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राष्ट्रीय सहारा, 06 नवम्बर, 2016
नदी या तालाब या समुद्र में घुटने पानी तक खड़े होकर सावधानीपूर्वक सूर्य देवता को नमन करते हैंः श्रद्धा देते हैं। यह श्रद्धा हम अपने को ही देते हैं, यदि पूछिए तो। श्रद्धा रहित जीवन भी कोई जीवन है। चढ़ते व उतरते सूर्य : दोनों को प्रणाम करने का अर्थ है : हम सम भाव से किसी के उत्कर्ष व अपकर्ष में साथ बने रहते हैं। यह क्या बात हुई कि चढ़ते समय तो साथ रहे, उतरते समय साथ छोड़ दिया।
छठ पर्व आलोक पर्वों की श्रंखला में दीपावली के बाद आने वाला पर्व है। सूर्य से कृतज्ञता का पर्व। ऊर्जा, ऊष्मा और लगाव का पर्व। सूर्य को दिया जाने वाला अर्घ्य वस्तुतः अपने अन्दर की अग्नि को प्रज्वलित करना है। हर व्यक्ति में सूर्य है, हर आदमी में चन्द्रमा है। हर किसी में ऋतुएँ बसती हैं। ये हमारे भीतर के समंजन व रंजकता तथा रंग को दर्शाती हैं। एक तरह से यह स्मृति का आलेखन है।
हमारे यहाँ चन्द्रमा की शीतलता को मन से जोड़ते हैं- ‘चन्द्रमा मनसो जातः।’ इसी तरह तेजस्विता को सूर्य से जोड़ते हैं। तेजस भाव के बिना मनुष्य की क्या बिसात? इसीलिये तेज के लिये प्रार्थनाएँ की जाती हैं। अनेक मन्त्र इसके लिये हैं। सूर्य ऋग्वेदकाल से ही महत्त्वपूर्ण देवता रहे हैं। हमारे जीवन, पर्यावरण, उपस्थिति के लिये सूर्य ही मुख्य आधार हैं। सूर्य स्वास्थ्य का हेतु हैं। वे ही अन्धकार को हराते हैं, जो हम देख पाते हैं, ज्योति उपलब्ध करते हैं, सूर्य ही उसके प्रमुख स्रोत हैं।
लोक जीवन में सूर्य हमारे घरेलू मित्र, सखा, देवता सब कुछ हैं। छोटे-छोटे बच्चे सूर्य से सघन आत्मीयता रखते हैं। छठ के समय का सूर्य तो अत्यन्त आकर्षक है-कड़ी ताप से रहित। मऊनाथ भंजन के देवलास (देवलार्क) में सूर्य की प्राचीन मूर्ति है, जिसमें वे सात घोड़ों से जुते रथ को हाँकते हैं। देवलार्क का अर्थ है-देवल+अर्क यानी सूर्य का मन्दिर। अनेक ध्वजों पर सूर्य के चिन्ह देखे जा सकते हैं।
कोई देवता हमारे लोक का साथी यों ही नहीं बन जाता। वह हमारे दुख-सुख का साथी होता है। सूर्य हमें ऊष्मा देते हैं, रंग देते हैं। हमारे जीवन को रहने योग्य बनाते हैं। जो किरणें हमारी मनुष्यता से परावर्तित होती हैं, वही आलोक रचती हैं। सूर्य की रोशनी हमारे भीतर के उत्सव की संज्ञा है। सूर्य सबका हैः हर धर्म, जाति, सम्प्रदाय, भाषा, क्षेत्र, देशः सबका। प्रकृति को अर्थ देने का कार्य सूर्य का है। महत्त्वपूर्ण यह है कि सूर्य षष्ठी को दिया जाने वाला अर्घ्य लोकमन में छठी मइया को दिया जाता है। छठी मइया लोक संरचना में हित करने वाली देवी बन जाती है। जितने फल मिल सकते हैं, चढ़ाए जाते हैं। विशेष बाँस से बनी दउरियों में फल नदी के तट पर ले जाते हैं तथा चढ़ते व उतरते सूर्य को अर्घ्य देते हैं। नदी या तालाब या समुद्र में घुटने पानी तक खड़े होकर साधनापूर्वक उन्हें नमन करते हैंः श्रद्धा देते हैं।
यह श्रद्धा हम अपने को ही देते हैं, यदि पूछिए तो। श्रद्धा रहित जीवन भी कोई जीवन है। चढ़ते व उतरते सूर्य : दोनों को प्रणाम करने का अर्थ है : हम सम भाव से किसी के उत्कर्ष व अपकर्ष में साथ बने रहते हैं। यह क्या बात हुई कि चढ़ते समय तो साथ रहे, उतरते समय साथ छोड़ दिया।
नदियों से छठ का गहन रिश्ता है। यानी जल की प्रतिष्ठा से यह पर्व सम्बद्ध है। जल जीवन है। पूरे विश्व में दो तिहाई जल ही है। संसार की रचना वैज्ञानिक ढंग से जल-थल-नभ के दुर्लभ संयोग से संभव हुई है। शरीर में जल का हिस्सा बहुतायत में है। जल को शुद्ध बनाए रखना आवश्यक है। गंगा, यमुना तथा अन्य नदियों की शुद्ध आवश्यक है। उपासना के समय या उसके बाद नदियों-तालाबों-समुद्र को प्रदूषित करना उपासना के विरुद्ध कार्य है। यदि हम संवेदनशील नहीं हुए व इसी तरह जल, वायु तथा पृथ्वी प्रदूषित होती रही तो हम रहेंगे कहाँ-यह सवाल उठेगा। कूड़ा-कचरा फैलाना अनुष्ठान का अंग नहीं। यह वैज्ञानिकता हमारे भीतर होनी चाहिए कि जो हम पृथ्वी को देते हैं, पृथ्वी वही हमको देती है।
एक पृथ्वी हमारे पास है, लेकिन अपनी पृथ्वी हम बार-बार रचते हैं। हमें स्वच्छ, स्वस्थ व मंगलमयी पृथ्वी रचनी चाहिए। सूर्य के रंग न केवल बाहरी रंग हैं, अपितु हमारे भीतरी रंग भी हैं। छठ लोक का पर्व इसलिये है क्योंकि इसमें हमारी लय, हमारी संस्कृति, हमारे लोक गीत, हमारे सन्दर्भ, हमारी सभ्यता जुड़ी है। इसीलिये यह हमारी अस्मिता भी बन गया है। पर्वों का अस्मितागत परिवर्तन एक सामाजिक व चेतनागत प्रक्रिया है। इससे हमारे समाजों में गतिशीलता आती है। मेले केवल संस्कृति की प्राथमिकता नहीं रह जाते हैं। वे परिवर्तन के कारक बन जाते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि वहाँ गरिमा के अनुकूल कार्यक्रम हों। वे हमारे साहित्य-कलाओं का उन्नयन करें। यदि दुर्गा पूजा पर विविध आकर्षक व गरिमामय कार्यक्रम हो सकते हैं, तो छठ पर स्तरीय प्रस्तुतियाँ क्यों नहीं हो सकतीं?
भोजपुरी-मैथिली-मगही-बजिका, अंगिका आदि के श्रेष्ठ साहित्य को इस समय मंच पर उतारा जाना चाहिए। इसके लिये साल भर से रूपरेखा बनानी चाहिए। मेलों व अनुष्ठान स्थलों का जन-प्रबन्धन भी करना उचित है। यह हमारे देश में अब तक बेहतर नहीं हो सका है। इसीलिये घटनाएँ घट जाती हैं। घाटों को स्वच्छ, निर्मल रखना शासन व जन, दोनों का दायित्व है। छठ को कृषि संस्कृति का उपहार मानना चाहिए। कृषि को बचाने का प्रयत्न भी आवश्यक है। हमारी सुन्दरता हमारी भीतरी तेजस्विता से आती है। छठ इसी का हेतु है। इसीलिये अर्घ्य हम बाहर व भीतर, दोनों तरह से देते हैं। अपने भीतर के सूर्य को बचाना अपनी जिजीविषा व आत्मसम्मान को बचाना है। हमारे हजारों रंग सूर्य की रोशनी में चमकें, हमारी कामना है।