इस पावन नदी को मीलों तक सुरंग में डालकर हम उसे नहर में ही तो बदल रहे हैं
गंगा से उसकी गति छीन रही हैं परियोजनाएं - राजीव नयन बहुगुणा
कई बार हम दुर्घटना से पहले सबक नहीं ले पाते। उत्तरकाशी में गंगा को सुरंगों में कैद करने के विरुद्ध अनशन पर बैठे प्रोफेसर गुरुदास अग्रवाल का कदम भी ऐसा ही सबक है। जब हम पर्वत, सरिता, सघन वन और समुद्र जैसी अलौकिक प्राकृतिक संपदाओं को भौतिक संपत्ति के रूप में देखना और बरताव करना शुरू कर देते हैं, तो हम उनके स्वाभाविक वरदान से वंचित हो जाते हैं। हमें अपनी सभ्यता को कायम रखने और आगे बढ़ाने के लिए सचमुच विद्युत शक्ति की जरूरत है, लेकिन जिस सभ्यता की बुनियाद संस्कृति के शव पर रखी जाती है, उसका ढहना भी तय है। और भारतवासियों के लिए गंगा सिर्फ एक नदी नहीं, बल्कि संस्कृति है। लेकिन टिहरी में आकर देखिए। यहां गंगा में न गति है, न ध्वनि। वह स्तब्ध है। शवों की तलाश में उसके ऊपर चील-कौव्वे मंडरा रहे हैं। यहां आप उसके जल में स्नान भी नहीं कर सकते, पीना तो दूर की बात है।
स्वर्ग से उतरकर राजा भगीरथ के पुरखों का उद्धार करने की गंगा-कथा सिर्फ मिथ नहीं है। वह अब तक हमें तारती आई है। गोमुख से गंगा सागर तक वह हमारे देश की लगभग आधी आबादी को पालती है। विश्व की कोई भी नदी ऐसी नहीं, जो इतनी बड़ी जनसंख्या की पालनहार हो। आज से लगभग 100 साल पहले अंगरेजों ने हरिद्वार में बैराज बनाकर गंगा को बांधना चाहा था। लेकिन पंडित मदनमोहन मालवीय ने इस तर्क के साथ वहां डेरा जमा दिया कि बंधे हुए जल में हिंदुओं के श्राद्ध और तर्पण नहीं हो सकते। भारी जनविरोध के कारण अंगरेजों को वह योजना रद्द करनी पड़ी थी। मालवीय जी ने अपनी मृत्यु के समय अपने शिष्य जस्टिस कैलाशनाथ काटजू से कहा था, `मुझे आशंका है कि मेरे बाद गंगा को फिर से बांधा जाएगा।´ अंगरेज तो वह साहस नहीं कर पाए, लेकिन मालवीय जी की आशंका स्वतंत्र भारत में सही साबित हुई। जब देश और प्रदेशों में हमारी ही सरकारें थीं।
गंगा के प्रति हिंदुओं की आस्था एक विषय है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि गंगा पर सिर्फ हिंदुओं का ही एकाधिकार हो। वह हम सभी भारतवंशियों के लिए प्रेरक भी है और प्रेरणा भी। शहनाई के शहंशाह उस्ताद बिस्मिलाह खां का वह प्रसंग अनेक लोगों को विदित होगा कि जब उन्हें अमेरिका में बसने का प्रस्ताव दिया गया, तो उस्ताद का जवाब था कि यहां गंगा को ले आओ, तो मैं भी आ जाऊंगा। गंगा के बगैर इस देश का समूचा वैभव व्यर्थ है। अबुल फजल ने आईने अकबरी में लिखा है कि बादशाह अकबर अपने घर या यात्रा में सदैव गंगा जल ही पीता था। कुछ विश्वस्त लोग गंगा तटों पर सिर्फ इसलिए तैनात रहते थे कि वे घड़ों में गंगा जल भरकर और उन पर मुहर लगाकर नियमित रूप से सम्राट को भेजते रहें।
गंगा जल के प्रति शहंशाहों का यह आकर्षण उसकी गुणवत्ता के कारण भी था। सभी जानते हैं कि किसी बर्तन में रखा गंगा जल वर्षों तक खराब नहीं होता। यह निरा चमत्कार नहीं। वैज्ञानिक अनुसंधानों से सिद्ध हो चुका है कि गंगा जल में ऐसे प्राकृतिक तत्व मिश्रित होते हैं,जो उसे हमेशा शुद्ध बनाए रखते हैं। आप क्या सोचते हैं कि बांधों तथा सुरंगों में बांधें जाने के बाद भी गंगा जल का यह गुण विद्यमान रह पाएगा? नदियों के साथ हमारा यह जो दुर्व्यवहार है, असल में पश्चिमी सभ्यता की देन है। हमने बिजली पैदा करने के लिए पाश्चात्य ढांचे की नकल की। पश्चिम के लोग इतने भाग्यशाली नहीं कि उन पर हमारी तरह बारहों महीने सूर्य भगवान की असीम कृपा रहे। वहां धूप के दर्शन साल में सिर्फ नब्बे दिन होते हैं। इसलिए उन्हें बिजली के लिए बड़े बांध बनाने पड़ते हैं, लेकिन हम तो अपनी बिजली की जरूरत का एक बड़ा भाग सौर ऊर्जा से पूरा कर सकते हैं। शेष ऊर्जा हवा से और नदी के बहाव वाली रन ऑफ रीवर परियोजनाओं से पैदा की जा सकती है। लेकिन इस ओर हमने अभी ध्यान नहीं दिया है। आज चीन वैश्वीकरण के नए अवतार के रूप में सामने आया है। इसलिए वह तिब्बत में विश्व का सबसे ऊंचा बांध बना रहा है। लेकिन आज से बीस साल पहले तक वह अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं का साठ फीसदी हिस्सा छोटी तथा वैकल्पिक परियोजनाओं से पूरा करता था।
निस्संदेह, बिजली विज्ञान की एक श्रेष्ठ उपलब्ध है। लेकिन उसका उत्पादन निरापद भी होना चाहिए। नदियों को बांधने और तोड़ने-मरोड़ने के अतिरेक में पूर्व सोवियत संघ अपना एक समुद्र अराल सागर (अरब नहीं) ही सुखा चुका है। चीन ने भी अपनी पीली नदी का अब यह हश्र कर दिया है कि वह साल में तीन सौ दिन तक समुद्र का मुंह नहीं देख पाती। नदी की स्वाभाविक गति बांधों व सुरंगों में नहीं, बल्कि समुद्र में विसर्जित होने की है, ताकि वह बादलों के रूप में पुनर्जन्म लेकर फिर से धरती को श्यामल और सजल बना सके। नदी से नहरें निकलना लोक मंगल का एक उपक्रम है, लेकिन समूची नदी को नहर में बदल देना अनिष्ट का द्योतक है। आखिर गंगा को मीलों तक सुरंग में डालकर हम उसे नहर में ही तो बदल रहे हैं। उत्तरकाशी में गंगा को उसके उद्गम से ही सुरंगों में डालने की परियोजनाएं प्रस्तावित तथा निर्माणाधीन हैं। जबकि मनेरी भाली परियोजना के कारण वह पहले ही पंद्रह किलोमीटर तक अपने स्वाभाविक पथ को छोड़कर सुरंग में बहने को अभिशप्त है। ऑस्ट्रिया के प्रसिद्ध जल विज्ञानी विक्टर शॉबर्गर ने अपने प्रयोगों से यह सिद्ध कर दिखाया था कि पहाड़ों से टकराकर सर्पाकार गति से घूम-घूमकर बहने वाली नदी अपने को शुद्ध करती चलती है, लेकिन बांधे जाने से उसकी यह शक्ति समाप्त हो जाती है। गंगा से कई तरह की अप्राकृतिक छेड़छाड़ करके हमने असल में उसका अस्तित्व ही खतरे में डाल दिया है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के ग्लेशियर विज्ञानी प्रो. एम हसनैन करीब दस साल पहले ही कह चुके हैं कि तापमान बढ़ने तथा पर्यटकों की अपार भीड़ के कारण गोमुख ग्लेशियर सिमट रहा है। और यदि यही गति रही, तो अगले पच्चीस वर्ष में गंगा का मूल स्वरूप ही मिट जाएगा।
दरअसल, बड़ी विद्युत परियोजनाएं नेताओं, इंजीनियरों तथा अफसरों की एक चरागाह होती है। टिहरी बांध विरोधी आंदोलन का इतिहास बताता है कि सत्ता से बाहर रहते हुए जो राजनेता इस बांध का जोर-शोर से विरोध करते रहे, सत्ता में आने पर उन्होंने ही बांध बनाने के लिए कमर कस ली। इसलिए यह समय चेतने का है। देश के पूरे हिमालय क्षेत्र में अभी चार सौ से अधिक बांध, बैराज तथा सुरंगें प्रस्तावित हैं। विश्व के इस सबसे नए तथा नाजुक पर्वत को खोदना आत्मघाती होगा। हिमालय को बांधों से पाटने की बजाय, उसे पेड़ों का कवच पहनाया जाना चाहिए, ताकि नदियों का प्रवाह संतुलित रहे। हिमालय को देवस्वरूप माना गया है। हमें समझना होगा कि देवताओं का वरदान श्रेयस्कर होता है, और उनका कोप जानलेवा।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं )
साभार – अमर उजाला
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