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मंथन-इंडिया
एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम में खण्डवा के उपभोक्ता फोरम ने दिनांक 31 दिसंबर 2012 में स्थानीय नगरनिगम को आदेश दिया है कि वह पानी के निजीकरण संबंधी नोटिफिकेशन पर प्राप्त समस्त आपत्तियों का निराकरण करें। अगली सुनवाई 22 जनवरी 2013 निर्धारित की गई है।
आपको जानकारी होगी कि खण्डवा (मध्यप्रदेश) में जलप्रदाय का निजीकरण किया जा रहा है। नगरनिगम ने इस संबंध में 3 दिसंबर 2012 को एक अधिसूचना प्रकाशित कर नागरिकों से आपत्ति / सुझाव माँगें हैं निजीकरण के खिलाफ नागरिकों की प्रतिक्रिया उत्साहवर्धक रही। 2 जनवरी 2013 तक 10,334 से अधिक नागरिकों ने पीपीपी, निजीकरण और 24/7 जलप्रदाय के खिलाफ अपनी आपत्तियां दर्ज करवाई है।
इसके पूर्व खण्डवा जिला उपभोक्ता फोरम ने निजी जलप्रदाय कंपनी के भावी उपभोक्ता श्री लक्ष्मीनारायण भार्गव की एक याचिका ग्राह्य की थी। निगम कमिश्नर श्री शोभाराम सोलंकी ने फोरम के समक्ष प्रस्तुत होते हुए तर्क दिया कि आवेदक उपभोक्ता नहीं है क्योंकि वह कर देता है शुल्क नहीं। उन्होंने इस संबंध में मेयर कोलकाता नगरनिगम विरूद्ध तरपदा चट्टर्जी प्रकरण [A.I.R I (1994) C.P.J 99 (N.C)] का न्याय दृष्टांत प्रस्तुत किया।
इसके जवाब में आवेदक के प्रतिनिधि श्री तरुण मण्डलोई द्वारा राकेश के धवन विरुद्ध भारत सरकार प्रकरण [A.I.R III (2008) C.P.J 135], का न्याय दृष्टांत प्रस्तुत किया गया। इसमें वर्षा के पानी जमा होने संबंधी समस्या का निदान न किए जाने पर नगरनिगम को सेवा में कमी का दोषी माना गया है। इस प्रकार नगरनिगम द्वारा प्रदान की जा रही सेवाएं उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 के दायरे में आती है।
इस न्याय दृष्टांत में कर और शुल्क का अंतर भी समझाया गया है। कर वह राशि होती है जो शासन अपने सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति हेतु जनता से वसूलती है इसके विपरीत शुल्क किसी सेवा विशेष के लिए वसूली गई राशि होती है।
निगम कमिश्नर ने यह भी तर्क दिया कि अभी योजना लागू ही नहीं हुई है इसलिए इस समय सेवा में कमी का कोई प्रश्न ही नहीं है। विद्वान न्यायाधीश श्री शैलेन्द्र शुक्ला एवं फोरम सदस्यों सुश्री माया राठौर एवं निर्मल बजाज ने उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 की धारा 2(जी) का उल्लेख करते हुए व्यवस्था दी कि ऐसा व्यक्ति जो किसी सेवा विषेष के पालन हेतु स्वयं को प्रतिबद्ध होना बताता है परन्तु उसके द्वारा प्रदान की जाने वाली आशयित सेवा में भी कोई त्रुटि, कमी, अपर्याप्तता होनी प्रतीत होती हो तो उसे भी सेवा में कमी माना जा सकेगा।
आवेदक ने अधिसूचना में कई कमियों जिनसे उपभोक्ताओं के हितों पर कुठाराघात संभव है का उल्लेख करते हुए उपभोक्ताओं की शिकायतों के निराकरण तक अधिसूचना पर स्थगनादेश की मांग की थी। इस संबंध में कमिश्नर ने स्वयं व्यक्त किया कि 30 दिसंबर 2012 तक प्राप्त आपत्तियों के निराकरण हेतु राज्य शासन को प्रस्ताव भेजा गया है। आपत्तियों के निराकरण उपरांत ही अधिसूचना प्रकाशित होगी।
उपभोक्ता फोरम ने खण्डवा नगरनिगम को आदेशित किया कि वह अधिसूचना के संबंध में प्राप्त समस्त आपत्तियों का निराकरण करने के बाद उसे प्रकाशित करें। इस निराकरण से असंतुष्ट नागरिक उपभोक्ता फोरम या समुचित न्यायालय में प्रकरण प्रस्तुत करने हेतु स्वतंत्र रहेगा।
हमें लगता है कि यह महत्वपूर्ण घटनाक्रम है और यह अन्य स्थानों के लिए भी उपयोगी हो सकता है।
हम इस न्यूज के साथ खण्डवा में पानी के निजीकरण विरोधी अभियान की ताजी घटनाओं के संबंधित कुछ अखबारी कतरने भी आपके अवलोकनार्थ संलग्न कर रहे हैं।
आपको जानकारी होगी कि खण्डवा (मध्यप्रदेश) में जलप्रदाय का निजीकरण किया जा रहा है। नगरनिगम ने इस संबंध में 3 दिसंबर 2012 को एक अधिसूचना प्रकाशित कर नागरिकों से आपत्ति / सुझाव माँगें हैं निजीकरण के खिलाफ नागरिकों की प्रतिक्रिया उत्साहवर्धक रही। 2 जनवरी 2013 तक 10,334 से अधिक नागरिकों ने पीपीपी, निजीकरण और 24/7 जलप्रदाय के खिलाफ अपनी आपत्तियां दर्ज करवाई है।
इसके पूर्व खण्डवा जिला उपभोक्ता फोरम ने निजी जलप्रदाय कंपनी के भावी उपभोक्ता श्री लक्ष्मीनारायण भार्गव की एक याचिका ग्राह्य की थी। निगम कमिश्नर श्री शोभाराम सोलंकी ने फोरम के समक्ष प्रस्तुत होते हुए तर्क दिया कि आवेदक उपभोक्ता नहीं है क्योंकि वह कर देता है शुल्क नहीं। उन्होंने इस संबंध में मेयर कोलकाता नगरनिगम विरूद्ध तरपदा चट्टर्जी प्रकरण [A.I.R I (1994) C.P.J 99 (N.C)] का न्याय दृष्टांत प्रस्तुत किया।
इसके जवाब में आवेदक के प्रतिनिधि श्री तरुण मण्डलोई द्वारा राकेश के धवन विरुद्ध भारत सरकार प्रकरण [A.I.R III (2008) C.P.J 135], का न्याय दृष्टांत प्रस्तुत किया गया। इसमें वर्षा के पानी जमा होने संबंधी समस्या का निदान न किए जाने पर नगरनिगम को सेवा में कमी का दोषी माना गया है। इस प्रकार नगरनिगम द्वारा प्रदान की जा रही सेवाएं उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 के दायरे में आती है।
इस न्याय दृष्टांत में कर और शुल्क का अंतर भी समझाया गया है। कर वह राशि होती है जो शासन अपने सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति हेतु जनता से वसूलती है इसके विपरीत शुल्क किसी सेवा विशेष के लिए वसूली गई राशि होती है।
निगम कमिश्नर ने यह भी तर्क दिया कि अभी योजना लागू ही नहीं हुई है इसलिए इस समय सेवा में कमी का कोई प्रश्न ही नहीं है। विद्वान न्यायाधीश श्री शैलेन्द्र शुक्ला एवं फोरम सदस्यों सुश्री माया राठौर एवं निर्मल बजाज ने उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 की धारा 2(जी) का उल्लेख करते हुए व्यवस्था दी कि ऐसा व्यक्ति जो किसी सेवा विषेष के पालन हेतु स्वयं को प्रतिबद्ध होना बताता है परन्तु उसके द्वारा प्रदान की जाने वाली आशयित सेवा में भी कोई त्रुटि, कमी, अपर्याप्तता होनी प्रतीत होती हो तो उसे भी सेवा में कमी माना जा सकेगा।
आवेदक ने अधिसूचना में कई कमियों जिनसे उपभोक्ताओं के हितों पर कुठाराघात संभव है का उल्लेख करते हुए उपभोक्ताओं की शिकायतों के निराकरण तक अधिसूचना पर स्थगनादेश की मांग की थी। इस संबंध में कमिश्नर ने स्वयं व्यक्त किया कि 30 दिसंबर 2012 तक प्राप्त आपत्तियों के निराकरण हेतु राज्य शासन को प्रस्ताव भेजा गया है। आपत्तियों के निराकरण उपरांत ही अधिसूचना प्रकाशित होगी।
उपभोक्ता फोरम ने खण्डवा नगरनिगम को आदेशित किया कि वह अधिसूचना के संबंध में प्राप्त समस्त आपत्तियों का निराकरण करने के बाद उसे प्रकाशित करें। इस निराकरण से असंतुष्ट नागरिक उपभोक्ता फोरम या समुचित न्यायालय में प्रकरण प्रस्तुत करने हेतु स्वतंत्र रहेगा।
हमें लगता है कि यह महत्वपूर्ण घटनाक्रम है और यह अन्य स्थानों के लिए भी उपयोगी हो सकता है।
हम इस न्यूज के साथ खण्डवा में पानी के निजीकरण विरोधी अभियान की ताजी घटनाओं के संबंधित कुछ अखबारी कतरने भी आपके अवलोकनार्थ संलग्न कर रहे हैं।