आधुनिकता की भेंट चढ़े तालाब

Submitted by Hindi on Mon, 06/01/2015 - 13:54

पर्यावरण दिवस पर विशेष


.पर्यावरण की रक्षा हमारे सांस्कृतिक मूल्यों व परम्पराओं का ही अंग है। अथर्ववेद में कहा भी गया है कि मनुष्य का स्वर्ग यहीं पृथ्वी पर है। यह जीवित संसार ही सभी मनुष्यों के लिए सबसे प्यारा स्थान है। यह प्रकृति की उदारता का ही आशीर्वाद है कि हम पृथ्वी पर बेहतर सोच और जज्‍बे के साथ जी रहे हैं।

प्राचीनतम संस्कृतियों में भारतीय वैदिक संस्कृति सबसे पुरातन संस्कृति है। वैदिक संस्कृति में शुरू से ही प्रकृति और पर्यावरण का अटूट रिश्ता है। प्राचीन संस्कृति में यज्ञ हवन की महत्ता थी जो पर्यावरण को शुद्ध करते थे। गोगाजी, पाबूजी, जाम्भोजी आदि लोक देवताओं के द्वारा पर्यावरण संरक्षण की शिक्षा छिपी हुई है, प्राचीन आदिवासी संस्कृति जंगलों को अपना सर्वस्व मानते थे और पेड़ों को काटने के सख्त खिलाफ थे बल्कि वह पेड़ों का संरक्षण करते थे प्राचीन चिकित्सा शास्त्र भी इसमें विश्वास रखता है कि मानव शरीर पाँच तत्वों से मिलकर बना है।

क्षिति जल पावस गगन समीरा।
पंच तत्व का बना शरीरा।


अर्थात मानव शरीर का प्रकृति से गहरा सम्बन्ध है और दोनों का तालमेल अत्यन्त आवश्यक है अन्यथा सभ्यता संस्कृति एवं समस्त मानव जाति को हानि हो सकती है। मनुष्य आधुनिकता की दौड़ में अन्धा हो चुका है वह प्रकृति को अपनी इच्छानुसार बदलने एवं अपने नियन्त्रण में लेने की इच्छा रखता है। वनों की अन्धाधुँध कटाई, जंगलों का विनाश, अपने सुख के लिये प्राकृतिक संसाधनों का बेतरतीब दोहन, कल-कारखानों का बढ़ता विकास, शहरीकरण का विस्तार वाहनों का बढ़ता धुआँ, आदि से आधुनिक समाज की औद्योगिक क्रान्ति ने जहाँ मानव जीवन को सुविधा सम्पन्न बनाया है वहीं बहुत सारे प्रदूषण को भी आमन्त्रित किया है।

ग्लोबल वार्मिंग के कारण पृथ्वी का ताप बढ़ता जा रहा है। वायुमण्डल में मीथेन और कार्बन-डाईआक्साइड के साथ 30 प्रकार की गैसें पृथ्वी के ताप को बढ़ा रही है। पृथ्वी एक मात्र ऐसा ग्रह है जहाँ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में जीवन सम्भव है अतः हमें, इसकी रक्षा करनी चाहिए किन्तु प्रकृति के निरन्तर दोहन से ग्लोबल वार्मिंग के कारण हमें बहुत सारी प्राकृतिक आपदाओं जैसे सुनामी जैसे समुद्री तुफान मौसमों का तेजी से बदलना, ग्लेशियरों का पिघलना, समुद्र का जलस्तर बढ़ना, समुद्र एवं जंगलों से पशु पक्षियों की दुर्लभ जातियों का विलुप्त होना आदि का सामना करना पड़ रहा है।

आज पूरी दुनिया में पानी को लेकर बहस छिड़ी हुई है। क्या प्रकृति प्रदत्त तत्व पर राज्य का अधिकार है? क्या जल वैयक्तिक सम्पत्ति है? पानी का निजीकरण, व्यावसायीकरण, पानी को उत्पाद के रूप में बेचने की नीति और प्रक्रिया मानव कल्याण और सामाजिक-आ​र्थिक विकास के किस चिन्तन का नतीजा है? हर समाज और देश में आम जन के सहज-सरल सवाल गुम हो गए हैं।

हमारे पूर्वजों ने पानी को एक धरोहर के रूप में देखा। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंपने, सजाने और सँवारने के प्राकृतिक उपादान। तभी तो हमारे पूर्वजों ने प्रकृति प्रदत पानी के संग्रहण अनेक विधाओं तथा तकनीकों का इस्तेमाल किया।

इनमें तालाब प्रमुख है। यह मात्र पानी के भण्डारण की व्यवस्था मात्र नहीं है बल्कि एक ऐसा विज्ञान और कला है जिससे एक संस्कृति का सृजन होता है। तभी तो हमारे सांस्कृतिक विधानों में तालाब, कुआँ, नदी को बार-बार स्मरण करने और उससे जीवन्त रिश्ता स्थापित करने की प्रक्रिया और पद्धति समाहित है। जन्म, विवाह और मृत्यु के सारे विधि-विधानों में तालाब, कुआँ और नदी का स्पर्श, स्मरण पूजन किया जाता है। यह सभी संस्कृतियों में हैं।

तालाब हमारे जहन, जीविका और जज्बात से जुड़े हैं। तभी तो पुराने तालाब आज भी जीवन्त और उपयोगी है जिसे हमारे पूर्वजों ने बनवाया था। यह देशज संस्कृति का प्रतीक है। इसके जरिए सिंचाई व्यवस्था को वि​कसित करने की परम्परा में यह चिन्तन निहित है कि पानी के प्राकृतिक स्रोतों को उन्हीं जगहों पर कैसे इस्तेमाल किया जाए,​ जिससे वहाँ की खेती को जरूरत के समय पानी मिले और प्रकृति, पर्यावरण तथा सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को कोई नुकसान न पहुँचे। आज स्थिति विपरीत है तालाबों की घोर उपेक्षा की जा रही है। जब हम मुँगेर जैसे छोटे जगह की बात करते हैं तो तालाबों के कारण यहाँ के मुहल्लों का नामकरण था।

गुलजार पोखर, लल्लू पोखर, तेलिया तलाब जैसे अनेक मुहल्ले बसे हैं। तालाबों की घोर उपेक्षा के कारण उनका अस्तित्व समाप्त हो गया। धरती के किडनी कहे जानेवाले तालाब लुप्त हो रहे हैं। सिंचाई से लेकर मत्स्य पालन मखाना एवं अन्य जलोत्पादों के उत्पादन सहित 15 प्रकार के कार्यों में तालाबों का इस्तेमाल होता था। नाम भले ही लल्लू पोखर और गुलजार पोखर है लेकिन यहाँ न कोई पोखर है और न ही कोई तालाब। यह लोक विज्ञान पर लोक संस्कृति और परम्परा की पकड़ छूटने का नतीजा है।

आजादी के पहले तालाबों के उत्पाद बाजार के दायरे से बाहर थे और इसका मुख्य उपभोक्ता समाज होता था। 1896-1903 के भू-राजस्व के सर्वे में इसकी गणना खतियान में गैरमजरूआ और गैरमजरूआ खास के रूप में की गई थी। आजादी के बाद तालाब और समाज के बीच के सम्बन्धों में आमूल-चूल परिवर्तन हुए। नए सर्वे में तमाम गैरमजरूआ तालाबों को सरकारी तालाब घोषित कर दिया गया।

तालाब न सिर्फ जीविकोपार्जन का माध्यम है बल्कि धरती पर हरियाली लाने का भी माध्यम है। प्रशासन और व्यक्ति केन्द्रित व्यवस्था ने स्वशासन, स्वावलम्बन और स्वाभिमान की सारी व्यवस्था को विनाश के कगार पर पहुँचा दिया। इसी का नतीजा है तालाब सूखते गए और सूखा बढ़ता गया।