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हिमालय के आदि बद्री से निकलकर कच्छ के रण से होती हुई पश्चिम में हड़प्पा कालीन नगर धौलावीरा तक सरस्वती नदी बहती थी। इस चार हजार किलोमीटर लम्बाई में जमीन के भीतर एक रेखा में विशाल जलभण्डार का पता चला है। इस जल की मात्रा इतनी अधिक है कि इससे पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात के कई नगरों की प्यास बुझाई जा सकती है। देश के लोगों के लिये यह गर्व की बात है कि हमारे भू-गर्भ वैज्ञानिकों ने शताब्दियों से विलुप्त सरस्वती नदी को वैज्ञानिक ढंग से खोज निकालने का दावा किया है। सरस्वती की यह खोज प्रसिद्ध भू-गर्भ वैज्ञानिक प्रो. केएस वाल्दिया की अध्यक्षता में गठित एक दल ने की है। यह रिपोर्ट केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री उमा भारती को सौंप दी गई है।
इस रिपोर्ट के आधार पर भारती ने कहा है कि इस रिपोर्ट से प्रमाणित हो गया है कि हिमालय के आदि बद्री से निकलकर कच्छ के रण से होती हुई पश्चिम में हड़प्पा कालीन नगर धौलावीरा तक सरस्वती नदी बहती थी। इस चार हजार किलोमीटर लम्बाई में जमीन के भीतर एक रेखा में विशाल जलभण्डार का पता चला है।
इस जल की मात्रा इतनी अधिक है कि इससे पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात के कई नगरों की प्यास बुझाई जा सकती है। यह खोज ऐतिहासिक दृष्टि से ही नहीं आर्थिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसके वजूद में आने के बाद बड़ी मात्रा में भू-खनिज तो प्राप्त होगा ही एक बड़े भूभाग में सिंचाई के लिये पानी भी मिलेगा। इससे गाँवों की आर्थिक बदहाली दूर होगी।
वैदिक कालीन नदी सरस्वती के अस्तित्व और उसकी भूगर्भ में अंगड़ाई ले रही जलधारा को लेकर भूगर्भशास्त्री, पुरातत्ववेत्ता और इतिहासकारों में लम्बे समय से मतभेद बने हुए हैं। ये मतभेद सेटेलाइट मैपिंग के बावजूद कायम हैं। यहाँ तक कि 6 दिसम्बर 2004 को भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्री ने संसद में भी यह घोषणा कर दी थी कि इस नदी का कोई मूर्त प्रमाण नहीं है। यह मिथकीय है।
दरअसल ये विरोधाभास किसी शोध के निष्कर्ष से कहीं ज्यादा वामपंथी सोच को पुख्ता करने के नजरिए से सामने आते रहे हैं, जिससे भारत की प्राचीन ज्ञान-परम्परा को नकारा जा सके। किन्तु अब न केवल हरियाणा के यमुनानगर जिले के आदिबद्री में सरस्वती का उद्गम स्थल खोज लिया गया है, बल्कि मुगलवाली गाँव में धरातल से सात फीट नीचे तक खुदाई करके नदी की जलधारा भी निकाल ली है।
इस धारा का रेखामय प्रवाह तीन किमी की लम्बाई में नदी के रूप में सामने आया है और आगे खुदाई का सिलसिला जारी है। एक मृत पड़ी नदी के इस पुनर्जीवन से उन सब अटकलों पर विराम लगा है, जो वेद-पुराणों में वर्णित इस नदी को या तो मिथकीय ठहराते थे या इसका अस्तित्व अफगानिस्तान की ‘हेलमंद‘ नदी के रूप में मानते थे।
सरस्वती की भौगोलिक स्थिति का बखान ऋग्वेद, महाभारत, ऐतरेय ब्राह्मण, भागवत और विष्णु पुराणों में है। ऋग्वेद में सप्तसिंधु क्षेत्र की महिमा को प्रस्तुत करते हुए जिन सात नदियों का वर्णन किया गया है, उनमें से एक सरस्वती है। अन्य छह शतद्रु (सतलुज), विपासा (व्यास), असिकिनी (चिनाब), परुष्णी (रावी) वितस्ता (झेलम) और सिंधु नदियाँ हैं। इनमें सरस्वती और सिंधु बड़ी नदियाँ थीं।
सतलुज और यमुना सरस्वती की सहायक नदियाँ रही हैं। सरस्वती का प्रवाह पूरब से पश्चिम की ओर था, लेकिन हजारों साल पहले आये भयंकर भूकम्प के कारण यमुना और सतलुज सरस्वती से अलग हो गईं। इन दोनों नदियों के मार्ग बदलने के बाद सरस्वती धीरे-धीरे अस्तित्व खोती हुई भूगर्भ में विलीन हो गई।
कुछ भूगर्भशास्त्रियों का ऐसा मानना है कि 12 हजार साल पहले तक नदी स्वच्छ जलधारा के रूप में प्रवाहमान थी। लेकिन ऋग्वेद और अन्य प्राचीन ग्रंथों में सरस्वती की महत्ता का गुणगान है, उससे लगता है पाँच से सात हजार साल पहले तक यह नदी धरा पर बहती थी। क्योंकि नदी के धरती की कोख में समा जाने का वर्णन ऋग्वेद में नहीं है। जबकि ऋग्वेद की 60 ऋचाओं में सरस्वती का उल्लेख है। इनमें कहा गया है, सरस्वती हिमालयी पर्वतों से निकलकर, सप्तसिंधु क्षेत्र में बहती हुई कच्छ के रण में जाकर समुद्र में गिरती है। यह क्षेत्र वर्तमान में पाकिस्तान और भारत के पंजाब व हरियाणा में है।
किन्तु सरस्वती का जो वर्णन महाभारत में है, उसमें इस नदी के विलोप होने के संकेत मिलते हैं। महाभारत के अनुसार सरस्वती समुद्र में समाने से पहले राजस्थान के रेगिस्तान विनसन में ही लुप्त हो जाती है।
विष्णु पुराण में नदी के सिमटने के संकेत कवश नाम के एक मल्लाह द्वारा सरस्वती की वन्दना करने की कथा के रूप में हैं। इस कथा के अनुसार पृथु द्वारा कराए जा रहे यज्ञ में जब कवश ने हिस्सा लेने की कोशिश की तो ऋषियों ने उसे बाहर कर दिया।
निराश कवश ने मरुस्थल में जाकर सरस्वती की स्तुति की। फलतः सरस्वती की जलधार उसके चारों ओर फूट पड़ी। इस चमत्कार से प्रभावित होकर ऋषियों ने कवश को यज्ञ में भागीदारी करने की अनुमति दे दी। यही कथा ऐतरेय ब्राह्मण और भागवत पुराण में भी कही गई है।
कार्बन डेटिंग भी इस तथ्य की पुष्टि करती हैं कि 2000 से 1800 वर्ष ईसा पूर्व यह नदी विलुप्त हुई। महाभारत, विष्णु पुराण, भागवत पुराण और ऐतरेय ब्राह्मण ग्रंथों की रचना लगभग इसी समय हुई बताई जाती है। साफ है, प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में सरस्वती का जो वर्णन है, वह कपोल कल्पित न होते हुए, वास्तिवक है।
नदी के सूखने के बाद हड़प्पा संस्कृति के उपासक गंगा-यमुना के मैदानों की ओर पलायन कर गए। चूँकि इन लोगों की स्मृति में सरस्वती जीवन्त थी, इसलिये इन्होंने प्रयाग में त्रिवेणी स्थल पर गंगा और यमुना के साथ सरस्वती के अन्तसलिला होने की कथा गढ़ ली।
सिंधु घाटी सभ्यता का नाम, हालांकि सिंधु नदी के नाम पर पड़ा था। इसे ही सरस्वती संस्कृति, सरस्वती सभ्यता और सिंधु सरस्वती सभ्यता के नामों से जाना जाता है। इसी सभ्यता में हड़प्पा संस्कृति फली-फूली थी।
प्राचीन ग्रंथों में दर्ज सरस्वती के अस्तित्व को लेकर देशी-विदेशी भूविज्ञानी और भारतीय संस्कृति के अध्येता इसकी शोध और जमीनी खोज में जुटे रहे हैं। फ्रांस के भूविज्ञानी विवियेन सेंट मार्टिन ने ‘वैदिक भूगोल’ की रचना की थी।
1860 में लिखी इस पुस्तक में सरस्वती के साथ घग्घर और हाकड़ा की भी पहचान की थी। इसके बाद 1886 में अंग्रेजी हुकूमत ने भारत का भौगोलिक सर्वेक्षण कराया था। इसके अधीक्षक आरडी ओल्ढम की रिपोर्ट बंगाल के एशियाटिक सोसायटी जर्नल में छपी थी।
इस रिपोर्ट में सरस्वती के नदी तल और इसकी सहायक नदियों सतलुज व यमुना के पथ रेखांकित किये गए हैं। 1893 में इस रिपोर्ट ने प्रसिद्ध भूवैज्ञानिक सीएफ ओल्ढम को प्रभावित किया। ओल्ढम ने इसी जर्नल में सरस्वती के भूगर्भ में उपस्थित होने की पुष्टि की है। साथ ही घग्घर और हाकड़ा के सूखे पथों का भी ब्यौरा दिया है। ये नदियाँ पंजाब में बहती थीं।
पंजाब की लोकश्रुतियों में आज भी ये नदियाँ विद्यमान हैं। इन्हीं नदियों के पथ पर एक समय सरस्वती बहती थी। इसके बाद 1918 में टैसीटोरी, 1940-41 में औरेल स्टाइन और 1951-53 में अमलानंद घोष ने सरस्वती की खोज में अहम भूमिका निभाई।
इन सब विद्वानों ने अपने निष्कर्षों में सिद्ध किया कि सरस्वती के विलोपन का मुख्य कारण सतलुज और यमुना की धार बदलना था। सतलुज की धार सरस्वती से अलग होकर सिंधु में जा मिली। लगभग इसी समय यमुना ने भी अपनी धारा का प्रवाह बदल दिया और वह पश्चिम में बहने का रुख बदलकर पूर्व में बहकर गंगा में जा मिली। नतीजतन सरस्वती सूखती चली गई।
अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने भी इस विलुप्त नदी को खोजने की पहल की थी। 15 जून 2002 को केन्द्रीय संस्कृति मंत्री जगमोहन ने सरस्वती के नदी तलों का पता लगाने के लिये खुदाई की घोषणा की।
इस खोज को सम्पूर्ण वैज्ञानिक धरातल देने की दृष्टि से इसमें इसरो के वैज्ञानिक बलदेव साहनी, पुरातत्वविद एस कल्याण रमन हिमशिला विशेषज्ञ वाईके पुरी और जल सलाहकार माधव चितले को शामिल किया गया। हरियाणा में आदिबद्री से लेकर भगवान पुरा तक पहले चरण में और भगवान पुरा से लेकर राजस्थान सीमा पर स्थित कालीबंगा की खुदाई प्रस्तावित थी।
यह खोज कोई ठोस परिणाम दे पाती इससे पहले राजग सरकार गिर गई और डॉ. मनमोहन के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार ने 6 दिसम्बर 2004 को संसद में यह बयान देकर कि इस नदी का कोई मूर्त रूप नहीं है, इसे मिथकीय नदी ठहरा दिया। नतीजतन वाजपेयी सरकार की पहल अधूरी रह गई।
लेकिन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के दर्शन लाल जैन ‘सरस्वती शोध संस्थान’ की अगुवाई में नदी की खोज की सार्थक पहल करते रहे। उन्होंने अपनी खोज के दो प्रमुख आधार बनाए।
एक विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन में प्राचीन इतिहास विभाग के प्राध्यापक रहे डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर की सरस्वती खोज पदयात्रा और दूसरा 2006 में आये तेल एवं प्राकृतिक गैस आयोग के सर्वे और खुदाई को। वाकणकर की यात्रा आदिबद्री से शुरू होकर गुजरात के कच्छ के रण पर जाकर समाप्त हुई।
ओएनजीसी ने डॉ. एमआर राव के नेतृत्व में सरस्वती के पथ व नदी तलों के पहले तो उपग्रह-मानचित्र तैयार किये, फिर धरातलीय साक्ष्य जुटाए। हिमाचल प्रदेश में सिरमौर जिले के काला अंब के पास सरस्वती टियर फाल्ट का गम्भीर अध्ययन किया।
अध्ययन के परिणाम में पाया कि हजारों साल पहले आये भूकम्प के कारण यमुना और सतलुज ने अपने मार्ग बदल दिये थे। यमुना पूरब में बहती हुई दिल्ली पहुँच गई और सतलुज पश्चिम होते हुए सिंधु नदी में जा मिली। जबकि पहले इन दोनों नदियों का पानी सरस्वती में मिलकर हरियाणा, राजस्थान व गुजरात होते हुए कच्छ में मिलता था।
अवशेषीय अध्ययन के बाद ओएनजीसी ने राजस्थान के जैसलमेर से सात किलोमीटर दूर जमीन में करीब 550 मीटर तक गहरा छेद किया। यहाँ 7600 लीटर प्रति घंटे की दर से स्वच्छ जल निकला।
इस प्रमाण के बाद ओएनजीसी ने भारत विभाजन के बाद भारतीय पुरातत्व संस्थान द्वारा किये गए एक सर्वेक्षण का भी अध्ययन किया। इससे पता चला कि हरियाणा व राजस्थान में करीब 200 स्थलों पर सरस्वती के पानी के निशान हैं। अब भू-वैज्ञानिकों ने जो ताजा रिपोर्ट दी है, उसने पुराने अनुसन्धनों को पुष्ट करने का काम किया है।