बागमती नदी पर बाँध बनाने के खिलाफ हाल ही में हजारों लोग सड़कों पर उतर आये थे। इसके विरोध में बड़ा आंदोलन हुआ और बिहार सरकार को मजबूर होकर विशेषज्ञों की एक कमेटी बनानी पड़ी, जो बाँध बनने से होने वाले नफा-नुकसान का आकलन करेगी।
इस आंदोलन में 65 साल का एक शख्स भी बेहद सक्रिय था। वह आंदोलनकारियों का न केवल हौसला बढ़ा रहा था बल्कि इस आंदोलन को प्रभावी बनाने के लिये और बिहार सरकार को बाँध से होने वाले नुकसान से अवगत कराने के लिये लगातार काम कर रहा था। पटना से प्रदर्शनस्थल तक का चक्कर लगा रहा था।
यह शख्स कोई और नहीं अनिल प्रकाश थे। जेपी आंदोलन की उपज अनिल प्रकाश ने नदियों के लिये लंबे समय तक काम किया। अनिल प्रकाश का जन्म 18 फरवरी 1952 को मुजफ्फरपुर से 20 किलोमीटर दूर जमीन नामक गाँव में हुआ। उन्होंने एलएस कॉलेज से विज्ञान में स्नातक की डिग्री ली।
कॉलेज में पढ़ने के दौरान ही उनके मन में कुछ सार्थक करने की ललक जाग गयी थी, लेकिन वह दिशाहीन थे। यह कोई सन 1974 का वक्त था।
इसी ऊहापोह की स्थिति के बीच उसी साल गांधीवादी जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में बिहार सरकार के कुशासन व भ्रष्टाचार के खिलाफ छात्र आंदोलन शुरू हो गया था। उस वक्त बिहार के मुख्यमंत्री अब्दुल गफ्फूर थे। बिहार में शुरू हुआ यह आंदोलन आग की तरफ फैलने लगा और दिल्ली तक पहुँच गया था। हजारों छात्रों के साथ अनिल प्रकाश भी इस आंदोलन में कूद गये। शुरू में उन्होंने सोचा था कि एक साल के लिये आंदोलन का हिस्सा रहेंगे और फिर वापस कॉलेज लौट आयेंगे, लेकिन जब आंदोलन का हिस्सा बने, तब उन्हें अहसास हुआ कि यह एक साल या छह महीने का नहीं बल्कि जिंदगी भर का सौदा है।
आंदोलन के दौरान वह जेल भी गये। सन 1975 में वह जब जेल से लौटे, तो चुनाव सिर पर था। कई छात्रों के पास चुनाव लड़ने का प्रस्ताव भी आया। अनिल प्रकाश के पास भी ऐसा ही प्रस्ताव आया, लेकिन उन्होंने चुनाव प्रक्रिया से दूर रहने का फैसला लिया। वह कहते हैं, “मैं और मेरे कई साथियों ने चुनाव न लड़कर सामाजिक आंदोलन चलाने का निर्णय लिया।” उस वक्त जेपी ने छात्र युवा संघर्ष वाहिनी का गठन किया था। अनिल प्रकाश इस वाहिनी से जुड़ गये। सन 1977 में वह संगठन से स्टेट कनवेनर बन गये।
हालाँकि, उस वक्त तक उन्होंने नदियों पर काम करने के बारे में सोचा नहीं था। दूसरे साथियों की तरह वह भी खुद को सामाजिक आंदोलन तक ही सीमित रखना चाहते थे, लेकिन उत्तराखंड के कुंवर प्रसून के प्रभाव में आकर उन्होंने नदियों पर काम शुरू किया।
अनिल प्रकाश कहते हैं, “यह सन 1978 की बात होगी। उन दिनों कुंवर प्रसून अक्सर आते, तो नदियों, जंगल व जमीन की ही बात किया करते थे। कुंवर प्रसून सुंदरलाल बहुगुणा के सहयोगी थे। दूसरे लोग उनकी बातों को अनुसना कर देते, लेकिन मैं बड़े चाव से सुना करता था। उनकी बातें सुनते हुए मैं यह समझने लगा था कि नदियाँ, जंगल और जमीन क्यों जरूरी है।”
वह नदियों को लेकर आंदोलन की शुरुआत करते कि बोधगया में बेनामी भूमि पर बाहुबली के कब्जे की खबर आयी और वह अपने सहयोगियों के साथ बोधगया पहुँच गये। वहाँ 60 प्रतिशत आबादी भूमिहीनों की थी, जबकि सरकार के 10 हजार एकड़ भूखंड पर बाहुबलियों ने कब्जा कर रखा था। शांतिपूर्ण संघर्ष के बाद उक्त जमीन को मुक्त कराया गया। जमीन के लिये पहला संघर्ष यहीं से शुरू हुआ और इसका अगला पड़ाव गंगा की मुक्ति के लिये आंदोलन था।
गंगा की मुक्ति के लिये आंदोलन हुआ था, क्योंकि उन दिनों गंगा नदी पर जमींदारी चला करती थी। यह जमींदारी 80 किलोमीटर तक चलती थी। सुल्तानगंज से बटेश्वर स्थान तक श्रीराम घोष व बटेश्वर स्थान से पीरपैंती तक मुर्शिदाबाद के मुशर्रफ हुसैन प्रमाणिक की जमींदारी थी। बताया जाता है कि यह जमींदारी मुगलकाल से चली आ रही थी।
इस जमींदारी ने भागलपुर के हजारों मछुआरों के सामने अस्तित्व का संकट ला दिया था, क्योंकि उन्हें गंगा नदी से मछलियाँ पकड़ने का अधिकार नहीं था। इसके खिलाफ स्थानीय स्तर पर आंदोलन की प्रक्रिया शुरू हो गयी थी। उस वक्त तक छात्र युवा संघर्ष वाहिनी काफी प्रचलित हो गयी थी और मछुआरे चाहते थे कि अनिल प्रकाश भी इस आंदोलन में उनके साथ खड़े हों। इस जमींदारी के खिलाफ मछुआरे लामबंद होने लगे थे। अनिल प्रकाश से मछुआरों के एक कॉन्फ्रेंस में शामिल होने का आग्रह किया गया, तो वह तुरंत तैयार हो गये और नाव पर सवार होकर कार्यक्रम स्थल पर पहुँचे। वहाँ जब उन्होंने मछुआरों का दर्द सुना, तो वह हक्के-बक्के रह गये और उन्होंने गंगा नदी से जमींदारी खत्म करने के लिये वृहत्तर आंदोलन करने का फैसला ले लिया। यहीं शुरू होती है गंगा मुक्ति आंदोलन की कहानी। यह वाक्या सन 1982 के शुरुआती वक्त का है।
अनिल प्रकाश गंगा मुक्ति आंदोलन के संयोजक बनाये गये। इस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने कई प्रस्ताव रखे, जिनमें से एक प्रस्ताव मछुआरों को शराब से तौबा करने का था। दूसरा प्रस्ताव महिलाओं की इज्जत करना व संघर्ष में उनकी हिस्सेदारी भी सुनिश्चित करना था। मछुआरे इस पर तैयार हो गये।
अनिल प्रकाश कहते हैं, “उस कॉन्फ्रेंस के बाद मुझे लगने लगा था कि इसके लिये लंबे समय तक संघर्ष करना होगा। लोगों को इस आंदोलन के लिये तैयार करने के लिये काफी समय तक मैं कहलगांव में रहा। 22 फरवरी को एक प्रस्ताव पास हुआ, जिसमें आंदोलन का जिक्र किया गया था। इसके बाद मैं लोगों को एकजुट करने में जुट गया।”
वह बताते हैं, “फरक्का बराज बन जाने के कारण उस तरफ मछलियों की आमद भी रुक गयी थी, जिस कारण मछुआरे परेशान थे। मैंने फरक्का बराज के नुकसान के बारे में पता लगाने के लिये भागलपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर केएस बिलग्रामी से मुलाकात की, तो उन्होंने मुझे एक रिपोर्ट थमा दी। जब मैंने रिपोर्ट पढ़ी, तो पता चला कि फरक्का बराज सचमुच मछुआरों के लिये गले की फांस बन रहा है।”
बहरहाल, आंदोलन शुरू हुआ और धीरे-धीरे यह बड़ा रूप लेने लगा। दूसरे लोग भी इससे जुड़ गये। 1987 में एक नाव जुलूस निकाला गया, जो 14 दिनों में पटना पहुँचा। एक जुलूस कुर्सेला (कटिहार) से भी निकला और पटना पहुँचा।
हर जिले में लोग संगठित होने लगे। करीब 300 नावें पटना पहुँची। पटना में गंगा के किनारे जुटान हुआ। हजारों लोगों ने गंगा मुक्ति आंदोलन के पदाधिकारियों का स्वागत किया। आंदोलन को देखते हुए बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र ने गंगा पर जमींदारी का अधिकार खत्म कर दिया और इस तरह मछुआरों को उनका हक मिला।
अनिल प्रकाश ने कहा, “लेकिन, जमींदारी की समाप्ति से पूरी समस्या हल नहीं होने वाली थी। इसकी वजह यह थी कि बिहार के 500 किलोमीटर गंगा क्षेत्र में मछली पकड़ने का ठेका स्थानीय मछुआरे सहकारी समितियों के मार्फत उनलोगों के हाथ चला जाता था, जिनका कोई संबंध मछली पकड़ने के काम से न था और न ही यह उनका पुश्तैनी पेशा रहा। जिनके हाथों में वैध-अवैध बंदूकों की ताकत, पैसा और राजनैतिक संबंध थे, ऐसे जल माफियाओं के हाथ में ही पूरी गंगा थी। इसके खिलाफ फिर आंदोलन चला। पूरी गंगा में मछुआरों ने टैक्स देना बंद कर दिया। इसी आंदोलन का असर था कि अंततः जनवरी 1991 में बिहार सरकार ने घोषणा की कि तत्काल प्रभाव से गंगा समेत बिहार की सभी नदियों की मुख्यधारा तथा उससे जुड़े झीलों में परम्परागत मछुआरे निःशुल्क मछलियों का शिकार करेंगे। इनपर जलकरों की कोई बंदोबस्ती नहीं होगी।”
इसके बाद भी अनिल प्रकाश कभी अकेले, तो कभी आमलोगों को साथ लेकर विभिन्न मुद्दों को लेकर संघर्ष करते रहे। वह कहते हैं, “फरक्का बराज को लेकर सबसे पहले हमने आवाज उठायी थी और अब बिहार सरकार भी इसको लेकर मुखर है।”
उन्होंने कहा कि हमारी लड़ाई केवल नदियों को लेकर नहीं थी, बल्कि जातिगत व धार्मिक कट्टरता तोड़ने के लिये भी हमने संघर्ष किया व सफल रहे।
सराहनीय योगदान के लिये उन्हें कई पुरस्कार देने की घोषणा की गयी, लेकिन उन्होंने उन्हें ठुकरा दिया। वह कहते हैं, “आप किसी के आँसू पोछते हैं, तो यही आपके लिये सबसे बड़ा अवार्ड है। आज भी जब मैं अपने आंदोलनस्थलों पर जाता हूँ, तो नयी पीढ़ी के लोग मुझसे मिलने आते हैं और कहते हैं मेरे बारे में उन्होंने अपने बाप-दादा से सुना है।” लंबे समय तक संघर्ष करने के बाद जब उनकी उम्र ढलने लगी, तो तबीयत भी नासाज हो चली और उनकी सक्रियता भी घटती गयी।
यही कोई पाँच साल पहले वह फिर एक बार दोगुना जोश के साथ उठ खड़े हुए और बागमती पर बाँध बनाने के खिलाफ आंदोलन शुरू किया। यह आंदोलन एक गुमनाम गाँव गंगिया से शुरू हुआ था, जो अब बड़ा रूप ले चुका है। बाँध बनाने को आमादा बिहार सरकार ने आंदोलन को देखते हुए बाँध बनाने का काम तत्काल के लिये रोक दिया है और इसके लिये कमेटी बनायी है। कमेटी में अनिल प्रकाश के अलावा नदियों के कई विशेषज्ञों को शामिल किया गया। यह कमेटी कई बिंदुओं पर जाँच कर रिपोर्ट देगी। इस रिपोर्ट के आधार पर सरकार आगे कदम उठायेगी।अनिल प्रकाश ने कहा, “गंगा की मुक्ति के लिये किया गया आंदोलन जब अपने परिणाम पर पहुँच गया, तो सोचा था कि कुछ किताब लिखूँ, लेकिन इसी दौरान बागमती, दामोदर में लग गया। अब फिर सोच रहा हूँ, कि किताब लिखना शुरू करूँ। देखते हैं, कब यह शुरू होता है।”
वह अपनी जिंदगी का बाकी हिस्सा पानी व पर्यावरण को लेकर आंदोलनरत लोगों को प्रोत्साहित करने और जरूरत पड़ने पर उनके आंदोलन में उनके साथ खड़ा रहकर बिताना चाहते हैं। रही बात गंगा मुक्ति आंदोलन की, तो वह अब भी जिंदा है। वह कहते हैं, ‘गंगा पर जब तक संकट है, तब तक यह आंदोलन चलता रहेगा।’