वनाग्नि - मानव और पर्यावरण के लिये गम्भीर खतरा

Submitted by Editorial Team on Thu, 04/13/2017 - 12:36

लापरवाही के कारण उत्तराखण्ड के जंगलों में लगती आगलापरवाही के कारण उत्तराखण्ड के जंगलों में लगती आगपिछले कुछ वर्षों से जंगलों में लगातार आग लगने की घटनाओं ने सरकार, पर्यावरणविद तथा समाज को एक बार फिर सोचने पर मजबूर किया है। जंगलों में अचानक लगने वाली इस आग से बड़े पैमाने पर जन-धन हानि के साथ-ही पेड़-पौधों और वन्य जीवों को नुकसान होता है। इस बारे में व्यापक अध्ययन तथा आग की रोकथाम के लिये सरकार की ओर से विभागीय जाँच भी कराई जाती है।

कई बार कमेटियों का गठन कर दोषी लोगों को दंडित करने तथा भविष्य में इस तरह की व्यापक वनाग्नि को रोकने के लिये संस्तुतियाँ भी प्रस्तुत की जाती हैं। इसके बावजूद आग लगने की घटनाओं में कमी की बजाय ये बढ़ती ही जा रही हैं।

वर्ष 2016 में फरवरी महीने में उत्तराखण्ड के जंगलों में लगी भीषण आग की वजह से कई महत्त्वपूर्ण वनस्पतियाँ तथा जीव जन्तु जलकर नष्ट हो गए। इनमें कई जड़ी-बूटियाँ भी शामिल थीं। आग की व्यापकता का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इस पर काबू पाने के लिये वायु सेना को हेलिकॉप्टर का प्रयोग करना पड़ा। आग बुझाने के प्रयास में कई इंसानी जानें भी चली गईं।

कई महीनों तक फैली इस आग में लगभग 4500 हेक्टेयर जंगल जलकर स्वाहा हो गया। इसके कुछ ही महीने बाद हिमाचल प्रदेश तथा जम्मू कश्मीर के पीर पंजाल क्षेत्र में भी कुछ इसी तरह का भीषण अग्निकांड हुआ। यहाँ भी वनों के पारिस्थितिकी तंत्र को काफी नुकसान पहुँचा। देश के इन तीनों जगहों पर हुए वनाग्नि की घटनाओं में काफी समानता थी। सबसे खास बात यहाँ आग लगने की घटनाएँ फरवरी से जून माह में दर्ज की गई। इस दौरान इन स्थानों पर मौसम आमतौर पर ठंडा होता है। ऐसे में भारतीय आपदा प्रबन्धन संस्थान के दावे जिसके मुताबिक अधिक गर्मी को वनाग्नि का जिम्मेदार ठहराने पर शक होता है।

हिमालय क्षेत्र में वनाग्नि की घटनाएँ


हिमालयी क्षेत्रों में काम करने वाले कई स्वयंसेवी संगठन वनाग्नि से जुड़े हुए सरकारी आँकड़ों में घालमेल का आरोप भी लगाते हैं। हिमालय सेवा संघ तथा एक्शन एड उत्तराखण्ड की आग से जुड़ी साझा रिपोर्ट में सरकार तथा उसकी एजेंसियों पर गम्भीर आरोप लगाए हैं। उनके मुताबिक सरकार हर बार इस दावानल के लिये स्थानीय लोगों को जिम्मेदार ठहराती है, लेकिन इस आड़ में असली आरोपी बच निकलते हैं। अगर 2016 में उत्तराखण्ड के जंगलों में लगी आग की तीव्रता को देखें तो, इसे कहीं से भी बीड़ी के सुलगने अथवा पत्थरों की रगड़ने से लगी आग नहीं कहा जा सकता है। यहाँ जितनी तेजी से आग फैली इससे किसी रसायन के इस्तेमाल की बात से इनकार नहीं किया जा सकता है।

उत्तराखण्ड के समान हिमाचल प्रदेश के जंगलों में भी पिछले वर्ष आग लगने की कई घटनाएँ दर्ज की गईं। यहाँ 6 जिलों में आग लगने की 578 घटनाएँ सामने आईं। आग पर काबू पाने के लिये सेना और आपदा प्रबन्धन विभाग को कई दिनों तक जूझना पड़ा था। आग्निकाण्ड की वजह से हिमाचल प्रदेश के जंगलों में बड़े पैमाने पर पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित हुआ तथा पर्यावरण पर बुरा प्रभाव हुआ।

प्रतिवर्ष लगभग 55 प्रतिशत से अधिक वन आग के अधीन होने के कारण पारिस्थितिकी के अलावा 440 करोड़ रुपए का आर्थिक नुकसान होता है। भारतीय वन सर्वेक्षण के अनुमान के मुताबिक 2.40 प्रतिशत में गम्भीर और 6.49 प्रतिशत वन में मध्यम स्तरीय आग की घटनाएँ होती हैं। जंगल में आग लगने की घटना भारत में बारम्बार हो रही है, पूरे भारत में 15937 आग लगने की घटनाओं की सूचना वर्ष 2015 में दर्ज की गई। वर्ष 2016 में केवल उत्तराखण्ड में ही 1492 घटनाएँ दर्ज की गईं।

जंगल और वनवासियों के बीच बढ़ती दूरी


जंगल तथा वनवासियों के बीच जीवन सहअस्तित्व के सिद्धान्त पर आधारित था। यानी दोनों एक-दूसरे पर निर्भर थे। ये अपनी रोजमर्रा की जरूरतें जंगलों से ही पूरा करते थे। लेकिन जंगलों में बाहरी दखल तथा सरकारों का इसे मुनाफा के रूप में लेने की वजह से हालात बुरे हुए हैं। बड़े पैमाने पर वनवासियों को जंगलों के आरक्षित के नाम पर खदेड़ा गया।

उत्तराखण्ड में 1815 में ब्रिटिश सरकार ने गोरखा शासन को हटाने के बाद हिमालय क्षेत्र पर कब्जा करना शुरू किया। इसके पहले यहाँ के निवासी अपनी जरूरत के हिसाब से जंगलों में रहते तथा जलाऊ लकड़ी, फल, चारा इत्यादि जंगलों से प्राप्त करते थे। ब्रिटिश सरकार ने जंगलों को आरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया।

अंग्रेजों ने 1887 में वन्य पक्षी सुरक्षा कानून तथा 1912 में वन्य पक्षी सुरक्षा कानून पारित किया। जिसके कारण जंगलों में निवास कर रहे लोगों को उनके मूल स्थान से बेदखल कर दिया गया। जंगली जानवरों की सुरक्षा तथा वनों के पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने के नाम पर की गई इस घेराबंदी की वजह से स्थानीय लोगों का जंगलों में जाना प्रतिबन्धित कर दिया गया।

जंगलों की सुरक्षा के लिये बाहरी लोगों की भर्तियाँ की गईं। इन लोगों का वन तथा वन्य जीवों से कोई वास्ता नहीं था। वनरक्षकों ने शासन की ओर से दी गई शक्तियों का प्रयोग जंगलों पर निर्भर वनवासियों पर किया। जिसकी वजह से ये जंगलों से दूर हटते गए। इनके जीवनयापन के साधनों को जबरन छीन लिया गया।

ब्रिटिश सरकार के चले जाने के बाद भी आज स्थितियाँ उसी समान हैं। आये दिन वनरक्षकों तथा स्थानीय लोगों के टकराहट की खबरें सुनने में आती हैं। कई बार इन लोगों को तस्कर बताकर फर्जी गोली मारने जैसे गम्भीर आरोप भी सामने आते हैं। 2006 में भारत सरकार की ओर से वन अधिकार कानून घोषित किया गया।

यह कानून जंगल में रहने वाले आदिवासियों को यह अधिकार देता है कि उन्हें जंगल में सुरक्षित रहने के लिये सरकार की ओर से उचित माहौल उपलब्ध कराया जाय। इस कानून के पारित होने के बाद भी इन लोगों की समस्याएँ कम नहीं हुई। जनजातियों पर यह जुल्म उत्तर से लेकर दक्षिण तक के जंगलों में समान रूप से आज भी जारी है।

वनाग्नि की वजहें


हिमालय क्षेत्र के जंगलों में लगने वाली आग के कई कारण होते हैं। वन विभाग से जुड़े लोग इस आग के लिये सीधे तौर पर स्थानीय लोगों को जिम्मेदार ठहराते हैं। उनका कहना है कि किसानों के जंगलों में बीड़ी सुलगाने अथवा दीयासलाई लेकर जाने की वजह से आग लगती है। कई बार इसके लिये स्थानीय लोगों के कूड़ा-करकट जलाने को भी जिम्मेदार माना जाता है।

लेकिन यहाँ के लोगों का इस बारे में अलग राय है। वे कहते हैं कि जंगलों की आग सुनियोजित होती है। भू-माफिया आग की वजह से नष्ट हो चुके जंगलों में वन विभाग के भ्रष्ट अधिकारियों की सहायता से कब्जा जमा लेते हैं। कुछ ही दिनों बाद इन खाली पड़ी जमीनों पर महंगे रेस्टोरेंट और रिसॉर्ट बनाकर मोटी कमाई करते हैं।

चीड़ के पेड़ से निकलने वाले लीसा के सम्पर्क में आने से आग विकराल रूप धारण कर लेती है। यह स्पष्ट है कि वनाग्नि की अधिकांश घटनाएँ चीड़ के घने जंगलों में दर्ज की गई। हालांकि कई विशेषज्ञ जंगलों में चीड़ की अधिकता को सही नहीं मानते हैं। चीड़ के पेड़ से निकलने वाले लीसा का व्यावसायिक इस्तेमाल होने से वन विभाग चीड़ के पौधों को प्राथमिकता देता है। कई बार अधिक लीसा दोहन करने के लिये वन विभाग के कर्माचारियों द्वारा पेड़ों पर गहरा घाव कर दिया जाता है। लीसा के अत्यधिक ज्वलनशील होने की वजह से आसपास के पेड़ों को वनाग्नि के दौरान बड़े पैमाने पर नुकसान होता है।

वनाग्नि के प्रभाव


जंगलों में लगने वाली आग की वजह से पूरा पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित होता है। जंगल के पेड़ पौधों के साथ ही छोटी घास तथा जड़ी-बूटियाँ नष्ट हो जाती हैं। आग लगने से उठने वाले धुआँ तथा विभिन्न प्रकार की विषैली गैसें मानव जाति के साथ ही पशु-पक्षियों के लिये भी घातक होते हैं। लोगों को इस धुएँ की वजह से साँस तथा हृदय रोग होने की सम्भावनाएँ रहती हैं।

जंगल की आग के कारण इन क्षेत्रों के जलस्रोतों को बहुत नुकसान होता है। कई जलस्रोत सूख गए हैं अथवा सूखने की कगार पर हैं। इससे ग्लेशियर तथा नदियाँ भी प्रभावित हुई हैं।

वनों में आग लगने से वनस्पतियों के साथ-साथ बड़े पैमाने पर वन्य जीवों को भी नुकसान होता है। कई दुर्लभ जीव इस आग में झुलस कर दम तोड़ देते हैं। इनमें जमीन पर रेंगने वाले छोटे जीवों तथा पक्षियों की संख्या अधिक होती है।

जनसहभागिता का अभाव


वनवासियों के बीच जंगल तथा जंगली जानवर हमेशा से पूजनीय रहे हैं। ये पेड़ों और जानवरों को ईश्वर का रूप मानते हैं। कर्नाटक के सोलिगस आदिवासी वनों को ‘उल्लीवीरप्पा’ कहकर पुकारते हैं। ये लोग जंगली जानवरों को अपना कुलदेवता मानते हैं तथा इनकी रक्षा का संकल्प लेते हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से इन्हें जंगलों से बेदखल करने की वजह से जंगलों से इनका मोह भंग हुआ है।

वनाग्नि भड़कने के पीछे वनविभाग को जनसहभागिता न मिलने को भी एक प्रमुख कारण माना जाता है। जानकारों के मुताबिक उचित मात्रा में हक-हुकूक न मिलने, वन विभाग की ओर से कई बार विकास कार्यों खासकर पहुँच मार्गों की अनुमति न देने तथा स्थानीय योजनाओं में जनता को उचित प्रतिनिधित्व न देने की वजह से ग्रामीणों तथा वन विभाग के बीच पूर्व की तरह आत्मीय रिश्ता कमजोर हुआ है। इस वजह से लोगों में आग की घटना होते हुए भी इसे बुझाने के लिये आगे आने में लापरवाही दिखती है।

वन विभाग द्वारा अग्निकांड के लिये स्थानीय लोगों को जिम्मेदार ठहराने की वजह से इन लोगों में वनकर्मियों के प्रति रोष उपजा है। कई बार आग लगने की जानकारी होने के बावजूद ये लोग विभाग को समय पर जानकारी नहीं देते हैं। जिससे आग विकराल रूप धारण कर लेती है।

वनाग्नि के रोकथाम के उपाय


वनाग्नि की समस्या से सिर्फ इन क्षेत्रों में रहने वाले लोग ही प्रभावित नहीं होते, बल्कि आसपास के सम्पूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र और पर्यावरण पर इसका प्रभाव पड़ता है। इसलिये इसकी रोकथाम के लिये व्यापक स्तर पर सामुदायिक भागीदारी को महत्त्व दिया जाना चाहिए। स्थानीय लोगों तथा वन विभाग के बीच इस बारे सामंजस्य होना आवश्यक है। वन अधिकारियों की वनाग्नि के सन्दर्भ में जवाबदेही तय होनी चाहिए। जिस अधिकारी के क्षेत्र में आग लगने की घटना हो उसे दोषी माना जाय।

प्रकृति और पर्यावरण के प्रति लोगों में व्यापक स्तर पर जागरुकता फैलाए जाने की आवश्यकता है। वनाग्नि को तेजी से बढ़ने में चीड़ की पत्तियाँ मददगार होती हैं, ऐसे स्थानों पर चीड़ के पेड़ों के स्थान पर अन्य पेड़ों को महत्त्व देना चाहिए। स्थानीय लोगों में जंगलों की देखभाल के प्रति रुचि पैदा करने के लिये उन्हें उनके सांस्कृतिक और जीवनशैली सम्बन्धी अधिकार मिलने चाहिए। विशेष उत्सवों के आयोजन पर उन्हें जंगल में जाने की छूट होनी चाहिए। वनों की सुरक्षा के लिये पंचायतों के अन्तर्गत वन समितियाँ गठित की जाय।