तारीख : 10-11-12 अप्रैल 2015
स्थान : सर्वसेवा संघ, राजघाट,वाराणसी
इस अधिवेशन में गंगा मुक्ति आन्दोलन के साथ-साथ साझा संस्कृति मंच और सर्व सेवा संघ भी है। तीन दिवसीय सम्मेलन में गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान की अध्यक्षा राधा भट्ट, स्वामी अविमुक्तेश्वरानन्द, सुप्रसिद्ध पत्रकार भरत झुनझुनवाला, अनिल चमड़िया, बी.डी.त्रिपाठी, प्रो. यू.के. चौधरी, राज्यसभा सदस्य अली अनवर, अनिल साहिनी, अमरनाथ भाई, वृजखंडेलवाल, जया मिश्रा, पर्यावरणविद् सुरेश भाई सहित देश के नदियों और घाटियों के संघर्ष से जुड़े लोग हिस्सा लेंगे। यह जानकारी गंगा मुक्ति आन्दोलन के अनिल प्रकाश ने दी। जमीन, खेती, हरियाली, जीव-जन्तुओं और पौधों सबकी हिफाज़त करती है गंगा। हमारे मछुआरे, किसान, सब्जी उत्पादक और गंगा बेसिन के किसानों का जीना मरना गंगा के साथ है। अपनी आजीविका के लिए गंगा पर आश्रित है। इसके पास सदियों से इंसानी तजुर्बा है। आज हिमालय से लेकर गंगा सागर तक पूरी गंगा बेसिन संकटग्रस्त है।
दसियों करोड़ लोगों की जीविका, उनका जीवन तथा जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों तक के अस्तित्व पर खतरा मँडराने लगा है। गंगा की समस्या के समाधान की अब तक की कोशिशें ही उसकी बर्बादी और तबाही का सबब बनती जा रही हैं। गंगा के ज्वलन्त सवालों को लेकर 10-11-12 अप्रैल 2015 सर्वसेवा संघ, राजघाट, वाराणसी में गंगा मुक्ति आन्दोलन का वाराणसी सम्मेलन आयोजित किया गया है।
इस अधिवेशन में गंगा मुक्ति आन्दोलन के साथ-साथ साझा संस्कृति मंच और सर्व सेवा संघ भी है। तीन दिवसीय सम्मेलन में गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान की अध्यक्षा राधा भट्ट, स्वामी अविमुक्तेश्वरानन्द, सुप्रसिद्ध पत्रकार भरत झुनझुनवाला, अनिल चमड़िया, बी.डी.त्रिपाठी, प्रो. यू.के. चौधरी, राज्यसभा सदस्य अली अनवर, अनिल साहिनी, अमरनाथ भाई, वृजखंडेलवाल, जया मिश्रा, पर्यावरणविद् सुरेश भाई सहित देश के नदियों और घाटियों के संघर्ष से जुड़े लोग हिस्सा लेंगे। यह जानकारी गंगा मुक्ति आन्दोलन के अनिल प्रकाश ने दी।
10 अप्रैल को उद्घाटन सत्र में 'गंगा संरक्षण और चुनौती सम्भावना' विषय पर चर्चा होगी।
वरुणा नदी के नाम को समाहित करते हुए शहर का नाम 'वाराणसी' पड़ा है. वरुणा + असी = वाराणसी (अस्सी गंगा नदी का सुप्रसिद्ध घाट)। इसी दिन दूसरे सत्र में 'वरुणा असी एवं गंगा' पर चर्चा होगी। दूसरे दिन प्रथम सत्र का विषय रखा गया है- 'हिमालय बचेगा तो गंगा बचेगी'। दूसरे सत्र में 'गंगा पर बैराज की शृंखला' पर चर्चा होगी।
इन सवालों पर अलग-अलग समूह विमर्श होगा। 12 अप्रैल को इन सवालों पर भावी कार्ययोजना तय की जाएगी और फिर वाराणसी घोषणा पत्र जारी किया जाएगा। संध्या समय भैंसासुर घाट पर नौका जुलूस निकाला जाएगा। फिर गंगा पर आश्रित मछुआरों, नाविकों की बड़ी सभा होगी।
ग़ौरतलब है कि बिहार के सुल्तानगंज से लेकर पीरपैंती तक 80 किलोमीटर के क्षेत्र में जलकर जमींदारी थी। यह जमींदारी मुगलकाल से चली आ रही थी। सुल्तानगंज से बरारी के बीच जलकर गंगा पथ की जमींदारी महाशय घोष की थी। बरारी से लेकर पीरपैंती तक मकससपुर की आधी-आधी जमींदारी क्रमशः मुर्शिदाबाद, पश्चिम बंगाल के मुसर्रफ हुसैन प्रमाणिक और महाराज घोष की थी।
यह जमींदारी किसी आदमी के नाम पर नहीं बल्कि देवी-देवताओं के नाम पर थी। ये देवता थे श्री श्री भैरवनाथ जी, श्री श्री ठाकुर वासुदेव राय, श्री शिवजी एवं अन्य। कागजी तौर जमींदार की हैसियत केवल सेवायत की रही है। सन् 1908 के आसपास दियारे के ज़मीन का काफी उलट-फेर हुआ। जमींदारों के ज़मीन पर आए लोगों द्वारा कब्ज़ा किया गया। किसानों में संघर्ष का आक्रोश पूरे इलाके में फैला।
जलकर जमींदार इस जागृति से भयभीत हो गए और 1930 के आसपास ट्रस्ट बनाकर देवी-देवताओं के नाम कर दिया। इस जलकर जमींदारी खत्म करने के लिये 1961 में एक कोशिश की गई भागलपुर के तत्कालीन डिप्टी कलेक्टर ने इस जमींदारी को खत्म कर मछली बन्दोबस्ती की जवाबदेही सरकार पर डाल दी। मई 1961 में जमींदारों ने उच्च न्यायालय में इस कार्रवाई के खिलाफ अपील की और अगस्त 1961 में जमींदारों को स्टे ऑर्डर मिल गया।
1964 में उच्च न्यायालय ने जमींदारों के पक्ष में फैसला सुनाया तथा तर्क दिया कि जलकर की जमींदारी यानी फिशरिज राइट मुगल बादशाह ने दी थी और जलकर के अधिकार का प्रश्न ज़मीन के प्रश्न से अलग है। क्योंकि ज़मीन की तरह यह अचल सम्पत्ति नहीं है। इस कारण यह बिहार भूमि सुधार कानून के अन्तर्गत नहीं आता है।
बिहार सरकार ने उच्च न्यायालय के फैसले के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की और सिर्फ एक व्यक्ति मुसर्रफ हुसैन प्रमाणिक को पार्टी बनाया गया। जबकि बड़े जमींदार मुसर्रफ हुसैन प्रमाणिक को छोड़ दिया गया। 4 अप्रैल 1982 को अनिल प्रकाश के नेतृत्व में कहलगाँव के कागजी टोला में जल श्रमिक सम्मेलन हुआ और उसी दिन जलकर जमींदारों के खिलाफ संगठित आवाज उठी।
ग्यारह वर्षों के अहिंसक आन्दोलन के फलस्वरूप जनवरी 1991 में बिहार सरकार ने घोषणा की कि तत्काल प्रभाव से गंगा समेत बिहार की नदियों की मुख्यधारा तथा इससे जुड़े कोल ढाव में परम्परागत मछुआरे नि:शुल्क शिकारमाही कर सकेंगे। इन जलकरों की कोई-कोई बन्दोबस्ती नहीं होगी। उस समय के आन्दोलन में जो विषय और मुद्दे रखे गए थे। आज वे मुद्दे और ज्यादा प्रासंगिक हो गए हैं। फरक्का का सवाल और ज्यादा गम्भीर है। विकास के मॉडल पर बहस कहलगाँव में निमार्णाधीन एनटीपीसी से आरम्भ हुई थी। उस समय यह नारा था- कहर ढाएगा एनटीपीसी। आज यह सच साबित हो रहा है। गंगा पर और 16 बैराज बनाने की तैयारी में है सरकार।
विकास और पर्यावरण के बीच अघोषित युद्ध ने समाज और प्रकृति के रिश्तों की उपेक्षा की है। उत्तराखण्ड में अगर 558 बाँध बन गए तो इसके कारण ही बनने वाली लगभग 1,500 किमी लम्बी सुरंगों के ऊपर लगभग 1,000 गाँव आ सकते हैं। यहाँ पर लगभग 30 लाख लोग निवास करते हैं। विस्फोटों के कारण जर्जर हो रहे गाँव की स्थिति आने वाले भूकम्पों से कितनी खतरनाक होगी, इसका आकलन नहीं किया जा सकता है।
उत्तरकाशी जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग धरासू से डुण्डा तक लगभग 10 किमी के चौड़ीकरण के कारण अब तक एक दर्जन से अधिक लोग मर गए हैं और कई गाड़ियाँ यहाँ पर क्षतिग्रस्त हो चुकी हैं। विस्फोटों से हुए इस निर्माण के कारण पिछले 5-6 वर्षाें से इस मार्ग से गंगोत्री पहुँचने वाले तीर्थ यात्री घंटों फँसे रहते हैं। यही स्थिति बद्रीनाथ, केदारनाथ, यमुनोत्री की तरफ जाने वाले सभी राजमार्गाें की है। इस विषम स्थिति में ही चारधाम यात्रा होती है। इसी प्रकार उत्तरकाशी में मनेरी भाली फेज-1, फेज-2 (394), असीगंगा पर निर्माणाधीन फेज-1, फेज-2 (5) ने सन् 2012 में भयंकर बाढ़ की स्थिति पैदा की है।
दुःख इस बात का है कि मनेरी भाली फेज-1, फेज-2 का गेट वर्षाकाल के समय रात को बन्द रहते हैं, जिसे ऊपर से बाढ़ आने पर अकस्मात खोल दिया जाता है। इसी के कारण उत्तरकाशी में तबाही हुई है। यही सिलसिला केदारनाथ से आने वाली मन्दाकिनी नदी पर निर्मणाधीन सिंगोली-भटवाड़ी (90), फाटा व्योंग (75), अलकनन्दा पर श्रीनगर (330), तपोवन विष्णुगाड़ (520), विष्णुगाड़ (400), आदि दर्जनों परियोजनाओं ने तबाही की रेखा यहाँ के लोगों के माथे पर खींची गई है। दरअसल में जल, जंगल, पहाड़, वायु ,सूरज और उसकी धूप और उससे पैदा उर्जा जन सम्पदा है। सरकार को उसके संचालन के लिये चुना गया है। वह उसकी मालिक नहीं है। आइए गंगा और प्रकृति के साथ मनुष्य के रागात्मक सम्बन्धों के प्रति संवेदनशील बनें।
स्थान : सर्वसेवा संघ, राजघाट,वाराणसी
इस अधिवेशन में गंगा मुक्ति आन्दोलन के साथ-साथ साझा संस्कृति मंच और सर्व सेवा संघ भी है। तीन दिवसीय सम्मेलन में गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान की अध्यक्षा राधा भट्ट, स्वामी अविमुक्तेश्वरानन्द, सुप्रसिद्ध पत्रकार भरत झुनझुनवाला, अनिल चमड़िया, बी.डी.त्रिपाठी, प्रो. यू.के. चौधरी, राज्यसभा सदस्य अली अनवर, अनिल साहिनी, अमरनाथ भाई, वृजखंडेलवाल, जया मिश्रा, पर्यावरणविद् सुरेश भाई सहित देश के नदियों और घाटियों के संघर्ष से जुड़े लोग हिस्सा लेंगे। यह जानकारी गंगा मुक्ति आन्दोलन के अनिल प्रकाश ने दी। जमीन, खेती, हरियाली, जीव-जन्तुओं और पौधों सबकी हिफाज़त करती है गंगा। हमारे मछुआरे, किसान, सब्जी उत्पादक और गंगा बेसिन के किसानों का जीना मरना गंगा के साथ है। अपनी आजीविका के लिए गंगा पर आश्रित है। इसके पास सदियों से इंसानी तजुर्बा है। आज हिमालय से लेकर गंगा सागर तक पूरी गंगा बेसिन संकटग्रस्त है।
दसियों करोड़ लोगों की जीविका, उनका जीवन तथा जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों तक के अस्तित्व पर खतरा मँडराने लगा है। गंगा की समस्या के समाधान की अब तक की कोशिशें ही उसकी बर्बादी और तबाही का सबब बनती जा रही हैं। गंगा के ज्वलन्त सवालों को लेकर 10-11-12 अप्रैल 2015 सर्वसेवा संघ, राजघाट, वाराणसी में गंगा मुक्ति आन्दोलन का वाराणसी सम्मेलन आयोजित किया गया है।
इस अधिवेशन में गंगा मुक्ति आन्दोलन के साथ-साथ साझा संस्कृति मंच और सर्व सेवा संघ भी है। तीन दिवसीय सम्मेलन में गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान की अध्यक्षा राधा भट्ट, स्वामी अविमुक्तेश्वरानन्द, सुप्रसिद्ध पत्रकार भरत झुनझुनवाला, अनिल चमड़िया, बी.डी.त्रिपाठी, प्रो. यू.के. चौधरी, राज्यसभा सदस्य अली अनवर, अनिल साहिनी, अमरनाथ भाई, वृजखंडेलवाल, जया मिश्रा, पर्यावरणविद् सुरेश भाई सहित देश के नदियों और घाटियों के संघर्ष से जुड़े लोग हिस्सा लेंगे। यह जानकारी गंगा मुक्ति आन्दोलन के अनिल प्रकाश ने दी।
10 अप्रैल को उद्घाटन सत्र में 'गंगा संरक्षण और चुनौती सम्भावना' विषय पर चर्चा होगी।
वरुणा नदी के नाम को समाहित करते हुए शहर का नाम 'वाराणसी' पड़ा है. वरुणा + असी = वाराणसी (अस्सी गंगा नदी का सुप्रसिद्ध घाट)। इसी दिन दूसरे सत्र में 'वरुणा असी एवं गंगा' पर चर्चा होगी। दूसरे दिन प्रथम सत्र का विषय रखा गया है- 'हिमालय बचेगा तो गंगा बचेगी'। दूसरे सत्र में 'गंगा पर बैराज की शृंखला' पर चर्चा होगी।
इन सवालों पर अलग-अलग समूह विमर्श होगा। 12 अप्रैल को इन सवालों पर भावी कार्ययोजना तय की जाएगी और फिर वाराणसी घोषणा पत्र जारी किया जाएगा। संध्या समय भैंसासुर घाट पर नौका जुलूस निकाला जाएगा। फिर गंगा पर आश्रित मछुआरों, नाविकों की बड़ी सभा होगी।
ग़ौरतलब है कि बिहार के सुल्तानगंज से लेकर पीरपैंती तक 80 किलोमीटर के क्षेत्र में जलकर जमींदारी थी। यह जमींदारी मुगलकाल से चली आ रही थी। सुल्तानगंज से बरारी के बीच जलकर गंगा पथ की जमींदारी महाशय घोष की थी। बरारी से लेकर पीरपैंती तक मकससपुर की आधी-आधी जमींदारी क्रमशः मुर्शिदाबाद, पश्चिम बंगाल के मुसर्रफ हुसैन प्रमाणिक और महाराज घोष की थी।
यह जमींदारी किसी आदमी के नाम पर नहीं बल्कि देवी-देवताओं के नाम पर थी। ये देवता थे श्री श्री भैरवनाथ जी, श्री श्री ठाकुर वासुदेव राय, श्री शिवजी एवं अन्य। कागजी तौर जमींदार की हैसियत केवल सेवायत की रही है। सन् 1908 के आसपास दियारे के ज़मीन का काफी उलट-फेर हुआ। जमींदारों के ज़मीन पर आए लोगों द्वारा कब्ज़ा किया गया। किसानों में संघर्ष का आक्रोश पूरे इलाके में फैला।
जलकर जमींदार इस जागृति से भयभीत हो गए और 1930 के आसपास ट्रस्ट बनाकर देवी-देवताओं के नाम कर दिया। इस जलकर जमींदारी खत्म करने के लिये 1961 में एक कोशिश की गई भागलपुर के तत्कालीन डिप्टी कलेक्टर ने इस जमींदारी को खत्म कर मछली बन्दोबस्ती की जवाबदेही सरकार पर डाल दी। मई 1961 में जमींदारों ने उच्च न्यायालय में इस कार्रवाई के खिलाफ अपील की और अगस्त 1961 में जमींदारों को स्टे ऑर्डर मिल गया।
1964 में उच्च न्यायालय ने जमींदारों के पक्ष में फैसला सुनाया तथा तर्क दिया कि जलकर की जमींदारी यानी फिशरिज राइट मुगल बादशाह ने दी थी और जलकर के अधिकार का प्रश्न ज़मीन के प्रश्न से अलग है। क्योंकि ज़मीन की तरह यह अचल सम्पत्ति नहीं है। इस कारण यह बिहार भूमि सुधार कानून के अन्तर्गत नहीं आता है।
बिहार सरकार ने उच्च न्यायालय के फैसले के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की और सिर्फ एक व्यक्ति मुसर्रफ हुसैन प्रमाणिक को पार्टी बनाया गया। जबकि बड़े जमींदार मुसर्रफ हुसैन प्रमाणिक को छोड़ दिया गया। 4 अप्रैल 1982 को अनिल प्रकाश के नेतृत्व में कहलगाँव के कागजी टोला में जल श्रमिक सम्मेलन हुआ और उसी दिन जलकर जमींदारों के खिलाफ संगठित आवाज उठी।
ग्यारह वर्षों के अहिंसक आन्दोलन के फलस्वरूप जनवरी 1991 में बिहार सरकार ने घोषणा की कि तत्काल प्रभाव से गंगा समेत बिहार की नदियों की मुख्यधारा तथा इससे जुड़े कोल ढाव में परम्परागत मछुआरे नि:शुल्क शिकारमाही कर सकेंगे। इन जलकरों की कोई-कोई बन्दोबस्ती नहीं होगी। उस समय के आन्दोलन में जो विषय और मुद्दे रखे गए थे। आज वे मुद्दे और ज्यादा प्रासंगिक हो गए हैं। फरक्का का सवाल और ज्यादा गम्भीर है। विकास के मॉडल पर बहस कहलगाँव में निमार्णाधीन एनटीपीसी से आरम्भ हुई थी। उस समय यह नारा था- कहर ढाएगा एनटीपीसी। आज यह सच साबित हो रहा है। गंगा पर और 16 बैराज बनाने की तैयारी में है सरकार।
विकास और पर्यावरण के बीच अघोषित युद्ध ने समाज और प्रकृति के रिश्तों की उपेक्षा की है। उत्तराखण्ड में अगर 558 बाँध बन गए तो इसके कारण ही बनने वाली लगभग 1,500 किमी लम्बी सुरंगों के ऊपर लगभग 1,000 गाँव आ सकते हैं। यहाँ पर लगभग 30 लाख लोग निवास करते हैं। विस्फोटों के कारण जर्जर हो रहे गाँव की स्थिति आने वाले भूकम्पों से कितनी खतरनाक होगी, इसका आकलन नहीं किया जा सकता है।
उत्तरकाशी जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग धरासू से डुण्डा तक लगभग 10 किमी के चौड़ीकरण के कारण अब तक एक दर्जन से अधिक लोग मर गए हैं और कई गाड़ियाँ यहाँ पर क्षतिग्रस्त हो चुकी हैं। विस्फोटों से हुए इस निर्माण के कारण पिछले 5-6 वर्षाें से इस मार्ग से गंगोत्री पहुँचने वाले तीर्थ यात्री घंटों फँसे रहते हैं। यही स्थिति बद्रीनाथ, केदारनाथ, यमुनोत्री की तरफ जाने वाले सभी राजमार्गाें की है। इस विषम स्थिति में ही चारधाम यात्रा होती है। इसी प्रकार उत्तरकाशी में मनेरी भाली फेज-1, फेज-2 (394), असीगंगा पर निर्माणाधीन फेज-1, फेज-2 (5) ने सन् 2012 में भयंकर बाढ़ की स्थिति पैदा की है।
दुःख इस बात का है कि मनेरी भाली फेज-1, फेज-2 का गेट वर्षाकाल के समय रात को बन्द रहते हैं, जिसे ऊपर से बाढ़ आने पर अकस्मात खोल दिया जाता है। इसी के कारण उत्तरकाशी में तबाही हुई है। यही सिलसिला केदारनाथ से आने वाली मन्दाकिनी नदी पर निर्मणाधीन सिंगोली-भटवाड़ी (90), फाटा व्योंग (75), अलकनन्दा पर श्रीनगर (330), तपोवन विष्णुगाड़ (520), विष्णुगाड़ (400), आदि दर्जनों परियोजनाओं ने तबाही की रेखा यहाँ के लोगों के माथे पर खींची गई है। दरअसल में जल, जंगल, पहाड़, वायु ,सूरज और उसकी धूप और उससे पैदा उर्जा जन सम्पदा है। सरकार को उसके संचालन के लिये चुना गया है। वह उसकी मालिक नहीं है। आइए गंगा और प्रकृति के साथ मनुष्य के रागात्मक सम्बन्धों के प्रति संवेदनशील बनें।