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उत्तराखंड उदय- 2015, अमर उजाला
स्कन्द पूराण में मानस खंड और केदारखंड के रूप में उत्तराखण्ड का उल्लेख है। पौराणिक ग्रंथो के अनुसार पहले गढ़वाल क्षेत्र को तपोभूमि स्वर्गभूमि और केदारखंड के नाम से पुकारा जाता था। इसी तरह स्कन्द पुराण के मानस खंड व अन्य पौराणिक साहित्य में मानस खंड के नाम से वर्णित क्षेत्र वर्तमान कुमाऊ मंडल ही है।
पौराणिक ग्रंथों और महाकाव्यों में मध्य हिमालय क्षेत्र का विस्तृत वर्णन मिलता है। स्कन्द पुराण के केदारखंड में गढ़वाल और मानस खंड में कुमाऊ का विस्तृत वर्णन है। हरिद्वार से हिमालय तक के विस्तृत क्षेत्र को केदारखंड और नंदा देवी पर्वत से कालागिरी तक के क्षेत्र को मानस खंड कहा गया है। एक तरह से नंदा देवी पर्वत इन दोनों खण्डों की विभाजन रेखा पर स्थित है। बौद्ध धर्म के पालीभाषा वाले ग्रंथो में इसे हिमवंत प्रदेश कहा गया। इस क्षेत्र को देव-भूमि भी कहा गया है। पौराणिक ग्रंथो में कई प्रसंगों का जिक्र आता है। उत्तराखण्ड के आद्य इतिहास के स्रोत पौराणिक ग्रंथ ही हैं। इनके आधार पर ही कई पौराणिक कथाएं जन मानस में सुनी सुनाई जाती रही हैं। ऋग्वेद में उत्तराखण्ड का प्रथम उल्लेख मिलता है। पौराणिक कथाओं में पांडवों के इस क्षेत्र में आने की बात कही जाती है। मान्यता है कि भगवान राम ने देवप्रयाग में आकर तपस्या की थी। राजा सुबाहु ने पांडवों की ओर से युद्ध में भाग लिया था। कथाओं में आता है कि जौनसार के राजा विराट की बेटी उत्तरा से अभिमन्यु क विवाह हुआ था। मालिनी नदी के तट पर कण्वाश्रम दुष्यंत-शकुंतला के प्रेम प्रसंग से जुड़ा है। ग्रंथों में कहा गया है कि शंकुंतला ने अपने यशस्वी पुत्र भरत को इसी आश्रम में जन्म दिया।
उत्तराखण्ड में प्रागैतिहासिक कल में मानव जाति निवास करती थी। इसकी पुष्टि राज्य के विभिन्न स्थलों से प्राप्त गुफा, शैल चित्र, कंकाल धातु उपकरण से पता चलता है। पुरातत्व की खोज में लाखू गुफा, ग्वारखा गुफा, फलसीमा, हुडली, मलारी आदि गाँव में कई तरह के अवशेष मिले हैं। माना जाता है कि तब लोग ऊंचे पर्वतों में रहते थे। विद्वानों का कहना है कि यहाँ यक्ष, गंदर्भ, नाग, किरात, हुण आदि कई जातियां ने शासन किया। लेकिन इनका कोई भी अभिलेख उपलब्ध नहीं है। ईसा से कुछ सदी पूर्व तक कुर्णिद जाति के शासन की बात स्पष्टता के साथ कही जाती है। जिसे बाद में शकों ने परास्त किया। यह भी संभव है कि किसी शक जाति के कुषाण का साम्राज्य समस्त उत्तरी भारत में रहा हो। जिसमें आज का उत्तराखण्ड भी उसके अधिकार क्षेत्र में आ गया हो। लाखू गुफा में मानव और पशुओं के चित्र, लाखू के बारहसिंगा लोमड़ी के चटकदार रंग, मलारी में मिले नर कंकाल और मिटटी के बर्तन, पेटशाल की नृत्यरत मानवकृतियाँ उस दौर को अभिव्यक्त करती हैं।
पिथौरागढ़ के पास इसी काल की ताम्र मानवकृतियाँ मिली हैं। यह माना गया है कि इस काल में मनुष्य ऊंचे पर्वतों में गुफाओं में रहता था। उसने अपनी गुफाओं को सुन्दर चित्रों से सजाया। वह कंद मूल फल खाता था। शिकार भी करता था। यहाँ की प्राचीन जातियों में खास जाति को आर्य बताया गया है। जिनका मूल स्थान कुमाऊं गढ़वाल थी था। हिमालय के खस शस्त्र चालन में निपुण थे। कहा जाता है कि ईरान के प्रसिद्ध राजा जारा, और कई भारतीय सम्राटों को खस जाति की सैन्य सेवा उपलब्ध थी। किरातों की शारीरिक बनावट चीनियों की तरह थी। उनका रंग पीला था। कालिदास ने अपनी रचना ‘कुमार संभव’ में भागीरथी के निकट रहने वाली जातियों को किरात कहा था। कुछ विद्वान पिथौरागढ़ के डीडीहाट और अस्कोट स्थानों में बनरौत जाति के लोगों को इन्ही किरातों से जोड़ते हैं। किरातों के साथ नागों का भी खास प्रभाव रहा है। नागों का शासनकाल कत्यरियों से 2500 ईसा पूर्व का मानते हैं। कहा जाता है कि उत्तराखण्ड में जब खस जाति का उदय हो रहा था, तो नागों का सूर्यास्त हो रहा था। नाग जाति का उत्तराखण्ड की अलकनंदा घाटी में खासा प्रभाव रहा। कई विद्वान् उत्तराखण्ड में नागों का सम्बन्ध कृष्ण से भी जोड़ते हैं। नागपंथी योगियों का सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में अपने ढंग का योगदान रहता था। उत्तराखण्ड में आज भी नागपूजा का खास महत्त्व है। सेम मुखेम, पुष्कर नाग, रंवाई में कालिंग नाग, नेलंग घाटी में लोदिया नाग आदि चर्चित हैं। कुमाऊं में बेनीनाग, कालीनाग दौलीनाग, पिंगलनाग प्रसिद्द हैं। कुनिंद ईसा से 500 वर्ष पूर्व भारतीय आर्यों की एक सशक्त जाति थी।
राज्य के अति प्राचीन समय यानि आद्य काल के साक्ष्य नही हैं। इसके प्रमुख स्रोत धार्मिक और पौराणिक ग्रन्थ हैं। आद्य ऐतिहासिक काल का समय चतुर्थ शताब्दी से ऐतिहसिक काल तक माना गया। इस समय के आते-आते लोगों ने लौह धातु, कृषि पशुपालन और ग्रामीण नगरीय व्यवस्था को जान लिया था। खासकर ऋग्वेद में उत्तराखण्ड को देवभूमि कहा गया है। इसी समय का वेदों, रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथों में भी उत्तराखण्ड का अलग-अलग रूपों में उल्लेख हुआ है। रामायण और महाभारत में उत्तराखण्ड के जगजीवन का वर्णन मिलता है। राजा रघु, किरात कांबोज और हूण जातियों का युद्ध, महाभारत युद्ध में गढ़वाल के शक्तिशाली राजा सुबाहु का भाग लेना, जौनसार के राजा विराट की बेटी उत्तरा का अभिमन्यु से विवाह होने का वर्णन मिलता है। उत्तराखण्ड में आज भी जौनसार क्षेत्र की जनजातियों अपने को पांडवों की वंशज मानती हैं। उनके अलावा उत्तराखण्ड के सीमान्त क्षेत्र की भोटिया, थारू, बोक्सा जनजातियाँ भी अपने को कुछ प्राचीन जातियों के वंशज के रूप में मानती हैं। स्कन्द पुराण में मानस खंड और केदार के रूप में उत्तराखण्ड का उल्लेख मिलता है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार, पहले गढ़वाल क्षेत्र को तपोभूमि, स्वर्गभूमि और केदारखंड के नाम से पुकारा जाता था। इसी तरह कुमाऊं का उल्लेख स्कन्द पुराण के मानसखंड व अन्य ग्रंथों में मिलता है। इन ग्रंथों में कहा गया है कि महाभारत काल में यहाँ किन्नर, यक्ष, खस आदि जातियां निवास करती थीं। यहाँ नाग जाति के लोगों के होने का भी उल्लेख है। इस दौर के कई शिलालेख प्राप्त हुए हैं। कालसी में यमुना और टोंस के संगम पर अशोक ने एक अभिलेख स्थापित कराया। प्रथम और दूसरी सदी की कुषाणकालीन मुद्राएँ सुमाडी गाँव में मिली हैं।
कुछ प्रमाण ऐसे मिलते है जिनके आधार पर कहा जाता है कि उत्तराखण्ड में ईसा पूर्व 345 से 184 तक मौर्यों का भी शासन रहा। इस दौरान यह क्षेत्र बौद्ध प्रभाव में था। चन्द्रगुप्त मौर्य ने यहाँ की किरात और कुछ जातियों को अपनी सेना में शामिल किया था। इसी तरह सम्राट अशोक का भी इस क्षेत्र में प्रभाव रहा है। मध्य भारत में कुनिंद बहुत समय तक अपना प्रभाव बनाये रखे। कांगड़ा और पंजाब में तो शक्तिशाली कुनिंद राजा के सिक्के मिले ही, गढ़वाल में भी उनके सिक्के मिले हैं। कुनिंद जाति उत्तराखण्ड में शासन करने वाली पहली राजनीतिक शक्ति थी। उत्तराखण्ड में तीसरी-चौथी सदी तक इनका शासन रहा। कुछ अभिलेख इस आशय के भी मिलते हैं कि कुनिंद मौर्यों के अधीन थे। कुनिंदों के प्रसिद्द राजा अमोघभूति ने अपने सिक्के भी चलाये। धीरे-धीरे शकों ने इनके इलाकों में अपना प्रभाव जमाया। कुमाऊं क्षेत्र में सूर्य मंदिर एवं मूर्तियाँ इनके अधिकार को साबित करती हैं। खासकर अल्मोड़ा के पास कटारमल सूर्य मंदिर का उल्लेख किया जा सकता है। उत्तराखण्ड के इतिहास के पड़ाव में हर्षकालीन चीनी यात्री ह्वेनसांग का हरिद्वार आना महत्त्व रखता है। माना जाता है कि छंठी शताब्दी में इस इलाके में बौद्ध का प्रभाव था। इसके बाद उत्तराखण्ड में छोटे-छोटे शासकों के उथल-पुथल का दौर है। छोटे छोटे राजाओं ने गढ़ों की स्थापना की। 700 ईसवी के आसपास उत्तराखण्ड में कार्तिकेयपुर राजवंश की स्थापना हुई। करीब तीन सौ साल तक इस वंश का शासन चला। शुरू में इस वंश की राजधानी जोशीमठ के पास कार्तिकेयपुर थी। बाद में कत्यूर घाटी स्थित बैजनाथ में राजधानी बनी। करीब 1030 तक यह राजवंश चला। कर्तिकेयपुर शासन के समय आदिगुरू शंकराचार्य उत्तराखण्ड आये। बद्री केदार मंदिरों के पुनुरुद्धार के साथ ज्योतिर्मठ की स्थापना की। कर्तिकेयपुर राजाओं के समय प्रजा हित में बहुत काम हुए।
मध्य काल
ताम्र पत्रों में गढ़वाल के शासकों का उल्लेख आठवीं सदी से उपलब्ध है। हालांकि उस समय गढ़वाल और कुमाऊं अलग भू-भाग नहीं थे, न ही इन क्षेत्रों का स्पष्ट नाम है। इतिहासकार कत्यूरियों का शासन गढ़वाल में सन 700 से 1050 तक मानते है। कत्यूरियों की शासनकाल की अवधि को लेकर विद्वानों में थोड़ा मतभेद भी है। एक धारणा यह भी है कि कत्यूरी राजवंश ने 750 से 1223 तक पूरे उत्तराखण्ड में एकछत्र राज किया। लोकगाथाओं और अवशेषों में कत्यूरियों के शासन को लेकर कई गाथाएँ कही गयी हैं। कुमाऊं में चंद्र वंश और गढ़वाल में पंवार वंश के जरिये सत्ता को अपने प्रभाव में लेने से पहले यहाँ कत्यूरियों का बोलबाला रहा। कत्यूरियों की लोकभाषा संस्कृत थी और आम व्यव्हार में पाली भाषा प्रचलन में थी। कत्यूरियों के शासन के अंतिम समय में कत्यूरी सामंत और खस सरदार स्वतंत्र होने का प्रयास कर रहे थे। उल्लेख किया जाता है कि हिमालय से रूहेलखंड तक फैला कत्यूरी शासन बहुत मजबूत था। कत्यूरियों का चौन्दकोट की तीलू रौतेली के साथ युद्ध के प्रसंग का खास उल्लेख किया जाता है। वीरांगना तीलू अपनी पहचान छिपाकर मर्दाना सैनिक वेश में युद्ध लड़ी थीं। कुमाऊं में जिया रानी की गाथा को भी इसी तरह याद किया जाता है।
उत्तराखण्ड में नेपाल के राजा अशोकचल्ल ने 1191 में आक्रमण किया। लगभग उस समय जब मुहम्मद गोरी दिल्ली के तख़्त को जीतने के लिए तराइन का पहला युद्ध कर रहा था। नेपाल नरेश ने उत्तराखण्ड के राजाओं की आपसी लड़ाई और भूकंप से लड़खड़ाए उत्तराखण्ड पर आक्रमण किया। अशोकचल्ल ने काफी भूमि पर कब्ज़ा किया। 1223 में नेपाल का फिर उत्तराखण्ड पर आक्रमण हुआ। कुमाऊं में चंद और कत्यूरियों के बीच सत्ता का संघर्ष चलता रहा। बिखरे कत्यूरी टिक तक नहीं पाए। थोहरचंद ने जिस चंदराज वंश (1216 ई.) की नींव डाली थी। उसका 16वीं शताब्दी तक आते पुरे कुमाऊं में अधिकार हो गया। चंद राजाओं ने शुरू में अपनी राजधानी चम्पावत को बनाया। बाद में अल्मोड़ा राजधानी बसाई गयी। यह राजवंश शक्तिशाली था। इसके समय तिब्बत के हमलों का भी जबाब दिया गया। चंद राजाओं ने कला, विज्ञान और धर्म के क्षेत्र में बढ़-चढ़ कर काम किया। चंद राजाओं ने ही ग्राम प्रधान की नियुक्ति और भूमि निर्धारण प्रणाली की शुरुआत की थी। शाहनामा और जहांगीरनामा में चंद राजाओं के मुग़ल सत्ता से नजदीकी के प्रमाण मिलते हैं। कुमाऊ में राजा कल्याणचंद के समय 1744 में नबाब अली मुहम्मद खां ने अपने तीन सरदारों के नेतृत्व में करीब दस हजार रुहेलों की सेना कुमाऊं पर आक्रमण के लिए भेजी। करीब चालीस वर्ष तक कुमाऊं रुहेलों से संघर्ष करता रहा। इस वंश के राजा महेंद्र वंश 1790 में नेपाल के गोरखाओं के हाथों पराजित हो गया। इसके बाद कुमाऊं क्षेत्र में गोरखाओं का अधिकार हो गया।
इसी तरह गढ़वाल में 9वीं शताब्दी तक ठकुरी राजाओं का शासन था। इन राजाओं ने अपने गढ़ बनाये हुए थे। इनमें चांदपुरगढ़ी का खासा प्रभाव था। 887 ईसवी में धार (गुजरात)का खासा शासक कनकपाल उत्तराखण्ड आया। चांदपुर गढ़ी के राजा भानुप्रताप ने कनकपाल का बहुत स्वागत किया और उसके साथ अपनी लड़की की शादी कर उसे अपना दामाद बना लिया। कनकपाल के जरिये वर्ष 888 में परमार वंश की नीव पड़ी। यह वंश 1947 तक चला और परमार वंश के साठ राजाओं ने शासन किया। बीच में कुछ साल गोरखाओं ने अपनी सियासत रखी। परमार शासकों को लोधी वंश के शासक बहलोल लोदी ने शाह की उपाधि ने नवाजा था। परमार शासन के समय की गाथाओं में उस प्रसंग का जिक्र किया जाता है, जब शाहजहाँ के सेनापती नजावत खां ने दून पर आक्रमण किया। महारानी कर्णावती ने अपनी सूझबूझ के साथ मुगल सैनिकों को पकड़वाकर उनके नाक कान काट लिए थे। इसके बाद उनका नाम नाककटी रानी के रूप में विख्यात हुआ। परमार राजा पृथ्वीपति शाह ने दाराशिकोह के पुत्र सुलेमान शिकोह को अपने यहाँ संरक्षण दिया था। परमार राजा कला प्रेमी थे। परमार वंश में चित्रकला, महल निर्माण, वास्तुशास्त्र पर उल्लेखनीय काम हुआ। मौलाराम तोमर की चित्रकला विख्यात है।
गढ़वाल पर गोरखों का पहला आक्रमण 1791 में हुआ। तब गोरखा पराजित हुए। 1803 में अमर सिंह थापा और हस्तीदल चौतरिया के नेतृत्व में गोरखाओं ने भूकंप से त्रस्त गढ़वाल पर फिर आक्रमण किया। गोरखाओं और गढ़वाल नरेश के बीच खुड़बुड़ा में संघर्ष हुआ। जिसमें राजा प्रद्दुम्न शाह ने वीरगति पायी। 1814 तक का गोरखाओं का शासन घोर अत्याचार के लिए जाना जाता है। आखिर प्रद्दुम्न शाह के बेटे सुदर्शन सिंह की मांग पर अंग्रेज गवर्नर जनरल होस्तिन्ग्ज ने सेना भेजी। अंग्रेजों की मदद से राजा ने गढ़वाल राज्य को गोरखों से मुक्त कराया। लेकिन बिहार में संगोली की संधि के तहत अंग्रेजों ने आधा राज्य ले लिया। इसके तहत गंगा के एक तरफ का गढ़वाल का पूर्वी भाग का आधा हिस्सा ले लिया। टिहरी का क्षेत्र राजा के पास आया। टिहरी को श्रीनगर की जगह नई राजधानी बनाया गया। पंवार वंश के राजा 1949 तक रियासत को संभाले रहे। टिहरी रियासत के साथ श्रीदेव सुमन के 84 दिन के अनशन के साथ बलिदान और उससे पहले तिलाड़ी कांड का भी जिक्र इतिहास के पन्नो में है।
स्वतंत्रता आन्दोलन
स्वतंत्रता आन्दोलन की लड़ाई की आँच पहाड़ों तक भी पहुंची। आजादी के लड़ाई के समय उत्तराखण्ड की भी सराहनीय भूमिका रही है। एक तरफ दलितों के हित में डोला पाल आन्दोलन, कुली बेगार जैसे सामाजिक आन्दोलन हुए, तो वहीँ कालू सिंह मेहरा के गुप्त संगठन क्रांतिवीर संघर्ष की गाथा है। 1857 में हल्द्वानी में एक हजार क्रांतिकारियों ने कब्ज़ा किया। वन नीति पर जन आन्दोलन चले। वर्ष 1903 में पीड़ित गोबिंद बल्लभ पन्त ने राजनीतिक चेतना के लिए हैप्पी क्लब बनाया। दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद महात्मा गाँधी कुछ दिन प्रवास के लिए देहरादून भी गये थे। राजनीतिक सामाजिक चेतना का लौ जल रही थी, इसी बीच गोबिंद बल्लभ पन्त, हरगोविंद पन्त और बद्रीनाथ पांडे के प्रयासों से 1916 में कुमाऊं परिषद् का गठन हुआ। आगे चलकर यह कुली बेगार, जंगलात कानून जैसे कई मामलों में इस संगठन ने अपनी भूमिका निभाई। बाद में यह संगठन आजादी की लड़ाई के लिए समर्पित हो गया। इसी तरह गढ़वाल में मुकुन्दी लाल बैरिस्टर और अनुसूया प्रसाद बहुगुणा ने गढ़वाल कांग्रेस कमेटी बनाई।
असहयोग आन्दोलन में सहभागिता के तौर पर 1921 में उत्तरायनी के मेले में बद्रीदत्त पांडे ने बागेश्वर में सरयू के तट पर हरगोविंद और चिरंजी लाल ने 40 हज़ार स्वतंत्रता सेनानियों के साथ कुली बेगार न करने की शपथ ली। सभी रजिस्टर जल धारा में बहा दिए। 23 अप्रैल 1930 को पेशावर कांड के नायक गढ़वाल राइफल्स के चंद्र सिंह गढ़वाली ने हुन्कार भरी कि निहत्थे अफगान भाइयों पर कोई गोली न चलायेगा। पेशावर काण्ड के नायक भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा गया है। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान विश्नी शाह ने नगरपालिका में तिरंगा फहरा दिया था। कुंती वर्मा से जूझना अंग्रेज सरकार के लिए मुश्किल हो गया। लिहाजा उन्हें जिन्दा या मुर्दा पकड़ने का फरमान सुना दिया गया। सरला बहन और कमला बसंती के सर्वोदय के प्रचार-प्रसार पूरे पहाड़ में चेतना जगा रहे थे। इसी समय टिहरी राज्य आन्दोलन भी शुरू हुआ।
1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन में उत्तराखण्ड के विभिन्न इलाकों में संघर्ष कर रहे लोगों को गिरफ्तार किया गया। बताया जाता है कि 9 अगस्त, 1942 को अल्मोड़ा, नैनीताल और देहरादून में जुलूस निकले गये। आजादी के बिगुल की गूँज गाँव-गाँव पहुंची। आजादी की लड़ाई में रास बिहारी बोस भी देहरादून में सक्रिय रहे। यहीं लार्ड हार्डिंग पर बम फेंकने की योजना बनी थी। यहाँ दो आन्दोलनकारियों को फंसी भी दी गयी। देहरादून की जेल में पंडित जवाहर लाल नेहरु, बद्री दत्त पांडे, नरदेव शास्त्री और महावीर त्यागी जैसे नेता गिरफ्तार हुए। उत्तराखण्ड की धरती पर कोटद्वार में चंद्रशेखर आजाद ने गुप्त रूप से निशाना लगाने का अभ्यास किया था। उत्तराखण्ड के स्वतंत्रता आन्दोलन में गुमानी पन्त, कृष्ण पांडे, भगवती शरण निर्मोही, भवानी दत्त थपलियाल, आदि कवियों का भी योगदान है। इससे पहले 1939 में श्रीदेव सुमन, दौलत राम, नागेन्द्र सकलानी और वीरचन्द्र सिंह गढ़वाली के प्रयासों से प्रजामंडल की स्थापना हुई थी। श्रीदेव सुमन के बलिदान की गाथा जन-जन में कही जाती है। देश हालांकि 15 अगस्त 1947 को आजाद हो गया था। लेकिन यहाँ 1948 में राज सत्ता के खिलाफ आन्दोलन हुआ ।
आजादी मिलने के बावजूद टिहरी राजशाही और सामंतवाद के खिलाफ संघर्ष चल रहा था। मोलू भरदारी और नागेन्द्र सकलानी ने अपने सीने पर गोलियां खाईं। आजादी की लड़ाई में सामाजिक और राजनीतिक आन्दोलन की अलख जगी कि आने वाले समय में पहाड़ों में गौरा देवी जन्मी, जो रैणी के जंगलों को बचने के लिए अपनी महिला साथियों के साथ पेड़ों से लिपट गई थीं।