हरियाणा के सोनीपत जिले का अकबरपुर बरोटा गांव। यहां आने के पहले आपके मस्तिष्क में गांव और खेती का कोई और चित्र भले ही हो, परंतु यहां आते ही खेत, खेती एवं किसान के बारे में आपकी धारणा पूरी तरह बदल जाएगी। इस गांव में स्थित है श्री रमेश डागर का माडल कृषि फार्म जो उनके अथक प्रयासों एवं प्रयोगधर्मिता की कहानी खुद सुनाता प्रतीत होता है। उनकी किसानी के कई ऐसे पहलू हैं, जिनके बारे में आम किसान सोचता ही नहीं। आइए जानते हैं, ऐसे कुछ पहलुओं के बारे में उन्हीं के शब्दों में…
प्रश्न : रमेशजी आज आप हर दृष्टि से एक सफल किसान हैं। हम आपके शुरुआती दिनों के बारे में जानना चाहेंगे।
रमेश डागर : बात सन् 1970 की है, घर की परिस्थितियों के कारण मुझे मैट्रिक स्तर पर ही पढ़ाई छोड़कर खेती में लगना पड़ा। तब मेरे पास केवल 16 एकड़ जमीन थी। शुरू में मैं भी वैसे ही खेती करता था जैसे बाकी लोग किया करते थे। मैंने पहले-पहले बाजरे की फसल लगाई थी, फसल अच्छी हुई, लाभ भी हुआ। फिर गेहूं की फसल लगाई, जिसमें खर-पतवार इतना अधिक हो गया कि नुकसान उठाना पड़ा। कुल मिलाकर मैं खेती के अपने तरीके से संतुष्ट नहीं था, इसलिए मैं कुछ अलग करना चाहता था, ताकि मैं भी समृध्दि के रास्ते पर आगे बढ़ सकूं। अंत में मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि मुझे अपने तौर-तरीके में बदलाव लाना होगा।
प्रश्न : आपने अपने तौर-तरीकों में क्या बदलाव किए और उनका क्या परिणाम निकला?
रमेश डागर : मैंने महसूस किया कि किसानों को फसलों के चयन में समझ-बूझ के साथ काम लेना चाहिए। मैं प्राय: कुछ किसानों को ट्रेन से सब्जी ले जाते हुए देखता था और उनसे रोज की बिक्री के बारे में पूछता था। उनसे मिली जानकारी ने मुझे सब्जी की खेती करने की प्रेरणा दी। सन् 1970 में मैंने पहली बार टिन्डे की फसल लगाई, जिसमें मुझे बाजरे और गेहूं से तीन गुना ज्यादा आमदनी हुई।सब्जीमंडी में मैंने एक बार कुछ ऐसी सब्जियां देखीं जो हमारे देश में नहीं बल्कि विदेशों में पैदा होती हैं। इनका भाव भी बहुत अधिक था। इनके बारे में मैंने कई स्रोतों से जानकारी इकट्ठी की और फिर सन् 1980 में उनकी खेती शुरू कर दी। सब्जियों की खेती से मेरी आमदनी काफी बढ़ गई।
इसी दौरान बाजार में फूलों की विशेष मांग को देखते हुए प्रयोग के तौर पर मैंने फूलों की भी खेती शुरू की, जिससे मुझे सबसे ज्यादा आमदनी हुई। सन् 1987-88में मैंने बेबीकार्न की खेती की। उस समय इसकी कीमत 400-500 रुपए प्रति किलो होने के कारण मुझे काफी लाभ हुआ। आज केवल सोनीपत जिले में ही बेबीकार्न की खेती 1600 एकड़ में हो रही है। फूल और सब्जियों की खेती से हुई आमदनी से मैंने सुख-समृध्दि के साधनों के साथ-साथ और खेत भी खरीदे। मेरे पास आज 122 एकड़ जमीन है।
प्रश्न : फसलों के चयन में सावधानी के साथ-साथ क्या आपने खेती के तौर-तरीकों में भी बदलाव किए हैं?
रमेश डागर : हां किए हैं। मैं अपने खेतों में रासायनिक खाद (उर्वरक) का बिल्कुल इस्तेमाल नहीं करता। खाद के तौर पर मैं केंचुआ खाद व गोबर खाद का ही इस्तेमाल करता हूं। तथाकथित हरित क्रांति के नाम पर किसानों को जिस तरह से रासायनिक खाद का अधिक से अधिक इस्तेमाल करने के लिए प्रेरित किया जा रहा है, मुझे उस पर सख्त एतराज है।
प्रश्न : आपके राज्य में तो हरित क्रांति बहुत सफल रही है। यहां के किसानों ने काफी प्रगति भी की है। आप इससे असंतुष्ट क्यों हैं?
रमेश डागर : पहली बार जब मैंने अपने खेत की मिट्टी की जांच करवाई तो पता चला कि रासायनिक खाद के इस्तेमाल का जमीन पर कितना बुरा प्रभाव पड़ता है। यदि रासायनिक खाद का इसी तरह इस्तेमाल होता रहा तो आने वाले 50-60 वर्षों में हमारी जमीनें बंजर हो जाएंगी। आर्थिक रूप से भी रासायनिक खाद का इस्तेमाल किसान के हित में नहीं रहा। हरित क्रांति से किसानों के खर्चे तो बढ़ गए पर आमदनी कम होती गई। जहां पहले एक कट्ठे यूरिया से काम चल जाता था, वहीं आज पांच कट्ठा लगता है। इससे किसान कर्जदार होता जा रहा है।
प्रश्न : हरित क्रांति के नाम पर होने वाली इस क्षति को रोकने के लिए आपने क्या पहल की?
रमेश डागर : जमीन की उर्वरता बनाए रखने के लिए मैंने कई प्रयोग किए और किसान-क्लब बना कर अन्य किसान भाइयों से भी विचार-विमर्श किया। हमने पाया कि खेती की अपनी पुरानी पध्दति को विज्ञान के साथ जोड़कर एक नया रास्ता ढूंढा जा सकता है। और यह रास्ता हमने जैविक कृषि के रूप में विकसित कर लिया है।
प्रश्न : आप एक प्रयोगधर्मी किसान हैं। आपने लीक से हटकर कई ऐसे सफल प्रयोग किए हैं, जिनसे भारत का किसान प्रेरणा ले सकता है। हम आपके ऐसे कुछ प्रयोगों के बारे में विस्तार से जानना चाहेंगे।
रमेश डागर : जैविक आधार पर की जाने वाली बहुआयामी खेती में ही मेरी सफलता का राज छिपा है। किस मौसम में कौन सी फसल की खेती करनी है, यह तय करने के पहले मैं जमीन की गुणवत्ता और पानी की उपलब्धता के साथ-साथ बाजार की मांग को भी हमेशा ध्यान में रखता हूं। मैं जिस तरह से खेती करता हूं, उसके कुछ खास पहलू इस प्रकार हैं :
केंचुआ खाद :
केंचुआ किसान के सबसे अच्छे मित्रें में से एक है। मैं अपने खेतों में केंचुआ खाद का खूब प्रयोग करता हूं। एक किलो केंचुआ वर्ष भर में 50-60 किलो केंचुआ पैदा कर सकता है। केंचुआ खाद बनाने में खेती के सारे बेकार पदार्थों, जैसे डंठल, सड़ी घास, भूसा, गोबर, चारा आदि का प्रयोग हो जाता है। सब मिलाकर केंचुए से 60-70 दिनों में खाद तैयार हो जाती है। इस खाद की प्रति एकड़ खपत यूरिया की अपेक्षा एक चौथाई है। इसके प्रयोग से मिट्टी को नुकसान भी नहीं पहुंचता है। फसल की उत्पादकता भी 20-30 प्रतिशत बढ़ जाती है। केंचुआ खाद बनाने पर यदि किसान ध्यान दें तो वे अपने खेतों में प्रयोग करने के बाद इसे बेच भी सकते हैं। यह किसान भाईयों के लिए आमदनी का एक अतिरिक्त स्रोत भी हो सकता है।
बायो गैस :
मैं बायोगैस का इतना अधिक उत्पादन कर लेता हूं कि इससे इंजन चलाने और अन्य जरूरतें पूरी करने के बाद भी गैस बच जाती है। बची हुई गैस मैं अपने मजदूरों में बांट देता हूं। इससे उनके भी ईंधन का काम चल जाता है। बायोगैस का मैंने एक परिवर्तित माडल तैयार किया है जिसमें प्रति घन मीटर की लागत 5000 रुपए की बजाय 1000 रफपए हो जाती है। मेरे इस माडल में गैस पलांट की मरम्मत का खर्चा भी न के बराबर है।
मशरूम खेती :
मैं मशरूम की कई फसलें लेता हूं। जिन किसान भाइयों के यहां मार्केट नजदीक नहीं है, उन्हें डिंगरी (ड्राई मशरूम) की फसल लेनी चाहिए। आज पूरी दुनिया में डिंगरी का 80 हजार करोड़ का बाजार है। जहां धान की फसल होती है, वहां इसकी खेती की संभावनाएं सबसे अधिक होती हैं क्योंकि इसकी खेती में पुआल का विशेष रूप से प्रयोग होता है। फसल लेने के बाद बेकार बचे हुए पदार्थों को मैं केंचुआ खाद में बदल कर 60-70 दिनों में वापस खेतों में पहुंचा देता हूं।
तालाब एवं मछली पालन :
खेत के सबसे नीचे कोने को और गहरा करके मैंने तालाब बना दिया है, जिसमें बरसात का सारा पानी इकट्ठा होता है और डेरी का सारा व्यर्थ पानी भी चला जाता है। डेरी के पानी में मिला गोबर आदि मछलियों का भोजन बन जाता है। इससे उनका विकास दोगुना हो जाता है। मछलीपालन के अलावा तालाब में कमल ककड़ी, मखाना आदि भी उगाता हूं।
बहुफसलीय खेती :
मैं एक साथ तीन से चार फसल लेता हूं। ऐसा करते समय मैं समय, तापमान और मेल का विशेष ध्यान रखता हूं। उदाहरण स्वरूप सितंबर माह के अंत में मूली की बुवाई हो जाती है जिसके साथ गेंदा फूल भी लगा देते हैं। मूली को अक्टूबर में निकाल लेते हैं और नवंबर के शुरूआत में पालक या तोरी आदि लगा देते हैं जिसकी कटाई दिसंबर में हो जाती है। वहीं फूलों से आमदनी जनवरी से शुरू हो जाती है।
गुलाब एवं स्टीवीया :
स्टीवीया एक छोटा सा पौधा है जिससे निकलने वाला रस चीनी से 300 गुना ज्यादा मीठा होता है। इसका प्रयोग मधुमेह के मरीज भी कर सकते हैं। मैंने इसकी खेती से प्रति एकड़ लाखों रुपए की कमाई की है। एक विशेष प्रकार के महारानी प्रजाति के गुलाब की खेती से भी मैंने काफी लाभ कमाया है। इस गुलाब से निकलने वाले तेल की कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में 4 लाख रुपए प्रति लीटर है। एक एकड़ में उत्पादित गुलाब से लगभग 800 ग्राम तेल निकाला जा सकता है।
केले की खेती :
केले की खेती से जमीन में केंचुओं की संख्या बहुत ज्यादा हो जाती है। केला एक ऐसा पौधा है जो खराब एवं पथरीली जमीन को भी कोमल मिट्टी में तब्दील कर देता है। इसके प्रभाव से किसी भी फसल की उत्पादकता 25 से 30 प्रतिशत बढ़ जाती है। केले की जैविक खेती करने से पौधे सामान्य से ज्यादा ऊंचाई के होते हैं। इसकी खेती से लगभग 25 से 30 हजार रुपए प्रति एकड़ की आमदनी हो जाती है। गर्मी में केलों के बीच में ठंडक रहती है इसलिए इसमें फूलों की भी खेती हो जाती है, जिससे 15-20 हजार रुपए की अतिरिक्त आमदनी हो जाती है। गर्मी के दिनों में मधुमक्खी के बक्सों को रखने के लिए भी यह सबसे सुरक्षित स्थान होता है।
वृक्षारोपण :
खेतों की मेड़ों पर मैंने पापुलर आदि के पेड़ लगा रखे हैं जिससे 7 से 8 वर्षों में प्रति एकड़ 70 से 80 हजार रुपए की आमदनी हो जाती है। इन वृक्षों से खेतों को नुकसान भी नहीं होता और पर्यावरण भी ठीक रहता है।
मधुमक्खी पालन :
मधुमक्खी से भरे एक बक्से की कीमत लगभग चार हजार रुपए होती है। मेरी खेती में मधुमक्खियों की विशेष भूमिका है। वैसे भूमिहीन किसान भाइयों के लिए भी मधुमक्खी पालन एक अच्छा काम है। शहद उत्पादन के अलावा भी इनके कई फायदे हैं। फूलों की पैदावार में इनसे 30 से 40 प्रतिशत और तिलहन-दलहन की पैदावार में लगभग 10 से 20 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो जाती है। बेहतर परागण के कारण फसलें भी एक ही समय पर पकती हैं। इस क्षेत्र में खादी ग्रामोद्योग एवं कई अन्य संस्थाएं सहायता कर रही हैं।
प्रश्न : आपने एक माडल तैयार किया है जिसमें सिर्फ 2.5 एकड़ जमीन से दस-बारह लाख रुपए प्रतिवर्ष की आमदनी हो सकती है और साथ ही कई लोगों को रोजगार भी मिल जाता है। इस बारे में जरा विस्तार से बताएं।
रमेश डागर : मैंने 2.5 एकड़ में छ: परियोजनाएं चला रखी हैं जिसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है :
मधुमक्खी पालन :
मधुमक्खियों के 150 बक्सों से हम शुरुआत करते हैं। एक ही साल में इनकी संख्या दोगुनी हो जाती है। इससे साल में 5-6 लाख की आमदनी हो जाती है।
केंचुआ खाद:
इसे बेचकर मैं 3-4 लाख रुपए की आमदनी कर लेता हूं।
मशरूम खेती:
इससे मुझे प्रतिवर्ष 3-4 लाख रुपए मिल जाते हैं।
डेरी:
एक छोटी सी डेरी से लगभग 60-70 हजार की सीधी आय होती है।
मछली पालन :
इससे भी लगभग 15-20 हजार रुपए मिल जाते हैं।
ग्रीन हाउस :
इसमें लगी फसल से एक-डेढ़ लाख रुपए आ जाते हैं।
प्रश्न : आप किसान भाइयों के लिए क्या संदेश देना चाहेंगे?
रमेश डागर : समझदार किसान तो वो है जो पहले मार्केट देखे, फिर मिट्टी की जांच कराए, तापमान का ख्याल रखे और अच्छे बीज का चयन करे। किसान भाइयों को जैविक खेती ही करनी चाहिए, मवेशी रखनी चाहिए, बायोगैस तथा वर्मी कम्पोस्ट तैयार करना चाहिए। 365 दिन में 300 दिन कैसे काम करें, प्रत्येक किसान को इसकी चिन्ता करनी चाहिए। हमें एक-दो फसलें ही नहीं बल्कि एक-दूसरे पर आश्रित खेती की बहुआयामी व्यवस्था विकसित करनी चाहिए। इस संबंध में किसी प्रकार की जानकारी के लिए किसान मुझसे जब चाहें संपर्क कर सकते हैं।
मेरा पता है :
डागर कृषि फार्म, ग्राम व पोस्ट – अकबरपुर बरोटा,
जिला-सोनीपत,हरियाणा, पिन-131003