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पीएसआई, देहरादून
धार जिला मध्य प्रदेश के दक्षिणी आदिवासी इलाके में स्थित है। यह एक सूखा प्रभावित जिला है जो न सिर्फ नियमित तौर पर जल संकट की समस्या से जूझता है बल्कि यहाँ के भूमिगत जल में फ्लोराइड की मात्रा भी काफी अधिक है, जिसकी वजह से हड्डियाँ टेढ़ी कर देने वाले फ्लोरोसिस रोग का यहाँ प्रकोप रहता है। यहाँ के लोग भूमिगत जल पर आश्रित हैं जिसमें फ्लोराइड की सान्द्रता काफी अधिक पाई जाती है।
सिंचित खेती में बढ़ोत्तरी के साथ-साथ यहाँ भूमिगत जल के स्तर में गिरावट आने लगी, लिहाजा लोगों को और गहराई तक जाने के लिये मजबूर होना पड़ा। बिजली ने काफी अधिक गहराई से पानी बाहर निकालने की सुविधा उपलब्ध करा दी है, जिसकी वजह से अधिक दूषित भूजल बाहर आने लगा है।
2011 में आयोजित एक अध्ययन से पता चला है कि मध्य प्रदेश के धार जिले के 31 गाँव फ्लोरोसिस की गम्भीर चपेट में हैं। फ्रैंक वाटर, यूके की मदद से पीपुल्स साइंस इंस्टीट्यूट (पीएसआई), देहरादून लोगों को सुरक्षित और स्वच्छ पेयजल उपलब्ध करा कर लोगों में आशा की किरण जगा रहा है।
बंडू सिंह साठ साल के एक दुबले-पतले बुजुर्ग हैं, जिन्होंने अपनी पूरी जिन्दगी कालापानी गाँव में एक छोटे से मिट्टी के घर में गुजार दी है। कालापानी एक छोटा सा गाँव है जो धार जिले के मनावर प्रखण्ड में स्थित है, यहाँ कुल 152 परिवार निवास करते हैं। यहाँ की आबादी 849 लोगों की है जिनमें 99.41 फीसदी (2011 की जनगणना के आँकड़ों के मुताबिक) अनुसूचित जाति (एसटी) समुदाय से सम्बन्धित है।
बंडू सिंह पेशे से एक खेतिहर मजदूर हैं, उन्होंने गुजरा जमाना देखा है। उनके मुताबिक, एक समय ऐसा भी था जब इस इलाके में घने जंगल थे और स्वच्छ धारा गाँव से होकर बहती थी। सतही जल और कुएँ का पानी पीने के लिये इस्तेमाल किया जाता था और लोगों को उस वक्त कोई गम्भीर बीमारी नहीं होती थी। लेकिन जंगल गायब हो गए और सतही जल अब कहीं नहीं मिलता है।
हैण्डपम्प का इस्तेमाल जब शुरू हुआ तो वे युवा थे। वे याद करते हैं कि उनके माता-पिता और गाँव के दूसरे लोग घरेलू इस्तेमाल के लिये हैण्डपम्प का पानी इस्तेमाल करने लगे थे। सिंचित खेती के बढ़ने के साथ भूजल स्तर में गिरावट आने लगी और लोगों को अधिक गहराई से पानी निकालने के लिये मजबूर होना पड़ा। हैण्डपम्पों की संख्या बढ़ने लगी और कुएँ गर्मियों में सूख जाने लगे।
बिजली ने जमीन के गहरे तल से पानी बाहर निकालना मुमकिन बना दिया, गाँव में ट्यूबवेल का उपयोग होने लगा। लेकिन तब लोगों ने महसूस करना शुरू किया कि कुछ अनहोनी घट रही है। उनके दाँत पीले पड़ने लगे और छोटे बच्चों के पाँवों की मुलायम हड्डियाँ मुड़ जाने लगीं। वयस्क लोग अपने जोड़ों में दर्द महसूस करने लगे और पेट से सम्बन्धित परेशानियाँ आम हो गईं। लेकिन उन तमाम सालों में वह कभी समझ नहीं पाए कि आखिर इन रोगों की असली वजह क्या है।
वह सोचते थे कि ऐसा सम्भवतः खान-पान में बदलाव और खाद्य पदार्थों में गुणवत्ता के अभाव की वजह से हो रहा है। वह अपने विकलांग बेटे, बहू और पाँच महीने के पोते की सेहत को लेकर परेशान रहते थे। वह याद करते हैं, “एक दिन कुछ अनजान लोग हमारे गाँव पहुँचे और वे हमारे कुओं, हैण्डपम्पों और ट्यूबवेलों के पानी के नमूनों की जाँच करने लगे। मैं समझ नहीं पा रहा था कि आखिर ये लोग पानी के हरेक स्रोत की जाँच क्यों कर रहे थे। गाँव में हर कोई बात करने लगा कि ये अजनबी लोग क्यों हमारे गाँव का पानी जमा कर रहे हैं और उसकी जाँच कर रहे हैं। लेकिन इतने से ही बात पूरी नहीं हुई। टीम ने फिर हमसे हमारे मूत्र का नमूना भी माँगना शुरू किया। जब उन्होंने मुझसे मूत्र का नमूना माँगा तो मैं बहुत झिझकते हुए तैयार हुआ। लेकिन जब जाँच के नतीजे सामने आए तो मैं अचम्भित रह गया कि जिस पानी को जीवनदायिनी माना जाता है वहीं हमारे गाँव की सेहत सम्बन्धी परेशानियों की जड़ है। फिर मैंने पीएसआई टीम की सदस्य पूजा और अमृता से पूछा कि क्या अब भी कुछ किया जा सकता है, फिर उन्होंने सुरक्षित जल स्रोतों की पहचान कर मुझे आशा की किरण दिखाई। अब खाना पकाने और पीने के लिये हम पास के हैण्डपम्प का पानी नहीं पीते। इसके बदले हम पहाड़ी के नीचे वाले कुएँ से पानी लाते हैं। मेरा जीवन तो अब खत्म होने को आ गया है, मगर मेरे बच्चों और पोते-पोतियों के लिये अभी भी थोड़ी उम्मीद बची है। वे लोग साफ पानी पिएँगे और सेहतमन्द जीवन जिएँगे।”
फ्लोराइड का शरीर में मौजूद कैल्शियम के साथ विलोम वाला सम्बन्ध है। एक अध्ययन के मुताबिक, जब कैल्शियम लेवल खत्म होने लगता है तो शरीर में फ्लोराइड का लेवल बढ़ने लगता है। फ्लोराइड के लम्बे समय तक अत्यधिक सेवन की वजह से स्केलेटल फ्लोरोसिस और हड्डियों के फ्रैक्चर की सम्भावना बढ़ जाती है।
धार में लोग सिंचाई और घरेलू इस्तेमाल के लिये हैण्डपम्प, ट्यूबवेल और कुओं के पानी का इस्तेमाल करते हैं। पीएसआई के अध्ययन के मुताबिक यहाँ के कुछ गाँव उच्च सान्द्रता युक्त फ्लोराइड वाले ट्यूबवेल और हैण्डपम्प का पानी इस्तेमाल में लाते हैं। हालांकि कुओं का पानी सुरक्षित है और यहाँ फ्लोराइड की सान्द्रता मान्य स्तर 1.5 मिग्रा प्रति लीटर से कम है। हाइड्रोलॉजिकल फाइंडिंग और वाटर क्वालिटी एसेसमेंट के आधार पर पीएसआई ने धार जिले के मनावर और धरमपुरी प्रखण्ड के कालापानी, बड़ी छतरी और डहेरिया गाँवों में समुदाय आधारित सुरक्षित पेयजल आपूर्ति तन्त्र को विकसित किया है और अब यहाँ फ्रैंक वाटर, यूके के सहयोग से चार नए गाँवों में भी काम कर रहा है।
हर गाँव में तीन पानी टंकियों का निर्माण कराया गया है जो गाँव के लोगों के लिये दिन में दो बार पानी की आपूर्ति करते हैं। यह पूरी व्यवस्था समुदाय द्वारा संचालित और प्रबन्धित की जाती है। इस तरह का सहभागी और वैज्ञानिक तरीका सुरक्षित, स्थायी और कम खर्चीला है बनिस्पत हैण्डपम्प लगवाकर उसके फ्लोराइड मुक्त कराने के, जो कुछ ही दिनों में बेकार हो जाता है। इसके अलावा इस तकनीक द्वारा हासिल पानी का लगातार इस्तेमाल सेहत के लिये अच्छा भी नहीं होता।
आज बंडू सिंह जैसे लोग खुश हैं कि फ्रैंक वाटर और पीएसआई जैसी संस्थाएँ उनकी परेशानियों का हल निकालने और उन्हें स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने में उनकी मदद कर रहे हैं। सच ही कहा जाता है। सुरक्षित पेयजल हासिल करने से बड़ी कोई दूसरी जरूरत नहीं होती।
सिंचित खेती में बढ़ोत्तरी के साथ-साथ यहाँ भूमिगत जल के स्तर में गिरावट आने लगी, लिहाजा लोगों को और गहराई तक जाने के लिये मजबूर होना पड़ा। बिजली ने काफी अधिक गहराई से पानी बाहर निकालने की सुविधा उपलब्ध करा दी है, जिसकी वजह से अधिक दूषित भूजल बाहर आने लगा है।
2011 में आयोजित एक अध्ययन से पता चला है कि मध्य प्रदेश के धार जिले के 31 गाँव फ्लोरोसिस की गम्भीर चपेट में हैं। फ्रैंक वाटर, यूके की मदद से पीपुल्स साइंस इंस्टीट्यूट (पीएसआई), देहरादून लोगों को सुरक्षित और स्वच्छ पेयजल उपलब्ध करा कर लोगों में आशा की किरण जगा रहा है।
बंडू सिंह का प्रसंग
बंडू सिंह साठ साल के एक दुबले-पतले बुजुर्ग हैं, जिन्होंने अपनी पूरी जिन्दगी कालापानी गाँव में एक छोटे से मिट्टी के घर में गुजार दी है। कालापानी एक छोटा सा गाँव है जो धार जिले के मनावर प्रखण्ड में स्थित है, यहाँ कुल 152 परिवार निवास करते हैं। यहाँ की आबादी 849 लोगों की है जिनमें 99.41 फीसदी (2011 की जनगणना के आँकड़ों के मुताबिक) अनुसूचित जाति (एसटी) समुदाय से सम्बन्धित है।
बंडू सिंह पेशे से एक खेतिहर मजदूर हैं, उन्होंने गुजरा जमाना देखा है। उनके मुताबिक, एक समय ऐसा भी था जब इस इलाके में घने जंगल थे और स्वच्छ धारा गाँव से होकर बहती थी। सतही जल और कुएँ का पानी पीने के लिये इस्तेमाल किया जाता था और लोगों को उस वक्त कोई गम्भीर बीमारी नहीं होती थी। लेकिन जंगल गायब हो गए और सतही जल अब कहीं नहीं मिलता है।
हैण्डपम्प का इस्तेमाल जब शुरू हुआ तो वे युवा थे। वे याद करते हैं कि उनके माता-पिता और गाँव के दूसरे लोग घरेलू इस्तेमाल के लिये हैण्डपम्प का पानी इस्तेमाल करने लगे थे। सिंचित खेती के बढ़ने के साथ भूजल स्तर में गिरावट आने लगी और लोगों को अधिक गहराई से पानी निकालने के लिये मजबूर होना पड़ा। हैण्डपम्पों की संख्या बढ़ने लगी और कुएँ गर्मियों में सूख जाने लगे।
बिजली ने जमीन के गहरे तल से पानी बाहर निकालना मुमकिन बना दिया, गाँव में ट्यूबवेल का उपयोग होने लगा। लेकिन तब लोगों ने महसूस करना शुरू किया कि कुछ अनहोनी घट रही है। उनके दाँत पीले पड़ने लगे और छोटे बच्चों के पाँवों की मुलायम हड्डियाँ मुड़ जाने लगीं। वयस्क लोग अपने जोड़ों में दर्द महसूस करने लगे और पेट से सम्बन्धित परेशानियाँ आम हो गईं। लेकिन उन तमाम सालों में वह कभी समझ नहीं पाए कि आखिर इन रोगों की असली वजह क्या है।
वह सोचते थे कि ऐसा सम्भवतः खान-पान में बदलाव और खाद्य पदार्थों में गुणवत्ता के अभाव की वजह से हो रहा है। वह अपने विकलांग बेटे, बहू और पाँच महीने के पोते की सेहत को लेकर परेशान रहते थे। वह याद करते हैं, “एक दिन कुछ अनजान लोग हमारे गाँव पहुँचे और वे हमारे कुओं, हैण्डपम्पों और ट्यूबवेलों के पानी के नमूनों की जाँच करने लगे। मैं समझ नहीं पा रहा था कि आखिर ये लोग पानी के हरेक स्रोत की जाँच क्यों कर रहे थे। गाँव में हर कोई बात करने लगा कि ये अजनबी लोग क्यों हमारे गाँव का पानी जमा कर रहे हैं और उसकी जाँच कर रहे हैं। लेकिन इतने से ही बात पूरी नहीं हुई। टीम ने फिर हमसे हमारे मूत्र का नमूना भी माँगना शुरू किया। जब उन्होंने मुझसे मूत्र का नमूना माँगा तो मैं बहुत झिझकते हुए तैयार हुआ। लेकिन जब जाँच के नतीजे सामने आए तो मैं अचम्भित रह गया कि जिस पानी को जीवनदायिनी माना जाता है वहीं हमारे गाँव की सेहत सम्बन्धी परेशानियों की जड़ है। फिर मैंने पीएसआई टीम की सदस्य पूजा और अमृता से पूछा कि क्या अब भी कुछ किया जा सकता है, फिर उन्होंने सुरक्षित जल स्रोतों की पहचान कर मुझे आशा की किरण दिखाई। अब खाना पकाने और पीने के लिये हम पास के हैण्डपम्प का पानी नहीं पीते। इसके बदले हम पहाड़ी के नीचे वाले कुएँ से पानी लाते हैं। मेरा जीवन तो अब खत्म होने को आ गया है, मगर मेरे बच्चों और पोते-पोतियों के लिये अभी भी थोड़ी उम्मीद बची है। वे लोग साफ पानी पिएँगे और सेहतमन्द जीवन जिएँगे।”
फ्लोराइड का शरीर में मौजूद कैल्शियम के साथ विलोम वाला सम्बन्ध है। एक अध्ययन के मुताबिक, जब कैल्शियम लेवल खत्म होने लगता है तो शरीर में फ्लोराइड का लेवल बढ़ने लगता है। फ्लोराइड के लम्बे समय तक अत्यधिक सेवन की वजह से स्केलेटल फ्लोरोसिस और हड्डियों के फ्रैक्चर की सम्भावना बढ़ जाती है।
धार में लोग सिंचाई और घरेलू इस्तेमाल के लिये हैण्डपम्प, ट्यूबवेल और कुओं के पानी का इस्तेमाल करते हैं। पीएसआई के अध्ययन के मुताबिक यहाँ के कुछ गाँव उच्च सान्द्रता युक्त फ्लोराइड वाले ट्यूबवेल और हैण्डपम्प का पानी इस्तेमाल में लाते हैं। हालांकि कुओं का पानी सुरक्षित है और यहाँ फ्लोराइड की सान्द्रता मान्य स्तर 1.5 मिग्रा प्रति लीटर से कम है। हाइड्रोलॉजिकल फाइंडिंग और वाटर क्वालिटी एसेसमेंट के आधार पर पीएसआई ने धार जिले के मनावर और धरमपुरी प्रखण्ड के कालापानी, बड़ी छतरी और डहेरिया गाँवों में समुदाय आधारित सुरक्षित पेयजल आपूर्ति तन्त्र को विकसित किया है और अब यहाँ फ्रैंक वाटर, यूके के सहयोग से चार नए गाँवों में भी काम कर रहा है।
हर गाँव में तीन पानी टंकियों का निर्माण कराया गया है जो गाँव के लोगों के लिये दिन में दो बार पानी की आपूर्ति करते हैं। यह पूरी व्यवस्था समुदाय द्वारा संचालित और प्रबन्धित की जाती है। इस तरह का सहभागी और वैज्ञानिक तरीका सुरक्षित, स्थायी और कम खर्चीला है बनिस्पत हैण्डपम्प लगवाकर उसके फ्लोराइड मुक्त कराने के, जो कुछ ही दिनों में बेकार हो जाता है। इसके अलावा इस तकनीक द्वारा हासिल पानी का लगातार इस्तेमाल सेहत के लिये अच्छा भी नहीं होता।
आज बंडू सिंह जैसे लोग खुश हैं कि फ्रैंक वाटर और पीएसआई जैसी संस्थाएँ उनकी परेशानियों का हल निकालने और उन्हें स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने में उनकी मदद कर रहे हैं। सच ही कहा जाता है। सुरक्षित पेयजल हासिल करने से बड़ी कोई दूसरी जरूरत नहीं होती।