनित किया जा सकता है। बर्फ दृश्य तरंगदैर्ध्य में एक उच्च परावर्तनीयता रखता है। हिम की परावर्तनीयता, हिम क्रिस्टल तरल जल की मात्रा, (विशेष रूप से सतह स्तर के निकट का) हिम में अशुद्धियाँ हिम की गहराई, सतही खुरदारापन आदि पर निर्भर होती है पहाड़ी क्षेत्रों में हिम के बारे में बहुत कम जानकारी नियमित रूप से एकत्र होने के कारण सुदूर संवेदन तकनीकी ही एक ऐसी व्यवहारिक पद्धति है जिससे पर्वतीय बेसिनों में हिम आवरण के संबंध में उपयोगी जानकारी प्राप्त की जा सकती है। वर्तमान में दृश्य, इन्फ्रारेड एवं तापीय इन्फ्रारेड आंकड़े जिन्हें विभिन्न उपग्रहों (लैण्ड सेट, आई.आर.एस.नोआ आदि) से प्राप्त किया जाता है, पर्वतीय बेसिनों में हिम आवरण के क्षेत्र विस्तार मानचित्रण के लिये उपयोग किये जा रहे हैं। दृश्य और निकट अवरक्त तरंगदैर्ध्य, क्योंकि हिम पैक में अंदर तक प्रवेश नहीं करते हैं अतः इनका प्रयोग हिम पैक की सतह से ही सूचना प्राप्त करने में किया जाता है। माइक्रोवेव सुदूर संवेदन में शुष्क बर्फ के पैक में प्रवेश करने की क्षमता है और ये बादलों या रात के समय की स्थिति में भी आंकड़े प्राप्त कर सकते हैं। उपग्रह सुदूर संवेदन द्वारा प्राप्त हिम आवरण आंकड़ों का हिम गलन, अपवाह मॉडल में निदर्श प्रयोग किया जा सकता है।

जलाशय अवसादन


भारतीय नदियाँ प्रत्येक वर्ष जलाशयों, झीलों, सागरों एवं महासागरों में काफी विशाल मात्रा में अवसाद अपने साथ प्रवाहित करके ले जाती हैं। अवसादों का एकत्रीकरण, जल की भण्डारण क्षमता, घरेलू तथा जल आपूर्ति, सिंचाई और नौकायन के लिये चैनल की जल वहन क्षमता में कमी कर देता है। परिणामतः सरिताओं में विक्षोभ उत्पन्न हो जाता है निलंबित तलछट जल की स्पष्टता और सूर्य के प्रकाश की भेदक क्षमता को कम कर देता है। जिससे जैविक जीवन प्रभावित होता है। क्योंकि तलछट जल निकायों के नीचे बैठ जाता है, ये वनस्पति को नष्ट करके पारिस्थितिकी तंत्र में परिवर्तन ला देता है। अवसादन निर्धारण की परम्परागत तकनीक निम्न हैं: (क) जलीय सर्वेक्षण द्वारा तलछट के एकत्रीकरण का प्रत्यक्ष मापन और (ख) अन्तर्वाह बहिर्वाह विधि द्वारा अवसाद सान्द्रता का अप्रत्यक्ष मापन। ये दोनों तकनीकें श्रमसाध्य, समय लेने वाली और महँगी हैं और उनकी अपनी सीमाएँ हैं। प्रयोगशाला में कार्य हेतु निलम्बित अवसाद का नमूना एकीकरण मापन एक महँगा कार्यक्रम है। निकट पूर्व में सुदूर संवेदन तकनीकों के परिचय के साथ जलाशय में अवसादन की मात्रा का निर्धारण एवं वितरण सस्ता और सुविधाजनक हुआ है। पारम्परिक तकनीकों की तुलना में उपग्रह आंकड़ों का यह लाभ है कि ये दिये गये क्षेत्रों के आंकड़ों को 16/22 दिनों में एकत्रित करता है, जो कि रूढ़िवादी तकनीकों में संभव नहीं है।

जल गुणवत्ता अध्ययन


जल गुणवत्ता जल की भौतिक, रासायनिक, तापीय और जैविक गुणों को वर्णित करने के लिये सामान्यतः प्रयुक्त किया जाता है। वर्तमान दिनों में जल की गुणवत्ता में बढ़ते प्रदूषण ने जल गुणवत्ता की जाँच को प्रदूषण में होने वाली वृद्धि को रोकने के लिये और हमारे प्रदूषित जलस्रोतों को शुद्ध करने के लिये आवश्यक बना दिया है। इसके अलावा जल की गुणवत्ता प्रबोधन, सिंचाई, घरेलू जल आपूर्ति जैसे कई उपयोगों के लिये एक महत्त्वपूर्ण गतिविधि है। हम सामान्यतः इसे जल की गुणवत्ता को प्रभावित करने वाले बिन्दु या गैर बिन्दु के स्रोतों के रूप में परिभाषित करते हैं। प्रदूषण के बिन्दु स्रोतों का पता सरलता से लगाया जा सकता है। जैसे पाइप पर जंग इत्यादि। गैर बिन्दु पदार्थ अधिक फैलाव, परिदृश्य, जल गति एवं भूमि के उपयोग के साथ जुड़े होते हैं। सभी मानव एवं प्राकृतिक गतिविधियों जल के अपवाह में अबिन्दु स्रोतों को योगदान करते हैं तथा इसकी गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं। अनुभाविक एवं अर्द्ध अनुभाविक निदर्शों के आशांकन एवं मान्यकरण के लिये आवश्यक आंकड़ों के एकत्रीकरण के लिये भूमि (जल) एवं सुदूर संवेदित मापन दोनों का समीक्षण आवश्यक है। जल के नमूनों (निलंबित तलछट, क्लोरोफिल) का विश्लेषण करने के लिये उन्हें समान समय (या उसी दिन) पर एकत्र किया जाना चाहिए। (जिस दिन के सुदूर संवेदी आंकड़े एकत्र किये गये हैं)। जी.पी.एस. की सहायता से नमूना स्थलों की स्थिति का यथार्थ निर्धारण करना चाहिए जिससे तुलना हेतु सुदूर संवेदी तकनीकों से शुद्ध आंकड़े प्राप्त किये जा सकें। जल गुणवत्ता हेतु सुदूर संवेदी तकनीकों का अनुप्रयोग उन स्थितियों में सतही जल गुणवत्ताओं के तापीय विशिष्टताओं को प्रभावित करती है, जो मापन हेतु सीमित हैं। निलंबित अवसाद, क्लोरोफिल तेल एवं तापमान जलगुणवत्ता सूचकांक हैं जो सतही जल के स्पेक्ट्रमी एवं तापीय गुणवत्ताओं को प्रभावित कर सकते हैं तथा इनका मापन सुदूर संवेदी तकनीकों द्वारा सरलतापूर्वक किया जा सकता है।

भूजल अध्ययन


सुदूर संवेदन प्रणाली भूजल अन्वेषण में काफी उपयोगी है क्योंकि सुदूर संवेदन आंकड़े उच्च प्रेक्षणात्मक घनत्व के साथ एक बड़े क्षेत्र का सूक्ष्म अवलोकन प्रदान करते हैं। वर्तमान सुदूर संवेदन प्लेटफार्म सतह विशिष्टताओं को रिकॉर्ड करते हैं। भूजल की अधिकांश जानकारी गुणवत्तापूर्ण एवं अर्द्ध मात्रात्मक पद्धतियों से प्राप्त की जाती हैं। सुदूर संवेदन जानकारी प्रायः प्रकृति में अर्थहीन होती है और भूजल विज्ञानीय आंकड़ों के साथ मिलकर ही सार्थक हो सकती है। यदि स्थानीय जानकारी उपलब्ध हो और उसे उपग्रह आंकड़ों द्वारा चयनित किया जा सकता है तो वनस्पति को एक संकेतक के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त जल संसाधनों के प्रबंधन भूजल पुनः पूरण के मूल्यांकन, सिंचाई के लिये भूजल ड्राफ्ट, क्षेत्र में प्रवाह तंत्रों के चयन के लिये सुदूर संवेदी तकनीक एक सशक्त पद्धति है। पुनः पूरण को प्रभावित करने वाले कारकों में सतही स्थितियों, मृदा एवं भू-आकारकीय, वनस्पति निर्धारण, मृदा एवं जल संरक्षण प्रमुख हैं। भूजल प्रदूषण प्रत्यक्ष रूप से सतही स्थितियों से संबंधित है। सूचकांक पद्धतियों, जलस्तर की गहराई नेट पुनः पूरण, स्थलाकृति एवं जलदायकों की जलीय चालकता भूजल प्रदूषण के प्रमुख कारण हैं।

भौगोलिक सूचना तंत्र, एक निर्णय समर्थन प्रणाली


जी.आई.एस. की व्युत्पत्ति आंकड़ा स्रोतों की सहायता से परिशुद्धता के विविध स्तरों तक की जाती है। प्रत्येक आंकड़ा अपनी विशुद्धता की व्याख्या करता है। आंकड़े के किसी सचित्र प्रदर्शन में हुई अनिश्चितता की विमा अन्तिम निर्णय लेने में सहायक सिद्ध होती है। कोई भी निर्णय विविध घटकों पर निर्भर होता है जो भौगोलिक सूचना तंत्र जैसी एक सूचना प्रणाली में उपलब्ध है तथापि इन आंकड़ों का समुचित उपयोग अभी भी समस्याग्रस्त है।

एक निर्णय समर्थन प्रणाली को पारस्परिक कम्प्यूटर प्रणाली के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। जो विविध डोमेन से ज्ञात स्रोतों के सम्मिश्रण द्वारा जटिल समस्याओं के समाधान हेतु नीति निर्धारकों की सहायता करता है। डी.एस.एस. विशेष रूप से विज्ञान व्यापार के क्षेत्र में एक संवादात्मक कम्प्यूटर आधारित प्रणाली के प्रक्रमण हेतु सूचना प्रबंधन तंत्र के लिये फिक्स किया गया। जब डी.एस.एस. को जल प्रबंधन में लागू करते हैं तो इसे स्थानीय विमाओं की आवश्यकता होती है और इसी कारण यह भौगोलिक सूचना तंत्र में सम्मिलित किया गया है।

Fig-1

जल संसाधनों के क्षेत्र में अनुसंधान की आवश्यकता


1. किसी भी जी.आई.एस. से संबंधित अध्ययन में पहला और अत्यधिक महत्त्वपूर्ण पहलू आंकड़ों की उपलब्धता और उसकी अनुकूलता है। स्थानिक जल संसाधनों के अध्ययन के लिये आवश्यक जानकारी का निष्पादन सरलता से होना चाहिये। सुदूर संवेदन तकनीक का प्रयोग जल संसाधनों के विकास तथा उनके प्रबंधन जैसे: भूमि वर्गीकरण, बाढ़ क्षेत्र प्रबंधन आदि में किया जा रहा है।

2. जलविज्ञानीय विज्ञान के भविष्य में उन्नति के लिये निदर्श का आधुनिकीकरण और मूल्यांकन पर्याप्त मात्रा में आंकड़ों की उपलब्धता पर निर्भर करता है। सुदूर संवेदन तकनीक इस दिशा में एक निर्णायक विकास की भूमिका निभा सकता है। अंकीकृत मानचित्र हेतु विशिष्ट आंकड़ों के अनुरूप विभिन्न साधनों से आंकड़े संग्रह केंद्र में एकत्रित करने होंगे। इस तरह के आंकड़े प्राप्त होने से उल्लेखनीय प्रगति होगी।

3. जल संसाधन निदर्शन के अंतर्गत भौगोलिक सूचना तंत्र का सम्मिश्रण करना एक कठिन प्रक्रिया है फिर भी जल संसाधन के शोध में सुविधा के लिये भौगोलिक सूचना तंत्र के कुछ निदर्श शोधकर्ताओं द्वारा उपलब्ध कराये गये हैं।

4. आधुनिक विकास के लिये डी.एस.एस. ने जल संसाधन तंत्र व सिंचाई में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।

5. भविष्य के शोध कार्यों के तुलनात्मक अध्ययन के लिये आजकल बाजार में बहुत से जी.आई.एस. पैकेज अभिलक्षणता और सूची के साथ उपलब्ध हैं।

उपसंहार


सुदूर संवेदी आंकड़े भूसत्यता और कुछ श्रेष्ठ जी.आई.एस. सॉफ्टवेयरों के मिश्रण द्वारा, जल संसाधन के प्रबंधन में काफी सहायता कर रहे हैं। जी.आई.एस. तकनीक अपनाने का मुख्य कारण है कि यह स्थानीय सूचना हेतु समाकलित पद्धति द्वारा सरलतापूर्वक कार्य करने की क्षमता रखता है। आज सुदूर संवेदी तकनीकों को व्यापक रूप से जी.आई.एस. स्तर के रूप में स्वीकार किया जा रहा है। सुदूर संवेदन एक विशेष प्रकार की तकनीक है जिसे एक संवादात्मक कम्प्यूटर आधारित प्रणाली को उपलब्ध कराने के साधन के रूप में प्रयोग किया जाता है।

संदर्भ


1. Rango A, Remote sensing of water resources : Accomplishments, challenges and relevance to global monitoring, proceedings International symposium remote sensing and water resources, Enschede, The Netherlands, (August 20-24,1990)

2. Schultz G A & Engment E T (EDS), Remote sensing in hydrology and water management, Springer Verlag (2000).

3. Tsihrintzix V A, Hamid R & Fuentes H R, Use of GIS in water resources : A review, Water Resources Management, 10 (1996) 251-277.

सम्पर्क


तनवीर अहमद, एस के जैन, पी के अग्रवाल एवं डी एस राठौर, Tanveer Ahmed, SK Jain, PK Aggarwal & DS Rathore
राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की 247667, National Institute of Hydrology, Roorkee 247667 (Uttarakhand)

भारतीय वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान पत्रिका, 01 जून, 2012


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