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योजना, जून 2003
पारिस्थितिकी-अनुकल व्यवस्था स्थापित करने हेतु भारतीय ऋषि-मुनियों ने अपने दूरदर्शी ज्ञान को समाज-कल्याण कार्यों में सतत उपयोग करने हेतु कई सरल नियम प्रतिपादित किए ताकि समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपने नित्यकर्म के दौरान, जाने-अनजाने उनका पालन करते हुए अपने आसपास के पर्यावरण को यथावत बनाए रखने में योगदान करता रहे। फिर मानव मनोविज्ञान के अपने चरम ज्ञान का उयोग करते हुए इन विद्वानों ने इस नियमों को स्थायित्व प्रदान करने के लिए उन्हें पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक एवं शुभ-अशुभ से जोड़ दिया।प्राचीन काल से ही भारत में जल भंडारों को निरंतर समृद्ध बनाए रखने की ओर गंभीरता से ध्यान दिया जाता रहा है क्योंकि इस पृथ्वी में जीवित रहने के लिए स्वच्छ हवा के पश्चात दूसरी सबसे बड़ी अनिवार्यता है—'जल'। इसे देखते-समझते हमारे पूर्वजों ने 'तालाब व्यवस्था' को भारत में स्थापित की थी। इसमें संदेह नहीं कि भारतीय भू-वैज्ञानिक दृश्य विधान के अंतर्गत विद्यमान जलवायु प्रसार को देखते हुए तालाबों का निर्माण एक युक्तिसंगत एवं अनिवार्य प्राकृतिक विधान है। एक अनुमान के अनुसार यदि भारत के प्रत्येक जिले के 3 प्रतिशत भाग में तालाब बना दिया जाएं तो देश भर में पानी की समस्या हल हो जाएगी।
इस प्रकार की पारिस्थितिकी-अनुकूल व्यवस्था स्थापित करने हेतु भारतीय ऋषि-मुनियों ने अपने दूरदर्शी वैज्ञानिक ज्ञान को समाज-कल्याण कार्यों में सतत उपयोग करने हेतु कई सरल नियम प्रतिपादित किए ताकि समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपने नित्यकर्म के दौरान, जाने-अनजाने उनका पालन करते हुए अपने आसपास के पर्यावरण को यथावत बनाए रखने में योगदान करता रहे। फिर मानव मनोविज्ञान के अपने चरम ज्ञान का उपयोग करते हुए इन विद्वानों ने इस नियमों को स्थायित्व प्रदान करने के लिए उन्हें पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक एवं शुभ-अशुभ से जोड़ दिया। जैसेः
1. जल को देवता स्वरूप मानते हुए नदियों को 'जीवनदायिनी' कहा गया है—सभी ग्रंथ
2. जल का विश्वसनीय भेषज (दवा) है—अर्थर्ववेद
3. नदियों, तालाबों आदि में मल-मूत्र, थूक अथवा अन्य दूषित पदार्थ विसर्जन अशुभ कार्य है—मनुस्मृति
4. बावड़ी, पोखर, तालाब आदि से पाँच मुटठी मिट्टी बाहर निकाले बिना उसमें स्नान करना शुभ नहीं है—श्रीस्कंदपुराण
5. जलाशय निर्माण करने वाले व्यक्ति को स्वर्ग में स्थान—श्रीस्कंदपुराण
6. वृक्षों को साक्षात ब्रह्म मानते हुए कहा गया है कि 10 कुंजों के बराबर एक बावड़ी है, 10 बावड़ियों के बराबर एक तालाब, 10 तालाबों के बराबर एक पुत्र एवं 10 पुत्रों के बराबर एक वृक्ष—श्वेतश्वरोपनिषद
7. प्रत्येक जीवन में लगाए वृक्ष अगले जन्म में संतान के रूप में मिलते हैं—विष्णु धर्मसूत्र
8. जो व्यक्ति पीपल/नीम/बरगद का एक, नारंगी व अनार के दो, आम के पाँच व लत वाले दस पेड़ लगाता है वह कभी नरक में नहीं जाता—वराह पुराण
9. व्यर्थ में वृक्ष काटने वाला मनुष्य असिपत्र (नरक के वन) में स्थान पाता है—श्रीस्कंद महापुराण
10. वृक्षों को काटना अपराध है और इसके लिए सजा का विधान है—श्रीस्कंद महापुराण
11. भारतीय चिकित्सा पद्धति के अनुसार दुनिया में ऐसी कोई वनस्पति नहीं है, जो औषधी न हो—आयुर्वेद
12. छोटे-बड़े कई पशु-पक्षियों को देवी-देवताओं का वाहन बनाकर श्रेष्ठता प्रदान करना, ताकि समाज का प्रत्येक सदस्य सम्मान के साथ उनके संरक्षण में अपना योगदान करता रहे—सभी ग्रंथ
13. गाय को माता के समान पूजते हुए 'गोमाता' कहना मात्र शास्त्रवचन नहीं, यह भारतीय भौगोलिक परिवेश में एक जाँचा-परखा जागृत वैज्ञानिक सत्य है क्योंकि भारतीय मूल के गोधन के पंचगव्य (गोबर, मूत्र, दूध, दही व घी) में असाधारण चमत्कारिक जैव-प्रजनन व जैव-उपचारिक गुण प्राकृतिक रूप में अंगीभूत हैं। भारत में गोहत्या निषेध की परंपरा धार्मिक अंधविश्वास नहीं, इस वैज्ञानिक ज्ञान का प्रतिफल है।
एक उत्कृष्ट वैज्ञानिक होने के नाते हमोर ये विद्वान जानते थे कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति वैज्ञानिक नहीं हो सकता। इसलिए प्रकृति द्वारा स्थापित 'जियो व जीने दो' के सिद्धांत की अनुभूति प्राप्त करने पर उन्होंने उल्लिखित रूप के कई नियमों के माध्यम से एक सशक्त सामाजिक व्यवस्था भारत में स्थापित की जिसका आधार जागृत विज्ञान है। इन नियमों की सार्थकता आज भी स्पष्ट है। इस संदर्भ में कुछ व्याख्या प्रस्तुत है :
1. पीपल के वृक्ष को भगवान विष्णु का स्वरूप प्रदान कर उसके स्थाई संरक्षण की व्यवस्था ऐसी कारगर सिद्ध हुई है कि अधर्म के भय से उसे व्यर्थ में काटने से प्रत्येक भारतीय आज भी कतराता है। पर ऐसा क्यो?
एक अनुमान के अनुसार यदि भारत के प्रत्येक जिले के 3 प्रतिशत भाग में तालाब बना दिया जाएं तो देश भर में पानी की समस्या हल हो जाएगी।वैज्ञानिक वास्तविकता है कि पीपल का वृक्ष दीर्घायु, बड़ी छतरीधारी, औषधीय एवं प्रदूषण नियंत्रण गुणों से भरपूर होने के साथ-साथ भारतीय परिवेश में सदियों से स्थापित सबसे अनुकूल वृक्ष है। चाहे वह मृदा निर्माण/संरक्षण/जैविक उर्वरकता वृद्धि का कार्य हो या सभी जीवन स्वरूपों के लिए सही वायु मिश्रण वृद्धि के साथ उसे स्वच्छ बनाए रखने का कार्य हो (पीपल 24 घंटे आक्सीजन प्रसार करता है) अथवा भू-जल संरक्षण में वृद्धि का कार्य हो। इसके अलावा यह वृक्ष कई प्राणियों के लिए आवास का प्रबंध करते हुए उन्हें भोजन भी उपलब्ध कराता है। सभी जीवन स्वरूपों को जीवित रहकर विकास के प्रयास में शारीरिक परिश्रम करना पड़ता है, जिसमें उन्हें थकान लगती है। इस थकान को मिटाने व खोई ऊर्जा के पुनर्भरण के लिए विश्राम आवश्यक है। इस बड़े छतरीधारी वृक्ष की छाया तले शरण मात्र लेने पर पशु-पक्षियों समेत हम सभी को जो सुकून मिलता है उसका मूल्यांकन असंभव है।
उदाहरण के लिए भारतीय 'थार रेगिस्तान' में गर्मी के मौसम में खुले आसमान की कड़कती धूप में तापमान 50 सेंटिग्रेड चढ़ जाता है, लेकिन वहाँ विद्यमान पेड़ों/झाड़ियों की छांव में तापमान 12 से 14 सेंटिग्रेड कम रहता है और इस प्राकृतिक सुविधा का लाभ वहाँ के सभी निवासी (मानव, पशु एवं पक्षी) उठाते हैं।
1. भारत में अधिकतर लोग पैदल, बैलगाड़ी या साइकिल से यात्रा करते हैं जिसमें मानव एवं पशु दोनों को थकान लगती है। इसलिए वर्तमान भारतीय परिदृश्य के अंतर्गत सड़कों के किनारे भारतीय मूल के बड़े छतरीधारी वृक्षों की उपस्थिति एक अनिवार्यता है। फिर इनके माध्यम से हम कई अप्रत्यक्ष लाभ भी प्राप्त कर सकते हैं।
2. एक तालाब एवं पोखर में स्नान करने के पूर्व यदि प्रत्येक व्यक्ति पाँच मुट्ठी माटी (फाइवफिस्ट फुल) उसमें से निकालकर बाहर करेगा, तो उस जलाश्य की गहराई सदा बनी रहेगी। वर्तमान अनुमानों के अनुसार भारत में प्रति वर्ष लगभग 53,330 लाख टन मृदा का क्षरण होता है, जिसका 29 प्रतिशत भाग बहकर समुद्रों के भीतर और 19 प्रतिशत भाग जलाशयों की तल जमा होकर उनकी जल ग्रहण क्षमता को 1-2 प्रतिशत की दर से प्रतिवर्ष घटाता रहता है। तालाब, पोखर आदि की गहराई बनाए रखने में इस क्रिया का महत्त्व समझा जा सकता है।
3. जलाशयों में दूषित पदार्थों के विसर्जन पर रोक से उस जलाशय का पानी स्वच्छ रहेगा एवं उसके उपयोग से बीमारियाँ नहीं फैलेंगी।
4. व्यर्थ में वृक्षों को काटना अपराध है। इसके लिए सजा का विधान बनाकर पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने में वृक्षों की अनिवार्यता का बोध कराया गया है। वृक्षों को काटने के संदर्भ में विश्व के कई देशों में अब नियम-कानून बनाए जा चुके हैं (भारत भी शामिल) या बनाए जा रहे हैं।
अर्थात ये अद्वितीय विद्वान भारतीय परिवेश में इस प्रकार के व्यावहारिक नियमों को सर्वव्यापी रूप में स्थापित करने के पूर्व पृथ्वी में सुरक्षित जीवनयापन के लिए आवश्यक (विशेषतः भारतीय भौगोलिक पर्यावरण) सूक्ष्म से सूक्ष्म विधान के तत्वात्मक (अलटिमेट) वैज्ञानिक ज्ञान की पराकाष्ठा प्राप्त कर चुके थे। इसलिए भारतीय प्रदेश में जल-भंडारों को समृद्ध बनाए रखने के लिए तालाबों की व्यवस्था इन विद्वानों ने स्थापित की थी, वह भी इस प्रकार कि तालाबों का निर्माण एवं रख-रखाव का कार्य एक सामाजिक कर्तव्य का रूप धारण कर लें। इस प्रकार की व्यवस्था स्थापित करना उनके व्यावहारिक ज्ञान को दर्शाता है क्योंकि बिना प्रजा के सहयोग के किसी प्रदेश का राजा (उन दिनों होते थे) इस निरंतर गतिमान क्रिया को स्वयं अपने शासकीय अधिकार से सफल नहीं बना सकता था, भले ही उसके पास कितना धन क्यों न हो। वर्तमान भारतीय संदर्भ में आज भी यह एक वास्तविकता है।
एक तालाब एवं पोखर में स्नान करने के पूर्व यदि प्रत्येक व्यक्ति पाँच मुट्ठी माटी (फाइवफिस्ट फुल) उसमें से निकालकर बाहर करेगा, तो उस जलाश्य की गहराई सदा बनी रहेगी। तालाबों में वर्षा का पानी भरता रहता है और फिर धीरे-धीरे मृदा में रिसते हुए भूमिगत जल-बैंक को समृद्ध करता रहता है, ताकि कुओं एवं नलकूपों में वांछनीय जल स्तर विद्यमान रहे। लेकिन तालाबों की इस उपयोगिता को स्थायित्व प्रदान करने के लिए कुछ साधारण प्रयास आवश्यक होते हैं, भू-ढलान का उपयोग करते हुए नालियों का निर्माण ताकि वर्षा का पानी तालाब को भर सके, तालाब के बंध की मुरझाव, उसकी गहराई बनाए रखने के उपाय और उसमें एकत्रित पानी की स्वच्छता के लिए नियम-पालन। इन कार्यों के संपादन में मुख्यतः भूमि सुधार कार्य किए जाते हैं जिसके लिए जन शक्ति सबसे उपयुक्त निवेश होता है जिसमें भारत एक धनी देश है। यह भी एक विडंबना है कि भारतीय योजनाविदों ने देश में उपलब्ध सबसे समृद्ध ऊर्जा स्रोत 'मानव श्रम शक्ति' के इष्टतम सदुपयोग के विषय में आज तक वैज्ञानिक ढंग से सोचने का प्रयास नहीं किया जिसके फलस्वरूप भारत में बेरोजगारी बढ़ी है।
वर्तमान भारतीय परिदृश्य में राजा एवं जमींदारों का स्थान सरकार एवं उद्योगपतियों ने ले लिया है। इसलिए इन दोनों वर्गों के नेता यदि समाज से मिलकर कमर कस लें तो भारत में जल समस्या का निदान सरलता से किया जा सकता है। लगता है भारत में इस प्रकार की चेतना जागृत हो चुकी है और इस दिशा में भारत सरकार ने पहला कदम बढ़ाया है 'स्वजल धारा योजना' के रूप में जिसका औपचारिक शुभारंभ भारतीय प्रधानमंत्री ने दिसंबर 2002 को किया था। यह योजना भारतीय परंपराओं के अनुरूप है एवं इसे स्वतंत्र भारत में वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अपनाई गई सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आधारभूत विकास की रचनात्मक सोच का व्यावहारिक फार्मूला कहा जा सकता है। अब इसे कार्यरूप में सफल बनाना देशवासियों के हाथ है।
स्वजल धारा योजना के लिए अपनाए जाने वाले सभी कार्य स्थानीय निवासियों को ही कार्यान्वित करने होंगे और भविष्य में उनका समुचित रख-रखाव भी उन्हीं के हाथों होगा। भारत सरकार इस प्रकार की परियोजना के लिए 90 प्रतिशत खर्च की आर्थिक सहायता लाभार्थियों के स्थानीय समूह अथवा ग्राम पंचायत को देगी जिन्हें मात्र 10 प्रतिशत का खर्च वहन करना होगा। भारत के किसी भाग को इसका लाभ उठाने के लिए स्थानीय नागरिक समिति या पंचायत द्वारा अपने क्षेत्र में तालाब, बावड़ी कुंआ व हैंडपम्प निर्माण की परियोजना बनानी होगी। फिर उसके कुल लागत की 10 प्रतिशत धनराशि बैंक में जमा कर राज्य सरकार द्वारा इस कार्य के लिए जिला स्तर पर नियुक्त अधिकारी से 90 प्रतिशत खर्च की अनुदान राशि के लिए आवेदन करना होगा। अब तक पेयजल से जुड़ी योजनाओं पर खर्च में केंद्र एवं राज्य सरकारों का आधा-आधा हिस्सा रहा है। इस परियोजना के अंतर्गत राज्य सरकारों पर कोई वित्तीय बोझ नहीं आएगा परंतु उन्हें योजनाएं बनाने और जनता को उनमें भागीदार बनने के लिए प्रेरित अवश्य करना होगा।
इस दृष्टि से 'देर आए दुरुस्त आए' जैसी कहावत को स्वजल धारा योजना चरितार्थ करेगी क्योंकि इस योजना के जनाधार विस्तार से देश भर में स्थायी रोजगार के द्वार खुल जाएंगे। यह योजना भारत के विकास कार्यक्रमों में नीति परिवर्तन के शुभारंभ की भी द्योतक है। भारत में इसी प्रकार की विकास परियोजनाओं के प्रचलन की आवश्यकता है ताकि असाधारण स्तर पर उपलब्ध जल शक्ति का इष्टतम उपयोग आर्थिक विकास के लिए किया जा सके।
परंतु इस योजना का संपूर्ण लाभ उठाने के लिए थोड़ी बहुत सुविज्ञता (एक्सपर्टीज) की भी आवश्यकता होगी विशेषकर परियोजना निर्माण के समय ताकि पारिस्थितिकीय नियमों का पालन करते हुए पूरे कार्य को सफलतापूर्वक संपादित किया जा सके। व्यवस्था के अंतर्गत इन कार्यों का संचालन राजा एवं जमींदारों द्वारा जनता के सहयोग से किया जाता था। वर्तमान भारतीय राजनैतिक परिदृश्य में राजा एवं जमींदारों का स्थान सरकार एवं उद्योगपतियों ने ले लिया है। इसलिए इस योजना को भारत में सफल बनाते हुए आर्थिक प्रगति की पराकाष्ठा प्राप्त करने के लिए प्रांतीय सरकारों, उद्योगपतियों व स्वयंसेवी गैर-सरकारी संस्थाओं को आगे बढ़कर जनता का हाथ बटाना होगा क्योंकि उन्हीं के पास इस प्रकार के विशेषज्ञों की सेवा प्रदान कराने के साधन उपलब्ध हैं।
इस योजना को अखिल भारतीय जनाधार प्रदान करने में भातरीय मीडिया को भी सहयोग प्रदान करना होगा क्योंकि उनकी पहुँच देश के कोने-कोने में है और किसी भी योजाना को सफल बनाने में विज्ञापनों की प्रमुख भूमिका से हम सभी अवगत हैं।
भारतवासियों को समझना होगा कि भारत सरकार अपने प्रशासनिक अधिकारों के अंतर्गत भूमि सुधार, भू-जल भंडारण, प्रदूषण नियंत्रण जैसे निरंतर क्रियाशील कार्यों की संपूर्ण संपादन व्यवस्था का संचालन पूरे देश में अपने-आप नहीं कर सकती। इसमें जनता का सक्रिय सहयोग अनिवार्य है (जिस तथ्य को हमारे विद्वान पूर्वज समझ चुके थे)। सरकार का कर्तव्य है कि देशवासियों को दिशानिर्देश प्रदान करते हुए इस प्रकार के कार्यों के लिए नियमित रूप से धन उपलबध कराती रहे ताकि जनता-जनार्दन स्वयं आगे बढ़कर इस वृहत आयोजन को संपूर्ण भारत में सफल बनाए। नागरिकों का इन कर्यों में हाथ बटाना उनकी स्वयं की सुरक्षा का सबसे कारगर उपाय है।
[लेखक कोल इंडिया लिमिटेड के सेवानिवृत्त मुख्य महाप्रबंधक (गवेषणा), एक भू-वैज्ञानिक हैं]
इस प्रकार की पारिस्थितिकी-अनुकूल व्यवस्था स्थापित करने हेतु भारतीय ऋषि-मुनियों ने अपने दूरदर्शी वैज्ञानिक ज्ञान को समाज-कल्याण कार्यों में सतत उपयोग करने हेतु कई सरल नियम प्रतिपादित किए ताकि समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपने नित्यकर्म के दौरान, जाने-अनजाने उनका पालन करते हुए अपने आसपास के पर्यावरण को यथावत बनाए रखने में योगदान करता रहे। फिर मानव मनोविज्ञान के अपने चरम ज्ञान का उपयोग करते हुए इन विद्वानों ने इस नियमों को स्थायित्व प्रदान करने के लिए उन्हें पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक एवं शुभ-अशुभ से जोड़ दिया। जैसेः
1. जल को देवता स्वरूप मानते हुए नदियों को 'जीवनदायिनी' कहा गया है—सभी ग्रंथ
2. जल का विश्वसनीय भेषज (दवा) है—अर्थर्ववेद
3. नदियों, तालाबों आदि में मल-मूत्र, थूक अथवा अन्य दूषित पदार्थ विसर्जन अशुभ कार्य है—मनुस्मृति
4. बावड़ी, पोखर, तालाब आदि से पाँच मुटठी मिट्टी बाहर निकाले बिना उसमें स्नान करना शुभ नहीं है—श्रीस्कंदपुराण
5. जलाशय निर्माण करने वाले व्यक्ति को स्वर्ग में स्थान—श्रीस्कंदपुराण
6. वृक्षों को साक्षात ब्रह्म मानते हुए कहा गया है कि 10 कुंजों के बराबर एक बावड़ी है, 10 बावड़ियों के बराबर एक तालाब, 10 तालाबों के बराबर एक पुत्र एवं 10 पुत्रों के बराबर एक वृक्ष—श्वेतश्वरोपनिषद
7. प्रत्येक जीवन में लगाए वृक्ष अगले जन्म में संतान के रूप में मिलते हैं—विष्णु धर्मसूत्र
8. जो व्यक्ति पीपल/नीम/बरगद का एक, नारंगी व अनार के दो, आम के पाँच व लत वाले दस पेड़ लगाता है वह कभी नरक में नहीं जाता—वराह पुराण
9. व्यर्थ में वृक्ष काटने वाला मनुष्य असिपत्र (नरक के वन) में स्थान पाता है—श्रीस्कंद महापुराण
10. वृक्षों को काटना अपराध है और इसके लिए सजा का विधान है—श्रीस्कंद महापुराण
11. भारतीय चिकित्सा पद्धति के अनुसार दुनिया में ऐसी कोई वनस्पति नहीं है, जो औषधी न हो—आयुर्वेद
12. छोटे-बड़े कई पशु-पक्षियों को देवी-देवताओं का वाहन बनाकर श्रेष्ठता प्रदान करना, ताकि समाज का प्रत्येक सदस्य सम्मान के साथ उनके संरक्षण में अपना योगदान करता रहे—सभी ग्रंथ
13. गाय को माता के समान पूजते हुए 'गोमाता' कहना मात्र शास्त्रवचन नहीं, यह भारतीय भौगोलिक परिवेश में एक जाँचा-परखा जागृत वैज्ञानिक सत्य है क्योंकि भारतीय मूल के गोधन के पंचगव्य (गोबर, मूत्र, दूध, दही व घी) में असाधारण चमत्कारिक जैव-प्रजनन व जैव-उपचारिक गुण प्राकृतिक रूप में अंगीभूत हैं। भारत में गोहत्या निषेध की परंपरा धार्मिक अंधविश्वास नहीं, इस वैज्ञानिक ज्ञान का प्रतिफल है।
एक उत्कृष्ट वैज्ञानिक होने के नाते हमोर ये विद्वान जानते थे कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति वैज्ञानिक नहीं हो सकता। इसलिए प्रकृति द्वारा स्थापित 'जियो व जीने दो' के सिद्धांत की अनुभूति प्राप्त करने पर उन्होंने उल्लिखित रूप के कई नियमों के माध्यम से एक सशक्त सामाजिक व्यवस्था भारत में स्थापित की जिसका आधार जागृत विज्ञान है। इन नियमों की सार्थकता आज भी स्पष्ट है। इस संदर्भ में कुछ व्याख्या प्रस्तुत है :
1. पीपल के वृक्ष को भगवान विष्णु का स्वरूप प्रदान कर उसके स्थाई संरक्षण की व्यवस्था ऐसी कारगर सिद्ध हुई है कि अधर्म के भय से उसे व्यर्थ में काटने से प्रत्येक भारतीय आज भी कतराता है। पर ऐसा क्यो?
एक अनुमान के अनुसार यदि भारत के प्रत्येक जिले के 3 प्रतिशत भाग में तालाब बना दिया जाएं तो देश भर में पानी की समस्या हल हो जाएगी।वैज्ञानिक वास्तविकता है कि पीपल का वृक्ष दीर्घायु, बड़ी छतरीधारी, औषधीय एवं प्रदूषण नियंत्रण गुणों से भरपूर होने के साथ-साथ भारतीय परिवेश में सदियों से स्थापित सबसे अनुकूल वृक्ष है। चाहे वह मृदा निर्माण/संरक्षण/जैविक उर्वरकता वृद्धि का कार्य हो या सभी जीवन स्वरूपों के लिए सही वायु मिश्रण वृद्धि के साथ उसे स्वच्छ बनाए रखने का कार्य हो (पीपल 24 घंटे आक्सीजन प्रसार करता है) अथवा भू-जल संरक्षण में वृद्धि का कार्य हो। इसके अलावा यह वृक्ष कई प्राणियों के लिए आवास का प्रबंध करते हुए उन्हें भोजन भी उपलब्ध कराता है। सभी जीवन स्वरूपों को जीवित रहकर विकास के प्रयास में शारीरिक परिश्रम करना पड़ता है, जिसमें उन्हें थकान लगती है। इस थकान को मिटाने व खोई ऊर्जा के पुनर्भरण के लिए विश्राम आवश्यक है। इस बड़े छतरीधारी वृक्ष की छाया तले शरण मात्र लेने पर पशु-पक्षियों समेत हम सभी को जो सुकून मिलता है उसका मूल्यांकन असंभव है।
उदाहरण के लिए भारतीय 'थार रेगिस्तान' में गर्मी के मौसम में खुले आसमान की कड़कती धूप में तापमान 50 सेंटिग्रेड चढ़ जाता है, लेकिन वहाँ विद्यमान पेड़ों/झाड़ियों की छांव में तापमान 12 से 14 सेंटिग्रेड कम रहता है और इस प्राकृतिक सुविधा का लाभ वहाँ के सभी निवासी (मानव, पशु एवं पक्षी) उठाते हैं।
1. भारत में अधिकतर लोग पैदल, बैलगाड़ी या साइकिल से यात्रा करते हैं जिसमें मानव एवं पशु दोनों को थकान लगती है। इसलिए वर्तमान भारतीय परिदृश्य के अंतर्गत सड़कों के किनारे भारतीय मूल के बड़े छतरीधारी वृक्षों की उपस्थिति एक अनिवार्यता है। फिर इनके माध्यम से हम कई अप्रत्यक्ष लाभ भी प्राप्त कर सकते हैं।
2. एक तालाब एवं पोखर में स्नान करने के पूर्व यदि प्रत्येक व्यक्ति पाँच मुट्ठी माटी (फाइवफिस्ट फुल) उसमें से निकालकर बाहर करेगा, तो उस जलाश्य की गहराई सदा बनी रहेगी। वर्तमान अनुमानों के अनुसार भारत में प्रति वर्ष लगभग 53,330 लाख टन मृदा का क्षरण होता है, जिसका 29 प्रतिशत भाग बहकर समुद्रों के भीतर और 19 प्रतिशत भाग जलाशयों की तल जमा होकर उनकी जल ग्रहण क्षमता को 1-2 प्रतिशत की दर से प्रतिवर्ष घटाता रहता है। तालाब, पोखर आदि की गहराई बनाए रखने में इस क्रिया का महत्त्व समझा जा सकता है।
3. जलाशयों में दूषित पदार्थों के विसर्जन पर रोक से उस जलाशय का पानी स्वच्छ रहेगा एवं उसके उपयोग से बीमारियाँ नहीं फैलेंगी।
4. व्यर्थ में वृक्षों को काटना अपराध है। इसके लिए सजा का विधान बनाकर पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने में वृक्षों की अनिवार्यता का बोध कराया गया है। वृक्षों को काटने के संदर्भ में विश्व के कई देशों में अब नियम-कानून बनाए जा चुके हैं (भारत भी शामिल) या बनाए जा रहे हैं।
अर्थात ये अद्वितीय विद्वान भारतीय परिवेश में इस प्रकार के व्यावहारिक नियमों को सर्वव्यापी रूप में स्थापित करने के पूर्व पृथ्वी में सुरक्षित जीवनयापन के लिए आवश्यक (विशेषतः भारतीय भौगोलिक पर्यावरण) सूक्ष्म से सूक्ष्म विधान के तत्वात्मक (अलटिमेट) वैज्ञानिक ज्ञान की पराकाष्ठा प्राप्त कर चुके थे। इसलिए भारतीय प्रदेश में जल-भंडारों को समृद्ध बनाए रखने के लिए तालाबों की व्यवस्था इन विद्वानों ने स्थापित की थी, वह भी इस प्रकार कि तालाबों का निर्माण एवं रख-रखाव का कार्य एक सामाजिक कर्तव्य का रूप धारण कर लें। इस प्रकार की व्यवस्था स्थापित करना उनके व्यावहारिक ज्ञान को दर्शाता है क्योंकि बिना प्रजा के सहयोग के किसी प्रदेश का राजा (उन दिनों होते थे) इस निरंतर गतिमान क्रिया को स्वयं अपने शासकीय अधिकार से सफल नहीं बना सकता था, भले ही उसके पास कितना धन क्यों न हो। वर्तमान भारतीय संदर्भ में आज भी यह एक वास्तविकता है।
एक तालाब एवं पोखर में स्नान करने के पूर्व यदि प्रत्येक व्यक्ति पाँच मुट्ठी माटी (फाइवफिस्ट फुल) उसमें से निकालकर बाहर करेगा, तो उस जलाश्य की गहराई सदा बनी रहेगी। तालाबों में वर्षा का पानी भरता रहता है और फिर धीरे-धीरे मृदा में रिसते हुए भूमिगत जल-बैंक को समृद्ध करता रहता है, ताकि कुओं एवं नलकूपों में वांछनीय जल स्तर विद्यमान रहे। लेकिन तालाबों की इस उपयोगिता को स्थायित्व प्रदान करने के लिए कुछ साधारण प्रयास आवश्यक होते हैं, भू-ढलान का उपयोग करते हुए नालियों का निर्माण ताकि वर्षा का पानी तालाब को भर सके, तालाब के बंध की मुरझाव, उसकी गहराई बनाए रखने के उपाय और उसमें एकत्रित पानी की स्वच्छता के लिए नियम-पालन। इन कार्यों के संपादन में मुख्यतः भूमि सुधार कार्य किए जाते हैं जिसके लिए जन शक्ति सबसे उपयुक्त निवेश होता है जिसमें भारत एक धनी देश है। यह भी एक विडंबना है कि भारतीय योजनाविदों ने देश में उपलब्ध सबसे समृद्ध ऊर्जा स्रोत 'मानव श्रम शक्ति' के इष्टतम सदुपयोग के विषय में आज तक वैज्ञानिक ढंग से सोचने का प्रयास नहीं किया जिसके फलस्वरूप भारत में बेरोजगारी बढ़ी है।
वर्तमान भारतीय परिदृश्य में राजा एवं जमींदारों का स्थान सरकार एवं उद्योगपतियों ने ले लिया है। इसलिए इन दोनों वर्गों के नेता यदि समाज से मिलकर कमर कस लें तो भारत में जल समस्या का निदान सरलता से किया जा सकता है। लगता है भारत में इस प्रकार की चेतना जागृत हो चुकी है और इस दिशा में भारत सरकार ने पहला कदम बढ़ाया है 'स्वजल धारा योजना' के रूप में जिसका औपचारिक शुभारंभ भारतीय प्रधानमंत्री ने दिसंबर 2002 को किया था। यह योजना भारतीय परंपराओं के अनुरूप है एवं इसे स्वतंत्र भारत में वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अपनाई गई सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आधारभूत विकास की रचनात्मक सोच का व्यावहारिक फार्मूला कहा जा सकता है। अब इसे कार्यरूप में सफल बनाना देशवासियों के हाथ है।
स्वजल धारा योजना के लिए अपनाए जाने वाले सभी कार्य स्थानीय निवासियों को ही कार्यान्वित करने होंगे और भविष्य में उनका समुचित रख-रखाव भी उन्हीं के हाथों होगा। भारत सरकार इस प्रकार की परियोजना के लिए 90 प्रतिशत खर्च की आर्थिक सहायता लाभार्थियों के स्थानीय समूह अथवा ग्राम पंचायत को देगी जिन्हें मात्र 10 प्रतिशत का खर्च वहन करना होगा। भारत के किसी भाग को इसका लाभ उठाने के लिए स्थानीय नागरिक समिति या पंचायत द्वारा अपने क्षेत्र में तालाब, बावड़ी कुंआ व हैंडपम्प निर्माण की परियोजना बनानी होगी। फिर उसके कुल लागत की 10 प्रतिशत धनराशि बैंक में जमा कर राज्य सरकार द्वारा इस कार्य के लिए जिला स्तर पर नियुक्त अधिकारी से 90 प्रतिशत खर्च की अनुदान राशि के लिए आवेदन करना होगा। अब तक पेयजल से जुड़ी योजनाओं पर खर्च में केंद्र एवं राज्य सरकारों का आधा-आधा हिस्सा रहा है। इस परियोजना के अंतर्गत राज्य सरकारों पर कोई वित्तीय बोझ नहीं आएगा परंतु उन्हें योजनाएं बनाने और जनता को उनमें भागीदार बनने के लिए प्रेरित अवश्य करना होगा।
इस दृष्टि से 'देर आए दुरुस्त आए' जैसी कहावत को स्वजल धारा योजना चरितार्थ करेगी क्योंकि इस योजना के जनाधार विस्तार से देश भर में स्थायी रोजगार के द्वार खुल जाएंगे। यह योजना भारत के विकास कार्यक्रमों में नीति परिवर्तन के शुभारंभ की भी द्योतक है। भारत में इसी प्रकार की विकास परियोजनाओं के प्रचलन की आवश्यकता है ताकि असाधारण स्तर पर उपलब्ध जल शक्ति का इष्टतम उपयोग आर्थिक विकास के लिए किया जा सके।
परंतु इस योजना का संपूर्ण लाभ उठाने के लिए थोड़ी बहुत सुविज्ञता (एक्सपर्टीज) की भी आवश्यकता होगी विशेषकर परियोजना निर्माण के समय ताकि पारिस्थितिकीय नियमों का पालन करते हुए पूरे कार्य को सफलतापूर्वक संपादित किया जा सके। व्यवस्था के अंतर्गत इन कार्यों का संचालन राजा एवं जमींदारों द्वारा जनता के सहयोग से किया जाता था। वर्तमान भारतीय राजनैतिक परिदृश्य में राजा एवं जमींदारों का स्थान सरकार एवं उद्योगपतियों ने ले लिया है। इसलिए इस योजना को भारत में सफल बनाते हुए आर्थिक प्रगति की पराकाष्ठा प्राप्त करने के लिए प्रांतीय सरकारों, उद्योगपतियों व स्वयंसेवी गैर-सरकारी संस्थाओं को आगे बढ़कर जनता का हाथ बटाना होगा क्योंकि उन्हीं के पास इस प्रकार के विशेषज्ञों की सेवा प्रदान कराने के साधन उपलब्ध हैं।
इस योजना को अखिल भारतीय जनाधार प्रदान करने में भातरीय मीडिया को भी सहयोग प्रदान करना होगा क्योंकि उनकी पहुँच देश के कोने-कोने में है और किसी भी योजाना को सफल बनाने में विज्ञापनों की प्रमुख भूमिका से हम सभी अवगत हैं।
भारतवासियों को समझना होगा कि भारत सरकार अपने प्रशासनिक अधिकारों के अंतर्गत भूमि सुधार, भू-जल भंडारण, प्रदूषण नियंत्रण जैसे निरंतर क्रियाशील कार्यों की संपूर्ण संपादन व्यवस्था का संचालन पूरे देश में अपने-आप नहीं कर सकती। इसमें जनता का सक्रिय सहयोग अनिवार्य है (जिस तथ्य को हमारे विद्वान पूर्वज समझ चुके थे)। सरकार का कर्तव्य है कि देशवासियों को दिशानिर्देश प्रदान करते हुए इस प्रकार के कार्यों के लिए नियमित रूप से धन उपलबध कराती रहे ताकि जनता-जनार्दन स्वयं आगे बढ़कर इस वृहत आयोजन को संपूर्ण भारत में सफल बनाए। नागरिकों का इन कर्यों में हाथ बटाना उनकी स्वयं की सुरक्षा का सबसे कारगर उपाय है।
[लेखक कोल इंडिया लिमिटेड के सेवानिवृत्त मुख्य महाप्रबंधक (गवेषणा), एक भू-वैज्ञानिक हैं]