भारत विश्व के कुछ ही देशों में है जहां सर्वोच्च बिजली उत्पादन करने की क्षमता है। आज देश में कुल उत्पादन की क्षमता 399‚ 497 मेगावाट है‚ जो सामान्य रूप से अपनी मांग को पूरा कर सकता है। फिर आज यह समस्या क्योंॽ अचानक कोयले की कमी से यह कैसे हो गयाॽ क्या कोयला ही बिजली बनाता हैॽ नहीं‚ पनबिजली से 46723 मेगावाट‚ सौर‚ पवन और गैर–परंपरागत तरीके से 109‚885 मेगावाट और नाभिकीय बिजली से 6780 मेगावाट क्षमता है। निश्चित ही पूरी क्षमता का उपयोग करने की जरूरत कम ही होती है‚ जब स्थिति सामान्य होती है।
शायद ही कोई राज्य है‚ जो ऊर्जा संकट से ग्रस्त न हो। आंध्र प्रदेश‚ गुजरात‚ तमिलनाडु‚ उत्तर प्रदेश‚ उत्तराखंड‚ झारखंड‚ बिहार‚ महाराष्ट्र‚ हरियाणा‚ दिल्ली‚ पंजाब सभी पीडि़त हैं। बिजली की सप्लाई 1.88 अरब यूनिट अचानक अप्रैल में कम हो गई। असामान्य स्थिति अक्टूबर से ही चल रही है‚ और हर बार कोयला ही विलेन बन रहा है। तब तो यूक्रेन का युद्ध भी शुरू नहीं हुआ था। अब तो कुछ भी हो कहा जाता है कि युद्ध की वजह से समस्या है पर हमें देश के अंदरूनी हालात को देखना चाहिए। पनबिजली उत्पादन के लिए पानी को बचाने की कोशिश की जाती और जब शाम को मांग ज्यादा होती है‚ तब उसका उत्पादन ज्यादा किया जाता। सौर और गैर–परंपरागत बिजली की कई समस्याएं हैं। हर वक्त एक ही जैसा उत्पादन संभव नहीं होता। गैर–परंपरागत ऊर्जा की नीतियों में कई प्रकार के परिवर्तन होते रहते हैं। इससे अभी उसका उत्पादन बढ़ाने में कुछ व्यवधान भी आ रहा है। इसलिए बढ़ी हुई मांग पूरी नहीं हो पा रही।
पनबिजली पर आश्रित देश
विश्व में तीन ही देश हैं‚ अल्बानिया‚ आइसलैंड़ और पैराग्वे‚ जो पूर्णतः पनबिजली और गैर–परंपरागत स्रोत से अपनी मांग पूरी करते हैं। भारत के लिए यह संभव नहीं है। औद्योगिक मांग सामान्य रूप से कोयले से ही पूरी हो पाती है। भारत कोयले का आयात भी करता है‚ पर विश्व बाजार में कोयले के दाम बेतहाशा बढ़ने से एनटीपीसी ने आयात कम किए। अभी फिर इंडोनेशिया से आयात करने की बात की जा रही है पर उसमें भी कुछ समस्या आ सकती है। इसलिए ऑस्ट्रेलिया से जल्द कोयला आयात किया जाए। उसमें एक फायदा भी है। कुछ भारतीय कंपनियों ने ऑस्टे्रलिया में कोयले की खदानें खरीदी हैं। उम्मीद है कि उनसे यह आसानी से उपलब्ध होगा पर दाम तो बढ़े हुए ही देने पड़ेंगे। वर्तमान में कोयले का आयात मूल्य 12397 रुपये है। कुछ महीने पहले यह 500 से 9560 तक था। डॉलर के दाम बढ़ने से दामों में इजाफा और ज्यादा हो रहा है। इससे बिजली भी महंगी हो रही है। कानूनन कोई भी डिस्ट्रीब्यूशन कंपनी 12 रुपये तक प्रति यूनिट मूल्य ले सकती है।
तो समस्या कहां हैॽ कोयला के दाम बढ़ते रहने से बिजली कंपनियों ने आयात बहुत कम कर दिया था। अब अगर आयात करना पड़े़गा तो उनके खर्च 4 से सात प्रतिशत बढ़ जाएंगे। खुदरा बिक्री कंपनियां या डिस्कॉम इस कड़ी में सबसे बड़ी समस्या है। इन कंपनियों ने 1.21000 करोड़ रुपये का भुगतान जनरेशन कंपनियों को नहीं किया है। पिछले साल उनकी देनदारी 1‚17000 करोड़ रुपये थी। इस प्रकार बिजली उत्पादन कंपनियां भी कोल इंडिया को अपना बकाया चुका नहीं पा रही हैं। रेलवे का बकाया भी बहुत बढ़ गया है। अभी रेलवे लगातार कोयले की ट्रेन चला रही है। इस वजह से लगभग 1200 पैसेंजर ट्रेन कैंसिल करनी पड़ी यानी बिजली क्षेत्र की समस्या रेलवे की समस्या भी बन सकती है। बिजली मंत्रालय का कहना है कि बिजली कंपनियों को कोल इंडिया को 15‚097 रुपये जनवरी में देने थे। यह अब और बढ़ गया है क्योंकि पूरी बिजली व्यवस्था संकट में है।
सौर क्षेत्र भी किसी भी वक्त चरमरा सकता है। डिस्कॉम को उन्हें 200 अरब रुपये देने हैं। सौर क्षेत्र वैसे भी रोज नई तकनीक‚ बैटरी व्यवस्था‚ ठंड़ में धुंध और नित नये सरकारी नियमों के परिवर्तन से समस्याग्रस्त है। प्रधानमंत्री की अंतरराष्ट्रीय मैत्री भी अच्छे हाल में नहीं है। मुद्रास्फीति और रु पये के अवमूल्यन से सौर क्षेत्र के निवेश और ऑपरेशन के दाम निरंतर बढ़ रहे हैं। इन हालात में सरकार को समाधान ढूंढने पड़ेंगे। कोयले का उत्पादन बढ़ाने की योजना को लागू करने में कई साल लग जाते हैं‚ यह भी वर्तमान संकट का एक कारण है।
नीतिगत समस्या भी है
एक और समस्या नीतिगत रूप से हमने खड़ी की है। अमेरिका‚ विश्व बैंक और क्लाइमेट परिवर्तन संस्थाओं के दबाव में शुन्य कार्बन उत्सर्जन के लिए सभी परिवहन‚ व्यापार‚ ऑफिस‚ उद्योग सिर्फ बिजली से चलाने की कोशिश करते हैं‚ तो भी बिजली क्षेत्र पर बोझ बढ़ता है। हमें पेट्रोल‚ कोयला‚ डीजल‚ गैर–परंपरागत ऊर्जा सभी का प्रयोग करना चाहिए। रेलवे में मिश्रित व्यवस्था थी पर अब सारी ट्रेन अगर बिजली से चलाई जाएंगी तो समस्या बढ़ेगी।
डीजल सस्ता होता है‚ और उसका उपयोग खुल कर करना चाहिए। ऊर्जा के विभिन्न स्रोतों का इस्तेमाल करते रहने से बिजली पर इतना बोझ नहीं पड़ेगा। डीजल की गाड़ियों के उपयोग से पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं होता पर पेट्रोल कंपनियां अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए इस तरह के भ्रम पैदा करती हैं। हमें अपने विकसित होने का भ्रम भी हटा देना चाहिए और बिजली या बैटरी कार की बजाय डीजल की कारों को 40 साल तक चलाने की अनुमति देनी चाहिए। आयातित लिथिओ बैटरी महंगी हैं‚ उत्पादन कम है‚ और चाÌजंग में बिजली के उपयोग से समस्याएं बढ़ेंगी। अभी बिजली की गाड़ियों को बढ़ावा देना देश हित में नहीं है। इन गाड़ियों का सिस्टम कहीं भी बैठ सकता है। आग उनमें लगती ही हैं। बिजली की गाड़ी कार्बन न्यूट्रल नहीं होतीं। बिजली संकट पिछले 20 दिनों से लगातार कोयला स्पेशल ट्रेन चलने से कुछ कम हो रहा है पर रेलवे अधिक दिनों तक स्पेशल चला नहीं पाएगी। बिजली क्षेत्र की आÌथक व्यवस्था को सही करना पड़ेगा। समस्या का पूरा समाधान नवम्बर तक हो सकता है पर कड़ियां और भी जोड़नी पड़ेगी। संकट अभी है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।