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सन्दर्भ : 24 फरवरी सत्याग्रह
आज स्वास्थ्य, आवास, डाक, सुरक्षा, बिजली, पानी, ईंधन, प्राथमिक शिक्षण-प्रशिक्षण से लेकर उच्च शिक्षा आदि में कम्पनियों व निजी संस्थाओं का वर्चस्व और व्यावसायीकरण दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। निजीकरण को कोई ठीक मान सकता है; किन्तु शिक्षा, पानी, सेहत और सुरक्षा के व्यावसायीकरण को कोई कैसे ठीक मान सकता है? सच कहें तो सत्याग्रहियों का यह कूच, असल में जनता की बुनियादी जरूरतों के सेवा व ढाँचागत क्षेत्रों में बढ़ते इस व्यावसायीकरण के खिलाफ ही है।
भूमिग्रहण के किस मकसद को सार्वजनिक माना जाए और किस उपयोग को व्यावसायिक? किसी भी कृषि भूमि के अधिग्रहण हेतु कितने प्रतिशत भूमि मालिकों की सहमति जरूरी हो? उसका आधार क्या हो? अधिग्रहण के बाद खासकर, कृषि भूमि को जिस मकसद से अधिग्रहित किया जाए, जब तक उस भूमि का उपयोग उस मकसद से न किया जाए, क्या तब तक उस भूमि को खेती हेतु भूमि मालिक के पास नहीं रहना चाहिए?यदि एक तय समय सीमा के भीतर अधिग्रहण के मकसद के अनुरूप अधिग्रहित भूमि का उपयोग न हो, तो क्या वह भू मालिक को वापस लौटानी चाहिए? अधिग्रहित भूमि पर लगाए गए उपक्रम से होने वाली आय में मूल भू-मालिक की हिस्सेदारी हो कि न हो? हो, तो कितनी हो? 24 फरवरी को दिल्ली का जन्तर-मन्तर निस्सन्देह, ऐसे कई सवालों के जवाब लेने-देने का गवाह बनेगा। किन्तु गौर करने की बात है कि वहाँ पहुँच रहे पाँच हजार सत्याग्रहियों का कुल जमा मकसद, भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को लेकर भारत सरकार को चेतावनी देना मात्र भी नहीं है।
यह सत्याग्रह किसी पार्टी, व्यक्ति अथवा उद्योग विशेष के खिलाफ भी नहीं है। इसे विकास के विरुद्ध कहना भी ठीक नहीं। इसे आप विकास को असल मायने में परिभाषित करने निकले परिभाषकों का प्रयास कह सकते हैं। इसे, विकास के सरकारी नजरिए से उपजे जमीनी नजारे से रुबरु जमीनी टोली के ज़मीर का पागलपन भी कहा जा सकता है। बकौल पी. वी. राजगोपाल, इसका असल मकसद है- ‘असली आजादी’ का सन्देश और संकेत देना।
भिन्न साथी : भिन्न आगाज़
श्री राजगोपाल, इस अभियान के नेतृत्वकारी शक्तियों में से एक हैं। वह इससे पहले भी वर्ष-2007 और वर्ष-2012 में क्रमशः 25 हजार और एक लाख लोगों का जत्था लेकर दिल्ली कूच कर चुके हैं। किन्तु इस बार नजारा फर्क है और लक्ष्य व्यापक।
पहले दिल्ली की शीला दीक्षित सरकार ने उनकी घेराबन्दी की थी, अब दिल्ली की सरकार के दल (आम आदमी पार्टी) नेे उनके समर्थन का ऐलान कर दिया है। इसे अन्ना का अभियान मानें तो इस बार उनके साथ शहरी और सोशल मीडिया में कम, गाँव की जमीन पर काम करने वाली टीम ज्यादा है। चित्र निश्चित ही इस बार अलग होगा।
जनता के हक पर हावी निवेश की भूख
गौरतलब है कि पूर्व प्रधानमन्त्री श्री मनमोहन सिंह के ‘वैश्विक निवेश’ और ‘आर्थिक उदारवाद’ पर यह कहकर उँगली उठाई थी कि वह विश्व बैंक के आदमी हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, श्रीमान् नरेन्द्र मोदी को सम्भवतः यह सोचकर सरकार की नेतृत्वकारी की भूमिका में लाया होगा कि वह विश्व बैंक के नहीं, भारतीय मन और मानस के आदमी हैं। मतदाता ने भी सम्भवतः यही सोचकर उन्हें अपना प्रतिनिधित्व सौंपा था कि उन्होंने चाय वाले की मामूली हैसियत से उठकर एक प्रदेश के मुख्यमन्त्री पद हासिल किया था।
चुनाव के दौरान उसने मोदी की वाणी में स्वदेश और स्वदेशी का ओज, अरमान और अभिमान.. तीनों के दर्शन किए थे। उसे भरोसा था कि मोदी गरीब के कष्ट को भी समझते होंगे, अमीर की अमीरी को भी और नौकरशाही के तौर-तरीकों को भी। किन्तु खासकर, श्री मोदी ने विदेशी निवेश की भूख का जिस तरह प्रदर्शन किया; उससे यह स्पष्ट हुआ कि वह, निवेशकों को आकर्षित करने में पूर्ववर्ती प्रधानमन्त्री से ज्यादा माहिर और जुनूनी है। वह तो गंगा के गंगत्व को भी विदेशी निवेश और नीलामी से हासिल करने का सपना देख और दिखा रहे हैं।
सत्ता फिर कारपोरेट के हाथ
यह सच है कि देश को निवेश चाहिए, किन्तु प्राकृतिक संसाधनों की लूट और गरीब को उसके बुनियादी हकों से महरूम करके नहीं। मोदी सरकार ने निवेशकों के हक में पर्यावरण कानूनों में ढील से लेकर किसानों के भूमि हकूकों को दरकिनार करने में जिस तरह की तेजी और संवेदनहीनता दिखाई, इससे यह धारणा और बलवती हुई कि पार्टी कोई हो, अब सत्ता और सुविधा तय करने की हकदारी जनता और जनप्रतिनिधियों से निकलकर कारपोरेट हाथों में जा चुकी है।
व्यावसायीकरण के खिलाफ भी है यह सत्याग्रह
निगाह डालिए तो पाएँगे कि आज स्वास्थ्य, आवास, डाक, सुरक्षा, बिजली, पानी, ईंधन, प्राथमिक शिक्षण-प्रशिक्षण से लेकर उच्च शिक्षा आदि में कम्पनियों व निजी संस्थाओं का वर्चस्व और व्यावसायीकरण दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। निजीकरण को कोई ठीक मान सकता है; किन्तु शिक्षा, पानी, सेहत और सुरक्षा के व्यावसायीकरण को कोई कैसे ठीक मान सकता है? सच कहें तो सत्याग्रहियों का यह कूच, असल में जनता की बुनियादी जरूरतों के सेवा व ढाँचागत क्षेत्रों में बढ़ते इस व्यावसायीकरण के खिलाफ ही है।
लोक कल्याणकारी भूमिका याद दिलाने की कवायद
दोष कम्पनियों का नहीं है। कम्पनी कोई लोक कल्याणकारी संस्था नहीं होती। कम्पनी का काम है, मुनाफा कमाना; वह कमाएगी ही। वह क्योंकर किसी को मुफ्त शिक्षा, पानी या इलाज देने लगी? शिक्षा, सेहत, रोजगार, पीने को पानी,खाने को मेहनत की रोटी और रहने को एक टुकड़ा जमीन.. यह किसी भी देश की जनता के बुनियादी हक हैं। इनकी हकदारी सुनिश्चित करना सरकारों के काम हैं। बुनियादी जरूरत के ऐसे क्षेत्रों के सरकारी उपक्रमों की गुणवत्ता में आई गिरावट का मतलब यह कतई नहीं कि सरकारें इनमें सुधार की बजाय, अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लें। यह सत्याग्रह, सरकारों को इस जिम्मेदारी को एहसास कराने की कवायद भी है।
आम आदमी पार्टी के श्री योगेन्द्र यादव ने भले ही इस सत्याग्रह को समर्थन देने की घोषणा की हो, किन्तु उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि अब तक उनकी पार्टी ने ऐसी कोई घोषणा नहीं की है, जो बताती हो कि आम आदमी पार्टी बुनियादी जन-जरूरत के ढाँचागत व सेवा क्षेत्र में ‘पीपीपी’ के नाम पर व्यावसायीकरण के फैलते जाल के खिलाफ है। इस दृष्टि से यह सत्याग्रह, दिल्ली में पानी, बिजली, स्वास्थ्य और शिक्षा के व्यावसायीकरण के भी खिलाफ है।
असल विकास को परिभाषित करने की कोशिशइस जत्थे में शामिल लोगों से बात करें तो वे आपको बताएँगे कि सिर्फ सड़क की चौड़ाई और मकान की ऊँचाई को विकास की माप मानना गलत है। यह मानना गलत है कि सारी सत्ता, संसाधन और जमीन पर सरकार का ही हक है। भूमि अधिग्रहण बिल के बहाने वे असल में विकास की असल परिभाषा को परिभाषित करने निकले हैं।
राह बताएगी असल मंजिल का ठिकाना
मोदी सरकार तो बाद में आई; ‘असली आजादी’ अभियान की पटकथा तो असल में तभी लिखनी शुरू हो गई थी, जब केजरीवाल, अन्ना से अलग हुए। इसके तहत् दिल्ली, जयपुर से लेकर रालेगाँव सिद्धी तक कई बैठकें हुईं। पंचायतों को ‘तीसरी सरकार’ से लेकर जल-जंगल-जमीन के अधिकार सम्बन्धी कई अन्य विचारों ने अपने-अपने स्तर पर मूर्त लेना भी शुरू कर दिया है।
इससे यह तो तय है कि यह अभियान जन्तर-मन्तर तक रुकने वाला नहीं। देखना सिर्फ यह है कि यह अभियान, वाकई जमीनी सरोकार के सफर पर निकलना पसन्द करेगा या फिर दिल्ली से निकलकर चुनावी प्रदेशों की राह का राहगीर बन जाएगा? यह भी देखना महत्वपूर्ण होगा कि यह अभियान, दिल्ली की प्रदेश सरकार को भी आईना दिखाएगा या सिर्फ श्री मोदी को ही चिढ़ाएगा?