रक्षासूत्र आन्दोलन के कारण भागीरथी, भिलंगना, यमुना, टौंस, धर्मगंगा, बालगंगा आदि कई नदी जलग्रहण क्षेत्रों में वन निगम द्वारा किए जाने वाले लाखों हरे पेड़ों की कटाई को सफलतापूर्वक रोक दिया गया है। यहां तक कि टिहरी और उत्तरकाशी में सन् 1997 में लगभग 121 वन कर्मियों को वन मंत्रालय की एक जाँच कमेटी के द्वारा निलंबित भी किया गया था। रक्षासूत्र आन्दोलन ने ‘‘ग्राम वन’’ के विकास-प्रसार पर भी ध्यान दिया। इसके अंतर्गत जहां-जहां पर लोग परंपरागत तरीके से वन बचाते आ रहे हैं और इसका दोहन भी अपनी आवश्यकतानुसार करते हैं। वनों के विनाश को रोकने में भारत सरकार के सन् 1983 के चिपको के साथ उस समझौते का खुला उल्लंघन माना गया है, जिसमें 1000 मीटर की ऊँचाई से वनों के कटान पर लगे प्रतिबंध को 10 वर्ष बाद यानि सन् 1994 में यह कहकर हटा दिया गया कि हरे पेड़ों के कटान से जनता के हक-हकूकों की आपूर्ति की जाएगी। जबकि सन् 1983 में चिपको आंदोलन के साथ हुए इस समझौते के बाद सरकारी तंत्र ने वनों के संरक्षण का दायित्व स्वयं उठाया था।
इसके बावजूद भी टिहरी, उत्तरकाशी जनपदों में सन् 1983-98 के दौरान गोमुख, जांगला, नेलंग, कारचा, हर्षिल, चैंरगीखाल, हरून्ता, अडाला, मुखेम, रयाला, मोरी, भिलंग आदि कई वन क्षेत्रों में कोई भी स्थान ऐसा नहीं था, जहाँ पर वनों की कटाई प्रारंभ न हुई हो। सन् 1994 में वनों की इस व्यावसायिक कटाई के खिलाफ ‘‘रक्षासूत्र आन्दोलन’’ प्रारंभ हुआ। पर्यावरण संरक्षण से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं ने वनों में जाकर कटान का अध्ययन किया था।
यहाँ पर राई, कैल, मुरेंडा, खर्सू, मौरू, बांझ, बुरांस, के साथ अनेकों प्रकार की जड़ी-बूटियाँ एवं जैव विविधता मौजूद है। अध्ययन के दौरान पाया कि वन विभाग ने वन निगम के साथ मिलकर हजारों हरे पेड़ों पर छपान कर रखा था। वन निगम जंगलों में रातों-रात अंधाधुंध कटान करवा रहा था। कई सामाजिक संस्थाओं द्वारा बनाई गई पर्यावरण टीम ने इसकी सूचना आस-पास के ग्रामीणों को दी थी। यह सूचना मिलने पर गांव के लोग सजग हुए।
यह जानने का प्रयास भी किया गया था कि वन निगम आखिर किसकी स्वीकृति से हरे पेड़ काट रहा है। इसकी तह में निहारने से पता चला कि क्षेत्र के कुछ ग्राम प्रधानों से ही वन विभाग ने यह मुहर लगवा दी थी कि उनके आस-पास के जंगलों में काफी पेड़ सूख गए हैं और इसके कारण गांव की महिलाएं जंगल में आना-जाना नहीं कर पा रही है।
इसमें दुर्भाग्य की बात यह थी कि जनप्रतिनिधि भी जंगलों को काटने का ठेका लिए हुए थे, जिसके कारण ग्रामीणों को पहले अपने ही जनप्रतिनिधियों से संघर्ष करना पड़ा था। इस प्रकार वन कटान को रोकने के संबंध में टिहरी-उत्तरकाशी के गांव थाती, खवाड़ा, भेटी, डालगांव, चौदियाट गांव, दिखोली, सौड़, भेटियारा, कमद, ल्वार्खा, मुखेम, हर्षिल, मुखवा, उत्तरकाशी आदि कई स्थानों पर हुई बैठकों में पेड़ों पर ‘‘रक्षासूत्र’’ बाँधे जाने का निर्णय लिया गया था, जिसे रक्षासूत्र आन्दोलन के रूप में जाना जाता है।
रक्षासूत्र आन्दोलन की मांग थी कि जंगलों से सर्वप्रथम लोगों के हक-हकूकों की आपूर्ति होनी चाहिए, और वन कटान का सर्वाधिक दोषी वन निगम में आमूल-चूल परिवर्तन करने की मांग भी उठाई गई थी। इसके चलते ऊँचाई की दुर्लभ प्रजाति कैल, मुरेंडा, खर्सू, मौरू, बांझ, बुरांस, दालचीनी, देवदार आदि की लाखों वन प्रजातियों को बचाने का काम रक्षासूत्र आन्दोलन ने किया है।
ऊँचाई पर स्थित वन संपदा के कारण वर्षा नियंत्रित रहती है और नीचे घाटियों की ओर पानी के स्रोत निकलकर आते हैं। रक्षासूत्र आन्दोलन के कारण महिलाओं का पेड़ों से भाईयों के जैसा रिश्ता बना है और जिस तरह चिपको आन्दोलन की महिला नेत्री गौरा देवी ने जंगलों को अपना मायका कहा है, उसको रक्षासूत्र आन्दोलन ने मूर्त रूप दिया है और प्रभावी रूप से वनों पर जनता के पारंपरिक अधिकारों की रक्षा का बीड़ा उठाया है।
रक्षासूत्र आन्दोलन के कारण भागीरथी, भिलंगना, यमुना, टौंस, धर्मगंगा, बालगंगा आदि कई नदी जलग्रहण क्षेत्रों में वन निगम द्वारा किए जाने वाले लाखों हरे पेड़ों की कटाई को सफलतापूर्वक रोक दिया गया है। यहां तक कि टिहरी और उत्तरकाशी में सन् 1997 में लगभग 121 वन कर्मियों को वन मंत्रालय की एक जाँच कमेटी के द्वारा निलंबित भी किया गया था।
रक्षासूत्र आन्दोलन ने ‘‘ग्राम वन’’ के विकास-प्रसार पर भी ध्यान दिया। इसके अंतर्गत जहां-जहां पर लोग परंपरागत तरीके से वन बचाते आ रहे हैं और इसका दोहन भी अपनी आवश्यकतानुसार करते हैं, ऐसे कई गाँवों में ग्राम वन के संरक्षण के लिए भी पेड़ों पर रक्षासूत्र बांधे गए। ग्राम वन का प्रबंधन, वितरण, सुरक्षा गांव आधारित चौकीदारी प्रथा से की जाती है।
वन चौकीदार का जीवन निर्वाह गांव वालों पर निर्भर रहता है। इसके कारण गांव वालों की चारापत्ती, खेती, फसल सुरक्षा, जंगली जानवरों से सुरक्षा तथा पड़ोसी गांव से भी जंगल की सुरक्षा की जाती है। इससे महिलाओं के कष्टमय जीवन को राहत मिलती है। वन संरक्षण व संवर्द्धन के साथ-साथ जल संरक्षण के काम को भी सफलतापूर्वक आगे बढ़ाया गया।
रक्षासूत्र आंदोलन के चलते सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा बनाई गई हिमालयी पर्यावरण शिक्षा संस्थान ने सन् 1995 से लगातार गांव-गांव में महिला संगठनों के साथ 400 छोटे तालाब बना दिए हैं, इसके साथ ही अग्नि नियंत्रण के लिए भी स्थान-स्थान पर रक्षासूत्र आन्दोलन किया है। परन्तु जब से लोगों को हक-हकूक मिलने कम हुए हैं तब से वनों को आग से बचाए रखना भी चुनौती है।
रक्षासूत्र आन्दोलन में मन्दोदरी देवी, जेठी देवी, सुशीला पैन्यूली, सुमती नौटियाल, बंसती नेगी, मीना नौटियाल, कुंवरी कलूडा, गंगा देवी रावत, गंगा देवी चौहान, हिमला बहन, उमा देवी, विमला देवी, अनिता देवी और क्षेत्र की तमाम वे महिलाएं जो मुख्य रूप से दिखोली, चौदियाट गांव, खवाडा, भेटी, बूढ़ाकेदार, हर्षिल, मुखेम आदि कई गाँवों से सक्रिय योगदान दिया है।
रक्षासूत्र आन्दोलन की सफलता ने वनों के प्रति एक नई दृष्टि को जन्म दिया। इसके बाद उत्तराखंड में विभिन्न इलाकों में विभिन्न मुद्दों को लेकर वनान्दोलन चलने लगे। किंतु रक्षासूत्र आन्दोलन हर वर्ष अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर वन बचाओ हेतु वन सम्मेलन करवाते हैं, जिसमें प्रत्येक क्षेत्र से कार्यकर्ताओं द्वारा वन संबंधी जानकारी उपलब्ध करवाई जाती है।
आन्दोलन की खास बात यह है कि इससे जुड़े कार्यकर्ता अपने-अपने क्षेत्र में प्रत्येक वर्ष सघन वृक्षारोपण के साथ-साथ वनों को बचाने के लिए पेड़ों पर रक्षा बंधन करवाते हैं, ताकि लोगों की इन पेड़ों से आत्मीयता बंधे और वनों का व्यावसायिक दोहन न हो सके।
पिछले 15-20 वर्षों के दौरान जहां-जहां अवैध कटान किया गया है वहां-वहां रक्षासूत्र आन्दोलन द्वारा गठित ‘‘उत्तराखंड’’ वन अध्ययन जन समिति ने अपनी एक रिपोर्ट में उन क्षेत्रों का विस्तृत ब्यौरा दिया है तथा उत्तर प्रदेश वन निगम को प्रतिवर्ष जो करोड़ो रुपयों का लाभ मिला है उसमें 80 प्रतिशत लाभ उत्तराखंड के वनों के कटान से प्राप्त हुआ है।
गढ़वाल विश्वविद्यालय के पर्वतीय शोध केन्द्र ने रक्षासूत्र की घटनाओं पर एक पुस्तक तैयार की है।
नवसृजित उत्तराखंड राज्य में जलनीति बनाने की जोरदार वकालत रक्षासूत्र आन्दोलन की टीम कर चुकी हैं। इसके लिए लोक जलनीति बनाकर अब तक आई सभी राज्य सरकारों ने इसका स्वागत करके इसके अनुसार जलनीति बनाने का आश्वासन देते रहते हैं। उत्तराखंड राज्य निर्माण के बाद रक्षासूत्र आन्दोलन की टीम ने नए राज्य की रीति-नीति के लिए राज्य व्यवस्था को जनता के सुझाव कई दस्तावेज़ों के माध्यम से सौंपे हैं।
चिपको के बाद रक्षासूत्र आन्दोलन पेड़ों की कटान रोकने तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि जल, जंगल, जमीन की एकीकृत समझ बढ़ाने के प्रति लोगों को जागरूक भी करता आ रहा है, जिसके परिणामस्वरूप उत्तराखंड नदी बचाओ अभियान एवं हिमालय नीति के विषय पर लगातार संवाद जारी है।
धरती को प्राण वायु देने वाले पेड़, पौधे एवं वनस्पतियाँ हैं। जहाँ-जहाँ पर घना जंगल हो और उसमें भी यदि चौड़ी पत्ती वाले वन की अधिकता हो, तो वहाँ पर लोगों को स्वच्छ जल, हवा और प्राकृतिक सौंदर्य का भरपूर आनंद मिलता है।
बदलते जलवायु के दौरान पेड़-पौधों और वनस्पतियों का महत्व और अधिक बढ़ जाता है। खासकर हिमालय में रहने वाले वनवासियों का जीवन जंगल के बिना अधूरा है। आज के संदर्भ में जंगलों का सबसे बड़ा उपकार जलवायु को नियंत्रित करने में है। दूसरा पर्वतीय क्षेत्रों की बहनों को घास, लकड़ी, पानी की आपूर्ति होती है।
जहाँ-जहाँ जंगल गांव से दूर भाग रहे हैं, वहाँ पर महिलाओं को घास, लकड़ी का संकट हो गया है। इस संकट से बचने के लिए, जिस प्रकार भाई-बहन का रिश्ता बना हुआ है, रक्षा बंधन में बहनें अपने भाई के हाथों में रक्षा का धागा बाँधकर जन्म-जन्म तक के रिश्ते को मजबूत करती हैं, उसी तरह बहनें अब पेड़ों को जिंदा रखने के लिए पेड़ों के तनों पर राखी बाँधती हैं। इसके संदेश स्पष्ट हैं कि जंगल को मायके रूप में देखने वाली महिलाओं को लगता है कि पेड़ यदि नहीं रहेंगे तो, उनका घास, पानी, लकड़ी, खेती चौपट हो सकती है। जहाँ जंगल हैं वहाँ की कृषि भूमि में आर्द्रता है।
पहाड़ी क्षेत्रों में एक ही खेतों में बारह प्रकार की फसल उगाने में जंगलों का अद्भुत योगदान है। एक ही खेत में मंडवा, गहत, उड़द, तिल, भंगजीर, सुँटा, सोयाबीन, ककड़ी, रामदाना, कद्दू के साथ-साथ जंगली सब्जी कंडलिया, ढोलण, लेंगड़ा जैसी अमूल्य फसलों को लोग प्राप्त करते हैं।
आज वनों पर व्यापारिक दृष्टि होने से बारहनाजा भी प्रभावित हो गया है। महिलाओं का जीवन संकट में पड़ गया है। बच्चों का स्वस्थ्य बिगड़ गया है। घरों में जंगली सब्जियों के अभाव में बाहर से आ रही सब्जियों के साथ तरह-तरह की बीमारियाँ गांव में पहुँच रही हैं। इसके कारण गरीब व्यक्ति की जीविका नष्ट हो गई है। खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ गई है।
वैश्वीकरण के कारण पोषित हो रही निजीकरण की व्यवस्था ने वनों की हजामत करके उसके स्थान पर व्यावसायिक कृषि करने की नाकाम योजनाओं को अंजाम दे दिया है। इससे एक ओर जंगल समाप्त हो रहे हैं, दूसरी ओर बाहरी बीजों से उगाई जाने वाली फसलों से खेती की उपजाऊ जमीन की ताकत जल्दी ही समाप्त हो जाती है।
मिश्रित वनों को बनाने का दृष्टिकोण वन व्यवस्था के पास नहीं है। वेतन पर आधारित वन व्यवस्था कभी नहीं चाहती हैं कि मिश्रित वन को तैयार करने में गाँवों के साथ मेहनत की जाए।
जिन जंगलों को पालने तथा आग से बचाने में लोगों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है, वह केवल वन विभाग के हाथों की कठपुतली बनाए रखने से, वे रहे-सहे जंगलों का हिसाब अब कार्बन क्रेडिट के रूप में देखने लगे हैं। अतः लोगों के बचाए जंगल का पैसा किसी और के काम आएगा इससे बड़ा छलावा वनवासी जनता के साथ और कोई आज के जमाने में नहीं हैं।
अब महिलाओं ने आवाज उठाई है कि जो जंगल बचाएगा वही कार्बन क्रेडिट का मालिक होगा, इसका लाभ गांव के किसानों को सीधे मिलना चाहिए। इस समय दुनिया भर में समस्या आ गए है कि वनवासियों को उनके वनों से अलग-थलग रखकर के पूँजीपति व कारपोरेट घरानों के लोग हरित क्षेत्र के नाम पर भी पैसा बटोरने लगे हैं। बाजारीकरण के नाम पर इसको खुली छूट है जिससे जितना चाहिए उतनी लूट की जा रही है।
इसके बावजूद भी टिहरी, उत्तरकाशी जनपदों में सन् 1983-98 के दौरान गोमुख, जांगला, नेलंग, कारचा, हर्षिल, चैंरगीखाल, हरून्ता, अडाला, मुखेम, रयाला, मोरी, भिलंग आदि कई वन क्षेत्रों में कोई भी स्थान ऐसा नहीं था, जहाँ पर वनों की कटाई प्रारंभ न हुई हो। सन् 1994 में वनों की इस व्यावसायिक कटाई के खिलाफ ‘‘रक्षासूत्र आन्दोलन’’ प्रारंभ हुआ। पर्यावरण संरक्षण से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं ने वनों में जाकर कटान का अध्ययन किया था।
यहाँ पर राई, कैल, मुरेंडा, खर्सू, मौरू, बांझ, बुरांस, के साथ अनेकों प्रकार की जड़ी-बूटियाँ एवं जैव विविधता मौजूद है। अध्ययन के दौरान पाया कि वन विभाग ने वन निगम के साथ मिलकर हजारों हरे पेड़ों पर छपान कर रखा था। वन निगम जंगलों में रातों-रात अंधाधुंध कटान करवा रहा था। कई सामाजिक संस्थाओं द्वारा बनाई गई पर्यावरण टीम ने इसकी सूचना आस-पास के ग्रामीणों को दी थी। यह सूचना मिलने पर गांव के लोग सजग हुए।
यह जानने का प्रयास भी किया गया था कि वन निगम आखिर किसकी स्वीकृति से हरे पेड़ काट रहा है। इसकी तह में निहारने से पता चला कि क्षेत्र के कुछ ग्राम प्रधानों से ही वन विभाग ने यह मुहर लगवा दी थी कि उनके आस-पास के जंगलों में काफी पेड़ सूख गए हैं और इसके कारण गांव की महिलाएं जंगल में आना-जाना नहीं कर पा रही है।
इसमें दुर्भाग्य की बात यह थी कि जनप्रतिनिधि भी जंगलों को काटने का ठेका लिए हुए थे, जिसके कारण ग्रामीणों को पहले अपने ही जनप्रतिनिधियों से संघर्ष करना पड़ा था। इस प्रकार वन कटान को रोकने के संबंध में टिहरी-उत्तरकाशी के गांव थाती, खवाड़ा, भेटी, डालगांव, चौदियाट गांव, दिखोली, सौड़, भेटियारा, कमद, ल्वार्खा, मुखेम, हर्षिल, मुखवा, उत्तरकाशी आदि कई स्थानों पर हुई बैठकों में पेड़ों पर ‘‘रक्षासूत्र’’ बाँधे जाने का निर्णय लिया गया था, जिसे रक्षासूत्र आन्दोलन के रूप में जाना जाता है।
रक्षासूत्र आन्दोलन की मांग थी कि जंगलों से सर्वप्रथम लोगों के हक-हकूकों की आपूर्ति होनी चाहिए, और वन कटान का सर्वाधिक दोषी वन निगम में आमूल-चूल परिवर्तन करने की मांग भी उठाई गई थी। इसके चलते ऊँचाई की दुर्लभ प्रजाति कैल, मुरेंडा, खर्सू, मौरू, बांझ, बुरांस, दालचीनी, देवदार आदि की लाखों वन प्रजातियों को बचाने का काम रक्षासूत्र आन्दोलन ने किया है।
ऊँचाई पर स्थित वन संपदा के कारण वर्षा नियंत्रित रहती है और नीचे घाटियों की ओर पानी के स्रोत निकलकर आते हैं। रक्षासूत्र आन्दोलन के कारण महिलाओं का पेड़ों से भाईयों के जैसा रिश्ता बना है और जिस तरह चिपको आन्दोलन की महिला नेत्री गौरा देवी ने जंगलों को अपना मायका कहा है, उसको रक्षासूत्र आन्दोलन ने मूर्त रूप दिया है और प्रभावी रूप से वनों पर जनता के पारंपरिक अधिकारों की रक्षा का बीड़ा उठाया है।
रक्षासूत्र आन्दोलन के कारण भागीरथी, भिलंगना, यमुना, टौंस, धर्मगंगा, बालगंगा आदि कई नदी जलग्रहण क्षेत्रों में वन निगम द्वारा किए जाने वाले लाखों हरे पेड़ों की कटाई को सफलतापूर्वक रोक दिया गया है। यहां तक कि टिहरी और उत्तरकाशी में सन् 1997 में लगभग 121 वन कर्मियों को वन मंत्रालय की एक जाँच कमेटी के द्वारा निलंबित भी किया गया था।
रक्षासूत्र आन्दोलन ने ‘‘ग्राम वन’’ के विकास-प्रसार पर भी ध्यान दिया। इसके अंतर्गत जहां-जहां पर लोग परंपरागत तरीके से वन बचाते आ रहे हैं और इसका दोहन भी अपनी आवश्यकतानुसार करते हैं, ऐसे कई गाँवों में ग्राम वन के संरक्षण के लिए भी पेड़ों पर रक्षासूत्र बांधे गए। ग्राम वन का प्रबंधन, वितरण, सुरक्षा गांव आधारित चौकीदारी प्रथा से की जाती है।
वन चौकीदार का जीवन निर्वाह गांव वालों पर निर्भर रहता है। इसके कारण गांव वालों की चारापत्ती, खेती, फसल सुरक्षा, जंगली जानवरों से सुरक्षा तथा पड़ोसी गांव से भी जंगल की सुरक्षा की जाती है। इससे महिलाओं के कष्टमय जीवन को राहत मिलती है। वन संरक्षण व संवर्द्धन के साथ-साथ जल संरक्षण के काम को भी सफलतापूर्वक आगे बढ़ाया गया।
रक्षासूत्र आंदोलन के चलते सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा बनाई गई हिमालयी पर्यावरण शिक्षा संस्थान ने सन् 1995 से लगातार गांव-गांव में महिला संगठनों के साथ 400 छोटे तालाब बना दिए हैं, इसके साथ ही अग्नि नियंत्रण के लिए भी स्थान-स्थान पर रक्षासूत्र आन्दोलन किया है। परन्तु जब से लोगों को हक-हकूक मिलने कम हुए हैं तब से वनों को आग से बचाए रखना भी चुनौती है।
रक्षासूत्र आन्दोलन में मन्दोदरी देवी, जेठी देवी, सुशीला पैन्यूली, सुमती नौटियाल, बंसती नेगी, मीना नौटियाल, कुंवरी कलूडा, गंगा देवी रावत, गंगा देवी चौहान, हिमला बहन, उमा देवी, विमला देवी, अनिता देवी और क्षेत्र की तमाम वे महिलाएं जो मुख्य रूप से दिखोली, चौदियाट गांव, खवाडा, भेटी, बूढ़ाकेदार, हर्षिल, मुखेम आदि कई गाँवों से सक्रिय योगदान दिया है।
रक्षासूत्र आन्दोलन की सफलता ने वनों के प्रति एक नई दृष्टि को जन्म दिया। इसके बाद उत्तराखंड में विभिन्न इलाकों में विभिन्न मुद्दों को लेकर वनान्दोलन चलने लगे। किंतु रक्षासूत्र आन्दोलन हर वर्ष अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर वन बचाओ हेतु वन सम्मेलन करवाते हैं, जिसमें प्रत्येक क्षेत्र से कार्यकर्ताओं द्वारा वन संबंधी जानकारी उपलब्ध करवाई जाती है।
आन्दोलन की खास बात यह है कि इससे जुड़े कार्यकर्ता अपने-अपने क्षेत्र में प्रत्येक वर्ष सघन वृक्षारोपण के साथ-साथ वनों को बचाने के लिए पेड़ों पर रक्षा बंधन करवाते हैं, ताकि लोगों की इन पेड़ों से आत्मीयता बंधे और वनों का व्यावसायिक दोहन न हो सके।
पिछले 15-20 वर्षों के दौरान जहां-जहां अवैध कटान किया गया है वहां-वहां रक्षासूत्र आन्दोलन द्वारा गठित ‘‘उत्तराखंड’’ वन अध्ययन जन समिति ने अपनी एक रिपोर्ट में उन क्षेत्रों का विस्तृत ब्यौरा दिया है तथा उत्तर प्रदेश वन निगम को प्रतिवर्ष जो करोड़ो रुपयों का लाभ मिला है उसमें 80 प्रतिशत लाभ उत्तराखंड के वनों के कटान से प्राप्त हुआ है।
गढ़वाल विश्वविद्यालय के पर्वतीय शोध केन्द्र ने रक्षासूत्र की घटनाओं पर एक पुस्तक तैयार की है।
नवसृजित उत्तराखंड राज्य में जलनीति बनाने की जोरदार वकालत रक्षासूत्र आन्दोलन की टीम कर चुकी हैं। इसके लिए लोक जलनीति बनाकर अब तक आई सभी राज्य सरकारों ने इसका स्वागत करके इसके अनुसार जलनीति बनाने का आश्वासन देते रहते हैं। उत्तराखंड राज्य निर्माण के बाद रक्षासूत्र आन्दोलन की टीम ने नए राज्य की रीति-नीति के लिए राज्य व्यवस्था को जनता के सुझाव कई दस्तावेज़ों के माध्यम से सौंपे हैं।
चिपको के बाद रक्षासूत्र आन्दोलन पेड़ों की कटान रोकने तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि जल, जंगल, जमीन की एकीकृत समझ बढ़ाने के प्रति लोगों को जागरूक भी करता आ रहा है, जिसके परिणामस्वरूप उत्तराखंड नदी बचाओ अभियान एवं हिमालय नीति के विषय पर लगातार संवाद जारी है।
पेड़ों पर रक्षासूत्र बाँधकर जलवायु नियंत्रण का संदेश
धरती को प्राण वायु देने वाले पेड़, पौधे एवं वनस्पतियाँ हैं। जहाँ-जहाँ पर घना जंगल हो और उसमें भी यदि चौड़ी पत्ती वाले वन की अधिकता हो, तो वहाँ पर लोगों को स्वच्छ जल, हवा और प्राकृतिक सौंदर्य का भरपूर आनंद मिलता है।
बदलते जलवायु के दौरान पेड़-पौधों और वनस्पतियों का महत्व और अधिक बढ़ जाता है। खासकर हिमालय में रहने वाले वनवासियों का जीवन जंगल के बिना अधूरा है। आज के संदर्भ में जंगलों का सबसे बड़ा उपकार जलवायु को नियंत्रित करने में है। दूसरा पर्वतीय क्षेत्रों की बहनों को घास, लकड़ी, पानी की आपूर्ति होती है।
जहाँ-जहाँ जंगल गांव से दूर भाग रहे हैं, वहाँ पर महिलाओं को घास, लकड़ी का संकट हो गया है। इस संकट से बचने के लिए, जिस प्रकार भाई-बहन का रिश्ता बना हुआ है, रक्षा बंधन में बहनें अपने भाई के हाथों में रक्षा का धागा बाँधकर जन्म-जन्म तक के रिश्ते को मजबूत करती हैं, उसी तरह बहनें अब पेड़ों को जिंदा रखने के लिए पेड़ों के तनों पर राखी बाँधती हैं। इसके संदेश स्पष्ट हैं कि जंगल को मायके रूप में देखने वाली महिलाओं को लगता है कि पेड़ यदि नहीं रहेंगे तो, उनका घास, पानी, लकड़ी, खेती चौपट हो सकती है। जहाँ जंगल हैं वहाँ की कृषि भूमि में आर्द्रता है।
पहाड़ी क्षेत्रों में एक ही खेतों में बारह प्रकार की फसल उगाने में जंगलों का अद्भुत योगदान है। एक ही खेत में मंडवा, गहत, उड़द, तिल, भंगजीर, सुँटा, सोयाबीन, ककड़ी, रामदाना, कद्दू के साथ-साथ जंगली सब्जी कंडलिया, ढोलण, लेंगड़ा जैसी अमूल्य फसलों को लोग प्राप्त करते हैं।
आज वनों पर व्यापारिक दृष्टि होने से बारहनाजा भी प्रभावित हो गया है। महिलाओं का जीवन संकट में पड़ गया है। बच्चों का स्वस्थ्य बिगड़ गया है। घरों में जंगली सब्जियों के अभाव में बाहर से आ रही सब्जियों के साथ तरह-तरह की बीमारियाँ गांव में पहुँच रही हैं। इसके कारण गरीब व्यक्ति की जीविका नष्ट हो गई है। खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ गई है।
वैश्वीकरण के कारण पोषित हो रही निजीकरण की व्यवस्था ने वनों की हजामत करके उसके स्थान पर व्यावसायिक कृषि करने की नाकाम योजनाओं को अंजाम दे दिया है। इससे एक ओर जंगल समाप्त हो रहे हैं, दूसरी ओर बाहरी बीजों से उगाई जाने वाली फसलों से खेती की उपजाऊ जमीन की ताकत जल्दी ही समाप्त हो जाती है।
मिश्रित वनों को बनाने का दृष्टिकोण वन व्यवस्था के पास नहीं है। वेतन पर आधारित वन व्यवस्था कभी नहीं चाहती हैं कि मिश्रित वन को तैयार करने में गाँवों के साथ मेहनत की जाए।
जिन जंगलों को पालने तथा आग से बचाने में लोगों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है, वह केवल वन विभाग के हाथों की कठपुतली बनाए रखने से, वे रहे-सहे जंगलों का हिसाब अब कार्बन क्रेडिट के रूप में देखने लगे हैं। अतः लोगों के बचाए जंगल का पैसा किसी और के काम आएगा इससे बड़ा छलावा वनवासी जनता के साथ और कोई आज के जमाने में नहीं हैं।
अब महिलाओं ने आवाज उठाई है कि जो जंगल बचाएगा वही कार्बन क्रेडिट का मालिक होगा, इसका लाभ गांव के किसानों को सीधे मिलना चाहिए। इस समय दुनिया भर में समस्या आ गए है कि वनवासियों को उनके वनों से अलग-थलग रखकर के पूँजीपति व कारपोरेट घरानों के लोग हरित क्षेत्र के नाम पर भी पैसा बटोरने लगे हैं। बाजारीकरण के नाम पर इसको खुली छूट है जिससे जितना चाहिए उतनी लूट की जा रही है।