आदिवासियों ने सहेजे माता नु वन

Submitted by editorial on Mon, 09/03/2018 - 14:32

आदिवासियों के प्रयास से हरा-भरा हुआ जंगलआदिवासियों के प्रयास से हरा-भरा हुआ जंगलमध्य प्रदेश के झाबुआ जिले में अपढ़ समझे जाने वाले आदिवासी समाज ने अपने जंगल को सहेजकर पढ़े-लिखे समाज को एक बड़ा सन्देश दिया है। जिले के 110 गाँवों में खुद आदिवासियों ने अपने बूते आसपास के जंगलों को न सिर्फ सहेजा, बल्कि वहाँ 41 हजार नए पौधों को रोपकर घना जंगल खड़ा करने के लिये भी जतन शुरू कर दिया है।

कई गाँवों में तो नए लगाए गए पौधे 8 से 10 फीट के होकर पेड़ों में तब्दील हो चुके हैं। इन जंगलों को "माता नु वन" नाम दिया गया है। कुछ गाँवों से प्रारम्भ होकर यह मुहिम जिले के गाँव-गाँव पहुँच चुकी है।

सैकड़ों बरस से घने जंगलों और उसमें रहने वाले जंगली जानवरों के साथ रहते हुए उन्होंने लम्बे वक्त में अपनी जंगल आधारित जीवनशैली विकसित की है। पूरा जीवन इन्हीं जंगलों पर आश्रित रहकर अपनी जीवनयापन के लिये संसाधन जुटाते रहे हैं। लेकिन 50-60 सालों में जंगल उनसे दूर हुए हैं।

आदिवासी जंगलों की जगह आसपास के गाँवों में आने लगे और धीरे-धीरे जंगल भी कम होते हुए खत्म होने की कगार पर पहुँच गए। इसका उनके जीवनस्तर पर बड़ा बुरा असर पड़ा और वे करीब-करीब दोनों तरफ से छले गए। इधर उनके जंगल छीन गए तो उधर ग्राम संस्कृति में वे आपने आपको न तो ढाल सके और न ही उनके पास इसके लिये जरूरी संसाधन और रोजमर्रा की जिन्दगी जीने के लिये रोजगार के साधन थे।

जंगल की देखभाल करते स्थानीय आदिवासीजंगल की देखभाल करते स्थानीय आदिवासीइन स्थितियों से निजात दिलाने के लिये आदिवासियों ने अब अपने इलाके का जंगल सहेजने की मुहिम शुरू की है। कुछ दशक पहले तक आदिवासी इलाकों में परम्परा रही है कि हर गाँव के आसपास का करीब पाँच से सात एकड़ का जंगल संरक्षित होता था।

इसे देवी का जंगल यानी माता का वन कहा जाता और कोई भी इस जंगल से पेड़ों की लकड़ी काटना तो दूर गिरी हुई लकड़ियाँ उठाना भी उचित नहीं मानते थे। उनका मानना है कि इस जंगल की लकड़ी ले जाने या पेड़ों को नुकसान पहुँचाने पर देवता कुपित हो जाते हैं और श्राप दे देते हैं। इसी कारण यह हमेशा ही सघन जंगल बना रहता था। झाबुआ में इसे माता नु वन, राजस्थान में ओरण तथा महाराष्ट्र में देवराई कहा जाता है।

आदिवासियों की मेहनत से खिलता माता नु वनआदिवासियों की मेहनत से खिलता माता नु वनआदिवासी हमेशा से प्रकृति पूजक रहे हैं और वे पेड़ों तथा जंगलों की भी पूजा कर उन्हें देवता मानते रहे हैं। इसीलिये माता के वन (आदिवासी बोली में माता नु वन) संरक्षित रखने की परम्परा रही है। इस वन को हमेशा ही पवित्र माना जाता रहा और त्यौहार, पर्व या कोई समारोह के दौरान ही आदिवासी यहाँ पहुँचते और पूजा-अर्चना के बाद लौट जाया करते थे।

उन दिनों जंगलों में आदिवासियों के अलावा बाकी लोगों का आना-जाना कम ही हुआ करता था। इसलिये ये हमेशा ही संरक्षित बने रहे लेकिन बीते 50 सालों में जंगलों में गैर आदिवासियों का आना जाना बढ़ा और दुर्भाग्य से इसी दौर में जंगल को सबसे अधिक नुकसान पहुँचा। जंगल के पेड़ों की लकड़ी सहित वन उत्पादों के बेतहाशा शोषण और जंगली जानवरों के अवैध शिकार ने जंगलों को खत्म कर दिया। उनकी सघनता में कमी आई।

माता नु वन में पौधे पेड़ का रूप ले रहे हैंमाता नु वन में पौधे पेड़ का रूप ले रहे हैंआदिवासियों को वहाँ से बलपूर्वक खदेड़ा गया। तस्करी के इस नए रूप ने आदिवासी जीवन के हजारों सालों की परम्पराओं तथा विश्वासों को बुरी तरह से तहस-नहस कर दिया गया। इससे माता नु वन भी प्रभावित हुए। गैर आदिवासी लोग इनकी आस्था और विश्वास से जुड़े नहीं थे, इसलिये उनके स्वार्थ सिर्फ़ लकड़ी काटने और मोटा मुनाफा कमाने तक ही सीमित रहा और इलाके से बीते सालों में माता नु वन खत्म होते चले गए। इससे पानी के संकट के साथ ग्लोबल वार्मिंग का खतरा भी बढ़ गया है।

अकेले राणापुर इलाके में बीते दो सालों में चार हजार से ज्यादा पौधे माता नु वन में रोप गए हैं और आज इनमें से अधिकांश लहलहा रहे हैं। इनकी पूरी देखरेख तथा सुरक्षा का काम स्थानीय ग्रामीण ही देख रहे हैं। मोहनपुरा और छागोला गाँव में पहुँचकर देखें तो आँखों में हरियाली समा जाती है।

पौधे रोपने के लिये स्कूली बच्चों ने भी किया श्रमदानपौधे रोपने के लिये स्कूली बच्चों ने भी किया श्रमदानमोहनपुरा में करीब 7 बीघा जमीन में माता नु वन को ग्रामीण आदिवासियों ने फिर से अपने हाथ में ले लिया है। बीते सालों में यहाँ दो हजार से भी ज्यादा पेड़ लगाए गए हैं। इसी तरह छागोला में भी 10 बीघा जमीन में परम्परागत माता नु वन को अब सघन किया जा रहा है। 2200 नए पौधे रोप गए हैं। ग्रामीणों को यहाँ काम करते देखा जा सकता है।

हर परिवार को दस पौधों को बड़ा करने का लक्ष्य दिया गया है। कल्याणपुरा में 30 हेक्टेयर क्षेत्र तथा खेड़ा में 75 एकड़ में माता वन बनाया जा रहा है। खेडा में हलमा से बनाए गए 24 करोड़ लीटर पानी की क्षमता वाले तालाब से पौधों को पानी दिया जा रहा है।

इसी तरह अब छायन पश्चिम, घाटिया, गुलाबपुरा, भूरी घाटी, बिजौरी, संत बोराली, बोरपारा, परवलिया, खेड़ा, कल्याणपुरा, मियाती, भाजी डूंगरा, कलिया बड़ा और कलिया छोटा आदि गाँवों में भी सघन माता नु वन नजर आने लगे हैं। माता नु वन से कोई भी आदिवासी परिवार कभी लकड़ी नहीं काटता बल्कि यदि कोई भी इसे नुकसान पहुँचाने की कोशिश करता है तो आदिवासी समाज इसका विरोध करता है। जंगल बचने का सीधे तौर पर फायदा इलाके के पर्यावरण पर पड़ेगा और बारिश अच्छी हो सकेगी। पेड़ों की जड़ों के जरिए भूजल भण्डार में भी बढ़ोत्तरी हो सकेगी।

पौधों के लिये गड्ढे तैयार करते आदिवासीपौधों के लिये गड्ढे तैयार करते आदिवासीमोहनपुरा के ग्रामीण प्रेमसिंह मखोडिया बताते हैं- "हम आदिवासी अपनी मान्यता के मुताबिक प्रकृति में पेड़-पौधों, नदी, पहाड़ और पत्थरों को पूजते रहे हैं। जहाँ पूजा की जाती है, उसके आसपास के जंगल को माता नु वन कहते हैं। मतलब माता का वन। हर आदिवासी गाँव में ऐसा स्थान हुआ करता था।"

छागोला के मांगीलाल सिंघाड बताते हैं- "यहाँ गाँव के लोग सुख-समृद्धि की कामना के साथ पर्व, त्यौहार तथा शादी-ब्याह की खुशियाँ मनाते थे। हमारा समाज माता नु वन के पेड़ों और उसकी लकड़ियों को पूजता रहा। कभी कोई यहाँ की एक लकड़ी भी नहीं ले जाता था। बाद के सालों में ये खत्म होते चले गए। अब हमने इन्हें फिर से पुनर्जीवित करने की कोशिश शुरू की है। बीते सालों में हमारे काम से अब ये जंगल लहलहाने लगे हैं। इनकी देखरेख का जिम्मा हम सब गाँव वालों का है। हमारा दुर्भाग्य जंगलों के खत्म होने से ही आया है। जंगल सुधरेंगे तो हमारा जीवन भी फिर से हरा-भरा हो जाएगा।"

आदिवासियों की धार्मिक आस्था को पर्यावरण से जोड़ दिये जाने के बेहतर परिणाम सामने आये हैं। इलाके में लम्बे समय से पानी और पर्यावरण के लिये काम कर रहे महेश शर्मा बताते हैं- "माता नु वन से जोड़कर आदिवासी इलाके में पर्यावरण को बड़ा फायदा हो रहा है। इससे पर्यावरण में सुधार के साथ आदिवासी अपनी जड़ों की ओर लौट रहे हैं। आदिवासी गाँवों में यह वन हुआ करते थे लेकिन धीरे-धीरे खत्म हो चुके थे। हमने इन्हें फिर से जिन्दा करने का बीड़ा उठाया है। आदिवासी समाज के हमेशा से पेड़ों और जंगलों से आत्मीय सम्बन्ध रहे हैं। उनकी कई परम्पराएँ इस बात का प्रमाण है। माता नु वन से शुरू हुई यह पहल बड़े अर्थों में उन्हें जंगल से जोड़ेगी।"

पौधों के लिये तैयारी करते आदिवासीपौधों के लिये तैयारी करते आदिवासीशिवगंगा अभियान के राजाराम कटारा बताते हैं कि शुरुआत में प्रशासन की कोई मदद नहीं थी। लेकिन अब इसमें वन विभाग तथा प्रशासन का भी सहयोग मिलने लगा है। वन विभाग ने गाँवों में माता नु वन को संरक्षित करने में सीमांकन करने, कुछ जगह फेंस लगाने, पौधे देने तथा सिंचाई के लिये कुछ संसाधन मुहैया कराने जैसी मदद की है तो प्रशासन ने भी पानी का टैंक आदि मुहैया कराए हैं। पुलिस विभाग ने भी साढ़े 8 हजार पौधे लगवाए हैं। पौधों में भी हमारी कोशिश रहती है कि यहाँ के परम्परागत, पर्यावरण उपयोगी तथा ऐसे पेड़ों को लगाया जाये जिनसे समाज को पोषण प्रदान कर सकें या बीमारियों में औषधि के रूप में सहायक हों।

जिले के पुलिस अधीक्षक महेशचन्द्र जैन कहते हैं-"यह अपनी तरह की अनूठी मुहिम है, जिसमें ग्रामीण आगे बढ़कर जंगल बचाने की पहल कर रहे हैं। कहा जाता है कि आदिवासी अपढ़ होते हैं लेकिन उनका जंगल बचाने का प्रयास उल्लेखनीय है। पानी होने से जिले में रोजगार की सम्भावनाएँ बढ़ेंगी और अपराधों का ग्राफ भी नीचे आएगा। इसलिये हम भी इस मुहिम में पूरी मदद कर रहे हैं।"

पश्चिम भारत में करीब 20 लाख की आबादी और 1320 गाँवों वाले झाबुआ जिला गुजरात की सीमाओं से सटा हुआ है। ज्यादातर लोग मजदूर या छोटी जोत के काश्तकार हैं। भील, भिलाला और पटेलिया जनजाति की परम्पराएँ यहाँ की ग्रामीण संस्कृति की पहचान है। 5947 वर्ग किमी में सूखे और उजाड़ पठारों पर बसा आदिवासी बाहुल्य यह इलाका हमेशा से अकाल और पलायन का पर्याय रहा है। सघन वनों की कमी के साथ यह संकट और विकराल होता चला गया।

हाथापावा में पौधारोपण करते लोगहाथापावा में पौधारोपण करते लोगप्रकृति से वन क्या छीने, पानी की कमी ने इस इलाके के लोगों के चेहरे का पानी भी उड़ा दिया। निस्तेज चेहरों पर अकाल की छाया इनकी नियति बन चुकी थी। वे अन्न और पानी को तरस रहे थे और उनका यहाँ रहना तक मुश्किल हो रहा था।

हर साल तीन से चार लाख लोग अपना घर-परिवार छोड़कर बेहतर मजदूरी की उम्मीद में शहरों की ओर पलायन करते। समस्या की विकटता और भौगोलिक विशालता को देखते हुए कोई सम्भावना भी नजर नहीं आती। कई प्रयास हुए लेकिन कुछ नहीं बदला। आपस में बातें होने लगी कि आखिर इसका समाधान कहाँ है? लोगों ने समझा कि इसका समाधान प्रकृति की ओर लौटने में ही निहित है।

कुछ सालों पहले जब झाबुआ जिले के गाँवों में पीने के पानी की जबरदस्त किल्लत होने लगी तो लोगों का ध्यान पानी और पर्यावरण से जुड़े कामों पर गया। इसी दौरान जिले में शिवगंगा अभियान ने आदिवासी परम्परा हलमा को सामाजिक हित में पुनर्जीवित करने का बीड़ा उठाया। साल-दर-साल हलमा में हजारों आदिवासियों ने जुटकर इलाके में हजारों जल संरचनाएँ खड़ी कर दीं।

माता नु वन में महेश शर्मा के साथ ग्रामीणमाता नु वन में महेश शर्मा के साथ ग्रामीणबिना किसी लागत के मानवीय श्रम की सहभागिता की सदियों पुरानी भीली संस्कृति में हलमा यानी मिल-जुलकर समाज के लिये काम करने की परम्परा को फिर से जिन्दा करते हुए झाबुआ की हाथीपावा की पहाड़ियों पर 50 हजार से ज्यादा खंतियाँ (कन्टूर ट्रेंच) खोदी गईं। इसमें अब हर साल बारिश का लाखों गैलन पानी पहाड़ी से फिसलकर बह जाने के बजाय इनमें रिसता हुआ भूजल को बढ़ाता है और इससे कभी सूखी बंजर पड़ी यह पहाड़ी अब हरी-भरी रहने लगी है। इसके लिये शिवगंगा के कार्यकर्ताओं ने आदिवासी समाज को प्रेरित किया और वे बिना एक पैसा लिये एक दिन श्रमदान करने के लिये तैयार हुए। अब हर साल करीब 25 हजार आदिवासी एक दिन के लिये पानी और पर्यावरण का काम करते हैं। बीते साल इसी पहाड़ी पर प्रशासन की मदद से करीब 8 हजार 500 पौधे भी रोप गए हैं जो तेजी से बढ़ रहे हैं।

इतना ही नहीं जिले के गाँवों में हलमा से अब तक करीब 50 से ज्यादा छोटे-बड़े तालाब, कई बोरी बाँध तथा अन्य जल संरचनाएँ भी विकसित हो चुकी हैं। इससे इलाके की भौगोलिक पहचान भी अब बदलने लगी है। पहले दूर-दूर तक कहीं कोई हरियाली या पेड़-पौधे नजर नहीं आते थे, अब बारिश के दिनों में यहाँ की हरियाली देखते ही बनती है। कई गाँवों में पानी की उपलब्धता बढ़ने पर आदिवासियों ने खेती करना शुरू कर दिया है और हर साल इलाके से होने वाले रोजगार के लिये पलायन में भी कमी आई है।

माता नु वन के लिये बिजोरी में सफाई करते आदिवासीमाता नु वन के लिये बिजोरी में सफाई करते आदिवासीमाता नु वन को संरक्षित करने की मुहिम में अब कई लोग आगे बढ़कर सहयोग करने लगे हैं। इंदौर की रहने वाली सुशीला तोलानी ने खेड़ा में पौधे लगाने के लिये एक लाख रुपए का दान किया है। उनके पति किशोर तोलानी बैंक में क्षेत्रीय अधिकारी हैं और बेटा अमेरिका की एक बड़ी फर्म में इंजीनियर है। वे हर साल अपने पति की एक महीने की वेतन किसी ऐसे ही समाज हित के कामों के लिये देती हैं।

हम साक्षर लोग ज्यादातर इसी मानसिकता के होते हैं कि जंगलों में रहने वाले आदिवासी समाज में न तो जीने का ढंग है और न ही शिक्षा लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि उन्होंने सैकड़ों सालों से जंगल में रहते हुए सह अस्तित्व की ऐसी नायाब परम्पराएँ विकसित की हैं कि हम उन्हें जानकर आश्चर्यचकित हो जाते हैं।

हलमा तथा माता नु वन ऐसी ही सहज लेकिन पर्यावरण के लिये बड़ी महत्त्वपूर्ण परम्पराएँ हैं। हालांकि जंगलों के लगातार खत्म होते जाने तथा आदिवासियों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा होने से वे अब ये परम्पराएँ भूलते जा रहे हैं। कई जगह अब इन परम्पराओं को पुनर्जीवित करने के प्रयास किये जा रहे हैं और सार्थक भी हो रहे हैं। झाबुआ इसकी एक बड़ी सफल प्रयोगशाला साबित हुआ है।

किशोर एवं सुशीला तोलानी अपने बेटे के साथकिशोर एवं सुशीला तोलानी अपने बेटे के साथआदिवासियों ने थोड़े से ही प्रयासों से हमें यह बताने की कोशिश की है कि सामुदायिक सहभागिता से ही पानी और पर्यावरण के जमीनी कामों को आगे बढ़ाया जा सकता है। सभ्य कहे जाने वाले नागरी समाज को भी इन आदिवासियों से बहुत कुछ सीखने समझने की बहुत जरूरत है। हम जहाँ अधिकांश कामों के लिये सरकारों की तरफ ताकते रहते हैं। उन्होंने अपनी मेहनत और पसीने के बूते काफी बड़े-बड़े कामों को अंजाम दिया है।

धरती का पानी और जंगल बचाने के लिये सबको जुटना होगा। आदिवासी समाज में हलमा अब एक शब्द नहीं बल्कि ताकत बनकर उभरा है। बीते दस सालों में हुए काम का अब इलाके में जमीन पर बदलाव साफ नजर भी आने लगा है। चारों तरफ हरियाली तथा तालाबों में लहर-लहर भरा हुआ पानी देखते ही बनता है।

 

 

 

TAGS

madhya pradesh, jhabua district, forest conservation by tribals, they call it ‘maata nu van’in madhya pradesh, oran in rajasthan, devrai in maharashtra, shivganga abhiyan, bheel, bhilala, patelia, contour trenching, tribals and forests pdf, forest and tribal life, forests and tribals, forest and tribal life project, forest and tribal livelihood, livelihood of forest tribes of our state, role of tribals in forest protection, how are tribals dependent on forests, role of tribals in conservation of forests, role of tribals in conserving forest in india, role of tribals in conservation of biodiversity, role of tribals in conserving the environment, tribals and forests pdf, how tribal practices help to conserve the environment, forest and tribal livelihood, role of tribals in protecting environment, what is devrai, list of sacred groves in maharashtra, devrai forest information, list of sacred groves in india, devrai forest information in marathi, 5 examples of sacred groves in india, where are such sacred groves in maharashtra, sacred groves pdf, forest source of their livelihood, relationship between forest and livelihood, forest and livelihood in india, forest and tribal livelihood, tribal societies showing their dependence on forest, livelihood of forest tribes of our state, tribes and their livelihood, forest dependent communities in india, livelihood of tribes, shivganga ngo, shivganga jhabua, halma jhabua, shivganga ngo jhabua, contour trenching pdf, types of contour trenches, staggered contour trenching, contour trench design, contour trenches photos, advantages of continuous contour trenches, staggered trenches meaning, contour trench images.