'डॉ. राजेन्द्र प्रसाद स्मारक व्याख्यानमाला' में अनुपम जी के वक्तव्य का लिखित पाठ
आज से कोई सौ बरस पुरानी घटना है। वह घटना यदि घटी न होती तो शायद हम आज यहां एकत्र भी न हो पाते। सन् 1910 का किस्सा है। राजेन्द्र बाबू तब कलकत्ता में वकालत पढ़ रहे थे। यहां एक दिन उन्हें उस दौर के प्रसिद्ध बैरिस्टर श्री परमेश्वर लाल ने बुलाया था। वे कुछ समय पहले ही गोखलेजी से मिले थे। बातचीत में गोखलेजी ने उनसे कहा था कि वे यहां के दो-चार होनहार छात्रों से मिलना चाहते हैं। परमेश्वरजी ने सहज ही राजेन्द्र बाबू का नाम सुझा दिया था।
राजेन्द्र बाबू गोखलेजी से मिलने गए, अपने एक मित्र श्रीकृष्ण प्रसाद के साथ। सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसायटी की स्थापना अभी कुछ ही दिन पहले हुई थी। गोखलेजी उस काम के लिए हर जगह कुछ अच्छे युवकों की तलाश में थे। उन्हें यह जानकारी परमेश्वरजी से मिल गई थी कि ये बड़े शानदार विद्यार्थी हैं। वकालत उन दिनों ऐसा पेशा था जो प्रतिष्ठा और पैसा एक साथ देने लगा था। इस धंधे में सरस्वती और लक्ष्मी जुड़वां बहनों की तरह आ मिलती थीं।
कोई डेढ़ घंटे चली इस पहली ही मुलाकात में राजेन्द्र बाबू से श्री गोखले ने सारी बातों के बाद आखिर में कहा था, ”हो सकता है तुम्हारी वकालत खूब चल निकले। बहुत रुपए तुम पैदा कर सको। बहुत आराम और ऐश-इशरत में दिन बिताओ। बड़ी कोठी, घोड़ा-गाड़ी इत्यादि दिखावट का सामान सब जुट जाए। और चूंकि तुम पढ़ने में अच्छे हो तो इसलिए तुम पर वह दावा और भी अधिक है।“
गोखलेजी थोड़ा रुक गए थे। कुछ क्षणों के उस सन्नाटे ने भी राजेन्द्र बाबू के मन में न जाने कितनी उथल-पुथल पैदा की होगी। वे फिर बोलने लगेः ”मेरे सामने भी यही सवाल आया था, ऐसी ही उमर में। मैं भी एक साधारण गरीब घर का बेटा था। घर के लोगों को मुझसे बहुत बड़ी-बड़ी उम्मीदें थीं। उन्हें लगता था कि मैं पढ़कर तैयार हो जाऊंगा, रुपए कमाऊंगा और सबको सुखी बना सकूंगा। पर मैंने उन सबकी आशाओं पर पानी फेर कर देशसेवा का व्रत ले लिया। मेरे भाई इतने दुखी हुए कि कुछ दिनों तक तो वे मुझसे बोले तक नहीं। हो सकता है यही सब तुम्हारे साथ भी हो। पर विश्वास रखना कि सब लोग अंत में तुम्हारी पूजा करने लगेंगे।“
श्री गोखले के मुख से मानो एक आकाशवाणी-सी हुई थी। बाद का किस्सा लंबा है। लंबी है राजेन्द्र बाबू के मन में कई दिनों तक चले संघर्ष की कहानी और घर में मचे कोहराम की, रोने धोने की, बेटे के साधु बन जाने की आशंका की।
यह घटना नहीं हुई होती तो आज आकाशवाणी के इस कार्यक्रम के निमित्त आदरणीय राजेन्द्र प्रसादजी की पावन स्मृति में उनको प्रणाम करने का सौभाग्य हमें नहीं मिल पाता।
इस किस्से से ऐसा न मान लें हम लोग कि वे अगले ही दिन अपना सब कुछ छोड़ देशसेवा में उतर पड़े थे। श्री गोखले खुद बड़े उदार थे। उन्होंने उस दिन कहा था कि ”ठीक इसी समय उत्तर देना जरूरी नहीं है। सवाल गहरा है। फिर एक बार और मिलेंगे, तब अपनी राय बताना।“
अगले दस बारह दिनों का वर्णन नहीं किया जा सकता। भाई साथ ही रहते थे। इनके व्यवहार में आ रहे बदलाव वे देख ही रहे थे। राजेन्द्र बाबू ने कोर्ट जाना बंद कर दिया था। न ठीक से खाते-पीते, न किसी से मिलते-जुलते थे। फिर एक दिन हिम्मत जुटाई। एक पत्र, काफी बड़ा पत्र, भाई को लिखा और घर छोड़ने की आज्ञा मांगी। पत्र तो लिख दिया पर सीधे उन्हें देते नहीं बना। सो एक शाम जब भाई टहलने के लिए गए थे, तब उसे उनके बिस्तरे पर रख खुद भी बाहर टहलने चले गए।
भाई ने लौटकर पत्र देखा। और अब खुद राजेन्द्र बाबू को तलाशने लगे। जब वे बाहर कहीं मिल गए तो भाई बुरी तरह से लिपट कर रोने लगे। राजेन्द्र बाबू भी अपने को रोक नहीं पाए। दोनों फूट-फूट कर रोते रहे। ज्यादा बातचीत की हिम्मत नहीं थी फिर भी तय हुआ कि कलकत्ता से गांव जाना चाहिए। मां, चाची और बहन को सब बताना होगा।
राजेन्द्र बाबू को अब लग गया था कि देश प्रेम और घर प्रेम में घर का वजन ज्यादा भारी पड़ रहा है। वे इतनी आसानी से इस प्रेम बंधन को काट नहीं पाएंगे। गोखलेजी अभी वहीं थे। राजेन्द्र बाबू एक बार और उनसे भेंट करने गए। सारी परिस्थिति बताई। गोखलेजी ने भी उन्हें पाने की आशा छोड़ दी।
गांव पहुंचने का किस्सा तो और भी विचित्र है। चारों तरफ रोना-धोना। बची-खुची हिम्मत भी टूट गई थी। वे जैसे थे वैसे ही बन गए। फिर से लगा कि पुरानी जिंदगी पटरी पर वापस आने लगी है।
पर उस दिन तो आकाशवाणी हुई थी। वह झूठी कैसे पड़ती? यही वकालत उन्हें आने वाले दिनों में, पांच-छह बरस बाद चंपारण ले गई। वहां उन पर, उनके जीवन पर नील का रंग चढ़ा। नील का रंग याने गांधीजी के चम्पारण आंदोलन का रंग। यह रंग इतना चोखा चढ़ा कि वह फिर कभी उतरा ही नहीं।
गांधी रंग में रंगे राजेन्द्र बाबू फिर बिना किसी पद की इच्छा के देश भर घूमते रहे और सार्वजनिक जीवन के क्षेत्र में जितनी तरह की समस्याएं आती हैं, उनके हल के लिए अपने पूरे मन के साथ तन अर्पित करते रहे और जहां जरूरत दिखी वहां धन भी जुटाते-बांटते रहे।
उन समस्याओं की, उन विषयों की गिनती गिनाना कठिन काम है। आज तो हम दो विषयों पर, दो समस्याओें पर ही कुछ बातें करेंगे। ये हैं बाढ़ और अकाल। पानी के स्वभाव के ये दो छोर हैं। एक में, बाढ़ में चारों तरफ पानी ही पानी है और दूसरे में हर कहीं पानी का अभाव ही अभाव है। राजेन्द्र बाबू ने इनमें से जो भी समस्या सामने आई, बाकी हाथ के कामों को गौण मानकर सबसे पहले इन्हीं पर ध्यान दिया।
लेकिन इसके विस्तार में जाने से पहले हम जरा आज का संदर्भ भी दुहरा लें।
पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं। आए दिन हम देखते हैं किसी को किसी राजनैतिक दल ने अपना उम्मीदवार नहीं बनाया तो उसने गुस्से में आकर दल छोड़ दिया। किसी ने निराश होकर आत्महत्या कर ली तो किसी ने उस दल की ऐसी बखिया उधेड़ दी, उसके इतने सारे दोष, अवगुण गिना डाले कि सुनने-पढ़ने वाले को अचरज होने लगे कि ये अब तक उस दमघोटू संसार में सांस कैसे ले रहे थे। इसके पीछे एक धारणा यह बन गई है कि मुझे कोई पद नहीं मिलेगा तो देश की सेवा कैसे हो पाएगी मुझसे! इस विचित्र धारणा को पालने-पोसने और आगे बढ़ाने में सारे दल- उनके सदस्य धर्म, लिंग, जाति, अगड़े-पिछड़े सभी में गजब की सहमति दिखती है। ऐसे में हमें राजेन्द्र बाबू के कुछ विचार आज एक बार फिर दुहरा लेने चाहिए।
यह प्रसंग आज से कोई 93 बरस पहले का है। संयोग से तब भी महीना नवंबर का ही था। अवसर था कौंसिल और असेम्बली के चुनावों का। छोटी-छोटी बातों पर तब के बड़े-बड़े नामों तक में मतभेद ही नहीं, मनभेद के भी कड़वे किस्से सामने आने लगे थे। क्या ऐसी ही नींव पर, कमजोर नींव पर आजादी के बाद की दलगत राजनीति का महल नहीं बन रहा था?
राजेन्द्र बाबू ने उस समय अपना मन मजबूत कर ‘देश’ नामक अखबार में एक लेख लिखा था। उसे उन्हीं के साथियों ने पसंद नहीं किया था। उन्हीं के शब्दों को यहां दुहरा लेना चाहिएः ”जब देश के स्थान पर हम किसी जाति-विशेष अथवा धर्म विशेष अथवा दल विशेष को बिठाना चाहते हैं, तब इस तरह की लड़ाई हुए बिना नहीं रह सकती।
”देश सेवकों के लिए एक ही रास्ता है कि कम से कम तब तक, जब तक देश पूर्णरूपेण स्वतंत्र नहीं हो जाता, वे किसी स्थान, पद, अथवा प्रतिष्ठान के लिए लालायित न हों और केवल सेवा को ही ध्येय बनाकर काम करते जाएं।“ इस लेख में वे आगे लिखते हैं: ”मैं इसको प्रवंचना मात्र मानता हूं, जब कोई यह सोचता और कहता है कि सेवा करने के लिए उसे किसी पद विशेष की आवश्यकता है तथा उस पद के बिना वह सेवा नहीं ही कर सकता।“
इस ऐतिहासिक लेख के अंत में वे कहते हैं: ”सेवक के लिए हमेशा जगह खाली पड़ी रहती है। उम्मीदवारों की भीड़ सेवा के लिए नहीं हुआ करती। भीड़ तो सेवा के फल के बंटवारे के लिए लगा करती है। जिसका ध्येय केवल सेवा है, सेवा का फल नहीं है, उसको इस धक्का-मुक्की में जाने की और इस होड़ में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है।“
जमीन पर यह सब हो रहा था और उधर आसमान से भी एक भयानक विपत्ति उतर आई थी। आश्विन के महीने में बिहार के छपरा जिले में एक दिन घनघोर बरसात हुई। चैबीस घंटों में लगभग छत्तीस इंच वर्षा हुई। नतीजा यह हुआ कि पूरा जिला भयानक बाढ़ में डूब गया। वहां के सरकारी कर्मचारियों ने लोगों की इस मुसीबत में बहुत ही उदासीनता और उपेक्षा का भाव दिखाया। तब आज की तरह ढेर सारे अखबार, दिन-रात निरर्थक खबरें बहाने वाले ढेर सारे टेलिविजन चैनल तो थे नहीं। पर जो भी थोड़े से अखबार छपते थे, सभी ने यह बात लिखी कि जब लोग, घर, गांव, खेत, मवेशी पानी में डूब रहे थे, त्रहि-त्रहि पुकार रहे थे, ऐसे में भी कुछ अधिकारी-कर्मचारी नावों में चढ़कर ‘झिरझिरी’ खेल रहे थे।
झिरझिरी एक तरह से लुकाछिपी का खेल होता है। डूबते लोगों को, यहां तक कि स्त्रियों और बच्चों को भी बचाने में इन अधिकारियों ने कोई मदद नहीं की। लोग डूबते रहे, प्रशासन लुकाछिपी ही खेलता रहा। ऐसी भयंकर परिस्थिति में एक अंग्रेज न्यायाधीश और एक भारतीय उप न्यायाधीश ने खूब मदद की लोगों की। राजेन्द्र बाबू जैसे शालीन व्यक्ति अपनी आत्मकथा में उस दिन का वर्णन करते हुए कहते हैं कि कलेक्टर और पुलिस के अफसर तथा डिप्टी मजिस्ट्रेट ‘टस से मस’ नहीं हुए। सरकार के ऐसे घृणित व्यवहार को लेकर अगले दिन बाढ़ के पानी के बीच ही छपरा में एक विशाल सार्वजनिक सभा हुई और उसमें सरकार की खुले आम निन्दा की गई और साथ ही मदद देने आगे आए लोगों की खूब प्रशंसा भी हुई और उन सबके प्रति कृतज्ञता प्रकट की गई थी। देहातों का हाल तो और भी बुरा था। उन दिनों छपरा से मशरक तक जाने वाली रेल लाइन के कारण बाढ़ का सारा पानी आगे बहने के बदले एक बड़े भाग में फैल गया था और पीछे से आने वाली विशाल धारा उसका स्तर लगातार उठाते जा रही थी। लोगों को इससे बचने का एक ही रास्ता दिखा थाः रेलवे लाइन काट देना और चढ़ते पानी को आगे के भूभाग में फैलने देना ताकि यहां कुछ सांस ली जा सके।
पर कलेक्टर ने उनकी एक न सुनी। और तो और ऐसी ही तबाही मचा रही अन्य रेलवे लाइनों पर सशस्त्रा पहरा बिठा दिया गया था। सीवान के पास एक ऐसी ही जगह बहुत पानी जमा हो गया था। गांव वालों ने तब खुद ही उस रेल लाइन को काटना तय कर लिया। पर सामने सशस्त्र पुलिस देख उनकी हिम्मत न पड़ी। राजेन्द्र बाबू इसका वर्णन करते हुए लिखते हैं: ”कष्ट सहते गए लोग। पर जब वह बर्दाश्त से बाहर हो गया तो दो-चार आदमी कंधे पर कुदाल रखकर पानी में तैरते हुए रेल लाइन की तरफ बढ़े। पुलिस ने उन्हें देखा और उनको धमकाया। उन्होंने जवाब दिया कि पानी में डूब कर तो हम मर ही रहे हैं और तुम लाइन नहीं काटने देते। अब तक हमने बर्दाश्त किया। अब और बर्दाश्त नहीं कर सकते। मरना दोनों हालत में है। डूब कर मरें या गोली खाकर मरें। हमने निश्चय कर लिया है कि गोली खाकर मरना बेहतर है। हम लाइन काटेंगे, तुम गोली मारो।“ बहते पानी में ये बहादुर लोग तैरते हुए मजबूत बांध की तरह उठी हुई उस रेल लाइन पर अपने दृढ़-निश्चय से कुदाल चलाते गए। पुलिस की हिम्मत नहीं हुई गोली चलाने की। लाइन अभी थोड़ी-सी ही कट पाई थी कि पीछे भर रहे पानी की ताकत ने लोगों के संकल्प में साथ दिया और लाइन भड़ाक से टूटी और विशाल बाढ़ का पानी उसे किसी तिनके की तरह अपने साथ न जाने कहां बहा ले गया। पीछे के अनेक गांव पूरी तरह से डूबने से बच गए थे। बाद में पुलिस वालों ने भी रिपोर्ट में लिखा कि बाढ़ के दबाव से ही रेल लाइन कट गई थी। इस सारी विपत्ति में राजेन्द्र बाबू और वे जिस दल से जुड़े थे उसके अनगिनत कार्यकर्ताओं ने दिन रात काम किया था। छपरा की उस बाढ़ में किसी बड़े अधिकारी ने यहां तक कह दिया था कि ये सारी शिकायतें लेकर मेरे पास क्यों आए हो, जाओ, जाओ गांधी के पास जाओ। और गांधी का मतलब कांग्रेस के लोग, और उसमें भी राजेन्द्र बाबू होता था।
इन सब दुखद प्रसंगों से राजेन्द्र बाबू ने देखा था कि बाढ़ और साथ ही अकाल अकेले नहीं आते। इनसे पहले समाज में और भी बहुत कुछ ऐसा होता है जो होना नहीं चाहिए। यह सब कभी धीरे-धीरे तो कभी बड़ी तेजी से होता है। गति जो भी हो, समाज के नीति निर्धारकों, संचालकों और नेतृत्व का ध्यान इन बातों की तरफ जा नही पाता और फिर बाढ़ या अकाल सामने आ खड़ा हो जाता है।
बुरे कामों की बाढ़ आ जाती है। बिना पानी का स्वभाव समझे विकास के नाम पर कई तरह के काम होते रहते हैं। यह किसी एक कालखंड की बात नहीं है। दुर्भाग्य से सब समय में ऐसी गलतियां दुहराई जाती रहती हैं। तो एक तरफ प्रकृति, पर्यावरण के खिलाफ ले जाने वाले कामों की बाढ़ आ जाती है तो दूसरी तरफ अच्छे कामों का अकाल पड़ने लगता है। अच्छे विचारों का अकाल पड़ने लगता है।
राजेन्द्र बाबू के जमाने में उन इलाकों में अंग्रेजों की व्यापारिक नीतियों या कहें अनीतियों के कारण बड़ी तेजी से रेल की लाइनें बिछाई गई थीं। रेल लाइन उनके व्यापार और शासन के लिए भी बड़ी खास चीज बन गई थी। इसलिए उसे आसपास के जमीन से ऊंचा उठाकर रखना जरूरी था। आज लोग इस बात को भूल चुके हैं कि कभी हमारे देश में फैल रहा रेल व्यवस्था का यह जाल अंग्रेज सरकार के भी हाथों में नहीं था। वह कुछ निजी अंग्रेजी कंपनियों की जेब में था।
खुद राजेन्द्र बाबू अपनी आत्मकथा में इस दुखद प्रसंग में लिखते हैं कि ”रेल-लाइनों के कारण बाढ़ की भयंकरता बढ़ जाती है। अपने सूबे में पिछले तीस बरसों में, जितनी बड़ी और भयंकर बाढ़ें आई हैं, सबका मुझे काफी अनुभव है। मेरा यह दृढ़ विचार है कि रेलवे लाइन और डिस्ट्रिक्ट कोर्ट की तथा दूसरी ऊंची सड़कें बाढ़ के कारणों में प्रमुख हैं। यदि इनमें जगह-जगह काफी संख्या में चौड़े पुल बने रहते तो हालत ऐसी न होती।... पर यहां तो रेल की कंपनियों के मुनाफे पर ही अधिक ध्यान रखा जाता है। उनको पुल बनवाने के लिए मजबूर नहीं किया जाता, लाइन काटना तो दूर की बात है।... बी.एन.डब्लू. रेलवे ने इस मामले में बहुत कंजूसपन दिखलाया है। यद्यपि अब उसमें कई जगह पुल बने हैं, तथापि अब भी बहुत से ऐसे स्थान हैं, जहां पुल की जरूरत है। उसने जो पुल बनवाए हैं, वे जनता के कष्ट दूर करने के ख्याल से नहीं अपने मुनाफे के ख्याल से; क्योंकि जब तक केवल जनता के कष्ट की बात रही, एक न सुनी गई; पर जब प्रकृति ने लाइन को इस तरह तोड़ा कि महीनों रेल चलना बंद हो गया तो उसने मजबूरन कई पुल बनवा दिए।“
सन् 1937 तक आते-आते तो उस बड़े भू-भाग की हालत ऐसी हो गई थी कि बिहार के राज्यपाल ने उस वर्ष बाढ़ की समस्या को लेकर एक बड़ा सम्मेलन पटना में बुलाया था। इसमें राजेन्द्र बाबू को भी भाग लेने का निमंत्रण भेजा गया था। खुद राज्यपाल ने अपने मुख्य भाषण में बाढ़ के आने के जो कई कारण बताए जाते हैं, प्रकृति के विरुद्ध जाने के जो अनेक बुरे काम किए जाते हैं, उन सबका वर्णन करते हुए श्रोताओं से माफी तक मांगी थी कि उनके भाषण का एक बड़ा भाग सकारात्मक होने के बदले काफी कुछ नकारात्मक-सा हो गया था!
राजेन्द्र बाबू अचानक अस्वस्थ हो गए थे। वे उस सम्मेलन में भाग नहीं ले पाए। लेकिन उन्होंने इस विषय पर एक बड़ी टिप्पणी लिखकर भेजी थी। सम्मेलन में इसे उस दिन श्री अनुग्रह नारायण सिन्हाजी ने पढ़कर सुनाया था।
वर्षा तो हर साल होती ही है। पूरे देश में। कहीं कम, कहीं ज्यादा, कहीं बहुत ज्यादा भी। पर इन विभिन्न जगहों में रहने वाले समाज ने अपने वर्षों के अनुभव से इस कम-ज्यादा वर्षा के साथ अपना जीवन कैसे ढालना है- यह ठीक से सीख लिया था।
एक तरफ तो है जैसलमेर, जहां वर्षा का आंकड़ा इंचों में बात करें तो वर्ष भर में 6 इंच से ऊपर नहीं जाता तो दूसरी तरफ हमने देखा कि बिहार के छपरा में मात्र एक दिन में 36 इंच वर्षा हो गई थी। फिर उत्तर-पूर्व में हमारे एक प्रदेश का तो नाम ही मेघों का घर रखा गया है। इन सभी जगह के समाजों ने पीढि़यों के अनुभव से, अपने आसपास के मौसम, धरती, हवा, पेड़, पौधे और वहां के पशुओं तक के साथ आत्मीय संबंध बना लिए थे।
आज हम देखते हैं कि जलनीतियां बनाई जाने लगी हैं। पहले ऐसा नहीं होता था। समाज अपना एक जलदर्शन बनाता था और उसे कागज पर न छाप कर लोगों के मन में उकेर देता था। समाज के सदस्य उसे अपने जीवन की रीत बना लेते थे। फिर यह रीत आसानी से टूटती नहीं थी। जलनीतियां आती-जाती सरकारों के साथ बनती-बिगड़ती रहती हैं। पर जलदर्शन बदलता नहीं। इसी रीत से उस क्षेत्र विशेष की फसलें किसान समाज तय कर लेता था। सिंचाई के लिए अपने साधन जुटा लेता था।
अभी हमने जैसा बिहार के संदर्भ में देखा कि अंग्रेजों ने बिना उस इलाके को समझे रेल की पटरियां खूब ऊंची उठाकर बिछा दीं और गंगा और अन्य नदियों के विशाल मैदान को जगह-जगह रोक लिया। उस बड़े भू-भाग में पानी की बेरोकटोक आवक-जावक के लिए उनने समुचित प्रबंध भी नहीं सोचा, उसे करने की बात तो कौन कहे। रेल लाइन में कितने अंतर पर बड़ी-बड़ी पुलिया बननी चाहिए- इस पर उनने ध्यान नहीं दिया। कम खर्च में ज्यादा मुनाफा खींच लेने का काम किया और बाद में पता चला कि यह तो उनकी अपनी भाषा, अंग्रेजी की कहावत की तरह परिणाम दे रहा है। कहावत है- पैनी वाईज, पाउंड फुलिश। पैसा बचाने में होशियारी की, पर रुपया गंवा बैठे।
जब अंगे्रज हमारे यहां आए थे तो हमारे देश में कोई सिंचाई विभाग नहीं था। कोई इंजीनियर नहीं था, इंजीनियरिंग की पढ़ाई नहीं थी। वैसी शिक्षा देने वाला कोई विद्यालय, महाविद्यालय तक नहीं था। सिंचाई की शिक्षा नहीं थी पर सिंचाई का शिक्षण हर जगह था और समाज उस शिक्षण को अपने मन में संजोकर रखता था और उस शिक्षण को अपनी जमीन पर उतारता था। जब अंग्रेज यहां आए हैं- एक बार फिर दुहरा लें तब हमारे यहां एक भी सिविल इंजीनियर नहीं था पर सचमुच कश्मीर से कन्याकुमारी तक, पश्चिम से पूरब तक कोई 25 लाख छोटे-बड़े तालाब थे। इनसे भी ज्यादा संख्या में जमीन का स्वभाव देखकर अनगिनत कुंए बनाए गए थे। वर्षा का पानी तालाबों में कैसे आएगा, किस तरह के क्षेत्र से, यहां-वहां से बहता आएगा- उसका आगौर अनुभवी आंखों से नाप लिया जाता था। फिर यह पानी साल भर कैसे पीने का पानी जुटाएगा और किस तरह की फसलों को जीवन देगा- इस सबकी बारीक योजना कहीं सैकड़ों मील दूर बैठे लोग नहीं बनाते थे- वहीं बसे लोग उस क्षेत्र में अपना बसना सार्थक करते थे। यह परंपरा आज भी पूरी तरह से टूटी नहीं है, हां उसकी प्रतिष्ठा जरूर गिर गई है, नए पढ़े-लिखे समाज के मन में।
पर हमारे इस पढ़े-लिखे समाज को आज यह जानकर अचरज होगा कि हमारे देश की तकनीकी शिक्षा, सिविल इंजीनियरिंग की सारी आधुनिक शिक्षा की नींव में ये अनपढ़ माना गया, अनपढ़ बता दिया गया समाज ही प्रमुख था।
आज बहुत कम लोग यह बता पाएंगे कि हमारे देश में पहला इंजीनियरिंग कॉलेज कहां और कब खुला था। इसे संक्षेप में दुहरा लेना चाहिए।
देश का पहला इंजीनियरिंग कॉलेज खुला था हरिद्वार के पास रुड़की नामक के एक छोटे-से गांव में। और सन् था 1847। तब ईस्ट इंडिया कंपनी का राज था। ब्रितानी सरकार भी नहीं आई थी। कंपनी का घोषित लक्ष्य देश में व्यापार था। प्रशासन, या लोक कल्याण नहीं। व्यापार भी शिष्ट शब्द है। कंपनी तो लूटने के लिए ही बनी थी। ऐसे में ईस्ट इंडिया कंपनी देश में उच्च शिक्षा के झंडे भला क्यों गाड़ती।
वह किस्सा लंबा है। आज उसे यहां पूरा बताना जरूरी नहीं पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि उस दौर में आज के पश्चिमी उत्तर प्रदेश का यह भाग एक भयानक अकाल से गुजर रहा था। अकाल का एक कारण था वर्षा का कम होना। पर अच्छे कामों और अच्छे विचारों का अकाल पहले ही आ चुका था और इसके पीछे एक बड़ा कारण ईस्ट इंडिया कंपनी की अनीतियां।
सौभाग्य से उस क्षेत्र में, तब उसे नार्थ वेस्टर्न प्राविंसेस कहा जाता था, एक बड़े ही सहृदय अंग्रेज अधिकारी काम कर रहे थे। ऊंचे पद पर थे। वे वहां के उपराज्यपाल थे। नाम था उनका श्री जेम्स थॉमसन। लोगों को अकाल में मरते देख उनसे रहा नहीं गया। उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के निदेशकों को एक पत्र लिख इस क्षेत्र में एक बड़ी नहर को बनाने का प्रस्ताव रखा था। ऊपर से उस पत्र का कोई जवाब तक नहीं आया। शायद पत्र मिलने की सूचना, पहुंच तक नहीं आई। थामसन ने फिर एक पत्र लिखा। इस बार फिर वही हुआ। कोई जवाब नहीं।
तब जेम्स थॉमसन ने तीसरे पत्र में अपनी योजना में पानी और अकाल, लोगों के कष्टों के बदले व्यापार की, मुनाफे की चमक डाली। उन्होंने हिसाब लिखा कि इसमें इतने रुपए लगाने से इतने ज्यादा रुपए सिंचाई के कर की तरह मिल जाएंगे। ईस्ट इंडिया कंपनी की आंखों में चमक आ गई। मुनाफा मिलेगा तो ठीक। बनाओ। पर बनाएगा कौन? कोई इंजीनियर तो है नहीं कंपनी के पास। थॉमसन ने कंपनी को आश्वस्त किया था कि यहां गांवों के लोग इसे बना लेंगे।
कोई ऐरी-गैरी, छोटी-मोटी योजना नहीं थी यह। हरिद्वार के पास गंगा से एक नहर निकाल कर उसे कोई 200 किलोमीटर तक के इलाके में फैलाना था। यह न सिर्फ अपने देश की एक पहली बड़ी सिंचाई योजना थी, दुनिया के कई अन्य देशों में भी उस समय ऐसा कोई काम हुआ नहीं था।
विस्तृत योजना का विस्तार से वर्णन यहां नहीं करना है। बस इतना ही बताना है कि वह योजना खूब अच्छे ढंग से पूरी हुई। तब थॉमसन ने कंपनी से इसकी सफलता को देखते हुए इस क्षेत्र में इसी नहर के किनारे रुड़की इंजीनियरिंग कॉलेज खोलने का भी प्रस्ताव रखा। इसे भी मान लिया गया क्योंकि थामसन ने इस प्रस्ताव में भी बड़ी कुशलता से कंपनी को याद दिलाया था कि इस कॉलेज से निकले छात्र बाद में आपके साम्राज्य का विस्तार करने में मददगार होंगे।
यह था सन् 1847 में बना देश का पहला इंजीनियरिंग कॉलेज। देश का ही नहीं, एशिया का भी यह पहला कॉलेज था, इस विषय को पढ़ाने वाला। और आगे बढ़ें तो यह भी जानने लायक तथ्य है कि तब इंग्लैंड में भी इस तरह का कोई कॉलेज नहीं था। रुड़की के इस कॉलेज में कुछ साल बाद इंग्लैंड से भी छात्रों का एक दल यहां पढ़ने के लिए भेजा गया था!
तो इस कॉलेज की नींव में हमारा अनपढ़ बता दिया गया समाज मजबूती से सिर उठाए खड़ा है। वह तब भी नहीं दिखा था अन्य लोगों को और आज तो हम उसे पिछड़ा बता कर उसके विकास की बहुविध कोशिश में लगे हैं। इस प्रसंग के अंत में यह भी बता देना चाहिए कि 1847 में कॉलेज खुलने से पहले वहां बनी वह लंबी नहर आज भी पश्चिम उत्तर प्रदेश के खेतों में गंगा का पानी सिंचाई के लिए वितरित करती जा रही है। आज रुड़की इंजीनियरिंग कॉलेज को शासन ने और ऊंचा दर्जा देकर उसे आई.आई.टी. रुड़की बना दिया है।
कॉलेज का दर्जा तो उठा है पर दुर्भाग्य से कॉलेज जिन लोगों के कारण बना, जिनके कारण वह विशाल सिंचाई योजना जमीन पर उतरी, जिन लोगों ने अंग्रेजों के आने से पहले देश में, देश के मैदानी भागों में, पहाड़ों में, रेगिस्तान में, देश के तटवर्ती क्षेत्रों में जल दर्शन का सुंदर संयोजन किया था, वे लोग आज कहीं पीछे फेंक दिए गए हैं।
देश ने कई मामलों में खूब उन्नति की है, इसमें शक नहीं, लेकिन बेशक इतना तो जोड़ना ही पड़ेगा कि इसी दौर में देश में सबसे सस्ती कार बिकने आई थी और सबसे मंहगी दाल भी तथा देश के आधे भाग में भयानक अकाल भी पड़ा था। पानी तो गिरता ही है। कभी कम कभी ज्यादा। औसत का एक आंकड़ा हम पिछले सौ-पचास साल से भले ही रखने लगे हों- यह बहुत काम नहीं आता। गणित के दम पर, आंकड़ों के दम पर जीवन नहीं चल पाता।
आधुनिक बांधों से भी अकाल दूर हो गए हों- आज भी ऐसा पक्के तौर पर नहीं कह सकते। पंजाब, हरियाणा में देश के अन्य भागों में, महाराष्ट्र में भयानक अकाल पड़ा था। हमारे कृषिमंत्री इसी प्रदेश से हैं और उन्होंने ही अपने एक बयान में कहा था कि उनने अपने जीवन में महाराष्ट्र में ऐसा भयानक अकाल पहले कभी देखा नहीं था। इसलिए बड़े बांधों से बंध जाना ठीक नहीं है। उन बांधों में भी पानी तो तभी भरेगा जब ठीक वर्षा होगी।
पर प्रकृति ठीक नहीं, ठीक-ठाक वर्षा करती है। वह मां है हमारी, लेकिन मदर डेयरी की मशीन नहीं कि जितने टोकन डालो, ठीक उतना ही पानी गिरा देगी। एक तरफ हम बड़े बांधों से बंध से गए और दूसरी तरफ नई तकनीक ने भूजल को बाहर उलीच लेने के नए साधन खोज निकाले। शहरों, गांवों में छलनी की तरह छेद कर डाले हमने और सचमुच मिट्टी की विशाल गुल्लक में पड़ी इस विशाल जल राशि को ऊपर खींच निकाला। उसमें डाला कुछ नहीं। इस तरह यह धरती की गुल्लक खाली हो चली है। भूजल भंडार में आई गिरावट को बताने के लिए यों तो जिलावार, प्रदेशवार आंकड़े भी दिए जा सकते हैं पर जब जीवन का प्राणदायी रस ही निचुड़ता जा रहा हो तो नीरस आंकड़े नया और क्या बता पाएंगे। फिर भी बिना किसी कटुता के यह तो कहा ही जा सकता है कि इस दौर में हमारी राजनीति ज्यादा गिरी है कि भूजल- यह तय कर पाना कठिन है। इन दोनों का स्तर ऊपर उठाने के लिए हमें खुद ऊपर उठना होगा। पिछले कुछ समय से एक नया शब्द हमारे बीच आया है- जन-भागीदारी। जैसा अक्सर होता है ऐसे नए शब्द पहले अंग्रेजी में आते हैं, फिर हम बिना ज्यादा सोचे-समझे उनका अपनी भाषा में अनुवाद कर लेते हैं। पर जब यह शब्द नहीं था, यह नकली शब्द नहीं था तब हमारे समाज में पानी के मामले में गजब की भागीदारी थी। उस जन भागीदारी में सचमुच तीन भूमिकाएं होती थीं। लोग खुद अपने गांव में, शहर में पानी की योजना बनाते थे। यह हुई पहली भूमिका।
फिर उस योजना को अमल में उतारते थे, तालाब, नहर, कुंए आदि बनाते थे। यह थी दूसरी भूमिका। और तीसरी भूमिका में इन बन चुकी योजनाओं के रखरखाव की जिम्मेदारी भी स्वयं ही उठाते थे। वह भी कोई दो-चार बरस के लिए नहीं, बल्कि दो-चार पीढ़ी तक उसका रखरखाव करते थे। उसे अपना काम मान कर करते थे। ऐसे में कहीं-कहीं समाज राज की भागीदारी भी कबूल कर लेता था। एक तरह से देखा जाए तो राज और समाज परस्पर तालमेल बिठाकर इन कामों को बड़ी सहजता से संपन्न कर लेता था। आज बहुत ही कम लोगों को इस बात का कुछ अंदाज बचा हो कि हमारे कुछ नामों के, परिवारों के नामों के चिन्ह इन्हीं कामों में से निकले थे। नहर की देख-रेख वाले नेहरू थे तो पहाड़ों में सिंचाई का ढांचा एक तरह की पहाड़ी नहर, कूल बनाने वाले कोहली थे तो गूल बनाने वाले गुलाटी थे। देश में इस कोने से उस कोने तक ऐसी अनेक जातियां, अनेक लोग थे, जो गांवों और शहरों के लिए पानी का काम करते थे। इसमें अकाल और बाढ़ की मार को कम करने का काम भी शामिल था। और यह सब वे सचमुच अपने तन, मन और धन से करते थे।
जो काम उनके मन में उतर गया था, उसे वे अपने तन पर भी संजोकर रखते थे। देश के सभी भागों में शरीर पर गुदना गोदवाने की एक बड़ी परंपरा रही है। इसमें शुभ चिन्ह आदि तो चलन में थे ही, पर देश के कुछ भागों में एक विशेष चिन्ह भी पाया जाता था। इसका नाम था- सीता बावड़ी। सीधी-सादी आठ-दस रेखाओं से एक भव्य चित्र कलाई पर किसी भी मेले, ठेले में देखते ही देखते गोद दिया जाता था। इस तरह पानी का काम मन से तन पर और तन से, श्रम से उतरता जाता था जमीन पर।
लेकिन आज जमीन की कीमतें आसमान छूने लगी हैं। शहरों में भी और अनेक गांवों में भी तालाब एक के बाद एक पुरते जा रहे हैं, कचरे से पटते जा रहे हैं। जल संकट सामने है पर हम उसे पीठ दे रहे हैं। अपने तालाबों को, अपने जल स्रोतों को नष्ट कर देने के बाद ऐसे प्यासे शहरों के लिए दूर से, बहुत दूर से किसी और का हक छीन कर बड़ी खर्चीली योजनाओं को बनाकर पानी लाया जा रहा है।
पर हमें एक बात भूलनी नहीं चाहिए। इन्द्र देवता से इन शहरों ने ऐसी अपील तो की नहीं है कि हमारा पीने का पानी तो अब सौ, दो सौ किलोमीटर दूर से आ रहा है। आप हम पर पानी न बरसाएं! पहले ये तालाब ही वर्षा के दिनों में शहरों पर गिरने वाले पानी को अपने में संजोकर, समेट कर इन शहरों को बाढ़ से बचा लेते थे। इंद्र का एक पुराना नाम, विशेषण है पुरंदर। पुरंदर यानी जो पुरों को, किलों को, शहरों को तोड़ देता है। इस नाम को रखा गया है तो इसका अर्थ यह भी है कि इंद्र के समय में भी शहर नियोजन में कमियां होती थीं। और ऐसे अव्यवस्थित शहरों को इंद्र अपनी वर्षा के प्रहार से ढहा देता था, बहा देता था।
दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, बंगलूरू, जयपुर, हैदराबाद जैसे नए पुराने, मंहगे हो चले, आधुनिक हो चले, सभी शहर बारी-बारी से ऐसी बाढ़ की चपेट में आ रहे हैं, जैसी बाढ़ उन जगह में पहले कभी नहीं आती थी।
हमारे देश की समुद्र तटीय रेखा बहुत बड़ी है। पश्चिम में गुजरात के कच्छ से लेकर नीचे कन्याकुमारी घूमते हुए यह रेखा बंगाल में सुंदरबन तक एक बड़ा भाग घूम लेती है। पश्चिमी तट पर बहुत कम लेकिन पूर्वी तट पर अब समुद्री तूफानों की संख्या और उनकी मारक क्षमता भी बढ़ती जा रही है। अभी कुछ ही समय पहले ओडिशा और आंध्र प्रदेश में आए चक्रवात की पूर्व सूचना समय रहते मिल जाने से बचाव की तैयारियां बहुत अच्छी हो गई थीं और इस कारण बाकी नुकसान एक तरफ, कीमती जानें बच गईं। लेकिन उसी के कुछ ही दिनों बाद वहां आई बाढ़ में उससे भी ज्यादा नुकसान हो गया था।
हमारे पूर्वी तटों पर समुद्री तूफान आते ही हैं पर अब नुकसान करने की उनकी क्षमता बढ़ती ही जा रही है। इसके पीछे एक बड़ा कारण है हमारे कुल तटीय प्रदेशों में उन विशेष वनों का लगातार कटते जाना, जिनके कारण ऐसे तूफान तट पर टकराते समय विध्वंस की अपनी ताकत काफी कुछ खो देते थे।
समुद्र और धरती के मिलन बिंदू पर, हजारों वर्षों से एक उत्सव की तरह खड़े ये वन बहुत ही विशिष्ट स्वभाव लिए होते हैं। दिन में दो बार ये खारे पानी में डूबते हैं तो दो बार पीछे से आ रही नदी के मीठे पानी में। मैदान, पहाड़ों में लगे पेड़ों से, वनों से इनकी तुलना करना ठीक नहीं। वनस्पति का ऐसा दर्शन अन्य किसी स्थान पर संभव नहीं। यहां इन पेड़ों की, वनों की जड़ें भी ऊपर रहती हैं। अंधेरे में, मिट्टी के भीतर नहीं, प्रकाश में, मिट्टी के ऊपर। जड़ें, तना और फिर शाखाएं- तीनों का दर्शन एक साथ करा देने वाला यह वृक्ष, उसका पूरा वन इतना सुंदर होता है कि इस प्रजाति का एक नाम हमारे देश में सुंदर, सुंदरी ही रख दिया गया था। उसी से बना है सुंदरबन।
लेकिन आज दुर्भाग्य से हमारा पढ़ा-लिखा संसार, हमारे वैज्ञानिक कोई 13-14 प्रदेशों में फैले इस वन के, इस प्रजाति के अपने नाम एकदम भूल गए हैं। जब भी इन वनों की चर्चा होती है, इन्हें इनके अंग्रेजी नाम मैंग्रोव- से ही जाना जाता है। हमारे ध्यान में भी यह बात नहीं आ पाती कि देश में, कम से कम इन प्रदेशों की भाषाओं में, बोलियों में तो इन वनों का नाम होगा, उसके गुणों की स्मृति होगी।
प्रसंगवश यहां यह भी जान लें कि मैंग्रोव शब्द भी अंग्रेजी का नहीं है, उस भाषा में यह पुर्तगाली से आया है।
तटीय प्रदेशों से प्रारंभ करें तो पश्चिम में ऊपर गुजराती, कच्छी में इसे चैरव्, फिर मराठी कोंकणी में खार पुटी, तिवर, कन्नड़ में कांडला काडु, तमिल में सधुप्पू निल्लम काड्ड, तेलुगू में माडा आडवी, उडि़या में झाऊवन कहा जाता है। बांग्ला में तो सुंदरबन सबने सुना ही है। एक नाम मकड़सिरा भी है। और हिन्दी प्रदेश तो समुद्र के तट से दूर ही हैं। पर ऐसा नहीं होता कि जो चीज जिस समाज में नहीं है, उस समाज की भाषा उसका नाम ही नहीं रखे। हिन्दी में इसे चमरंग वन कहते थे। पर अब यह नए शब्दकोषों से बाहर हो गया है।
पर्यावरण को ठीक से जानने वाले बताते हैं कि आंध्र और उड़िया में खासकर पारद्वीप वाले भाग में चमरंग वनों को विकास के नाम पर खूब ही उजाड़ा है। इसीलिए पारद्वीप ऐसे ही एक चक्रवात में बुरी तरह से नष्ट हुआ था। फिर यह भी कहा गया था कि उसके लिए एक मजबूत दीवार बना दी जाएगी। कुछ ठंडे देशों का अपवाद छोड़ दें तो पूरी दुनिया में धरती और समुद्र के मिलने की जगह पर प्रकृति ने सुरक्षा के ख्याल से ही यह हरी सुंदर दीवार, लंबे-चैड़े सुंदरवन खड़े किए थे। आज हम अपनी लालच में इन्हें काट कर इनके बदले पांच गज चैड़ी सीमेंट कंक्रीट की दीवार खड़ी कर सुरक्षित रह जाएंगे- ऐसा सोचना कितनी बड़ी मूर्खता होगा- यह कड़वा सबक हमें समय न सिखाए तो ही ठीक होगा। चौथी की कक्षाओं में यह पढ़ा दिया जाता है कि पृथ्वी पर कोई सत्तर प्रतिशत भाग में समुद्र है और धरती बस तीस प्रतिशत ही है। समुद्र के सामने हम नगण्य हैं। ये सुंदरबन, चमरंग वन हमारी गिनती बनी रहे- ऐसी सुरक्षा देते हैं।
दीवारें खड़ी करने से समुद्र पीछे हट जाएगा, तटबंद बना देने से बाढ़ रुक जाएगी, बाहर से अनाज मंगवाकर बांट देने से अकाल दूर हो जाएगा- बुरे विचारों की ऐसी बाढ़ से, अच्छे विचारों के ऐसे ही अकाल से हमारा यह जल संकट बढ़ा है।
आज हम सब जिस विभूति के पुण्य स्मरण में यहां एकत्र हुए हैं, उनने अपने समय में या कहें समय से पहले ही समाज का ध्यान ऐसी अनेक बातों की तरफ खींचा था।
श्री गोखले से भेंट होने के बाद राजेन्द्र बाबू कोई बावन बरस तक सार्वजनिक जीवन में रहे। उनका बचपन जिस गांव में बीता था, उस गांव में नदी नहीं थी। वे तैरना नहीं सीख पाए थे। लेकिन इस बावन बरस के एक लंबे दौर में उन्होंने अपने समाज को, देश को अनेक बार डूबने से बचाया था। अंतिम बारह बरस वे देश के सर्वोच्च पद पर रहे। जब वह निर्णायक भूमिका पूरी हुई तो सन् 1962 के मई महीने में वे एक दिन रेल में बैठे और दिल्ली से पटना के लिए रवाना हो गए थे। उसी सदाकत आश्रम के एक छोटे से घर में रहने के लिए, जहां से उन्होंने सार्वजनिक जीवन की अपनी लंबी यात्र प्रारंभ की थी।
उनकी पुण्य स्मृति में हम सबके प्रणाम।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की स्मृति में आकाशवाणी द्वारा प्रति वर्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद स्मारक व्याख्यान का आयोजन किया जाता है। इस व्याख्यान-माला में देश के राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश के किसी भी पक्ष का सांगोपांग निरूपण किया जाता है। इसके अंतर्गत देश के ख्याति-प्राप्त विद्वान तथा चिन्तक अपने द्वारा चुने गए विषय पर आमंत्रित श्रोताओं के समक्ष अपना व्याख्यान प्रस्तुत करते हैं।
इस कार्यक्रम का आयोजन प्रायः नवम्बर माह के उत्तरार्द्ध में होता है। इसकी अवधि एक घंटा होती है। इस वर्ष के डॉ. राजेन्द्र प्रसाद स्मारक व्याख्यान की रिकार्डिंग डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की जन्म तिथि पर 3 दिसम्बर 2013 को रात 9.30 बजे आकाशवाणी, दिल्ली के इन्द्रप्रस्थ चैनल से, राष्ट्रीय स्तर पर प्रसारित की जाएगी।
पुस्तकः महासागर से मिलने की शिक्षा |
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