भारत की जीवनदायी नदी गंगा भले ही असंख्य भारतीय मन में माता का दर्जा पाती हो लेकिन जब उसके प्रति प्यार और संवेदना के साथ सोचने की बात आती है तो हम आम भारतीय प्रायः उसकी उपेक्षा ही कर देते हैं। यही कारण है कि सरकार भी इसकी पवित्रता व इसके संरक्षण को लेकर भारतीय मानस से तालमेल बनाने को विवश नहीं होती। सैलानियों से महज कुछ लाख रुपयों का लाभ अर्जित करने के लिए गंगा के उद्गम स्थल गोमुख तक के पर्यटन को बढ़ावा देकर उत्तराखंड सरकार गंगा को उसके मुहाने पर ही प्रदूषित करने पर तुली है। तीन सालों में यहां पहुंचने वाले सैलानियों की संख्या में दोगुना इजाफा हुआ है। इसने पर्यटन बनाम पर्यावरण की नई बहस छेड़ दी है। हिमनद पर्यटन गतिविधियों से गहरे प्रभावित हो रहे हैं। दूसरी ओर बिहार की सरकार गंगा और उसके जलजीवों तथा उसके सौंदर्य को लेकर लगातार काम कर रही है।
गंगोत्री पार्क प्रशासन भले ही इस साल पर्वतारोहण कर गोमुख पहुंचे करीब सोलह हजार लोगों से 28 लाख रुपए से अधिक का राजस्व वसूल कर खुश हो रहा हो लेकिन गंगा के उद्गम क्षेत्र में सैलानियों की तेजी से बढ़ती संख्या ने पर्यावरणविदों व प्रेमियों के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं।पर्यावरण विशेषज्ञों का मानना है कि गोमुख ट्रैकिंग पर बड़ी संख्या में लोगों को भेजकर अपना खजाना भरने में मशगूल राज्य सरकार गंगा के वजूद पर ही संकट खड़े कर रही है। पार्क प्रशासन तीन साल में गोमुख आने वाले पर्यटकों की संख्या में दोगुने इजाफे को ऐतिहासिक सफलता मानकर अपनी पीठ ठोंकने में जुटा है तो पर्यावरणविद् पर्यावरणीय नीति (एथिक्स) पर भारी पड़ रही धार्मिक आस्था और हिमनद (ग्लेशियर) पर पर्यटन के बढ़ते ट्रेंड को लेकर सिर पीट रहे हैं। गोमुख मार्ग में पड़ने वाले बुग्याल अंकल चिप्स के खाली रैपर और बीयर की खाली बोतलों से अटे पड़े हैं। गंगोत्री पार्क प्रशासन गोमुख तक ट्रेक करने के लिए देश-विदेश से पहुंचने वाले लोगों के लिए जुटाए गए हट, टेंट, पेयजल और शौचालय जैसी सुविधाओं को तो अपनी सफलता के रूप में प्रचारित कर रहा है लेकिन उसके पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि गोमुख क्षेत्र में बहुत तेजी से फैल रहे अजैविक कूड़े के निस्तारण के उसने अब तक क्या उपाय किए हैं।गोमुख हिमनद पर पहुंचने वाले धार्मिक यात्री व पर्यटक पर्यावरण को गंभीर नुकसान पहुंचा रहे हैं। सबसे बड़ा खतरा हिमनद क्षेत्र में बढ़ते तापमान से पैदा हो रहा है। यहां आने वाले सैलानियों के कारण भोज वृक्षों की संख्या में लगातार कमी आ रही है। क्षेत्र की जैव विविधता को भी खतरा पैदा हो गया है। चौड़ी पत्ती वाले वृक्षों की संख्या लगातार कम हो रही है क्योंकि उनके पत्तों की खपत बढ़ी है। गोमुख से लगे बुग्यालों में नुकीली पत्ती वाले वृक्ष ही अधिक दिखाई पड़ रहे हैं। पर्यटकों के कारण गंगोत्री रूट में व्यावसायिक गतिविधियां तेज हुई हैं और पर्यावरण बुरी तरह प्रभावित हुआ है। गंगोत्री से लेकर गोमुख तक 18 किलोमीटर के आरोहण मार्ग पर चाय-पानी व खाने-पीने के लिए 300 से अधिक छोटी-मोटी दुकानें खुल गईं जहां कहीं गैस तो कहीं किरासन तेल से स्टोव जलाए गए। पर्यावरण के जानकार इन दुकानों की गतिविधियों को हिमनद के पर्यावरणीय स्वास्थ्य के लिए घातक बता रहे हैं। गंगोत्री पार्क के उपनिदेशक आई.जी. सिंह के मुताबिक गोमुख हिमनद पहुंचने वाले यात्रियों की संख्या प्रतिवर्ष तेजी से बढ़ रही है। इनकी सुविधा के लिए मार्ग में हट व टेंट की व्यवस्था है। खराब मौसम के मद्देनजर यात्रियों के लिए सेल्टर होम भी बनाए गए हैं। हालांकि वे यह नहीं बता पाते कि बढ़ते पर्यटकों के कारण क्षेत्र में फैल रहे अजैविक कूड़े के निपटारे के लिए वे क्या कर रहे हैं।

पर्वतारोही एवं पर्यावरणविद् हर्षवंती विष्ट पहले ही एक अध्ययन के माध्यम से गंगोत्री और गोमुख के लिए बज रही खतरे की घंटी को लेकर आगाह कर चुकी हैं। हर्षवंती विष्ट सहित वैज्ञानिकों के एक दल ने अध्ययन में पाया है कि पिछले डेढ़ सौ सालों में गंगोत्री हिमनद 3.5 किलोमीटर पीछे हट गया है। चौखंबा बेस कैंप में गहन अध्ययन करने वाली इस टीम ने 144 साल पहले ब्रिटेन के फोटोग्राफर सैमुअल वर्न्स द्वारा खींची गई तसवीर और वर्तमान स्थिति का तुलनात्मक अध्ययन किया। अध्ययन से साबित होता है कि 3,982 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह हिमनद 30×4 किलोमीटर लंबा-चौड़ा था जो अब केवल 18 किलोमीटर का रह गया है। तेजी से पिघलते इस हिमनद तक बड़ी संख्या में लोगों की आवाजाही ने गंगा के लिए दोहरा खतरा पैदा कर दिया है। जब उद्गम पर ही गंगा को उत्पीड़ित किया जाएगा तो नदी का भविष्य क्या होगा! ग्लोबल वार्मिंग का असर वैसे भी गोमुख को प्रभावित कर ही रहा है, ऊपर से यह पर्यटन का बूम कोढ़ में खाज का काम कर रहा है। हिमनद का पिघलना एक सतत प्राकृतिक क्रिया है लेकिन जिस तेजी से गंगोत्री हिमनद पिघल रहा है उससे साफ है कि आने वाली सदी से पहले ही दुनिया के चुनिंदा बड़े व खूबसूरत हिमनद अपना वजूद खो देंगे।

भारतीय भूगर्भीय सर्वेक्षण विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक 1935 से 1996 तक गंगोत्री ग्लेशियर के पिघलने की दर औसतन 18.80 मीटर प्रतिवर्ष रही है। केंद्र सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने 1971 से 2004 के बीच किए गए अपने अध्ययन में पाया है कि गंगोत्री हिमनद प्रतिवर्ष 17.15 मीटर की दर से पिघल रहा है। इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज की रिपोर्ट के मुताबिक गंगोत्री हिमनद के प्रतिवर्ष सिकुड़ने की दर 7.3 मीटर है। समझा ही जा सकता है कि एक सदी पहले तक लगभग 30 किलोमीटर क्षेत्र में फैला गंगोत्री हिमनद अब तेजी से सिकुड़ रहा है। प्रसिद्ध पर्वतारोही व पर्यावरणकर्मी हर्षवंती विष्ट के नेतृत्व में गए आईएमएफ के छह सदस्यीय दल ने गंगोत्री धाम से चौखंबा बेस कैंप तक छह महीनों तक किए अपने तुलनात्मक अध्ययन में पाया कि किस प्रकार लगभग 150 सालों में 30 किलोमीटर लंबा और औसतन 4 किलोमीटर चौड़ा यह हिमनद सिमटकर अब केवल 18 किलोमीटर का रह गया है।
टीम ने पाया कि किस प्रकार इन सालों में गंगोत्री ग्लेश्यिर व उससे लगे बुग्यालों की प्रकृति पर भी ग्लोबल वार्मिंग का गहरा असर हुआ है। अध्ययन में पाया गया कि कुछ दशक पहले तक गंगोत्री में जिस स्थान से गंगा का उद्गम है वह स्थान हमेशा बर्फ से ढंका रहता था। केवल जलधारा ही वहां से निकलती दिखती थी लेकिन अब स्थिति यह हो गई है कि गंगा का उद्गम स्थान पूरी तरह से पत्थरों व रेत का मैदान जैसा लग रहा है जिसमें बर्फ काफी पीछे खिसक चुकी है। हिमनद के पिघलने के कारण उभर आए पत्थर और रेत हिमनद की गर्मी और तेजी से बढ़ा रहे हैं। दल ने पाया कि एक बार पीछे खिसकने के बाद दुबारा उस स्थान पर स्थाई बर्फ का जमना बेहद मुश्किल हो रहा है। यही कारण है कि गंगोत्री हिमनद लगातार पीछे खिसक रहा है।

वहीं सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक गंगोत्री हिमनद 1935 से 1956 के दौरान 2530 वर्ग मीटर पिघला। फिर 1956 से 1962 के बीच यह रफ्तार ढाई गुना बढ़ गई और 1962 से 1971 के बीच यह रफ्तार पांच गुना रही। सर्वे ऑफ इंडिया के ताजा अध्ययन में पाया गया है कि वर्तमान में गंगोत्री हिमनद 25,300 वर्ग मीटर प्रतिवर्ष की दर से भी अधिक तेजी से पिघल रहा है। हर्षवंती विष्ट चेतावनी देते हुए कहती हैं कि पूरी दुनिया को इस समस्या के बारे में एकजुट होकर सोचना होगा और प्रकृति से अधिक छेड़छाड़ को रोकना होगा।
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