लेखक
अपढ़ माने जाने वाले आदिवासी समाज ने बिना पैसों के 15 हजार जल संरचनाएँ सुबह 7 से 12 बजे तक केवल 5 घंटों में तैयार कर दी। इतना ही नहीं तीन साल पहले बनी 25 हजार जल संरचनाओं की सफाई भी की गई। दो से तीन साल पहले बनी इन संरचनाओं में मिट्टी भर चुकी थी। इस वजह से इनका अपेक्षित फायदा नहीं मिल पा रहा था। अब इस बंजर पहाड़ी पर चालीस हजार से ज्यादा जल संरचनाएँ बरसाती पानी सहेज रही हैं। चिलचिलाती धूप में मानसून से पहले बारिश की मनुहार करते हुए एक बार फिर आदिवासियों ने अपने श्रम की ताकत और कमाल से सबको अचम्भित कर दिया।
अभी शुरुआती बारिश ही हुई है, पर झाबुआ के पास हाथीपावा पहाड़ी की रंगत बदलने लगी है। कई सालों से सूखी और बंजर पहाड़ी पर अब उम्मीदों की हरियाली नजर आ रही है। इसे हरा–भरा बना देने की जिद में छह हजार से ज्यादा आदिवासियों ने जो मेहनत की, अब उसके परिणाम नजर आने लगे हैं।उन्होंने यहाँ एक दिन में पन्द्रह हजार से ज्यादा जल संरचनाएँ (कंटूर ट्रेंच) बनाई और 25 हजार पुरानी कंटूर ट्रेंच की सफाई भी की। वह भी बिना एक पैसा खर्च किये। इससे अब यह पहाड़ी हरी–भरी नजर आने लगी है वहीं बड़ी तादाद में पानी भी जमीन में रिसने लगा है। सरकार यदि इस काम को करवाती तो कम-से-कम दस लाख रुपए खर्च होते। इससे हर साल बारिश का 40 करोड़ लीटर पानी जमीन की रगों तक पहुँच सकेगा। यह पानी करीब 50 लाख से ज्यादा लोगों को एक दिन का पानी उपलब्ध करा सकता है।
आइये, जानते हैं यह कमाल कैसे हुआ। मध्य प्रदेश में इन्दौर से करीब डेढ़ सौ किमी दूर झाबुआ के पास हाथीपावा पहाड़ी गत 15 मार्च 16 को आदिवासियों ने हलमा किया। हलमा यानी एक दूसरे के साथ मिलकर सामूहिक श्रमदान करना। यहाँ 2008 से 2014 तक भी इसी तरह हलमा किया जाता रहा है।
इसमें एक दिन पहले जिले भर के ग्रामीण क्षेत्रों से बड़ी संख्या में आदिवासी अपने पूरे परिवार के साथ यहाँ जुटते हैं और झाबुआ शहर में कन्धे पर गैंती रखकर करीब दो किमी लम्बी गैती यात्रा निकालते हैं। दूसरे दिन सुबह सूरज निकलने के साथ ही एक साथ हजारों आदिवासियों को अपने घर से लाए गैंती–फावड़ों के साथ मेहनत करते बरसाती पानी सहेजने के लिये पसीना बहाते देखना सुखद आश्चर्य से भर देता है। इनमें हजारों औरतें भी शामिल होती हैं।
इस बार आदिवासियों ने बिना पैसों के 15 हजार जल संरचनाएँ सुबह 7 से 12 बजे तक केवल 5 घंटों में तैयार कर दी। इतना ही नहीं तीन साल पहले बनी 25 हजार जल संरचनाओं की सफाई भी की गई। दो से तीन साल पहले बनी इन संरचनाओं में मिट्टी भर चुकी थी। इस वजह से इनका अपेक्षित फायदा नहीं मिल पा रहा था।
अब इस बंजर पहाड़ी पर चालीस हजार से ज्यादा जल संरचनाएँ (कंटूर ट्रेंच) बरसाती पानी सहेज रही हैं। चिलचिलाती धूप में मानसून से पहले बारिश की मनुहार करते हुए एक बार फिर आदिवासियों ने अपने श्रम की ताकत और कमाल से सबको अचम्भित कर दिया। तब पानी के लिये पसीना बहाते इनकी आँखों में हरी–भरी पहाड़ी का सपना झिलमिला रहा था, अब वह साकार हो उठा है।
इलाके के लोग इससे खासे उत्साहित हैं कि ढलान होने से अब तक यहाँ से बह जाने वाला लाखों गैलन बरसाती पानी इस साल से व्यर्थ नहीं बह सकेगा। इन छोटी–छोटी संरचनाओं में रुकने वाला पानी जमीन में आसानी से उतर सकेगा। इससे बारिश में इस पहाड़ी पर भी हरी घास और छोटे पौधे लहलहा सकेंगे। भूजल स्तर भी बढ़ेगा और ग्लोबल वार्मिंग से भी राहत हो सकेगी। जिले में फिलहाल जलस्तर काफी नीचे चला गया है। हर साल गर्मियों में यहाँ के लोग बाल्टी–बाल्टी पानी को मोहताज रहे हैं।
दरअसल हलमा भील समाज के आदिवासियों की एक ऐसी लोक परम्परा है जिसमें पर्यावरण से जुड़े सामजिक कामों में आसपास के गाँवों के हजारों लोग एक साथ श्रमदान करते हैं। इससे कुछ ही घंटों में बड़ी-से-बड़ी संरचनाएँ तैयार हो जाती हैं।
दरअसल परस्पर सहकार की इस परम्परा में लोग खुशी से बिना कोई पैसा लिये काम पूरा करते हैं। बस इतनी सी उम्मीद होती है कि उन्हें कोई काम होगा तो बाकी लोग इसी तरह उनके यहाँ भी हाथ बटाएँगे। इसके लिये कोई दिन तय नहीं होता, जरूरत पड़ी तो दिन तय हो जाता है और लोग जुट जाते हैं।
एक साथ हजारों आदिवासियों को अपने घर से लाए गैंती–फावड़ों के साथ पानी सहेजने के लिये पसीना बहाते देखना सुखद आश्चर्य से भर देता है। इनमें हजारों औरतें भी शामिल होती हैं। अब तक 110 गाँवों में 11 हजार पेड़ों के साथ ढाई सौ कुओं का गहरीकरण, 50 हजार से ज्यादा खन्तियाँ (कंटूर ट्रेंच) और तीन दर्जन बड़े तालाब हलमा के जरिए बनाए जा चुके हैं।
एक मोटा अनुमान बताता है कि एक ट्रेंच से एक बारिश काल में करीब 10 हजार लीटर पानी जमीन के भीतर रिसता है तो नई और पुरानी मिलकर 40 हजार कंटूर ट्रेंच से हर साल 40 करोड़ लीटर पानी बच सकेगा। एक व्यक्ति को एक दिन के दैनिक कामकाज में औसत करीब 70 लीटर पानी की जरूरत होती है।
इस तरह यहाँ बचा पानी 57 लाख 14 हजार 285 लाख लोगों की एक दिन के पानी की जरूरत पूरी कर सकता है। अब बात इससे सटे शहर झाबुआ की तो इसकी आबादी 40 हजार है, यानी यहाँ इस पानी को 143 दिन मतलब पाँच महीने तक हर दिन जल वितरण किया जा सकता है।
हलमा आदिवासियों की पीढ़ियों पुरानी परम्परा है। इसमें पानी और प्रकृति से सम्बन्धित कामों के लिये श्रमदान किया जाता है। इसके लिये परिवार-के-परिवार हजारों लोग एक साथ जुटते हैं और कुछ ही घंटों में काम पूरा कर देते हैं। इसमें कोई किसी से एक पैसा तक नहीं लेता है। बस इतनी सी शर्त होती है कि जब उन्हें कोई काम होगा तो वे भी इसी तरह श्रमदान कर मदद करेंगे।
अंचल के कई गाँवों में हलमा के जरिए हुए पानी सहेजने के दर्जनों कामों को देखा जा सकता है। भील समाज के आदिवासियों की परम्परा है और वे जहाँ भी रहते हैं, इसका मान करते हैं। मध्य प्रदेश के अलावा गुजरात, राजस्थान और महाराष्ट्र के आदिवासी इलाकों में भी हलमा किया जाता है।
गुजरात की सीमा से सटे मध्य प्रदेश के झाबुआ, अलीराजपुर और बड़वानी जिलों में बड़ी तादाद में भील जनजाति के लोग रहते हैं। इन जिलों में करीब 85 फीसदी भीली आबादी है। इनमें ज्यादातर मजदूर या छोटी जमीनों के काश्तकार हैं। इनमें बहुत कम पढ़े–लिखे हैं। इनकी जिन्दगी जंगल, खेत और पानी पर ही टिकी है।
अलीराजपुर तो प्रदेश भर में सबसे कम साक्षर जिला है। ये लोग हलमा के रूप में अपनी परम्परा से प्रकृति और पानी को सहेजने का काम बखूबी कर रहे हैं। ये कहते हैं कि हमारे आसपास जिस तेजी से जंगल और पानी कम होते जा रहे हैं, ऐसे में यदि अब भी हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहे तो आने वाली पीढ़ी के लिये मुश्किल हो जाएगी।
आदिवासी जनजातियों में हलमा हाँडा हीडा जैसे नामों से परस्पर सामुदायिक सहयोग की भावना की इस तरह की प्रथा या परम्परा मौजूद हैं और लोक साहित्य में इनका उल्लेख भी है। पर कालान्तर में ये लुप्त होती गई।
चार साल पहले राजस्थान के बाँसवाड़ा जिले के कुशलपुरा पंचायत में हलमा से ही विस्फोट में नष्ट हो चुके एक आदिवासी नानू का घर दो दिनों में फिर से खड़ा कर दिया था। भील जनजाति में ही नहीं, इनके अलावा मीणा, गरासिया, सहरिया, कंजर, कथौडी, डामोर और साँसी जनजातियों में भी प्रकारान्तर और दूसरे नामों या तरीकों से ये परम्परा रही है। कुछ इलाकों में इसे अडजी-पडजी के नाम से भी पहचानते हैं। मध्य प्रदेश में तो यह लुप्त परम्परा अब समाज के विकास में योगदान कर रही है।
आमतौर पर आदिवासियों को कम पढ़ा–लिखा या अपढ़ मानकर हम उन्हें सीख देने की बात करते हैं लेकिन हलमा जैसी सामुदायिक पहल करने वाले इस समाज से तो हम सभ्य कहे जाने वाले लोगों को भी सीखने की जरूरत है। कितनी अनुकरणीय है यह इनकी हलमा परम्परा।
आदिवासी आपस में अपने यहाँ गाँवों में तो यह करते ही रहते हैं पर यहाँ शहर के लोगों की मदद करने के लिये वे जुटे। वे बताते हैं कि पानी चाहे शहर का बचे या गाँव का, आखिरकार पानी तो धरती का ही है।
हलमा यहाँ एक शब्द से आगे बढ़कर ताकत बन चुका है। इसमें एक साथ हजारों आदिवासी जुटकर पानी और हरियाली बचाने के लिये पसीना बहाते हैं। भीली बोली में हलमा यानी सामूहिक श्रमदान, इस सदियों पुरानी अनूठी रिवायत के जरिए यहाँ के अपढ़ समझे जाने वाले समाज ने अब तक करोड़ों रुपए की जल संरचनाएँ मुफ्त में बना डाली हैं। यह एक अलग तरह की जंग है, जिसमें बातें नहीं होती सीधे एक्शन होता है।
एक तरफ हम छोटे–छोटे कामों के लिये सरकार का मुँह ताकते रहते हैं, वहीं जंगलों के बीच रहने वाले ये लोग परिवार सहित अपने गैंती–फावड़े लिये जुट जाते हैं। पहाड़ियों को हरा–भरा करना हो या तालाब बनाने हों। कोई शिकवा–शिकायत नहीं, एक पैसे का बजट नहीं, कोई दिखावा नहीं बस काम पूरा करने का जुनून और अगली पीढ़ी के लिये कुछ कर गुजरने का जज्बा।
बूढ़े–बच्चे, आदमी–औरत सब पसीना बहाते हैं चिलचिलाती धूप और 45 डिग्री तापमान में ताकि कल धरती की नसों तक पानी पहुँच सके या तालाब में नीला पानी ठाठे मार सके।
झाबुआ के पास बामनिया में तीन पहाड़ियों को मिलाकर हलमा से ही आठ साल पहले एक बड़ा तालाब बनाया है। छायन के सावजी भाई बताते हैं कि पानी की कमी होने लगी तो पंचायत ने कहा कि तालाब बनाएँगे पर उनके पास पैसा नहीं था। सरकारी अफसरों ने भी नाप-जोख की और कहा कि दस लाख रुपए आएँगे तो बनाएँगे। महीनों तक कोई पैसा नहीं आया तो आसपास के छह गाँव के लोगों ने हलमा करके दो दिनों में तालाब तैयार कर दिया। अब पानी ही पानी।
तेजी से कटते जंगल के बरअक्स बीते दो सालों में छायन के पास बंजर पहाड़ी पर साढ़े 6 हजार से ज्यादा पौधे रोप गए जो अब बड़े होकर जंगल की तरह नजर आने लगे हैं। अन्य जगह पर भी हलमा में अब तक 11 हजार पौधे लगाए जा चुके हैं। इसमें खुद आदिवासियों ने ही पत्थर बीनने से लेकर क्यारियाँ बनाने, पाल बाँधने और उनकी समय–समय पर देखरेख भी की है। इनमें सागौन, करंज, आम, नीम, बरगद, जामुन, पीपल, शीशम, नीबू और अमरुद के छायादार और औषधीय पौधे भी शामिल हैं।
हलमा बहुत पुरानी परम्परा है पर बीते दस सालों में इसे बड़े पैमाने पर किया जा रहा है, इससे इलाके का जलस्तर तो बढ़ा ही है, हरियाली में भी इजाफा हुआ है। खेती और दूसरे कामों के लिये पानी मिलने लगा है। बंजर पथरीले इलाके में हरी घास और छोटे पौधे लहलहाने लगे हैं और ग्लोबल वार्मिंग से भी राहत हो सकेगी।
क्षेत्र में काम कर रहे शिवगंगा अभियान ने हलमा की परम्परा को और व्यापक स्वरूप देते हुए पानी रोकने के काम बड़े पैमाने पर करवाए हैं। 10 सालों में इस अभियान से हजारों काम हुए हैं। अभियान प्रमुख महेश शर्मा बताते हैं कि जंगल और पानी के लगातार घटते जाने से आदिवासियों का पारिवारिक और सामाजिक जीवन छिन्न–भिन्न हो रहा है। हम चाहते हैं इस अभियान के साथ उनकी परम्परा को जोड़कर उनके आने वाले कल को बेहतर बनाया जा सके।