आओ पर्यावरण बचाएँ

Submitted by editorial on Mon, 12/03/2018 - 12:22
Source
दैनिक जागरण, 25 नवम्बर, 2018

पर्यावरणपर्यावरण आज की सबसे बड़ी समस्या क्या है? किसी से पूछकर देखिए, आपका सवाल पूरा नहीं होगा तब तक वह जवाब हाजिर कर देगा। खराब होती आबो-हवा यानी पर्यावरण। अगर कहीं गलती से आपने किसी शहरी से यह सवाल दाग दिया तो फिर कुछ देर इस समस्या को सुनने का धैर्य बनाए रखिएगा। अन्त में वह शहरों से पलायन की मंशा के साथ अपनी समस्या का समापन करेगा। यह हाल क्यों हुआ। दिल्ली में कृत्रिम बारिश कराकर माहौल सुधारने की तैयारियाँ चल रही हैं। दुनिया के 15 सबसे प्रदूषित शहरों में दस भारतीय शामिल हैं। पहाड़ी और दुर्गम क्षेत्रों को अगर छोड़ दें तो शायद ही कोई भारतीय शहर वायु शुद्धता के पैमाने पर खरा उतरे। हमने प्रकृति प्रदत्त इन संसाधनों का स्वरूप बिगाड़ दिया है। जीवन-दायिनी ऑक्सीजन को जहरीली बना दिया। रंगहीन, गन्धहीन और स्वादहीन पानी की सर्वमान्य परिभाषा के इतर उसमें ये सारे गुण उड़ेल दिए हैं। अब खामियाजा भुगतने से बचना चाह रहे हैं। देर नहीं हुई है। अभी भी सब कुछ पहले जैसा हो सकता है, लेकिन जिसने बिगाड़ा उसी को सुधारना भी होगा। लिहाजा अपनी आबो-हवा को उसका प्राकृतिक रूप-स्वरूप देने के लिये हम सबको आगे आना होगा। अपनी गैर जरूरी इच्छाओं की तिलांजलि देनी होगी। मौका भी है। कल यानी 26 नवम्बर को विश्व पर्यावरण संरक्षण दिवस है। खैर अब ऐसे दिवसों का इन्तजार करना बेमानी सा लगता है। हमें रोज ही ऐसे दिवस मनाने होंगे। आइए, हम सब मिलकर अपनी हवा, पानी और धरती को अपने लिये और अपनों के लिये बचाएँ। सहभागिता के साथ पर्यावरण का संरक्षण करें।

हर इंसान समझे जिम्मेदारी
सन्त बलबीर सिंह सीचेवाल (इको बाबा के नाम से मशहूर समाज सुधारक)


पर्यावरण को दुरुस्त करने में हर देश व प्रत्येक इंसान अपनी जिम्मेदारी समझ कर योगदान करेंगे तो ही हम इसे फिर से साफ व स्वच्छ बना सकेंगे। पशु-पक्षियों व इंसानी जीवन के लिये हमें पर्यावरण को साफ सुथरा बनाना ही होगा।

हवा, पानी व धरती हमें ऊर्जा देते हैं लेकिन विकास की दौड़ ने हमसे शुद्ध हवा, साफ पानी एवं स्वच्छ धरती का बुनियादी हक भी छीन लिया। इस समय प्रदूषण किसी एक देश या क्षेत्र नहीं बल्कि संसार के हर मनुष्य के लिये एक गम्भीर चुनौती है। इस संकट से निपटने के लिये सरकारों के साथ आम लोगों को भी सामूहिक भागीदारी निभानी होगी। सहभागिता के मंत्र ने बड़ी-से-बड़ी दिक्कतों को दूर किया है।

संयुक्त राष्ट्र को सभी देशों के प्रधानमंत्री के साथ अलग-अलग समय पर बैठक कर प्रदूषण कम करने के लिये कड़े कदम उठाने चाहिए। इस अन्तरराष्ट्रीय संगठन से आग्रह है कि वह प्रदूषण रोकने में सहयोग न करने वाले देशों पर आर्थिक व राजनीतिक प्रतिबन्ध लगाने के बारे में सोचे, तभी मनुष्य को साफ हवा मिल सकती है। मुझे लगता है कि विकासशील देशों में पानी का प्रदूषण भी बेहद घातक रूप अख्तियार कर चुका है। कीटनाशक, खरपतवारनाशी व अन्य जहरीली दवाइयों और गन्दे पानी ने धरती के नीचे कुदरती पानी को भी बर्बाद कर दिया है। गन्दे पानी व खेती में उपयोग होने वाली जहरीली दवाओं व खादों के इस्तेमाल से हम धरती माँ को भी बंजर बनाने पर तुले हैं। पराली की आग ने धरती का सीना और भी छलनी कर दिया है। पराली जलाने से वातावरण तो खराब होता ही है इससे किसान के मित्र जीव-जन्तु मरने के अलावा जमीन की उपजाऊ शक्ति भी कम हो रही है। इस कार्य में हर देश व प्रत्येक इंसान अपनी जिम्मेदारी समझ कर योगदान करेगा तो हम पर्यावरण को फिर से साफ व स्वच्छ बना सकेंगे। गुरु नानक देव जी ने 500 साल पहले गुरबाणी का उच्चारण कर पवन गुरु, पानी पिता, माता धरत महत का सन्देश दिया था। यदि हर व्यक्ति इस सीख को लेकर चले तो पर्यावरण कभी दूषित नहीं होगा, लेकिन मनुष्य अपनी गलतियों से आने वाली पीढ़ियों को जन्म से पहले ही प्रदूषित वातावरण व बीमारियों का तोहफा दिए जा रहा है। दिल्ली पर प्रदूषण बेहद खतरनाक रूप अख्तियार करता जा रहा है। शहरों व गाँवों के गन्दे पानी को ट्रीट करके खेतों में लगाया जा सकता है।

हर शहर से एक ऐसी नहर निकलनी चाहिए जिससे सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट के पानी को खेतों तक सिंचाई के लिये पहुँचाकर ऑर्गेनिक खेती करना सम्भव हो सके। इससे बिजली, डीजल व धरती के नीचे का पानी ही नहीं बचेगा बल्कि फसल को खादों की जरूरत भी नहीं रहेगी। यदि सरकार चाहे तो हर काम सम्भव हो सकता है।

इंडस्ट्री को सभी पढ़े-लिखे इंजीनियर चला रहे हैं। उन्हें इस बात की समझ है कि फैक्टरियों के खतरनाक केमिकल पानी को क्या क्षति पहुँचाते हैं। अगर कोई इंडस्ट्री, नगर निगम, नगर काउंसिल व पंचायत अपना गन्दा पानी कुदरती जल स्रोतों में डालती है तो उसपर 1974 एक्ट के तरत कार्रवाई करनी चाहिए।

काम बोलता है

सन्त बलवीर सिंह सीचेवाल ने अपने गाँव सीचेवाल से समाज सेवा शुरू कर अनेक गाँवों का तो कायाकल्प किया ही है, वह भी कर दिखाया जिसे पंजाब सरकार नामुमकिन घोषित कर चुकी थी। प्रदूषण की बलि चढ़ अपना अस्तित्व खो रही 160 किलोमीटर लम्बी काली बेई को उन्होंने नया जीवन दिया। सीवरेज के गन्दे पानी को देशी ढंग से ट्रीट कर उसे खेती के लिये इस्तेमाल करने वाले सीचेवाल मॉडल को देश की कई सरकारें अपने राज्यों में लागू करने लगी हैं। सीचेवाल का प्रसाद भी अनूठा है जिसमें वह एक पौधा देते हैं। गाँव सीचेवाल व सुल्तानपुर लोधी में चार नर्सरी बनी है, जिनमें हर साल ढाई लाख पौधे तैयार कर मुफ्त बाँटे ही नहीं जाते बल्कि उनका पालन-पोषण भी किया जाता है। कार सेवा करते हुए सीचेवाल का वर्ष 2015 में बेशक पाँच जगहों से पैर टूट गया लेकिन उन्होंने अपने कार्यों में ठहराव नहीं आने दिया।

प से पानी प से पर्यावरण
राजेन्द्र सिंह (मैग्सेसे पुरस्कार विजेता जल पुरुष)


जहाँ पानी है, वहीं हरियाली है। पेड़-पौधे वातावरण की हानिकारक कार्बन डाइऑक्साइड गैस को सोख ऑक्सीजन उन्मुक्त करते हैं। इससे पर्यावरण में प्रदूषक तत्वों का खात्मा होता है और वह इंसानी जीवन के अनुकूल बनता है।

भारत जब तक भगवान को समझता था, तब तक यहाँ जलवायु का संकट और पर्यावरण की हालत नहीं बिगड़ी। भगवान का अर्थ था- भ से भूमि, ग से गगन, व से वायु, अ से अग्नि और न नीर। भगवान भारत के पंच महाभूत ही थे। इनका रक्षण पोषण और संरक्षण ही पूजा थी। जबसे हमने भगवान को भुला दिया और तब से हम उनसे दूर होते चले गए। जब हम अपने निर्माता को भूल जाते हैं तो वे भी हमें भूल जाते हैं। उनको क्रोध आता है। घटता सतह पर मौजूद जल और भूजल हमारी धरती को बुखार चढ़ा रहा है और मौसम का मिजाज बिगाड़ रहा है।

इस संकट से निपटना है तो बारिश के जल को सहेजकर धरती के पेट में रखना होगा, जिससे सूरज इस पानी को चोरी न कर सके। मिट्टी में नमी बनी रहे और धरती के पेट में पानी रहे तो फिर हरियाली अपने आप बढ़ने लगती है। यह हरियाली प्रकाश संश्लेषण क्रिया के द्वारा वातावरण में से कार्बन को अपने अन्दर सोख लेती है और ऑक्सीजन का उत्सर्जन करके हमारे जलवायु और पर्यावरण को सन्तुलित रखती है। उसके कारण पर्यावरण सुधरता है और धरती पर पर्यावरण के बाधक तत्व घटने लगते हैं। पर्यावरण को सुधारने वाले तत्व बढ़ने लगते हैं। पर्यावरण सुधार का कार्य जल से शुरू होता है। मैं अपनी बातचीत में हमेशा कहता हूँ कि जल ही पर्यावरण है और पर्यावरण ही जल है।

जब जल स्वस्थ रहता है तो धरती स्वस्थ रहती है और मानव भी स्वस्थ रहता है। स्वस्थ मानव पर्यावरण के विरुद्ध काम नहीं करता। साझी सोच से ही पर्यावरण को बचाया जा सकता है। जैसे राजस्थान में गोपालपुरा गाँव के लोगों ने अपने उजड़े वीरान बेपानी गाँव में उदाहरण पेश किया। उन्होंने अपने गाँव की मिट्टी के कटाव को रोका और पानी को धरती की कोख में पहुँचाया। उजड़ी वीरान धरती में बीज छिटककर वर्षा जल को रोककर नमी पैदा करके साझी जमीन पर जंगल बनाया। और अपनी निजी जमीन पर खेती करने लगे। उसका परिणाम यह हुआ कि चारों तरफ हरियाली बढ़ गई। इस गाँव को हरा भरा देखकर यह कार्य 1200 गाँवों में फैल गया।

इस इलाके की सूखी मरी नदियों और कुओं में भूजल रहने लगा है। यहाँ के किसान अकाल में भी अच्छी खेती करते हैं। यहाँ के लोगों ने अपनी जल उपयोग दक्षता बढ़ाई। कम पानी खर्च करके अधिक पैदावार करने का चलन शुरू किया। खेती के अनुकूलन से हरियाली बढ़ गई और जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम सुधर गए, पर्यावरण सन्तुलित हो गया और डेढ़ डिग्री तापमान नीचे आ गया। इसी तरह पूरे देश में भागीदारी से पर्यावरणीय सुधार के काम करने की जरूरत है।

सब भोगें तो सब जोड़ें
डॉ. अनिल प्रकाश जोशी (संस्थापक, हिमालयन एनवायरनमेंटल स्टडीज एंड कंजर्वेशन ऑर्गनाइजेशन (हेस्को) देहरादून)


अब पर्यावरण की चुनौती सामूहिक रूप से सोचे जाने का विषय है। हमें प्रकृति के उस नियम को नहीं भूलना चाहिए जिसके अनुसार जो भोगे वो जोड़े भी। जब प्रकृति के संसाधनों का सब इस्तेमाल करते हैं तो उसका संरक्षण भी सबकी जिम्मेदारी है।

दुनिया में बढ़ती पर्यावरण परिस्थितियों की चिन्ता किसी एक देश व सरकार की नहीं हो सकती। यह चिन्ता सबकी है। आखिर हममें से कौन है जिसे हवा, मिट्टी, पानी से सीधा लाभ ना पहुँचता हो। पर्यावरण एक सामूहिक दायित्व है जिसके बिगड़ते हालातों को किसी एक सरकार व देश पर नहीं थोपा जा सकता। साफ सी बात है जिस पारिस्थितिकी को सबने मिलकर बिगाड़ा हो, उसका हल सरकारों के पास हो ही नहीं सकता। सरकार एक तंत्र होता है जो नियमों के पालन के लिये दिशा मात्र ही दे सकता है। अन्ततः इसकी जिम्मेदारी सामूहिक ही होती है।

देश के किसी भी शहर के पर्यावरण को मानकों की कसौटी पर कस लीजिए, यकीन मानिए आपको निराशा लगेगी। स्थितियाँ वहाँ रहने लायक नहीं होंगी। वायु प्रदूषण की स्थिति यहाँ तक पहुँच चुकी है कि लोग शहरों को छोड़ गाँवों में बसने की ख्वाहिश जताने लगे हैं। लेकिन ख्वाहिश जताने वाले यही लोग गाड़ियाँ खरीदने से परहेज नहीं करते। शायद इनको लगता है कि इनके गाड़ी न खरीदने से यहाँ के प्रदूषण पर कोई फर्क नही पड़ेगा। अगर यही सोच सबके मन में आए और प्रदूषण से लड़ते हुए सभी वाहन खरीदने से तौबा कर लें तो क्या स्थिति हो। अरे भाई, गाँव में जाओगे, साल, दो साल और चार साल बाद वहाँ भी प्रदूषण फैलाओगे। फिर कहाँ भागोगे। दर मत बदलो, सोच बदलो।

असल में सारी चीज उस चरित्र पर अटक जाती है जिसे हम खो चुके हैं। हम अधिकारों के चलते हर बात के लिये सरकारों को कोसते फिरते हैं और दूसरी तरफ अपने दायित्वों से पूरी तरह कतरा जाते हैं। कोई भी सररकार बिना किसी सामूहिक भागीदारी के अपने पर्यावरण को बेहतर नहीं रख सकती।

काम बोलता है

2010 में हेस्को ने एक मरती नदी को जीवन दिया। यह नदी वर्षा नदी थी और इसका जलागम क्षेत्र पूर्णतः अस्वस्थ था। संगठन ने तत्काल वर्षा के पानी के संग्रहण के लिये जलागम में 1000 जलछिद्र बनाए व 181 चेकडैम। 2010 से नदी की वापसी हुई और सबसे उत्तम दर्जे का जंगल भी पनपा। यह प्रयोग जंगल की आग को रोकने में भी काम आया और वनाग्नि इसे नहीं लीलती। इस अनोखे काम ने वर्षा नदी को पुनर्जीवित करने के लिये एक नई दिशा दे दी। ऐसे ही उत्तराखण्ड व हिमाचल प्रदेश में लुप्त होती 100 से अधिक जलधाराओं को पुनर्जीवित किया गया। जलधाराओं के कैचमेंट को चिन्हित करने के बाद उनकी जल संग्रहण क्षमता को बढ़ा दिया गया। स्वच्छता को लेकर संगठन ने देहरादून व रुद्रप्रयाग जिलेे में शौचालय बनाए। आज ये गाँव खुले में शौचमुक्त हैं। इनका नाम स्वच्छालय दिया गया है। संगठन ने जन-वन के तहत हर गाँव में अपने वनों की तर्ज पर काम किया है। गाँव की महिलाओं, बच्चों ने 10 हेक्टेयर क्षेत्र में अपने वनों को पनपाया है।

निजी स्तर पर उठें कदम, तभी पूरे होंगे सपने

वानिकी

1. कुल ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन का 20 फीसद केवल वनों के होते विनाश के चलते है।
2. अगर वनों का टिकाऊ प्रबन्धन किया जाए तो ये बिना पर्यावरण और जलवायु को नुकसान पहुँचाए लगातार समुदायों और पारिस्थितिकी तंत्र की मदद करते रहें।


जल

चतुराई भरे जल के इस्तेमाल के रूप में आपके छोटे से कदम से इस अनमोल संसाधन का संरक्षण सम्भव है।

पर्यटन

घर पर या घर से बाहर यात्रा के दौरान भी एक ही तरीके से आप ग्रीन इकोनॉमी का समर्थन कर सकते हैं। स्थानीय खरीदें, कई लोगों के साथ यात्रा करें, पानी और ऊर्जा का सीमित इस्तेमाल करें।

ऊर्जा आपूर्ति

आप ऐसे उत्पाद या कारोबार में निवेश करें जो स्वच्छ और नवीकृत ऊर्जा के विकास को बढ़ावा देते हों।

मैन्युफैक्चरिंग और उद्योग

एक चतुर उपभोक्ता बनिए। उस कारोबार को बढ़ावा दें जिसके पास टिकाऊ योजनाएँ हो, इकोलेबल्स को इस्तेमाल करें, नवीकृत ऊर्जा में निवेश करें।

परिवहन

कार पूलिंग या सार्वजनिक यातायात के इस्तेमाल से आप पर्यावरण पर पड़ने वाले असर और आर्थिक लागत दोनों को कम कर सकते हैं।

भवन निर्माण

1. ऊर्जा ऑडिट द्वारा घर या ऑफिस की ऊर्जा लागतों में काफी बचत कर सकते हैं।
2. घर में साज-सज्जा या लैंडस्केपिंग के लिये ऐसी चीजों का चयन करें जिनका पर्यावरण पर बहुत असर न हो।

कृषि

अपनी उपभोक्ता ताकत का इस्तेमाल स्थानीय, कार्बनिक और टिकाऊ कृषि को बढ़ावा देने में करें।

अपशिष्ट

1. किसी भी वस्तु को फेंकने का सीधा सा मतलब है कि उस पदार्थ के पुनरुपयोग का मौका गवाँ देना और लैंडफिल से मीथेने नामक पर्यावरण के लिये खतरनाक गैस के उत्पादन को बढ़ावा देना।
2. रिसाइकिल और अपशिष्ट से कम्पोस्ट बनाकर लैंडफिल के असर को न केवल कम करते हैं बल्कि नए उत्पादों के निर्माण से संसाधनों पर असर को भी कम करते हैं।

त्रिस्तरीय प्रयास बाँधेंगे आस

पिछले कुछ दशकों में हुए आर्थिक विकास से देश लाभान्वित तो हुआ है पर हमने इसकी कीमत पर्यावरण को नुकसान पहुँचाकर चुकाई है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक पर्यावरण नुकसान के चलते हर साल भारतीय अर्थव्यवस्था को 80 अरब डॉलर की चपत लगती है। ऐसे में टिकाऊ विकास का लक्ष्य ऐसी तकनीकों की बदौलत ही हासिल हो सकेगा जो विकास के साथ पर्यावरण भी सहेजे। इसके लिये हमें तीन स्तर पर काम करना होगा।

तैयार हो पैमाना

विकास को मापने के पारम्परिक तरीकों से काम नहीं चलेगा। पर्यावरणीय विकास के लिये ग्रीन ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट यानी ग्रीन जीडीपी इंडेक्स विकसित किया जाना चाहिए।

संसाधनों का विकास

टिकाऊ विकास सुनिश्चित करने के लिये देश को अपने प्राकृतिक संसाधनों की बढ़ोत्तरी पर ध्यान देना होगा। साथ ही सभी तरह की पारिस्थितिकी को बचाना होगा।

नीतिगत दखल

टैक्स लगाकर लोगों को संसाधनों के अत्यधिक दोहन से रोका जा सकता है। इस तरह के टैक्स से मिली राशि पर्यावरण संरक्षण के काम आएगी।


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