टीबी का अनदेखा खतरा

Submitted by Hindi on Wed, 02/22/2017 - 14:27
Source
डाउन टू अर्थ, दिसम्बर, 2016

पशुओं में संक्रण का इलाज किये बिना भारत को तपेदिक (टीबी) से छुटकारा मिलना मुश्किल

scan0010दुनिया को टीबी से मुक्ति दिलाने के लिये विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कुछ लक्ष्य तय किए हैं: वर्ष 2035 तक इन मामलों में 2015 के मुकाबले 90 प्रतिशत और इनसे होने वाली मौतों में 95 प्रतिशत कमी लाना। भारत, जहाँ विश्व के 23 प्रतिशत टीबी के मरीज हैं, ने इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिये नए तरीके और नीतियाँ अपनाई हैं। देश ‘दवा प्रतिरोधी टीबी’ की चुनौती से भी जूझ रहा है, इस तरह की टीबी में दवा का असर कम होता है। तमाम कोशिशों के बावजूद भारत टीबी से छुटकारा पाने के लक्ष्यों से पिछड़ सकता है क्योंकि इससे जुड़ी नीतियाँ जानवरों खासकर मवेशियों से होने वाले टीबी के संक्रमण जैसे अहम कारण की अनदेखी कर रहे हैं।

भारत के लिये चेतावनी


मनुष्यों में टीबी का मुख्य कारण मायकोबैक्टेरियम ट्यूबरक्लोसिस नामक रोगाणु है। कई बार लोग पशुओं में टीबी के मुख्य कारक एम बोविस नामक रोगाणु से भी संक्रमित हो जाते हैं। द लांसेट इन्फेक्टियश डिजीजिस नामक जर्नल के सितम्बर अंक में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, जूनोटिक टीबी (जानवरों से मनुष्यों को होने वाली टीबी) की मार को हल्के में लिया जाता रहा है। रिपोर्ट में जूनोटिक टीबी के विशेष अध्ययन की जरूरत पर जोर दिया गया है, खासकर उन क्षेत्रों में जहाँ टीबी का प्रभाव अधिक है और लोग संक्रमित पशुओं के आस-पास रहते हैं अथवा बिना प्रोसेसिंग के दुग्ध उत्पादों का सेवन करते हैं। वर्ष 2012 में इंटरनेशनल लाइवस्टॉक रिसर्च इंस्टीट्यूट ने अनुमान लगाया था कि मनुष्यों में टीबी के 10 प्रतिशत तक मामलों के लिये मवेशियों में टीबी (बोवाइन टीबी) वजह हो सकती है।

ये अध्ययन भारत के लिये बड़ी चेतावनी हैं, क्योंकि दुनिया के कुल पशुधन का 52 प्रतिशत यहाँ है और मवेशी भारत के ग्रामीण जनजीवन का अभिन्न अंग हैं। पशुओं से मनुष्यों में होने वाले टीबी संक्रमण के अध्ययन की बात तो भूल ही जाइए, यहाँ ऐसे मामलों को दर्ज करने के लिये भी कोई राष्ट्रीय एजेंसी नहीं है। जबकि इस विषय में हुए अनुसंधान भयावह तस्वीर पेश करते हैं।

पशुओं से मनुष्यों में टीबी


वर्ष 2010 में वेटरनरी वर्ल्ड में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, हिमाचल प्रदेश की डेयरियों में पशुओं से फैलने वाली टीबी काफी अधिक देखी गई। पालमपुर के डॉ. जीसी नेगी कॉलेज ऑफ वेटरनरी एंड एनिमल साइंसेस के शोधकर्ताओं ने छह डेयरियों की 440 गायों की जाँच में पाया कि उनमें से 63, यानी 14.3 प्रतिशत टीबी से पीड़ित हैं। एक फार्म में तो 34 प्रतिशत गायों को टीबी थी। हालाँकि, इस अध्ययन में पशुओं में टीबी के कारक जीवाणु को चिन्हित नहीं किया गया, लेकिन वर्ष 2013 में ट्रांसबाउंड्री एंड इमर्जिंग डिजीजिस जर्नल में प्रकाशित एक अन्य शोध के अनुसार, एम ट्यूबरक्लोसिस जीवाणु पशुओं में भी टीबी (बोवाइन टीबी) का कारण बन सकता है। शोधकर्ताओं ने उत्तर भारत की एक डेयरी में टीबी के संदेह वाले 30 पशुओं के फेफड़ों के टिशू सैम्पल की जाँच में पाया कि उनमें से आठ पशु एम ट्यूबरक्लोसिस से संक्रमित थे। इससे सम्भावना दिखती है कि पशुओं में इस जीवाणु के पनपने के बाद यह दूसरे पशुओं और फिर मनुष्यों में फैल गया होगा।

शोधकर्ताओं ने यह भी पाया है कि मनुष्यों और पशुओं वाले टीबी के रोगाणुओं का मिला-जुला संक्रमण मनुष्यों के साथ-साथ पशुओं में भी हो सकता है। वर्ष 2005 में प्रकाशित एक शोध में आठ प्रतिशत मानव नमूने और 35 प्रतिशत पशुओं के नमूनों में दोनों तरह का संक्रमण पाया गया था। इससे मनुष्यों में पशुओं और पशुओं से मनुष्यों में टीबी संक्रमण के खतरे का पता चलता है।

scan0011जीवाणुओं की ऐसी दोतरफा संक्रमण क्षमता टीबी के खात्मे के लिये गम्भीर चुनौती है। विशेषज्ञों का मानना है कि एक बार बीमारी दूर होने के बाद भी पशुओं से एम बोविस या एम ट्यूबरक्लोसिस जीवाणुओं के जरिये दोबारा टीबी संक्रमण हो सकता है। हालाँकि, इस तरह के संक्रमण को लेकर अभी बहुत कम जागरूकता है।

मनुष्यों से पशुओं में संक्रमण


दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में क्लीनिकल बायोलॉजी और मॉलिक्यूलर मेडिसिन विभाग के अध्यक्ष सरमन सिंह कहते हैं, “पशुओं में टीबी कारक जीवाणु यानी एम बोविस, संक्रमित पशुओं के आस-पास रहने या संक्रमित दुग्ध उत्पादों के सेवन से मनुष्यों में फैल सकता है। कच्चे दूध के बढ़ते इस्तेमाल से आँत में टीबी के मामले बढ़ रहे हैं और इनमें से अधिकतर का कारण एम बोविस जीवाणु है।” हालाँकि, हवा के जरिये इस रोगाणु के पशुओं से मनुष्यों में फैलने की सम्भावना बहुत कम है, लेकिन फेफड़ों में टीबी वाले व्यक्ति के खाँसने या छींकने से यह रोगाणु एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैल सकता है।

वर्ष 2008 में इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च में प्रकाशित एक शोध के मुताबिक, पशुओं में मनुष्यों वाला टीबी रोगाणु (एम ट्यूबरक्लोसिस) आमतौर पर दूषित चारागाह में चरने की वजह से फैलता है। उत्तर प्रदेश के मेरठ छावनी क्षेत्र में एक फार्म पर 161 पशुओं के 768 नमूनों का अध्ययन करने पर शोधकर्ताओं ने दूध के 28.5 प्रतिशत से अधिक नमूनों और लार के सात प्रतिशत नमूनों में एम ट्यूबरक्लोसिस पाया। शोधकर्ताओं का मानना है कि शायद इन पशुओं की देखभाल करने वाले लोगों को टीबी हो, जिन्होंने चारागाह क्षेत्र में जहाँ-तहाँ थूक और पेशाब के जरिये यह बीमारी पशुओं को लगा दी हो। यह बात लन्दन स्थित विंडेयर इंस्टीट्यूट फॉर मेडिकल साइंस में सेंटर फॉर इन्फेक्शिस डिजीजिस एंड इंटरनेशनल हेल्थ के वैज्ञानिक जेएन ग्रान्जे द्वारा एक दशक तक किए अध्ययन में साबित हुई है। यह अध्ययन बताता है कि एक किसान ने चार झुंडों में रहने वाले 48 स्वस्थ पशुओं को उनके बाड़ों में पेशाब कर टीबी से ग्रसित कर दिया था।

एम्स के सरमन सिंह बताते हैं कि भारत के लोगों में पशुओं वाला टीबी संक्रमण (बोवाइन टीबी) लगभग एक प्रतिशत है, जबकि 6-7 प्रतिशत पालतू जानवर (जिनमें मवेशी, चिड़ियाघर के जानवर और पालतू जानवर शामिल हैं) मनुष्यों वाली टीबी से ग्रसित हैं। इससे बचाव और रोकथाम के लिये तत्काल कदम उठाने की आवश्यकता है।

अनुभवों से सीखने की जरूरत


1920 तक पशुओं की टीबी को विकासशील देशों के पालतू जानवरों की बीमारी के तौर पर देखा जाता था। फिर बचाव और रोकथाम के व्यवस्थित उपायों के जरिये किसी तरह इसे फैलने से रोका गया। इन उपायों में पशुओं की त्वचा से टीबी की जाँच, बड़ी तादाद में संक्रमित पशुओं के कत्ल और स्लॉटर हाउस में साफ-सफाई पर जोर देना शामिल था। कई यूरोपीय देशों में तो एक भी जानवर टीबी से ग्रसित पाए जाने पर उनके पूरे झुंड को मार दिया जाता था।

इस मामले में भारत को अन्तरराष्ट्रीय अनुभवों से सीख लेने के साथ-साथ कई चुनौतियों से भी निपटना है। देश में संक्रमित पशुओं की जाँच और उन्हें मारने की कोई मानक प्रक्रिया नहीं है। इस तरह की जाँच काफी महँगी भी होती है। पशुचिकित्सा विशेषज्ञों की कमी और जानवरों की टीबी (जूनोटिक टीबी) के प्रभाव को लेकर अनुसंधान के अभाव के चलते भी यह बीमारी पकड़ में नहीं आ पाती है।

2013 के शोध में शामिल रहे और डिफेंस इंस्टीट्यूट ऑफ बायो-एनर्जी रिसर्च से जुड़े मितेश मित्तल कहते हैं कि पशुओं की टीबी (बोवाइन टीबी) का टीका विकसित करने के लिये अनुसंधान को बढ़ावा देना और जाँच की प्रक्रिया निर्धारित करना आज भारत के लिये बेहद जरूरी हो गया है।