वर्षाजल संचयन की प्रकृति सम्मत उपयोगी व्यवस्था

Submitted by RuralWater on Thu, 08/27/2015 - 11:08

.वर्षा की बूँदें जहाँ गिरे वहीं रोक लेना और संग्रहित जल का विभिन्न प्रयोजनों में उपयोग करना सर्वोत्तम जल-प्रबन्धन है। इसकी कई तकनीकें प्रचलित हैं। कुछ तकनीकें प्राचीन और परम्परासिद्ध हैं तो कुछ नई विकसित हुई हैं। संग्रह और वितरण की इन प्रणालियों में भूजल कुण्डों के पुनर्भरण का समावेश भी होता है जिसका उपयोग संकटकालीन अवस्थाओं में हो सकता है। अतिरिक्त जल की शीघ्र निकासी की व्यवस्था भी इससे जुड़ी होती है।

नलकूल या चापाकल की तकनीक आने के बाद धरती के भीतर से पानी निकालना आसान हो गया और भूजल के उपयोग का प्रचलन लगातार बढ़ता गया। भूगर्भीय जल भण्डार को समृद्ध करने के लिये वर्षाजल के संग्रह के प्रति घोर उदासीनता बरती गई। इसकी प्राचीन संरचनाएँ उपेक्षित होकर नष्ट होती गई।

पहले कुएँ और तालाब ऐसे जलस्रोत थे जिनका विभिन्न प्रयोजनों में उपभोग किया जाता था। वे वर्षाजल संचय और भूगर्भीय भण्डार के पुनर्भरण के साधन भी थे। भूगर्भीय जलभण्डार से सम्पर्क होने के कारण इनमें संग्रहित जल हमेशा ताजा बना रहता था, सूर्य की रोशनी और हवा से सम्पर्क रहने के कारण जल की गुणवत्ता भी बनी रहती थी। इनके माध्यम से भूजल भण्डार का पुनर्भरण लगातार होना अतिरिक्त लाभ था जिसके महत्त्व से हम भले अनजान होते थे।

कुएँ और तालाब का उपभोग पूरा समुदाय सामूहिक तौर पर करता था, इसलिये उनकी देखरेख भी समुदाय करता था। पर सामन्ती व्यवस्था की विकृति के दौर में जलस्रोतों के उपभोग के अधिकार में भी भेदभाव बरता जाने लगा, रोक-टोक होने लगी थी। इसलिये जलस्रोत खासकर पेयजल का स्रोत अपना और अपने निकट हो- इसकी आकांक्षा बलवती होती गई।

आजादी के बाद हर टोले और हर घर में चापाकल लगने लगे। फसलों की सिंचाई में भूजल का उपयोग बढ़ने के दूसरे कारण भी थे। नदियों को बाँधकर नहरों से सिंचाई करने का सपना भी एक कारण था। पर नहरी सिंचाई की अपनी सीमा होती है और इसके साथ कुछ जन्मजात समस्याएँ जुड़ी होती है। जो जल्दी ही प्रकट हो गई।

हालांकि वर्षाजल-संचयन की पुर्नवापसी बिहार के बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में शानदार ढंग से हुई है। पेयजल के तौर पर वर्षाजल का उपयोग आरम्भ हुआ। बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में सबसे अधिक परेशानी पेयजल को लेकर होती है। पेयजल के प्रचलित स्रोत चापाकल बाढ़ में डूब जाते। अगर अपना घर छोड़कर अन्यत्र आश्रय लेना पड़ता तो स्थित अधिक विकट हो जाती।

ऐसे समय में पॉलिथिन की चादरों से बने जिन तम्बुओं में लोग आश्रय लेते थे, उन पर गिरी वर्षा की बूँदों को एकत्र कर पेयजल के तौर पर इस्तेमाल करने का उपाय सामने आया। क्योंकि आश्रय स्थलों के पास पेयजल के लिये अगर नए चापाकल गाड़े जाते तो उनसे बाढ़ का गन्दा पानी ही निकलता। वर्षाजल संचय की इस तकनीक को समर्थन, प्रोत्साहन और विस्तार मिला।

यह प्रणाली बाढ़ से घिरे उन घरों के लिये भी बेहद उपयोगी साबित हुई जो महीनों बाढ़ के पानी से घिरे रहते और जमा पानी सड़ता, गन्दा होता जाता। बाढ़ में चापाकल डूब भी जाते। पहले चापाकलों के प्लेटफार्म ऊँचे बनाए गए। इससे समस्या का समाधन नहीं हुआ। एक तो पानी लेने वहाँ तक पहुँचना कठिन होता था, दूसरे भूजल स्तर लबालब भरे होने से चापाकलों से निकलने वाले के पानी में भी बाढ़ का वही गन्दा पानी मिला होता।

तालाबसमेकित जल प्रबन्धन कार्यक्रम के अन्तर्गत इस तकनीक को शामिल किया गया है और काफी विस्तार भी दिया गया है। पलसाहा गाँव (मुरौना प्रखण्ड, सुपौल जिला) में एक मन्दिर की छत के पानी को एकत्र करने की सुन्दर व्यवस्था जीपीएसवीएस व वेल्टहंगरहिल्फे के सौजन्य से हुई है। ( फोटो-2) पर वर्षाजल संग्रह की इस संरचना की ग्रामीण क्षेत्र में उपयोगिता स्पष्ट नहीं है। इस ‘जलसंग्रह’ के उपयोग की कोई व्यवस्थित प्रणाली विकसित नहीं हुई है।

पीने के काम में यह पानी कितने दिन काम आ सकता है? और कंक्रीट की टंकियों में पानी कितने दिनों तक शुद्ध, स्वच्छ और सुरक्षित रह पाएगा? लेकिन इन टंकियों को नलकूप या कुँओं के माध्यम से भूगर्भीय जलभण्डार से जोड़ा जा सकता है जो भूजल पुनर्भरण की बेहतरीन व्यवस्था हो सकती है।

इसी तरह की प्रणाली का प्रयोग केन्द्रीय भूजल बोर्ड ने 1976 में हरियाणा में किया। वह वर्षाजल संचयन और भूजल भण्डार के पुर्नभरण की पहली सरकारी परियोजना है। सरकारी तौर पर सभी बड़ी इमारतों में इस तरह की व्यवस्था करने की जरूरत बताई जाती है, पर तमाम कोशिशों के बावजूद यह आम प्रचलन में नहीं आ सका है।

सामाजिक संगठनों और गैर सरकारी संस्थाओं के अभियानों से सबसे बड़ी चीज यह हुई है कि लोगों में वर्षाजल की शुद्धता और स्वच्छता को लेकर भ्रम करीब-करीब दूर हो गया है।

तालाब और कुआँ वर्षाजल के संग्रह और उपयोग की बेहतरीन और परम्परासिद्ध तकनीकें हैं। तालाबों में एकत्र जल भूमिगत कुण्डों से सीधे सम्पर्क के कारण सदा तरोताजा बना रहता है और सूर्य के ताप के प्रभाव में विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों का स्वतः उपचार कर स्वयं को शुद्ध और स्वच्छ बनाए रखता है। इनमें एकत्र जल रिस-रिसकर भूजल-कुण्डों को भरता है।

तालाबों का भूजल कुण्डों से सम्पर्क दोतरफा लाभदायक होता है। तालाबों से कई प्रयोजन सिद्ध होते थे। वर्षाजल इनमें संचित होता था, वर्षा नहीं होने या कम होने पर पड़ोस की नदियों को बाँधकर तालाब को भरने का प्रचलन रहा है। बाढ़ आने पर वह पानी पहले गाँवों के बाहर के तालाबों को भरता। गाँव और बस्ती डूबने से बच जाते।

अगर कभी बड़ी बाढ़ आई और गाँव में पानी भर गया तो लोग गाँवों के भीतर के तालाबों के महार या घाट पर चले जाते। वे मवेशियों और मनुष्यों के आश्रय स्थल होते थे। अगर बाढ़ नहीं आई तो अगले मौसम में सिंचाई के लिये पानी उपलब्ध होता था। तालाबों में पानी आने और निकलने के रास्ते बने होते। मवेशियों के पानी पीने, नहाने और आने-जाने के मार्ग भी होते।

तालाबों से सिंचाई के लिये पानी निकालने की कई तकनीकें प्रचलित थी। इसके कई उपकरण प्रचलित थे। मिथिलांचल में प्रचलित ऐसी तकनीक थी करीन जिसका जोड़ शायद अन्यत्र नहीं मिलता। पर करीन तो अब विलुप्त हो गए हैं। नई पीढ़ी के लोगों ने करीन देखा भी नहीं होगा। हालांकि बीस-तीस साल पहले यह पूरे मिथिलांचल में तालाब से सिंचाई करने का सबसे अधिक प्रचलित उपकरण था। बड़े खेतों की सिंचाई में इसका उपयोग होता था।

एक देशी सिंचाई पद्धति 'करीन'यह काठ का पतला, लम्बा नावनुमा उपकरण होता है जिसे रस्सी और बाँस के सहारे तालाब के किनारे लगाया जाता है। बैलेंस-पुली तकनीक से इसके एक सिरे को पानी में डाला जाता और फिर निकालने पर दूसरे सिरे से पानी उलीचा जाता है। अब नलकूप गाड़ने वाले कारीगर लगभग उसी तकनीक का इस्तेमाल करते हैं।

जब अपेक्षाकृत कम पानी की जरूरत हो तो बाँस की टोकरी में रस्सी बाँधकर उपकरण बनाया जाता है जिसे दो आदमी मिलकर पकड़ते और झटके से पानी उलीचते। यह पानी मोरियों के सहारे खेतों में पहुँचा दिया जाता। बाद में जब डीजल पम्प आये तो उन पम्पों से भी तालाब का पानी निकाला जाने लगा। डीजलपम्प लगाकर तालाब से पानी निकालना नलकूप से पानी निकालने की अपेक्षा हर हाल में सस्ता होता है। सूर्य की रोशनी और हवा के सम्पर्क से तालाब का पानी अधिक गुणवत्तापूर्ण होता है।

कुओं का उपयोग यद्यपि सीमित प्रयोजनों से होता था। पहले इसे पेयजल का बेहतरीन स्रोत माना जाता था। भूगर्भीय जल-कुण्डों से सम्पर्कित होने से इसका जल तरोताजा बना रहता है। आज जब भूजल में आयरन, फ्लोराइड, आर्सेनिक इत्यादि हानिकर रसायन निकलने लगे हैं, तब उनके निराकरण का उपाय खोजना पड़ता है।

ऐसे में कुओं की प्रासंगिकता और उपयोगिता बढ़ गई है। खुली हवा, सूर्य की रोशनी और भूगर्भीय जलकुण्डों के प्रत्यक्ष सम्पर्क की वजह से कुओं में ऐसे रसायनों का प्राकृतिक उपचार हो जाता है। पेयजल के स्रोत के तौर पर कुँओं का इस्तेमाल करने में केवल इतना ध्यान रखना होता है। उसमें गन्दा पानी नहीं जाये, केवल वर्षा का शुद्ध जल ही एकत्र हो। इसके खास इन्तजाम किये जाएँ। ऊँचा जगत बने। उसकी नियमित मरम्मत की जाये।

सम्भव हो तो बरसात को छोड़कर बाकी दिनों में कुएँ को ढँककर रखा जाये। समय-समय पर नीम के पत्ते या चूना डालकर कीटाणु रहित बनाए रखने के इन्तजाम किया जाये। कुएँ से पानी निकालने में पहले आमतौर पर बाल्टी-डोरी का व्यवहार होता है। कुँओं के अधिक गहरा होने पर चरखी भी लगाई जाती है। चापाकल की तकनीक आने के बाद कुएँ में पाइप डालकर पम्प भी लगाए गए।

दूषित भूजल वाले क्षेत्रों में सरकारी तौर पर पाइप लाइनों से जलापूर्ति की जाती है। हालांकि अभी तक बिहार के केवल चार फीसद आबादी को पाइप लाइनों से जलापूर्ति हो पाती है। पाइपलाइन लगाने की यह रफ्तार तब है जब बिहार के लाखों लोग भूजल के दूषण से हुई बीमारियों से पीड़ित हो गए हैं। गंगा नदी के दोनों किनारों पर 1001 बसावटों के भूजल में आर्सेनिक की अधिकता है।

तालाबराज्य के पठारी क्षेत्रों के 11 जिलों की 2691 बसावटों के भूजल में फ्लोराइड और कोसी प्रक्षेत्र के 9 जिलों में 10,844 बसावटों के भूजल में लौह मान्य मात्रा से अधिक है। पर भूजल का उपयोग बढ़ाने वाली सरकारी योजनाएँ बदस्तूर जारी हैं। इस वर्ष विभिन्न योजनाओं के अन्तर्गत 16,813 चापाकलों का निर्माण हुआ। विभिन्न प्रकार के 164 नलकूप लगाए गए।

अभी तो पेयजल की आपूर्ति व्यवस्था दुरुस्त करने के लिये 55 हजार 240 चापाकल लगाए जाने हैं। भूजल के दोहन को बढ़ाने की इन योजनाओं के बीच भूजल के पुनर्भरण की योजना को ‘विज्ञापन वाली लड़कियों की भाषा में, ‘ढूँढते रह जाओगे- जैसी हालत है।

दरअसल, वर्षाजल संचय और भूगर्भीय जलभण्डार के पुनर्भरण की चर्चा तब आरम्भ हुई जब भूजल निष्कर्षण बढ़ने और पुनर्भरण घटने के दुष्परिणाम विभिन्न रूपों में प्रकट होने लगे। पर इसकी व्यवस्थाएँ आम प्रचलन में नहीं आ पाई हैं। सरकारी तौर पर कुछ कार्यक्रम बने भी हैं, लेकिन उनकी हैसियत हासिए पर पड़ी योजनाओं से अधिक नहीं है। नहर, बाँध, बैराज बनाने, नदियों को बाँधने, नदियों को जोड़ने की परियोजना का सपना दिखाया जाता है।

उन पर लाखों, करोड़ों खर्च करने का वायदा किया जाता है। पर हालत यह है कि केन्द्रीय भूजल बोर्ड के आँकड़ों के अनुसार, अभी देश के कुछ इलाकों में भूजलस्तर प्रतिवर्ष एक मीटर की दर से गिर रहा है। फिर भी वर्षाजल संचयन, उसके उपयोग की प्रणालियाँ, भूगर्भीय जल भण्डार के पुनर्भरण की तकनीकें और इनका आपसी सम्बन्ध और समेकित प्रबन्धन की चर्चा मुख्यधारा के विषयों में नहीं होती।

समेकित जल प्रबन्धन का सर्वोत्तम ढंग यही हो सकता है कि गाँवों में हुई वर्षा का पानी तालाबों में संग्रहित हो और उससे अधिक होने पर ढाल के मुताबिक आगे प्रवाहित हो जाये। छतों पर एकत्र पानी कुँओं में संग्रहित हो। नई और पुरानी तकनीकों का यह समिश्रण सम्भवतः अधिक कारगर होगा। घरेलू उपयोग से निकले गन्दा पानी का उपयोग सब्जी आदि की खेती में बेहतरीन ढंग से हो सकता है। गिदहा गाँव में इसका नमूना दिखा।

वर्षाजल संचयन से सुधरता बिहार के बाढ़ क्षेत्र की जिन्दगीइस गाँव को सब्जी खरीदना नहीं पड़ता। विभिन्न मौसमों की सब्जियाँ इस छोटे से किचन गार्डेन से मिल सकती है। केवल बीज डालना होता है। और घर के आसपास को साफ रखने के बहाने इसमें निराई-गुड़ाई हो जाती है। इकोसैन अर्थात सूखे शौचालयों से मानवमल का निपटारा हो जाता है तो मवेशियों के गोबर से जैविक खाद बना लिये जाएँ।

गिदहा गाँव में ऊँचे प्लेटफार्म वाले इस चापाकल का पानी उपयोग के बाद नालियों से पास के खेत में जाता है जिसमें विभिन्न सब्जियों के पौधे लगे हैं।

वर्षाजल संचयन से सुधरता बिहार के बाढ़ क्षेत्र की जिन्दगी

वर्षाजल संचयन से सुधरता बिहार के बाढ़ क्षेत्र की जिन्दगी

वर्षाजल संचयन से सुधरता बिहार के बाढ़ क्षेत्र की जिन्दगी

इस्तेमाल किये हुए पानी से सब्जी उगाने के काम लेते गिदहा गाँव के किसान