उत्तराखंड नदियों और प्राकृतिक संपदाओं का राज्य है। गंगा और यमुना जैसी सैंकड़ों बड़ी और पवित्र नदियों का उद्गम उत्तराखंड से ही होता है। कई छोटी छोटी नदियां भी यहां जंगलों के बीच से बहती हैं। इन बड़ी नदियों में प्रवाह को बनाए रखने में छोटी नदियों का अहम योगदान होता है। इन अधिकांश छोटी नदियों का उद्गम जंगलों के बीच से होता है, यानि यें वन आधारित नदियां होती हैं, जो फिर किसी अन्य नदी के साथ मिल जाती है। इन्हीं में टिहरी गढ़वाल जिले के सुरकुंडा देवी और नागदेवता मंदिर के समीप पुजार गांव के पास से बहने वाली बारहमासी ‘हेवल नदी’ भी शामिल है। पुजार गांव ही हेवल नदी का जलग्रहण क्षेत्र है। ये गंगा की सहायक नदी है। करीब 167 गांवों के एक लाख से ज्यादा लोगों की प्यास नदी ही बुझाती है। सिंचाई के लिए नदी पर निर्भर होने के कारण लोगों के लिए हेवल नदी आजीविका का भी माध्यम है, लेकिन कभी पूरे साल कल-कल निनाद करते हुए बहने वाली ये नदी आज सूखने की कगार पर पहुंच चुकी है। जिससे लोगों के सामने आजीविका का संकट गहरा रहा है। इस समस्या को देख वन विभाग भगीरथ बनकर नदी को बचाने के प्रयास में जुट गया है।
सुरकुंडा देवी मंदिर समुद्र तल से 2759 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यहां पुजार गांव हेवल नदी का जलग्रहण क्षेत्र है। यहीं से नदी 49.2 किलोमीटर का सफर तय कर शिवपुरी में घड़ीसेरा नामक तोक के पास गंगा नदी में मिल जाती है। नवापानी धारा, पुजारखोली धारा, अंधियारी धारा, चारी धारा, साज धारा, मुंडलखिल धारा, संग्राणी धारा, पानीकोट धारा, बेलापानी धारा, पीपलपानी धारा, खागसी धारा, बुरांसखली धारा, कोडीखाला धारा, तोरियाडा धारा, चोपिड़िया धारा, भैंसखोली धारा एंव काखेला धारा आदि से हेवल नदी को जल उपलब्ध कराते हैं। तो वहीं खुरेत गाड़, गजंर खाला, अंधियारी खाला, पुजाल्डी गाड़, स्वारी गाड़, नागनी गाड़, उदखंडा गाड़, नौर बसौई गाड़, बागी गाड़, मठियानगांव गाड़ आदि के माध्यम से बहकर टिहरी जिले में एक महत्वपूर्ण नदी के रूप में बहती है।
वर्ष 1986 में पर्वतीय परिसर रानीचौरी के लिये पहली बार हेवल नदी से पानी पम्प किया गया था। उस दौरान हेवल नदी का जलस्तर काफी ज्यादा था। नदी का पानी न केवल सिंचाई के लिए उपयोग में लाया जाता था, बल्कि लोग नदी में मछली पकड़ने का काम भी करते थे। एक प्रकार से लोगों की आजीविका नदी से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी हुई थी। वर्तमान में नदी का पानी चंबा, कानाताल और रौंसलीखाल आदि स्थानों तक सप्लाई किया जाता है।
आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 1965 में हेवल नदी क्षेत्र के 75.84 वर्ग मीटर क्षेत्रफल में कृषि कार्य होता था, जबकि 119.5 वर्ग मीटर क्षेत्रफल में सघन वन थे, 5.63 वर्ग मीटर क्षेत्र बंजर था। लेकिन वर्ष 2014 के आंकड़ें बताते हैं कि कृषि क्षेत्रफल 56.08 वर्ग मीटर रह गया है। 5.63 वर्ग मीटर क्षेत्रफल में बंजर भूमि बढ़ी है और वन क्षेत्र 119.5 वर्ग मीटर क्षेत्रफल से बढ़कर 129.67 वर्ग मीटर क्षेत्रफल हो गया है। इसके फलस्वरूप यहाँ पर आबादी काफी तेजी से बढ़ी है, जबकि हेवल नदी का पानी बड़ी तेजी से घटा है। जिस कारण जो किसान हर साल चार फसल लेते थे, वें अब साल में दो ही फसल ले पा रहे हैं।
नदी सूखने के कई कारण हैं, जिसमें हेवल नदी को पानी देने वाले सैंकड़ों जलस्रोतों का सूखना अहम कारण है, तो वहीं स्प्रिंग्स से पानी का अतिदोहन, वनों का कटान और जलवायु परिवर्तन भी अन्य कारणों में शामिल हैं। आंकड़ों के अनुसार वर्ष 1965 में नदी क्षेत्र 3.39 वर्ग मीटर था, जो वर्ष 2014 में 2.39 वर्ग मीटर ही रह गया था। अधिक फसल उत्पादन के लिए अब किसान जैविक खेती के स्थान पर रासायनिक खेती करने लगे हैं। इससे न केवल भूमि की उपजाऊ क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है, बल्कि रासायनिक खादों के कारण जलस्रोतों का पानी भी जहरीला हो गया है। ऐसे में समस्या काफी बढ़ गई है, जिसके समाधान के लिए नरेंद्र नगर वन प्रभाग के प्रभागीय वनाधिकारी धर्म सिंह मीणा के नेतृत्व में ‘हेवल नदी लैंडस्केप पुनर्जीवन परियोजना’ के अंतर्गत नदी को पुनर्जीवित करने का कार्य किया जा रहा है।
ऐसे किया जा रहा नदी को पुनर्जीवित (हेवल नदी लैंडस्केप पुनर्जीवन परियोजना)
हेवल नदी लैंडस्केप पुनर्जीवन परियोजना की शुरुआत वर्ष 2018 में की गई थी। इसके अंतर्गत हिम्मोत्थान (एनजीओ) द्वारा वन विभाग के स्टाफ व इस कार्य में लगी टीम को प्रशिक्षण दिया गया था। इसके बाद आंकड़ें एकत्रित करने के लिए वर्ष 2018 और 2019 में एक सर्वे किया गया। इस पूरे क्षेत्र में पड़ने वाले घरों का सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण किया गया। प्रभागीय वनाधिकारी के नेतृत्व में कई बार भ्रमण कर जानकारी एकत्रित की गई। जीयोलाॅजिकल और हाइड्रोलाॅजिकल सर्वे, वेजिटेशन मैपिंग तथा जीआईएस सहित विभिन्न प्रकार के सर्वे किए गए। एक्युफरों का परिसीमन किया गया और जलधाराओं व गाड़-गधेरों की पहचान की गई। इसके अलावा नदी और जलधाराओं के कैचमेंट एरिया का भी सर्वे किया गया। साथ ही जलस्रोतों और जलधाराओं में पानी के लेवल को चेक करने सहित तमाम प्रकार के कार्य किए गए। वैज्ञानिक तरीके से किए गए सर्वेक्षण और इन सभी कार्यों के आधार पर वन विभाग ने नदी को जल प्रदान करने वाली 38 धाराओं, 15 गाड़-गधेरों की पहचान की। इन सभी धाराओं का क्षेत्र करीब 100 हेक्टेयर है। विभाग के अध्ययन में पला चला कि नदी को फीडबैक देने वाले जलस्रोतों में हर साल 0.10 प्रतिशत की दर से पानी कम हो रहा है।
नरेंद्र नगर वन प्रभाग के प्रभागीय वनाधिकारी धर्म सिंह मीणा ने इंडिया वाटर पोर्टल को बताया कि ऐसा देश में पहली बार हुआ है, जब किसी नदी को पुनर्जीवित करने के लिए उसका अध्ययन उद्गम स्थल से अंतिम छोर (दूसरी नदी के साथ संगम तक) तक किया गया। हमने नदी को पानी देने वाली 38 स्प्रिंग्स और 15 स्ट्रीम का चयन किया है। अधिकांश स्प्रिंग्स को रोककर पीने के पानी के लिए उपयोग किया जाता था। इससे स्प्रिंग्स का पानी आगे नहीं जा पाता था। ये नदी के सूखने और भूजल स्तर के गिरने का अहम कारण भी है। इन सभी को पुनर्जीवित करने का कार्य किया जा रहा है।
परियोजना का काम दो चरणों में किया जाना है। पहले चरण में सुरकुंडा से बेमुंडा तक कार्य किया जा रहा है। सुरकुंडा से बेमुंडा तक नदी का कैचमेंट एरिया 16500 हेक्टेयर है, जिसमें 9 माइक्रो वाटर शेड़ों के अंतर्गत 30 स्प्रिंग्स, 15 स्ट्रीम और 9 से 13 मीटर चौड़ाई का 24.20 किमी नदी तल क्षेत्र आता है। जुलाई 2020 तक 3 धाराओं और 2 गाड-गधेरों को पुनर्जीवित करने के लिए चरणबद्ध तरीके से कार्य किया गया। नदी को पुनर्जीवित करने के लिए रिचार्ज गड्ढे, खंतियां, पाइन-नीडल चैकडैम, ब्रशवुड चैकडैम, रैंडम रबर वाॅल चैकडैम, क्रेट वायर चैकडैम आदि बनाकर धीरे-धीरे पानी के वेग को कम किया जाएगा, ताकि भू-कटाव न हो और पानी को प्राकृतिक रूप से संग्रहित किया जा सके। विभाग के इन कार्यों का अब सकारात्मक परिणाम दिखने भी लगा है।
डीएफओ धर्म सिंह मीणा ने बताया कि परियोजना के अंतर्गत जिन 6 जलस्रोतों को पुनर्जीवित करने का कार्य किया गया है, उनमें अब पानी की स्तर बढ़ा है। ये जलस्रोत गर्मियों लगभग पूरी तरह सूख जाते थे, लेकिन पहले की अपेक्षा इन स्रोतों में अब पानी बढ़ गया है। ग्रामवासी हमसे यहां पानी का पंप लगाने की अपील कर रहे हैं।
दरअसल, परियोजना के अंतर्गत स्प्रिंगशेड प्रबंधन, रिवरबेड प्रबंधन और एक्युफर रिचार्ज पर आधारित तरीकों को अपनाया गया है। इन सभी कार्यो का उद्देश्य नदी सहित विभिन्न जलधाराओं को पुनर्जीवित करने के अलावा इको सिस्टम एवं लैंडस्केप का पुनरुद्धार करना भी है। रनआफ वाटर और पानी के वेग को कम करने के लिए रिवरबेड प्रबंधन किया जा रहा है, ताकि लीन सीजन में पर्याप्त पानी उपलब्ध रहे। इन सभी कार्यों के लिए विभिन्न विभागों, वन पंचायतों और एनजीओ की सहायता भी ली जा रही है।
बारिश का पैटर्न बदलने से भी सूख रहे जलस्रोत
जलस्रोत व गाड़ गधेरों में पानी बारिश पर निर्भर करता था। नियमित रूप से नियमित अंतराल में होने वाली बारिश से जलस्रोतों में सालभर पानी बना रहता था। तो वहीं बड़ी संख्या में जलप्रिय पेड़ पानी को लंबे समय तक रोक कर रखते थे। इससे पेड़ मिट्टी में नमी बनाए रखते थे और मृदा अपरदन व भू-कटाव को भी रोकते थे, लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण अतिवृष्टि और बादल फटने जैसी घटनाएं बढ़ गई हैं। जिससे कम समय में अधिक बारिश होने लगी है। इससे जलस्रोतों और गाड-गधेरों में पानी का फ्लो बढ़ जाता है। पानी का तेज वेग भू-कटाव करता है, जो पेड़ों की कम संख्या होने से बढ़ जाता है। इसी रनआफ वाटर को कम करने के लिए रिवरबेड और स्प्रिंगशेड प्रबंधन का कार्य किया जाता है, क्योंकि रफआफ वाटर ऐसा पानी होता है, जो जमीन के अंदर नहीं जा पाता और सतह के ऊपर से होता हुआ बह जाता है। इससे भूजल रिचार्ज नहीं होता। ऐसे में अतिवृष्टि के कारण कुछ ही समय तक जलस्रोतों में पानी रहता है और साल के शेष दिनों में वे सूख जाते हैं। डीएफओ धर्म सिंह मीणा ने बताया कि इसके लिए हेवल नदी के कैचमेंट में 50 हेक्टेयर क्षेत्र में वनीकरण किया गया है, जिसमें 55 हजार जलप्रिय पौधों का रोपण किया गया है।
नदी से जुड़ी है नेपाल के परिवारों की भी आजीविका
हेवल नदी के किनारे केवल उत्तराखंड के ही नहीं बल्कि नेपाल के भी परिवार रहते हैं। नदी के आसपास रहने वाले परिवारों से नेपाल के लोगों ने खेती के लिए जमीन किराए पर ले रखी है। ऐसे करीब 1000 नेपाली परिवार होंगे, जिन्होंने यहां आसपास के 1000 उत्तराखंड़ी परिवारों से जमीन किराए पर ली है। इसी जमीन पर वें खेती करते हैं और जमीन का किराया देते हैं। सिंचाई के लिए नदी का ही पानी उपयोग में लाते हैं, लेकिन पानी कम होना इन सभी के लिए रोजगार/आजीविका का संकट है। इससे खेती के अलावा पशुपालन पर भी प्रभाव पड़ रहा है। यदि नदी पूरी तरह सूख गई तो लोगों को शायद पलायन के लिए मजबूर होना पड़ सकता है। हालांकि वन विभाग के प्रयास से लोगों में आस जगी है और सकारात्मक परिणाम भी सामने आ रहे हैं। वन विभाग का भी मानना है कि एक-दो साल में परिणाम स्पष्ट तौर पर सामने भी आने लगेंगे।
हिमांशु भट्ट (8057170025)