टांका/ बावड़ी/ खडिन

Submitted by admin on Mon, 10/06/2008 - 11:32

टांका

टांका(छोटा टैंक) भूमिगत टैंक हैं जो अधिकांशत: बिकानेर में घरों में देखे जा सकते हैं। इन्हें मुख्यत: आंगन में बनाया गया है। जमीन में चूने की पुताई वाली इस गोलाकृति में वर्षाजल का संग्रह किया जाता है। इन्हें प्राय: टाइल्स से सुसज्जित किया जाता है, जिससे पानी ठंडा रहता है। इस पानी को पीने के लिए प्रयोग किया जाता है। यदि किसी समय वर्षा सामान्य से कम वर्षा होने के कारण टैंक नहीं भर पाते, तब समीपस्थ कुओं और तालाबों आदि से पानी लाकर इन घरेलू टैंकों को भरा जाता है। इस प्रकार लोग अपनी पानी की जरूरतों को पूरा करते हैं। टांका व्यवस्था द्वारका में भी पाई जाती है जहां सदियों से यह व्यवस्था अपनाई जा रही है। आज भी यह व्यवस्था आवासीय क्षेत्रों, मंदिरों, धर्मशालाओं और होटलों में कायम है।

खडिन-

खडिन भूमि की सतह पर बहते जल के संचय के लिए बनाए जाते हैं, इसे ढोरा भी कहा जाता है। ऊपरी जमीनों के नीचे निचली पहाड़ी ढालों के चारों ओर बनी एक लंबी (100-300 मीं) मिट्टी की बंध इसकी मुख्य विषेशता है। स्लूसिस और स्पिलवे ज्यादा पानी को बहने देते हैं। यह व्यवस्था खेत में जल के संचयन और फसल उत्पादन के लिए इस जल-प्लवित भूमि का उपयोग करने के सिध्दांत पर आधारित है।

इसे सर्वप्रथम पंद्र्रहवी शताब्दी में पश्चिमी राजस्थान में जैसलमेर के पालिवाल ब्राहमणों ने बनाया था। यह व्यवस्था उर (वर्तमान ईराक) मध्यपूर्व में नबातियनों की सिंचाई पध्दति से बहुत मिलती-जुलती है। ऐसी ही एक व्यवस्था 4,000 साल पहले नेगेव मरूस्थल और 500 साल पहले दक्षिण पश्चिमी कोलोरेडो में भी सुनी जाती है।

वाव/वावड़ी/बाउली/बावड़ी

पारम्परिक स्टेपवेल्स को ही गुजरात में वाव या वावड़ी और राजस्थान और उत्तरी भारत में बाउली बावड़ी कहा जाता है। ये पवित्र संरचनाएं थीं जहां से हर कोई पानी ले सकता था, लेकिन अब उनमें से अधिकांश मृत हो चुकी हैं।

स्टेपवेल्स को निर्माण-पूर्व सोलंकी काल (8 वीं से 11 वीं शताब्दी), सोलंकी काल (11वीं से 12 शताब्दी), वघेला काल (13 वीं शसुव्यवस्थित समोच्च मेडबंदीसुव्यवस्थित समोच्च मेडबंदीताब्दी के मध्य से 14 वीं शताब्दी), सल्तन्त काल (13 वी शताब्दी के मध्य से 15 वीं शताब्दी) इन कुओं की षिल्प कला और कृतियां लोगों के पारम्परिक सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन में कुओं के महत्व को दर्शाती हैं।

कुओं की स्थिति सुविधानुसार बनाई गई है। जब कोई बावड़ी गांव के अन्दर या छोर पर बनी है तो इसका प्रयोग उपयोगी उद्देश्यों और सामाजिक एकत्रीकरण के लिए, एक ठंडे स्थान के रूप में किया जाता था। लेकिन जब यह गांव के बाहर व्यापार मार्ग पर बनाई जाती थी तब इनका प्रयोग आरामगाह के रूप में भी किया जाता था। महत्वपूर्ण बावड़ियां पाटन से सौराष्ट्र के समुद्र तट के उत्तर मे बड़े सैन्य और व्यापार मार्गों पर बनी हुई हैं। जब इनका प्रयोग विशेष रूप से सिंचाई के लिए किया जाता था तब निकाले गए पानी को प्राप्त करने के लिए रिम पर एक स्लूइस बना दिया जाता था और उसे तालाब से जोड़ दिया जाता था। जहां से यह नाली द्वारा बहकर खेतों में पहुंच जाता था। इस पारम्परिक व्यवस्था के खत्म होने का मुख्य कारण केंद्रीकरण का दवाब और सघन खेती है।