आज का जमाना: हमारा समय

Submitted by Shivendra on Mon, 09/01/2014 - 10:47
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गांधी मार्ग, सितंबर-अक्टूबर 2014
पर्यावरण की समझ में हम कहां भटक रहे हैं, हम कहां भूल कर रहे हैं, यह कोई नहीं कह रहा है। इस बात को कोई राजनीतिज्ञ नहीं कहने वाला। वह भला क्यों कहेगा कि हमें पानी और बिजली का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। इनकी बचत करनी चाहिए। वे तो यही कहेंगे कि आप करते रहिए उसका उपयोग, कीमत हम देख लेंगे। इसके लिए हमारे ‘कॉरपोरेट सेक्टर’ को भी हमें याद कर लेना चाहिए। निःसंदेह आज भारतीय व्यापार ने हमारे लिए जो कुछ भी किया है, हम सब उससे वाकिफ हैं। लेकिन जिस प्रकार हमारे प्राकृतिक संसाधनों को, हमारी ही यह व्यापारिक बिरादरी खोखला बना रही है, उसके बारे में कोई चेतावनी देने के लिए तैयार नहीं। पहले तो मैं यह बता देना चाहूंगा कि आपमें से कोई यह न समझे कि यह कोई गांधीवादी आपको संबोधित कर रहा है। मैं गांधीवादी नहीं हूं। मैं आज के कंज्यूमर जमाने का एक बहुत चमकता हुआ प्रतीक हूं। मुझमें आप कोई त्याग मूर्ति न देखें। हां मैं भोगी नहीं हूं, लेकिन योगी भी नहीं। जब मैंने पूर्व वक्ताओं के नाम सुने, तो मुझे अपनी असमर्थता पर और अधिक ताज्जुब हुआ। कितनी बड़ी-बड़ी हस्तियां यहां आई हैं। दलाई लामा और ताराअली बेग को मैं स्वयं यहां सुन चुका हूं। वक्ताओं के सारे नाम जब मैंने सुने तो मुझे लगा कि यहां मेरा आप सबके सामने बोलना एक धृष्टता होगी। पर जब मैंने देखा कि मेरा भतीजा तुषार भी यहां बोल चुका है तो मुझे थोड़ी सांत्वना मिली। भतीजे के बाद चाचा बोले तो शायद कुछ बैलेंस ठीक हो रहा है।

आज का जमाना। ‘ए टेल ऑफ टू सिटीज़’ नामक अंग्रेजी उपन्यास है। चार्ल्स डिकिंस उसमें लिखते हैं: वह सबसे अच्छा वक्त था, वह सबसे बुरा वक्त था। वह ज्ञान का युग था, वह मूर्खता भरा युग था। वह प्रकाश का दौर था, वह अंधेरे का दौर था। वह तो आशा भरा वसंत था, वह निराशा भरी शीत थी। आज अगर हम विचार करें तो यही सब हमारे इस जमाने के बारे में भी कहा जा सकता है।

पर आप पूछ सकते हैं कि आप हमारे जमाने को आशा का बसंत और प्रकाश का युग भला कैसे कह सकते हैं? सब जगह तो अंधेरा-अंधेरा ही लग रहा है। पर अंधकार और निराशा पर आने से पहले मैं इस संवाद में आप सबके साथ देखना चाहता हूं कि हमारे इस जमाने को आशा का बसंत और प्रकाश का युग कैसे कहा जा सकता है। एक तो यह है कि अभी कुछ दिन पहले तक हमारे बीच में नेल्सन मंडेला थे। अभी कुछ ही पहले तक पीट सीगर हमारे साथ थे। दलाई लामा हमारे बीच विद्यमान हैं। आंग-सां-सूची हमारे साथ हैं। यहां तक कि चौदह वर्षीय मलाला यूसुफ जई भी हमें प्रेरणा दे रही है। तो यह आशा का बसंत नहीं तो और क्या है?

पीट सीगर जब हमें छोड़कर गए, उनकी आयु 94 वर्ष की थी। उन्होंने हमें ‘वी शैल ओवरकम’, हम होंगे कामयाब जैसा गान दिया है। यह गीत उन्होंने लिखा नहीं था। यह तो एक आध्यात्मिक मौजूदगी थी। उन्होंने उसको गाने योग्य बनाया। मूल गीत में था: ‘वी विल ओवरकम’ इसे उन्होंने ‘वी शैल ओवरकम’ करके दुनिया को एक बड़ी विरासत दी है। दुनिया की हर जुबान में यह गीत है। बांग्ला में तो दो-दो अनुवाद हैं इसके। ‘एक दिन सूरजेर भोर’ और ‘आमरा कोरबोजोय’। ‘आमरा कोरबोजोय’ के बाद ‘आमरा कोरबोजोय निश्चय’ जब आता है तो फिर वह ‘वी शैल ओवरकम’ से भी एक कदम आगे बढ़ जाता है। यह आशा का वसंत नहीं तो और क्या है?

पीट सीगर 2011 में अमेरिका में हुए ‘ऑक्यूपाई वॉल स्ट्रीट’ आंदोलन में भी सक्रिय रूप से शामिल थे। मलाला के बारे में कुछ कहना बहुत जरूरी नहीं है। हम सब उस बच्ची के उदाहरण से परिचित हैं। तो आज हमारे दिमाग में यह सवाल उठ सकता है कि जो भी मैंने उदाहरण दिए हैं, उसमें से दलाई लामा जरूर भारत में हैं। लेकिन क्या मंडेला, दलाई लामा, आंग-सां-सूची, मलाला, पीट सीगर जैसे कद का कोई व्यक्तित्व हमारे देश में है? यह सोचकर हम एकदम निराश न हों। पहले यह जरूर सोचें कि देश के जनसमूह की पचास प्रतिशत आबादी पच्चीस वर्ष से छोटी है।

उमर के इस हिसाब से देखें तो यह दुनिया का सबसे नौजवान देश है। और सभ्यता और विरासत के हिसाब से देखें तो दुनिया का सबसे बुजुर्ग देश है। तो फिर इसमें आशा का बसंत और प्रकाश का युग नहीं तो और क्या हो सकता है? पर इस युवा आबादी को अगर प्रेरित करके आगे को ले जाना है तो वो कौन हेै?

दुनिया में हमारे जैसे देश बहुत कम हैं जहां राजनैतिक दल और सामाजिक आंदोलन कदम से कदम मिलाकर चले हैं और कभी-कभी तो एक दूजे में मिलकर एक भी हो गए हैं।

सन् 1885 में कांग्रेस बनी। यह एक राजनीतिक पार्टी थी। और भी राजनीतिक पार्टियां बन सकती थीं और बनीं भी। लेकिन आज जिस आदमी की स्मृति में हम एकत्रित हुए हैं, उसने यहां एक सामाजिक आंदोलन शुरू किया और उस आंदोलन को इस पार्टी के साथ जोड़ा। इससे एक नई मिसाल हमारे सामने आई थी: सामाजिक आंदोलन का सड़क पर ही होना जरूरी नहीं है। ऐसे आंदोलन को पार्टियों के जरिए भी कार्यान्वित किया जा सकता है। और अगर पार्टी के किसी अंश से तकलीफ हो रही है तो फिर सड़क पर भी, सामाजिक आंदोलन के जरिए। संभव हो तो पार्टी अपना अस्तित्व अलग रखे और सामाजिक आंदोलन अपना अलग अस्तित्व रखे। पर कई जगह वो दोनों एक साथ मिल भी सकते हैं।

अगर उस आदमी ने यह मिसाल नहीं दी होती तो कांग्रेस जिस तरह एक बड़ी शक्तिशाली पार्टी रही है, तो संभव था स्वतंत्रता आंदोलन में भी बहुत बड़ा योगदान करती, लेकिन जिस तिलस्म को वो छू गई वो शायद उस तरह न छूती, अगर नौजवान और वृद्ध सब उसके साथ न जुड़ते। मोतीलाल नेहरू जैसे वयोवृद्ध भी उसमें आए और तरुण तपस्वी जवाहरलाल भी। तो यह उस आदमी का एक जादू था। आज ऐसा कुछ है क्या? इस सवाल के कई जवाब हो सकते हैं।

हममें से हरेक के दिमाग में इस सवाल के अलग-अलग जवाब हो सकते हैं। लेकिन मैं नहीं मानता कि किसी के भी मन में इस सवाल का एक ऐसा जवाब है कि हां मेरे पास देश की सारी समस्याओं का उत्तर है। गांधी ने भी कभी नहीं कहा कि उनके पास देश की सारी समस्याओं का उत्तर है। हां, गांधी के सबसे बड़े अनुयायी जयप्रकाशजी ने जरूर ‘संपूर्ण क्रांति’ की बात की थी। पर उन्होंने उसे भावी इतिहास का नाम दिया थाः ‘भावी इतिहास हमारा है।’ उन्होंने यह नहीं कहा कि मैं संपूर्ण हूं, उन्होंने कहा कि वह लक्ष्य है। आज एक सामूहिक नागरिक की बात है। जो उससे जुड़े, उसे पूर्ण कहा जा सकता है। पर वह हमें कहीं नहीं मिलता है।

न आज के किसी मौजूदा आंदोलन में, न आज की मौजूदा पार्टियों में। तो आज पच्चीस वर्ष से कम का जो हमारा युवा समूह है, वो एक शक्ति है जो एक सार्थक दिशा ढूंढ़ रहा है। वो एक ऊर्जा है जो एक गंतव्य ढूंढ़ रही है। वो एक प्रेरणा है, जो अपना आदर्श ढूंढ़ रही है। कैसे वह माने जिसको लेकर हम कह सकते हैं कि हां हमें आज पर भरोसा है। अगर ऐसा भरोसा है तो वही है आशा का वसंत। यदि ऐसी परिस्थिति नहीं दिखती तो फिर यही हैनिराशा की शीत।

आज के हर राजनीतिक दल में हमें ऐसे बहुत से लोग मिल जाएंगे, जिन्हें हम मानते हैं, जिन्हें हम अपना आदर दे सकते हैं। साथ ही हर राजनीतिक दल में हम ऐसे लोगों को भी पाएंगे, जिनके साथ हम किसी लिफ्ट में भी अटकना नहीं चाहेंगे, जिनके साथ हम शायद एक कप चाय भी नहीं पीना चाहेंगे। यह है आज की हकीकत। इस हकीकत को लेकर हम अंधेरे में अपनी राह ढूंढ़ रहे हैं।

तो आज का जमाना हमें क्या कह रहा है। क्या अपूर्णता को कबूल करना पर्याप्त है। शायद एक ऐसे व्याख्यान या लेख के लिए वह पर्याप्त हो सकता है। लेकिन उससे हमें कोई खुराक नहीं मिलने वाली; न बौद्धिक, न किसी अन्य प्रकार की ही। मेरा यह आज प्रस्ताव है कि जो अपने आपको गांधी से प्रेरित समझते हैं, और कभी-कभी अपने आपको गांधीवादी कहने की भूल भी कर लेते हैं, उन सबको आज अपने आप से यह प्रश्न करना पड़ेगा कि क्या हम अपने आप पर वह काबू ला चुके हैं जो कि हम औरों में देखना चाहते हैं? तो हमें उसका जवाब मिलेगा कि नहीं, शायद नहीं। मैं अपने बारे में जरूर कह सकता हूं, बिलकुल नहीं।

आज हर आदमी राजनीतिक आदमी है। वह औरों पर आरोप लगाने में बहुत दक्ष हो गया है। लेकिन स्वराज का जो मतलब होता है, अपने स्वयं पर राज, उससे वह बहुत दूर है। और अगर यही चलता रहे तो कहा जा सकता है कि हमारा देश कुछ ऐसे लोगों की जगह बन गया है, जहां दूसरों के दोष तो खूब देखे जाते हैं, पर कोई हल नहीं सुझाया जाता। जब भी कोई किसी पर आरोप लगाता है तो उस पर भी एक आरोप लग जाता है।

आज कोई यह नहीं कहता कि भाई मुझसे गलती हुई है। मैं अपनी गलती कुबूल कर रहा हूं। आगे मैं अपने आपको सुधारने की कोशिश करूंगा। चौरी-चौरा से हम सब वाकिफ हैं। सारे कांग्रेस नेताओं को, कार्यकर्ताओं को गांधी ने ऐसा सदमा दिया चौरी-चौरा की घटना के बाद आंदोलन को रोक देने से कि वे बहुत समय तक उससे उबर ही नहीं पाए थे।

हम जानते हैं कि हमारे खनिज पदार्थों का किस तरह दुरुपयोग हो रहा है, लेकिन आज यह सवाल पूछने वाला कोई नहीं है कि हमारी कीमती खदानों की क्या हालत है। हमारे बेशकीमती खनिज आज किस हालत में आ गए हैं? हमारे प्राकृतिक साधनों की स्थिति कैसी है भला? इन सब धरोहरों का हम कितना उपयोग आज कर लेंगे, कितना कल के लिए और कितना कुछ परसों आने वाली पीढ़ी के लिए छोड़ जाएंगे।आज हर राजनैतिक हैसियत, राजनैतिक दल और साथ ही वे भी जो अपने को सामाजिक आंदोलन मानते हैं- ये सब ‘हिमालय जैसी भूलें’ कर रहे हैं, पर इनमें से एक भी अपनी गलती को मानने तैयार नहीं। गांधी में चार चीजें ऐसी थीं, जो उन्हें एकदम अनूठा बनाती थीं: उन्हें मृत्यु का भय नहीं था। पराजय का भय नहीं था। कहीं कोई उन्हें मूर्ख न मान ले- इसका उन्हें डर नहीं था और चौथी बात, सबसे महत्पूर्ण यह कि उन्हें अपनी गलती स्वीकार करने से डर नहीं था।

आज इन चारों बातों को अगर हम मापदंड के तौर पर लें और पूछें कि कौन है जो इस मापदंड पर खरा उतरता है तो बहुत कम लोग मिलेंगे। इसी में हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है। एक पांचवां गुण भी गांधी में था जो कि आज हमारे बीच से बिलकुल गायब है। वह है खुद को और समाज को कड़वे सच सुनाने का। इसे हम कुछ भी नाम दें। चाहे शक्ति कहें, ताकत कहें, आदत कहें, तकनीक कहें या कुछ और।

हमें जब भी किसी राजनैतिक दल, राज्य सरकार या केन्द्र सरकार की किसी गलती को खोज निकालने में मजा आए तो हमें खुद से पूछ लेना चाहिए कि क्या इस गलती को करने में हमारी अपनी भी कुछ भूमिका रही थी? हम ऐसा करने नहीं वाले। और राजनीति में जो लोग हैं, वे भी हससे ऐसा करने को कहने नहीं वाले। वे तो हमें अपना ‘वोट बैंक’ जो मानते हैं। कोई यह कहने को तैयार नहीं है कि मैं हारूं तो हारूं, मैं अगर आपका स्नेह लुटा दूं तो लुटा दूं लेकिन मैं सच जरूर कहना चाहता हूं। एक आम आदमी, एक आम नागरिक की तरह भी हमने अपने देश को नीचा दिखाया है- यह आज कोई कहने को तैयार नहीं है। इस पीड़ा को दूर करने के लिए कई लोग ठोस काम कर रहे हैं। वे अपने आपको गांधीवादी नहीं बतलाते हैं। पर वे काम कर रहे हैं।

उनकी संख्या कम है। उनके नामों से हम लोग परिचित भी नहीं हैं। जो गांधी का काम आज देश में हो रहा है, वो खासकर उन्हीं लोगों से हो रहा है जो कि अपने काम को गांधी का नाम नहीं दे रहे हैं। वे सिर्फ अपने काम में रत हैं। हर राजनीतिक दल किसी न किसी नेता के नाम का उपयोग कर रहा है।

गांधी का नाम बरसों से उपयोग होता आ रहा है। बाबा साहेब का नाम राजनीतिक दलों में देश भर में उपयोग हो रहा है। इसी तरह नेताजी का नाम भी लिया जाता है। और आज अचानक इतने सालों बाद सरदार पटेल का नाम भी राजनीतिक कार्यक्रमों के लिए उपयोग में आने लगा है। किसी ने बहुत सही कहा है कि जो महान विभूतियां आज हमारे बीच नहीं हैं, उनके नामों को लेने का अर्थ तो कुछ ऐसा ही है, मानो हम उनकी कब्र को खोद कर उनका शरीर बाहर ला पटकें।

यह बिलकुल सही है। कौन कह सकता है कि ये नेता अपने इस नाम के उपयोग से संतुष्ट होंगे। कोई नहीं कह सकता। लेकिन उनके नाम का उपयोग हो रहा है। यह अपने आप में एक तरह का भ्रष्टाचार है। इस काम की शुरुआत गांधीजी के नाम के दुरुपयोग से ही हुई, इसके बारे में कोई संदेह नहीं है। देश भर में यह होता रहा है। अब उसकी प्रतिक्रिया हो रही है। उसकी प्रतिध्वनि आज हम सुन रहे हैं। बाकी अन्य नामों का भी उसी तरह उपयोग हो रहा है, दुरुपयोग हो रहा है। आज के जमाने के जिस अंधकार की बात हमने प्रारंभ में कही थी, यह भी उसी का एक अंश है। हमें खुद की तो कोई ज्योति मिल नहीं रही है।

तो पुरानी ज्योतियों को हम सुलगा-सुलगा कर, उसी के प्रकाश से इस अंधकार में अपनी राह ढूंढ़ रहे हैं! दूसरे शब्दों में कहें तो आकाश में बुझे हुए सितारों की रोशनी से अंधकार में अपनी राह ढूंढ़ रहे हैं।

दुनिया की बात जरा भिन्न है। दुनिया में आज महात्मा गांधी का नाम समकालीन नाम है। भारत में यह पुरातनी नाम है। हम उनकी छवि के सामने दीपशिखा को प्रज्ज्वलित करके, पुष्पार्पण करके साल में दो बार आत्मतुष्टि पा लेते हैं, लेकिन दुनिया में जो पर्यावरण के क्षेत्र में आंदोलन चल रहे हैं, वे गांधी के तिलस्म से ऐसे प्रेरित हैं कि हम जानते तक नहीं हैं। सामाजिक आंदोलन और राजनीतिक दल इन दोनों को जोड़कर हमारे देश में जो गांधी ने चमत्कार किया था, वह आज दुनिया भर में पर्यावरण के काम के साथ जुड़ रहा है। उस चमत्कार को भी हम ठीक-ठीक जानते नहीं।

मैंने जो यह कड़वी बात कही, वह आज कोई भी नहीं कह रहा है। पर्यावरण की समझ में हम कहां भटक रहे हैं, हम कहां भूल कर रहे हैं, यह कोई नहीं कह रहा है। इस बात को कोई राजनीतिज्ञ नहीं कहने वाला। वह भला क्यों कहेगा कि हमें पानी और बिजली का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। इनकी बचत करनी चाहिए। वे तो यही कहेंगे कि आप करते रहिए उसका उपयोग, कीमत हम देख लेंगे। इसके लिए हमारे ‘कॉरपोरेट सेक्टर’ को भी हमें याद कर लेना चाहिए। निःसंदेह आज भारतीय व्यापार ने हमारे लिए जो कुछ भी किया है, हम सब उससे वाकिफ हैं। लेकिन जिस प्रकार हमारे प्राकृतिक संसाधनों को, हमारी ही यह व्यापारिक बिरादरी खोखला बना रही है, उसके बारे में कोई चेतावनी देने के लिए तैयार नहीं। कोई राजनीतिक दल भी चेतावनी देने को तैयार नहीं।

शायद एकाध हो सकते हैं। हम जानते हैं कि हमारे खनिज पदार्थों का किस तरह दुरुपयोग हो रहा है, लेकिन आज यह सवाल पूछने वाला कोई नहीं है कि हमारी कीमती खदानों की क्या हालत है। हमारे बेशकीमती खनिज आज किस हालत में आ गए हैं? हमारे प्राकृतिक साधनों की स्थिति कैसी है भला? इन सब धरोहरों का हम कितना उपयोग आज कर लेंगे, कितना कल के लिए और कितना कुछ परसों आने वाली पीढ़ी के लिए छोड़ जाएंगे।

कोलकाता में मैंने कोई पचास बड़े उद्योग घरानों को एक पत्र लिखा कि “बचत करना भी कोई एक चीज होती है। आप मुझे यह बताएं कि बिजली और पानी का जिस तरह आप उपयोग कर रहे हैं, क्या वह सही मात्रा में है? क्या वह आवश्यकता के भीतर है या आवश्यकता से ऊपर? और अगर आवश्यकता से ऊपर कर रहे हैं तो आप कितनी बचत कर सकते हैं? यह जो हमारा प्रदेश है, वह बिजली के उत्पादन में कमजोर प्रदेश है। इसलिए आप सुझाव दें।”

जिस पते से मैंने यह पत्र लिखा था, उस पते की अपनी कुछ गरिमा है। लेकिन आपको ताज्जुब होगा कि मुझे एक भी उद्योग घराने से इस पत्र की पावती तक नहीं मिली! और वह इसलिए कि ये सब व्यापारी जानते थे कि राज्यपाल तो सिर्फ अलंकार, आभूषण मात्र होते हैं, असली निर्णायक तो राजनीतिज्ञ ही होते हैं। इसलिए राज्यपाल को हम जवाब देकर क्यों अपना समय व्यर्थ करें। पानी की बचत न करें, हम समय की बचत करते हैं। इनको हम जवाब नहीं देते। वहीं मुझे एक भद्र महिला का एक बार बहुत प्यारा-सा पत्र मिला: महोदय, मैं राज्य के सबसे ऊंचे इस गरिमामय पद को पत्र लिखते हुए गौरव का अनुभव कर रही हूं! पर ये उद्योगपति जानते थे कि राज्य का सबसे ऊंचा पद क्या है, कौन है, असली सत्ता किसके हाथ में है।

इसलिए किसी ने मुझे बचत के बारे में लिखे उस पत्र का जवाब तक नहीं दिया! हमारे द्वितीय राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने सन् 1967 में अपने गणतंत्र दिवस के भाषण में कहा था: प्राकृतिक संसाधनों के कुप्रबंध और बचत, किफायत के खिलाफ फैल रही आग के प्रति हम देश को चेताना चाहते हैं। अगर आज वे हमारे बीच होते तो शायद एकदम मौन हो जाते। आज कोई पूछ नहीं रहा है। इस बारे में दुनियाभर में जागरूकता बढ़ रही है, लेकिन हम में नहीं है। हम कह रहे हैं कि विकसित देशों को बदलते मौसम के लिए अपनी खपत का स्तर घटाना ही होगा।

यह सही बात है। उन्होंने जिस तरह दुनिया में खपत का स्तर बढ़ाया है और प्रदूषण बढ़ाया है, उसका हमारे साथ मुकाबला नहीं हो सकता। उनको यह रोक लगानी ही चाहिए लेकिन उसका बहाना बनाकर अगर हमारे उद्योग कुछ न करें, सिर्फ चुप बैठें तो माना जाएगा कि देश के भीतर जो ‘पहली दुनिया’ है, जो ‘दूसरी दुनिया’ है, वह तीसरी दुनिया की जनता के पीछे छिप कर अपने लुटेरेपन को बचा रही है। यह आज की हकीकतों में एक बहुत बड़ी हकीकत है। लेकिन कोई भी यह कड़वा सच बताएगा नहीं। इसका उल्लेख नहीं करेगा।

सब बस यही कहेंगे कि फलां भ्रष्ट है या फलां राजनीति में अपने आपको बनाए रखना चाह रहा है। तो आज हमारा जमाना एक ऐसा जमाना है, जिसमें हमें आशा की किरणें कम, निराशा का तमस ज्यादा दिख रहा है। मेरा मानना है कि यह परिस्थिति बहुत समय तक नहीं चल सकती। और अगर नहीं चल सकती है तो वह किस तरह बदलेगी? वह बदलेगी इस तरह कि बहुत सारे राजनीतिक प्रयोग एक साथ चलेंगे और हर प्रयोग में हम मिश्रण पाएंगे।

दुनिया की बात जरा भिन्न है। दुनिया में आज महात्मा गांधी का नाम समकालीन नाम है। भारत में यह पुरातनी नाम है। हम उनकी छवि के सामने दीपशिखा को प्रज्ज्वलित करके, पुष्पार्पण करके साल में दो बार आत्मतुष्टि पा लेते हैं, लेकिन दुनिया में जो पर्यावरण के क्षेत्र में आंदोलन चल रहे हैं, वे गांधी के तिलस्म से ऐसे प्रेरित हैं कि हम जानते तक नहीं हैं। सामाजिक आंदोलन और राजनीतिक दल इन दोनों को जोड़कर हमारे देश में जो गांधी ने चमत्कार किया था, वह आज दुनिया भर में पर्यावरण के काम के साथ जुड़ रहा है। उस चमत्कार को भी हम ठीक-ठीक जानते नहीं।वही मिश्रण जो ‘ए टेल ऑफ टू सिटीज़’ में चार्ल्स डिकिंस दिखा चुके हैं: वहां आशा होगी, वहां निराशा होगी। वहां होगा प्रकाश और होगा अंधकार भी। जब भी कोई आशा की किरण दिखती है तो एकदम घप कर के उस पर एक दूषित बादल छा जाता है, उसको ढक देता है। कल तक तो हमें लग रहा था कि इतनी बढि़या बात हुई है, आज हालत कुछ अलग है। लेकिन इन प्रयोगों में से, प्रयोगों के बाद, प्रयोगों से कुछ न कुछ निकलेगा जरूर। लेकिन ये प्रयोग बहुत महंगे साबित हो रहे हैं। क्योंकि ये प्रयोग किसी प्रयोगशाला में नहीं चलते। ऐसे राजनीतिक और सामाजिक प्रयोग तो हमारी जिंदगी में चलते हैं। वे हमारी रोजमर्रा की समस्याओं में खेले जाते हैं।

ताजमहल, महात्मा गांधी और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र- इन तीन बातों से दुनिया में हमारे देश की ऊंची पहचान है। इन तीनों के बारे में मैं एक-दो शब्द कह कर अपनी बात समाप्त करता हूं। ताजमहल केवल भारत की सौंदर्य दृष्टि का प्रतीक नहीं है। यह तो उसकी अंतर आत्मा की, उसकी बहुलता की एक धवल धरोहर है। यह सांकेतिक ताज आज खतरे में है। उसको बचाए रखना बहुत जरूरी है। और कुछ बचे न बचे पर इसे किसी भी कीमत पर बचाना होगा।

आज का हमारा जमाना इस धवल विरासत को खतरे में पा रहा है। उसे बचाना हम सबका बहुत बड़ा फर्ज बनता है। ताज और गांधी के बीच में कोई समानता है, कोई मेल है क्या? बिलकुल नहीं। वे गए थे जरूर एक बार ताजमहल देखने, पर उस भवन से वे कोई विशेष आकर्षित नहीं हुए। हुए हों, ऐसा कोई प्रमाण नहीं है। फिर भी बहुत बड़ा संबंध है। मैं आज इन दोनों के बारे में एक संगीतात्मक विचार आपके सामने रखना चाहता हूं। हम सब जानते हैं कि हमारा राष्ट्रीय गान गुरुदेव की देन है। पर हमारा जो राष्ट्रीय गान है, उसका संक्षिप्त रूप ही हम गाते हैं। बहुत बड़ा राष्ट्रीय गान कौन गा सकता है भला। पर गांधीजी की आश्रम भजनावली में हमें राष्ट्रीय गान का असपांदित, मलू रूप मिलता है। उसमें ये पंक्तियां हैंः ‘घारे तिमिर घन निबिड निशीथे, पीडि़त मूर्च्छित देशे, ...दुस्वप्ने, आतंके रखा करिले अंके स्नेहीमयी तुमि माता।’

यह गीत गुरुदेव ने राष्ट्रगान के रूप में तो लिखा नहीं था। घोर तिमिर घन निबिड़ निशीथे। आप इसको ध्रुपद की तरह भी ले सकते हैं। अगर कोई इसे धु्रपद में गाए तो कैसे गाएगा- घोर तिमिर घन घोर तिमिर, घन घन घोर घोर घोर तिमिर घन- दौर है अंधकार का। घोर तिमिर घन निबिर निशीथे, पीडि़त मूर्च्छित देशे... दुस्वप्न आतंके रखा करिले अंके स्नेहमयी तुमि माता। ताज, गांधी और गांधी के दिए हुए गुरुदेव के इस पूर्ण गान में एक बहुत गहरा संबंध है। ‘सारे जहां से अच्छा’ के बारे में हम सब जानते हैं। एक सदाबहार, स्थायी सुंदरता से भरा गीत।

हमें उस जैसी गेय सुंदरता से भरा दूसरा कोई गीत मिल नहीं सकता। राकेश शर्मा जब चांद की यात्रा पर गए थे और तब की प्रधानमंत्री ने उनसे पूछा था कि चांद से आपको हिन्दुस्तान कैसा लग रहा है? इसके जवाब में अंतरिक्ष यान से राकेश शर्मा ने कहा था: ‘सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तां हमारा’।

इसे सुन कर हम सबके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। लेकिन उस ‘सारे जहां से अच्छा’ में इकबाल कहते हैं- ‘इकबाल कोई महरम अपना नहीं जहां में, मालूम क्या किसी को दरदे निहां हमारा’। इन पंक्तियों को हम याद नहीं रखते।

सारे जहां से अच्छा, मजहब नहीं सिखाता, हम बुलबुले हैं आदि दोहराते रहते हैं। लेकिन इधर दरदे निहां हमारा और उधर घोर तिमिर घन याद नहीं हम लोगों को। हमको तो यह दर्द, यह तिमिर कौन दूर करेगा पता नहीं। यह गांधी करता गया। दुनिया जानती है, गांधीवादी नहीं जानते हैं। गांधीवादी उस गांधी को चाहते हैं जो कि सुविधाजनक है। राजनीतिज्ञ उस गांधी को चाहते हैं जो कि और भी अधिक सुविधाजनक है। असुविधाजनक गांधी को कोई याद नहीं करता। आज उस असुविधाजनक गांधी का पुनः आविष्कार करना चाहिए, जो कि कड़वे सच बताए, खुद को भी और औरों को भी।

अंत में तीसरी बात लोकतंत्र की। हमारी जो पीड़ा है, वह शोषण से पैदा हुई है, लेकिन आज विडंबना यह है कि उस शोषण से उत्पन्न पीड़ा का भी शोषण हो रहा है। पीड़ा को दूर करने के लिए, पीड़ा की दवाई देने के बजाए, उस पीड़ा को और पीड़ित करके, उस पीड़ा का शोषण करके, खुद का पोषण हो रहा है।

यह है हमारा जमाना। लेकिन अगर हम अपने पर विश्वास रखें और अपने पर स्वराज लाएं तो हमारा जमाना बदलेगा। खुद पर स्वराज तो मुझे लगता है कि आगामी वर्षों में और बहुत वर्षों में नहीं, बल्कि बहुत जल्द हम अपने अनेक प्रयोगों से पा भी सकते हैं। लेकिन उसके लिए अपनी भूलें कुबूल करना, अपने खुद को सुधारना बहुत आवश्यक होगा। लांजा देल वास्तो नामक एक बहुत बड़े दार्शनिक हुए हैं। उन्होंने गांधी के अंतिम क्षणों के बारे में कुछ लिखा है। उसी से आज इस संवाद का समापन करूंगा। हम सब जानते हैं कि आभा और मनु ने गांधीजी को अंतिम क्षण में राम का नाम लेते हुए सुना था। ‘हे राम’। यह एक पुण्य, भव्य शब्द, अंतिम शब्द उनके कंठ से निकला था। लेकिन ठीक इससे पहले गांधीजी ने एक पूरा वाक्य कहा था। इसमें सर्वनाम, संज्ञा, क्रिया, वाक्य विन्यास सब कुछ था। यह गुजराती में था। उस दिन गांधीजी को पन्द्रह मिनट की देरी हो गई थी।

आभा ओैर मनु को गुजराती में उन्होंने कहा: ‘मने मोड़ू थतू गंतो नक’। ‘मुझे कहीं भी देर से पहुंचना अच्छा नहीं लगता’। तो उस शब्द हे राम को अभी किनारे रख दें। इस पूरे वाक्य को देखें। कहा गया अंतिम वाक्य। लांजा देल वास्तो ने इसे नाटकीय रूप देते हुए कहा है: गांधी ने अपने हत्यारे की ओर देखा और कहा, “अरे तुम तो विलंब से आए हो भाई।” मैं इसमें एक बहुत बड़ा मर्म देखता हूं। जो भी गांधी का अंत कर रहा है, जान कर या अनजाने में वह चूक जाता है। उसे विलंब हो जाता है। गांधी समय के पाबंद हैं। जहां उनकी जरूरत होगी, गांधी उस जगह एकदम समय पर पहुंच जाएंगे।

वे बिलकुल ठीक समय पर वहां होंगे। अंतराष्ट्रीय स्तर पर भी वे हर जगह पर प्रेरणा देने एक उदाहरण की तरह, प्रबंधक की तरफ उपस्थित होंगे। वे समय के पाबंद ही नहीं, बल्कि अपने समय के आगे भी हैं। इसलिए वे ऐसी हर जगह समय पर पहुंच जाते हैं, अपनी अमिट छाप छोड़ते हैं। ऐसे लोग जो गांधी का नाम लिए बिना ऐसे सुंदर कामों में लगे हैं, वे भी अपनी छाप छोड़ेंगे। फिर चाहे वे गांधी के चित्रा के आगे कोई दीया प्रज्ज्वलित करें या नहीं।

गांधी शांति प्रतिष्ठान में 30 जनवरी 2014 को दिए गए भाषण के अंश।