लखनऊ स्थित सीएसआईआर के अग्रणी संस्थान केन्द्रीय औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान (सीमैप) द्वारा अनेकों ऐसी फसलों के साथ-साथ नींबू घास अथवा (लेमनग्रास) और रोशाघास (पामारोजा) तथा सिट्रोनेला (जावा घास) की उन्नत खेती हेतु कृषि प्रौद्योगिकी व अधिक उपज देने वाली किस्मों का विकास किया गया है। इस प्रकार विकसित उन्नत प्रौद्योगिकी को किसानों और उद्यमियों में लोकप्रिय बनाने के लिये समय-समय पर प्रशिक्षण और प्रदर्शन कार्यक्रम चलाए जाते रहे हैं। इन सुगन्धित घासों की खेती व प्रसंस्करण में लगभग 35-40 हजार कृषक अथवा उद्यमी परिवार सीधे तौर पर जुड़े हैं तथा प्रतिवर्ष लगभग 50 लाख मानव दिवसों के बराबर अतिरिक्त रोजगार सृजित हो रहे हैं। प्रकृति ने हमें सुगन्धित पौधों का अनमोल खजाना प्रदान किया है जिनकी विधिवत खेती और तेल के आसवन से आज हमारे देश में हजारों किसान लाभान्वित हो रहे हैं। इन सुगन्धित पौधों से निकाले गए सुवासित तेल विभिन्न प्रकार की सुगन्धियों के बनाने के अतिरिक्त एरोमाथिरैपी में बहुतायत से प्रयोग किये जाते हैं। लखनऊ स्थित सीएसआईआर के अग्रणी संस्थान केन्द्रीय औषधीय एवं सगन्ध पौधा संस्थान (सीमैप) द्वारा अनेकों ऐसी फसलों के साथ-साथ नींबू घास अथवा (लेमनग्रास) और रोशाघास (पामारोजा) तथा सिट्रोनेला (जावा घास) की उन्नत खेती हेतु कृषि प्रौद्योगिकी व अधिक उपज देने वाली किस्मों का विकास किया गया है।
इस प्रकार विकसित उन्नत प्रौद्योगिकी को किसानों और उद्यमियों में लोकप्रिय बनाने के लिये समय-समय पर प्रशिक्षण और प्रदर्शन कार्यक्रम चलाए जाते रहे हैं। इन सुगन्धित घासों की खेती व प्रसंस्करण में लगभग 35-40 हजार कृषक अथवा उद्यमी परिवार सीधे तौर पर जुड़े हैं तथा प्रतिवर्ष लगभग 50 लाख मानव दिवसों के बराबर अतिरिक्त रोजगार सृजित हो रहे हैं। सुगन्धित उद्योग से जुड़े लोगों के अनुसार इन सुगन्धित घासों के तेल की बाजार में प्रतिवर्ष 15 से 20 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है। प्रस्तुत लेख में इन तीनों फसलों की खेती व आय-व्यय का संक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है।
नींबू घास (लेमनग्रास)
सिम्बोपोगॉन की विभिन्न प्रजातियों - सिम्बोपोगॉन फ्लेक्सियोसस और सिम्बोपोगॉन सिट्रेटस की पत्तियों से तेल प्राप्त किया जाता है। इन प्रजातियों को क्रमशः ईस्ट और वेस्ट इण्डियन लेमनग्रास के नाम से जाना जाता है। एक तीसरी प्रकार की प्रजाति, सिम्बोपोगॉन पेंडुलस (जम्मू नींबू घास) से भी तेल प्राप्त किया जाता है। इसके तेल में तीव्र नींबू जैसी सुगन्ध पाई जाती है। इसके तेल का मुख्य घटक सिट्रल (80-90 प्रतिशत) है। सिट्रल को एल्फा-आयोनोन में परिवर्तित किया जाता है। बीटा आयोनोन गन्ध द्रव्य के रूप में प्रयोग होता है और इससे विटामिन-ए संश्लेषित किया जाता है। एल्फा आयोनोन से गन्ध द्रव्य एवं अन्य कई सगन्ध रसायन संश्लेषित किये जाते हैं।
सिट्रल का प्रयोग इत्र, सौन्दर्य सामग्री व साबुन बनाने में भी किया जाता है। इसके अतिरिक्त यह तेल पारम्परिक औषधियों में भी प्रयोग होता है। भारत में इसकी खेती केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, आसाम, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश एवं महाराष्ट्र में की जाती है। वर्तमान में अनुमानित 15,000 हेक्टेयर क्षेत्रफल में लेमनग्रास की खेती द्वारा लगभग 15000 टन तेल प्रतिवर्ष उत्पादित किया जाता है। विश्व में अन्य उत्पादक देश ग्वाटेमाला, मेडागास्कर, ब्राजील, चीन, इंडोनेशिया, थाइलैंड और हैती हैं। नींबू घास के लिये उष्ण तथा समशीतोष्ण जलवायु उत्तम होती है। गर्म और आर्द्र जलवायु इसके लिये आदर्श माने जाते हैं।
कम वर्षा वाले क्षेत्रों एवं ढालू जमीनों में यह असिंचित फसल के रूप में भी उगाई जा सकती है। मृदा पीएच 9.0 तक में इसकी खेती की जा सकती है। नींबू घास की खेती विभिन्न प्रकार की मृदा में सम्भव है परन्तु उचित जल निकास प्रबन्धन आवश्यक है। नींबू घास के लिये बलुई, दोमट मृदा सबसे उपयुक्त है। नींबू घास के लिये साधारण भूमि की तैयारी पर्याप्त रहती है। दो-तीन जुताइयों के बाद पाटा लगाकर खेत तैयार हो जाता है। रोपाई के समय खेत खरपतवार रहित होना चाहिए। जड़दार कलमों (स्लिप्स) को लगभग 60X30 या 60X45 सेमी की दूरी पर मिट्टी में अच्छी तरह दबाकर रोपना चाहिए। सामान्यतः मैदानी एवं सम-शीतोष्ण भागों में नींबू घास की रोपाई, वर्षा ऋतु (जुलाई, अगस्त) में की जाती है। सिंचाई की सुविधा वाले क्षेत्रों में फरवरी एवं मार्च में भी रोपाई की जा सकती है। फरवरी-मार्च में लगाई गई फसल की पैदावार प्रथम वर्ष 30 प्रतिशत ज्यादा होती है।
केन्द्रीय औषधीय एवं सगन्ध पौधा संस्थान द्वारा नींबू घास की उन्नतशील किस्में कृष्णा, सुवर्णा एवं हाल ही में सिम-शिखर नामक एक अन्य प्रजाति का विकास किया गया है जिससे लगभग 1.2% तेल प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रजाति की पौध सामग्री का बहुगुणन किया जा रहा है। उर्वरक की मात्रा मृदा के उपजाऊपन पर निर्भर करती है। सिंचित अवस्था में सामान्य मृदा में 150 किग्रा नाइट्रोजन, 60 किग्रा फास्फोरस तथा 60 किग्रा पोटाश की आवश्यकता प्रतिवर्ष प्रति हेक्टेयर होती है। फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा तथा नाइट्रोजन की एक तिहाई मात्रा रोपाई के समय दी जाती है तथा शेष नाइट्रोजन, प्रत्येक कटाई के बाद बराबर-बराबर मात्रा में प्रयोग करते हैं। असिंचित अवस्था में 50 किग्रा नत्रजन, 30 किग्रा फास्फोरस एवं 20 किग्रा पोटाश का प्रयोग वर्षा ऋतु में किया जाना चाहिए।
फसल स्थापित हो जाने के पश्चात नींबू घास को अधिक पानी की आवश्यकता नहीं होती है। सिंचाई का साधन होने पर वर्षा ऋतु को छोड़कर पूरे वर्ष में 5-6 सिंचाई करने से अधिक पैदावार मिलती है। सीमित मात्रा में पानी की उपलब्धता होने पर प्रत्येक कटाई के बाद फसल की सिंचाई कर दी जाये तो अच्छी पैदावार ली जा सकती है। फसल स्थापित होने की पहली अवस्था (45 दिन) में हाथ से निराई करने की आवश्यकता होती है। प्रारम्भिक अवस्था में हाथ से निराई करने के स्थान पर किसी फसल से प्राप्त अवशेष की पलवर (मल्च) भी बिछाई जा सकती है। उससे खर-पतवार नियंत्रण तो होता ही है। साथ-साथ मृदा की जल-धारण क्षमता एवं फसल की उर्वरक उपयोग क्षमता में भी वृद्धि होती है।
रोपाई के 140-150 दिनों के पश्चात प्रथम कटाई की जाती है। मृदा उर्वरता तथा वृद्धि के अनुसार बाद की कटाइयाँ 90-100 दिन के अन्तराल पर की जाती है। इसे भूमि की सतह से काटना चाहिए। नींबू घास के शाक का वाष्प-आसवन या जल आसवन कर तेल प्राप्त करते हैं। इसकी शाक को काटकर अर्द्ध मुरझाई स्थिति में आसवित करते हैं। नींबू घास के सम्पूर्ण आसवन में लगभग तीन घंटे लगते हैं।
नींबू घास की कृष्णा प्रजाति से 5 वर्ष की फसल के आधार पर सिंचित अवस्था में 200-250 किग्रा तेल प्रतिवर्ष/हेक्टेयर प्राप्त हो जाता है। असिंचित अवस्था में 100-125 किग्रा तेल प्रतिवर्ष/हेक्टेयर प्राप्त होता है। इस प्रकार सिंचित अवस्था में कुल आय लगभग रुपये 1,80,000/- (रुपए 900/- प्रति किलो तेल के औसत बाजार भाव के आधार पर) विभिन्न कृषि कार्यों व आसवन पर व्यय लगभग रुपये 45,000/- होता है व शुद्ध आय लगभग रुपए 1,35,000 प्रतिवर्ष/हेक्टेयर प्राप्त होती है।
पामारोजा (रोशा घास)
पामारोजा (रोशा घास) का सगंध तेल, प्राकृतिक सगंध रसायन जिरेनियाल और जिरेनिल एसीटेट का एक अच्छा स्रोत है। इसकी प्रजाति सिम्बोपोगॉन मार्टिनी में वाष्पशील तेल पाया जाता है। पामारोजा का तेल, मोतिया किस्म को पामारोजा के ऊपरी भाग में फूल आने के बाद आसवित कर तेल प्राप्त किया जाता है। जिरेनियाल तथा जिरेनियाल एसीटेट सगंध रसायनों को तेल से अलग करने के पश्चात सौन्दर्य प्रसाधनों और स्वाद गंध उद्योगों में प्रयोग में लाया जाता है। पामारोजा के तेल तथा इसके अवयवों की अन्तरराष्ट्रीय तथा राष्ट्रीय बाजार में काफी माँग है।
पामारोजा का तेल हल्का पीला होता है जिसमें जिरेनियाल 75 से 85 प्रतिशत तथा जिरेनिल एसीटेट 4 से 5 प्रतिशत तक होता है। भारत में इसकी खेती मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, आन्ध्र प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश में लगभग 8000 हेक्टेयर सिंचित एवं असिंचित दशाओं में दोनों तरह से की जाती है एवं लगभग 600 टन तेल का उत्पादन किया जाता है।
सीएसआईआर-केन्द्रीय औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान, लखनऊ ने उपरोक्त बातों को ध्यान में रखते हुए इसकी अधिक उपज देने वाली प्रजातियाँ तथा उन्नत खेती के लिये शस्य क्रियाएँ विकसित की हैं जो किसानों में लोकप्रिय हो रही है। ऐसे क्षेत्र में जहाँ वर्ष भर सुवितरित वर्षा, 30 से 400C के मध्य तापमान तथा वायुमण्डलीय आर्द्रता 80 प्रतिशत से अधिक हो, आदर्श माने जाते हैं। जाड़े के दिनों में जब तापमान 200C या इससे कम हो जाता है तो इसकी बढ़वार रुक जाती है। बलुई दोमट भूमि जिसमें जल-निकास की समुचित व्यवस्था हो, पामारोजा की खेती के लिये उपयुक्त है। साधारण लवणयुक्त भूमि में (9 पीएच तक), ऊँची-नीची, बलुई तथा भारी जमीनों में भी इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। खेत में थोड़े समय के लिये (3-4 दिन) पानी भराव हो जाने से पौधे की बढ़वार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
बुवाई से पूर्व खेती को दो से तीन जुताइयाँ पर्याप्त होती हैं। प्रत्येक जुताई के बाद पाटा अवश्य लगा देना चाहिए रोपाई/बोवाई से पूर्व खेत खरपतवार रहित होना चाहिए। सीमैप द्वारा विकसित पी.आर.सी.-1, तृष्णा, तृप्ता, एवं वैष्णवी, पामारोजा की अधिक उपज देने वाली प्रजातियाँ हैं। यह सभी प्रजातियाँ देश के विभिन्न भागों में किसानों द्वारा तेल उत्पादन हेतु उगाई जा रही हैं। पामारोजा को नर्सरी में पौधे तैयार कर पौध रोपण अथवा बीजों को सीधे खेत में बुवाई कर उगाया जा सकता है। नर्सरी तैयार कर खेत में पौध की रोपाई करना लाभकारी रहता है।
एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में पौध द्वारा रोपाई के लिये 4-5 किग्रा बीजों को 5-6 गुना मिट्टी में मिलाकर छोटी-छोटी क्यारियों जो भूमि व सतह से 10-15 सेमी ऊँची हों, में बो देते हैं। हल्की गुड़ाई करके बीज को मिट्टी में मिला देते हैं। तत्पश्चात क्यारियों की हजारे से सिंचाई कर देते हैं। हजारे से सिंचाई 3-4 दिन तक करते रहते हैं। इसके बाद साधारण विधि द्वारा सिंचाई करते हैं। रोपाई के लिये 30-35 दिन पुरानी पौध, उखाड़कर 60X30 अथवा 45X30 सेमी की दूरी पर लगाकर सिंचाई कर देते हैं। छिड़काव विधि से खेती करने के लिये 10-12 किग्रा बीज, 15-20 गुना बालू या सूखी मिट्टी में मिलाकर 60 अथवा 45 सेमी की दूरी पर बनी कतारों में बोते हैं। कूड़ों की गहराई 2-3 सेमी होनी चाहिए अन्यथा बीजों के अंकुरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। बहुवर्षीय फसल होने के कारण, नियमित रूप से उर्वरक देना आवश्यक होता है, लेकिन खाद एवं उर्वरकों की मात्रा भूमि की उर्वरा शक्ति पर निर्भर करती है।
सामान्यतः वर्षा ऋतु में पामारोजा को अलग से पानी देने की आवश्यकता नहीं होती, लेकिन उत्तर भारत के मैदानों में शरद ऋतु (नवम्बर से फरवरी) में कम-से-कम दो सिंचाई एवं ग्रीष्म ऋतु में तीन सिंचाइयों की आवश्यकता होती है। पामारोजा को असिंचित दशाओं में भी उगाया जा सकता है, लेकिन सिंचित फसल की तुलना में उपज लगभग 40-60 प्रतिशत तक कम हो जाती है। सिंचाई के साथ-साथ पामारोजा में जल निकास की भी उचित प्रबन्ध होना चाहिए। पामारोजा में प्रारम्भिक 40-50 दिन तक 1-2 निराई एवं शरद ऋतु में प्रत्येक वर्ष निराई की आवश्यकता पड़ती है। प्रत्येक कटाई के बाद एक गुड़ाई करना फसल के लिये लाभकारी रहता है।
सिंचित क्षेत्रों में वर्ष में क्रमशः सितम्बर-अक्टूबर, फरवरी-मार्च एवं मई-जून में तीन कटाई ली जा सकती हैं एवं असिंचित क्षेत्रों में दो कटाई ली जा सकती है। जब पुष्पक्रम का रंग हल्के बादामी रंग का हो जाये उस समय फसल को 25 सेमी जमीन के ऊपर से हँसिए द्वारा काट लिया जाता है उसके बाद इकट्ठा कर आसवन द्वारा तेल निकाल लिया जाता है पामारोजा की 5 वर्ष की फसल के आधार पर सिंचित अवस्था में 125-150 किग्रा तेल प्रतिवर्ष/हेक्टेयर प्राप्त होता है। असिंचित अवस्था में 75-80 किग्रा तेल प्रतिवर्ष/हेक्टेयर प्राप्त होता है। इस प्रकार सिंचित अवस्था में कुल आय लगभग रुपए 1,87,000/- (रुपए 1500/- प्रति किलो तेल के औसत बाजार भाव के आधार पर) और विभिन्न कृषि कार्यों व आसवन पर व्यय लगभग रुपए 40,000/- होता है। सिंचित अवस्था में शुद्ध आय लगभग रुपए 1,47,000 प्रतिवर्ष/हेक्टेयर प्राप्त होती है।
सिट्रोनेला (जावा घास)
जावा घास या सिट्रोनेला सुगन्धित तेल वाली बहुवर्षीय घास है जिसे वैज्ञानिक भाषा में सिम्बोपोगॉन विन्टेरियेनस के नाम से जाना जाता है। इसकी पत्तियों से तेल आसवित किया जाता है। जिसके मुख्य रासायनिक घटक सिट्रेनेलोल, सिट्रोनेलॉल और जिरेनियॉल इत्यादि हैं। इसके तेल का उपयोग सौन्दर्य प्रसाधनों, साबुन, सुगन्ध उद्योग व मच्छर भगाने वाले उत्पादों में बहुतायत से किया जाता है। भारत में सिट्रोनेला का उत्पादन उत्तरी पूर्वी राज्यों के अतिरिक्त महाराष्ट्र में किसानों और उद्यमियों द्वारा किया जाता है। उत्पादक देशों में श्रीलंका, चीन, इंडोनेशिया, भूटान इत्यादि प्रमुख देश हैं। एक अनुमान के अनुसार भारत में सिट्रोनेला की खेती लगभग 2000 हेक्टेयर में की जाती है। जिसके द्वारा लगभग 200 टन तेल उत्पादित किया जाता है।
सिट्रोनेला की खेती के लिये उत्तर पूर्वी क्षेत्र एवं तराई क्षेत्र की समुचित जल निकास वाली भुरभुरी व अच्छी उर्वरा शक्ति युक्त भूमि उपयुक्त रहती है। भूमि का पीएच 5-7 के बीच सर्वोत्तम रहता है। सिट्रोनेला के लिये भूमि को अच्छी तरह 2 से 3 जुताइयाँ करके पाटा लगा देते हैं इसके उपरान्त आवश्यकतानुसार छोटी-छोटी क्यारियाँ बना ली जाती हैं।
फसल को सन्तुलित मात्रा में सभी प्रकार के सूक्ष्म पोषक तत्वों की आवश्यकता पड़ती है इसलिये 15 से 20 टन प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद एवं एक महीने पूर्व भूमि में अच्छी तरह जुताई के साथ मिला देनी चाहिए। केन्द्रीय औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान द्वारा जावा घास की उन्नतशील किस्में सिम-जावा, बायो-13, मंजूषा, मंदाकिनी, जलपल्लवी विकसित की गई हैं। जड़दार कलमों अथवा स्लिप्स को लगभग 50X40 या 60X30 सेंटीमीटर की दूरी पर मिट्टी में अच्छी तरह दबाकर रोपना चाहिए। सामान्यतः इसकी रोपाई फरवरी/मार्च अथवा जुलाई-अगस्त महीने की जाती है।
20 से 25 टन सड़ी हुई गोबर की खाद या 10 से 15 टन वर्मीकम्पोस्ट अन्तिम जुताई के समय खेत में मिला देनी चाहिए। 150:60:60 किग्रा क्रमशः नत्रजन, फास्फोरस, पोटाश (तत्व के रूप में) प्रति हेक्टेयर प्रतिवर्ष देना चाहिए। नत्रजन की मात्रा को 4 बार में बराबर मात्रा में देनी चाहिए तथा फास्फोरस एवं पोटाश लगाने के पूर्व अन्तिम जुताई के समय खेत में मिला देते हैं। पहली सिंचाई पौधरोपण के तुरन्त बाद तथा बाद की सिंचाइयाँ आवश्यकतानुसार करनी चाहिए। अधिक एवं कम पानी का फसल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है यदि पर्याप्त वर्षा हो रही हो तब सिंचाई न करें।
फसल स्थापित होने के पहली अवस्था फसल रोपने के लगभग 20 से 25 दिन बाद पहली निराई तथा दूसरी निराई 40 से 45 दिन बाद करना चाहिए। इस प्रकार से लगभग 1 वर्ष में 4 से 5 निराइयों की आवश्यकता होती है। पहली कटाई रोपण 4-5 माह बाद और इसके बाद तीन माह के अन्तराल पर वर्ष में 3-4 कटाइयाँ करते रहना चाहिए। जमीन से 15-20 सेंटीमीटर की ऊँचाई पर कटाई करनी चाहिए। जावाघास के शाक का वाष्प आसवन या जल आसवन कर तेल प्राप्त करते हैं। इसकी शाक को काटकर अर्द्ध मुरझाई अवस्था में आसवित करते हैं।
जावा घास का सम्पूर्ण आसवन करने में लगभग 3 से 4 घंटे लगते हैं। जावा घास की बायो-13 प्रजाति से पाँच वर्ष की फसल के आधार पर तेल की उपज 200-250 किग्रा प्रति हेक्टेयर प्रतिवर्ष प्राप्त हो जाती है। विभिन्न कृषि कार्यों व आसवन पर व्यय लगभग रुपए 40,000 से 45,000 प्रति हेक्टेयर प्रतिवर्ष होता है तथा कुल आय रुपए 1,60,000/- से 2,00,000/- प्रतिवर्ष तथा शुद्ध लाभ औसत रुपए 1,20,000 से 1,60,000 प्रतिवर्ष प्राप्त होती है।
औषधीय एवं सगंध फसलों की खेती पर विस्तृत जानकारी एवं प्रशिक्षण इत्यादि के लिये सम्पर्क करें।
निदेशक, सीएसआईआर-केन्द्रीय औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान,
पो. आ. सीमैप, लखनऊ-226015
फोन नं. - 0522-2718598/599
ई-मेल : director@cimap.res.in)
लेखक परिचय
श्री दीपक कुमार वर्मा, श्री रजनीश कुमार एवं श्री रमेश कुमार श्रीवास्तव, सीएसआईआर-केन्द्रीय औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान, लखनऊ-226 015
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