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अनुसंधान विज्ञान शोध पत्रिका, अक्टूबर, 2013
जैवविविधता और इसके अन्य अंग मानव के अस्तित्व के आधार हैं। इस जैवविविधता के कारण ही हमें भोजन, ऊर्जा, दवाएं, परितांत्रित स्रोत, वैज्ञानिक तथ्यों की जानकारी और छह अरब से अधिक लोगों को सांस्कृतिक आधार मिलता है। जैवविविधता नष्ट होने से हमारे समाज या आर्थिक तंत्र पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इसके सैंकड़ों उदाहरण उपस्थित हैं, कितने विस्थापन हो रहें हैं, कितने बीमार पड़ रहे हैं, कितनी भुखमरी बढ़ रही है। संयुक्त राष्ट्र की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार सन 2020 तक विश्वभर में करीब पाँच करोड़ पर्यावरण विस्थापित होंगे। और यह इसलिए विस्थापित होंगे क्योंकि जलवायु परिवर्तन के कारण खाना-पानी मिलना दुरूह हो जाएगा, यानी जैवविविधता का नाश होगा जिससे विस्थापन की प्रवृत्ति और बढ़ेगी। सच्चाई यह है कि गरीबी, भूख और अधिकतर अन्य पीड़ाएं इस जैवविविधता की तबाही का ही परिणाम हैं।
जैवविविधता का आर्थिक योगदान पता लगाना काफी मुश्किल है। जैवविविधता का सही मूल्यांकन थोड़ा जटिल है क्योंकि यह पूरी तरह मानव की सोच पर निर्भर करता है और यह सोच समाज और व्यक्तिगत स्तर पर काफी भिन्न हो सकती है। हाथी के उदाहरण से आप इस बात को अच्छी तरह समझ सकते हैं। जिन लोगों का हाथी के साथ रोज सामना नहीं होता है, वे लोग हाथी को उसके आकार, उसकी भव्यता और समझदारी के लिये जानते हैं। जो लोग हाथियों के साथ जीवन-यापन करते हैं उनके लिये हाथी उनकी फसलों और संपत्ति का दुश्मन है।
समाज में जैवविविधता के योगदान को समझने के लिये हमें थोड़ा गहराई से सोचना होगा। इसके लिये हमें जैवविविधता के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष उपयोगों को समझना होगा। जैवविविधता के प्रत्यक्ष स्रोत के उदाहरण सब्जियाँ, लकड़ी, फल आदि हैं जिन्हें हम सीधे उपयोग में लाते हैं। जबकि पारितंत्र के कार्यों को जैसे पोषक तत्वों के चक्र का लाभ अप्रत्यक्ष रूप से पाते हैं।
जैवविविधता संपूर्ण अंश में हमारे लिये महत्त्वपूर्ण है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा ‘‘द इकोनोमिक्स अॉफ इकोसिस्टम्स एंड बायोडाइवर्सिटी’’ अर्थात टीब के अध्ययन में यह सामने आया है कि मानव समाज के लिये जैवविविधता के हनन से होने वाली तमाम मुसीबतें पूरी तरह अवहनीय है। पूरी दुनिया का आर्थिक खेल इन्हीं संसाधनों पर टिका है। सबसे पहले जैवविविधता के आर्थिक महत्व की ही बात करते हैं। इसमें सबसे पहले खाद्य सुरक्षा और जैवविविधता के सम्बंध को समझते हैं। करीब 12 हजार वर्षों पहले मानव ने खेती शुरू की और छोटी बस्तियों के रूप में अपने को बसाना शुरू किया। तभी से मानव जैवविविधता को नष्ट करता चला आ रहा है। जब खेती करनी आरंभ की तो इसके लिये जंगल काटे। वैसे आज हमें करीब ढाई लाख तरह के पेड़-पौधों के बारे में पता है, लेकिन हमारा 90 प्रतिशत खाना करीब 100 पौधों की प्रजातियों से ही आता है। एक वैज्ञानिक ने कहा था कि गेहूँ और चावल ही मानव सभ्यता और भुखमरी के बीच खेड़े हैं।
मधुमक्सी, तितलियाँ, चमगादड़, पक्षी आदि फसलों और फलों की पैदावार में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। हमारी करीब एक तिहाई खाद्य फसलें प्राकृतिक परागण पर निर्भर करती हैं। फूलों से शहद बटोरने के दौरान मधुमक्खियां परागों को अपने पैरों, परों आदि में चिपकाकर अन्य फूलों तक पहुँचा देती हैं। और इसी परागण के कारण हमें स्वादिष्ट फल और सब्जियाँ इत्यादि उपलब्ध होती हैं। इसलिए इन मधुमक्खियों की मेहनत का मूल्यांकन हमारे सामर्थ्य की बात नहीं।
मधुमक्ख्यिों पर हमारा नियंत्रण तो नहीं है। लेकिन कीटनाशक छिड़क-छिड़क कर हमनें सभी लाभकारी कीटों जैसे मधुमक्खियों, ततइयों आदि को खत्म कर दिया है। और इससे बुरी हालत हमने मिट्टी की कर दी है। मिट्टी में कई प्रकार के जीवाणु, शैवाल, कवक, छोटे कीट, कृमि आदि होते हैं। यह सभी मिलकर जैविक पदार्थों के विघटन का कार्य करते हैं और पौधों के लिये आवश्यक पोषक तत्व उपलब्ध कराते हैं। इनकी प्रक्रियाओं से जीवमंडल में जीव और निर्जीव पदार्थों के बीच में महत्त्वपूर्ण तत्वों जैसे नाइट्रोजन, कार्बन और फास्फोरस आदि का संचरण होता है। इसी कारण हमें बढ़िया फसल मिलती हैं इन सभी जीवाणु, कवक आदि के सहयोग से बेहद उवर्रक मिट्टी की ऊपरी परत तैयार होती है जिसे ह्यूमस कहते हैं।
इस पहली परत को बनाने में प्रकृति को करीब 100 वर्ष लगते हैं। हमने गहन कृषि पद्धति को अपनाकर इस ऊपरी परत को कई क्षेत्रों में नष्ट कर दिया है, अब पूरी तरह वहाँ की भूमि बंजर हो गई है इस उवर्रक मिट्टी में फसल उगाकर किसान सालाना अरबों रूपये की पैदावार करता था, जिससे दुनिया में व्यापार का चक्र चलता है। आजकल तो वायदा व्यापार भी चल रहा है, यह फसल के संभावित उत्पादन पर ही तो आधारित है। खाद्य सुरक्षा के लिये जैवविविधता ही एकमात्र सहारा है। यदि पूरी दुनिया को बौनी किस्म का गेहूँ न मिला होता , तो क्या हो पाती हरित क्रांति, मिलता भूखों को भोजन? लेकिन अगर दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अमेरिकी कृषि वैज्ञानिकों को जापान का बौनी किस्म का नौरीन गेहूँ नहीं मिला होता तो न बौनी किस्म विकसित होती और न आती हरित क्रांति। अब भी जैवविविधता की आर्थिकी समझनी है। पूरी दुनिया इसी जैवविविधता पर निर्भर है। हम खेती में तमाम कीटनाशी आदि प्रयोग करने लगे हैं लेकिन अगर समझ से काम लें तो 99 प्रतिशत फसलों को नष्ट करने वाले कीटों को अन्य जीव जैसे पक्षी, हमारे मित्र कीट और फफूंद की कुछ प्रजातियाँ ही खत्म कर देती हैं। पूरी दुनिया में इन कीट नाशियों का कारोबार लाखों-करोड़ रूपये का है।
जैवविविधता का आर्थिक महत्व असीम है। जिस जैवविविधता पर पूरा जीवन टिका है उसका सही-सही आंकलन कर पाना तो मुश्किल है, यद्यपि संयुक्त राष्ट्र द्वारा टीब से कराए गए अध्ययन में प्राकृतिक संसाधनों की कीमत कई खरबों डॉलरों में लगाई है। सागर में मछलियों से लेकर आकाश में उड़ने वाले पक्षी सभी किसी न किसी रूप में हमारे काम ही आते हैं। मछलियाँ जीव प्रोटीन का सबसे बड़ा स्रोत है। सालभर में औसतन 10 करोड़ टन मछलियाँ पकड़ी जाती हैं। अफ्रीका और एशिया में तो करीब 20 प्रतिशत लोगों के लिये प्रोटीन का प्रमुख स्रोत मछली ही है। दवाओं में जैवविविधता काफी महत्त्वपूर्ण है और दुनिया में इस समय दवाओं का व्यापार काफी बड़ा है। अकेले भारत में दवाओं का व्यापार लगभग अस्सी हजार करोड़ रूपये का है।
आप खुद ही सोचे अगर भूमि बंजर तो किसान बेहाल। फिर वो मजदूरी के लिये शहर जाएगा, शहरों में आबादी का बोझ बढ़ेगा, खाद्यान्न उत्पादन कम होने से दाम बढ़ेंगे, फिर शहरी गरीबों की संख्या में वृद्धि होगी और फिर अपराध, लूटमार और अराजकता। इसलिए हमें इस जैवविविधता को सहेजना और संवारना होगा।
अब दवाओं में भी जैवविविधता का हिसाब लगा लें। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विकासशील देशों में करीब 80 प्रतिशत लोग पारम्परिरक दवाओं पर निर्भर हैं, जिनका प्रमुख स्रोत पौधे ही हैं। मलेरिया से लेकर कैंसर तक के लिये करीब 6500 प्रकार के पौधे उपचार के लिये उपयोग किए जाते हैं। एक सर्वेक्षण में पता चला है कि विकसित देशों में प्रयुक्त दवा प्रणाली में भी जैवविविधता का बड़ा योगदान है। अकेले अमेरिका में जो 150 दवाएं डॉक्टरों द्वारा लिखी जा रही हैं इनमें से 118 प्राकृतिक स्रोतों पर आधारित हैं। अमेरिका के नेशनल कैंसर इंस्टिट्यूट के अनुसार कैंसर के इलाज के लिये करीब 70 प्रतिशत दवाएं पौधों से ही आती हैं। हाल ही में कोन स्नेल (एक प्रकार के घोंघे) में ऐसा दर्दनिवारक तत्व पाया गया है जो मॉरफीन से हजार गुना प्रभावी है और मॉरफीन की तरह इसकी लत भी नहीं लगती। औद्योगिकी क्षेत्र की बात करें तो सारा उद्योग ही जैवविविधता पर आधारित है। उद्योगों में जैसे कपड़ा उद्योग, लकड़ी, खाद्य तेल, परफ्यूम, रंग, कागज, मोम, रबर, कॉर्क, ऊन, सिल्क, फर, चमड़ा आदि सभी तो पौधों या जीवों की जैवविविधता पर आधारित हैं।इसके अतिरिक्त परिवहन के लिये भी तो पशुओं का उपयोग किया जाता है। पर्यटन में जैवविविधता की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। पर्यटन तो अब बहुत बड़ा कारोबार है, इसमें इकोटूरिज्म का बड़ा महत्व है। प्राकृतिक पर्यटन से देशों में करीब बीस हजार अरब रूपये का वार्षिक व्यापार होता है। अमेरिका के फ्लोरिड़ा स्थित प्रवालभित्तियों से ही प्रतिवर्ष लगभग 6500 करोड़ रूपये की आमदनी होती है। वर्षा कराने के साथ वन्य जीवों और जैवविविधता का संरक्षण जंगल ही तो करते हैं। इसके अलावा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में भी जंगलों का बड़ा योगदान होता है। जंगलों के अप्रत्यक्ष लाभ लकड़ी, बीज और फल के अलावा प्रदूषण को अपने में समा लेना, ऑक्सीजन का उत्पादन करना, मिट्टी के क्षय को रोकना भी है।
जैवविविधता मानव की प्रेरणा का स्रोत भी है। उड़ने का विचार शायद पक्षियों को देखकर ही आया होगा जो हवाई जहाज के आविष्कार का आधार बना होगा। और फोन का विचार भी चमगादड़ या शायद अन्य किसी जीव जैसे डॉलफिन या शार्क को देखकर आया होगा। आजकल सब बड़े मॉल और बड़े शो-रूम में इंफ्रा रेड़ सेंसर लगे रहते हैं जो रेडियो टैग लगी किसी भी वस्तु को देखकर या धातु की किसी वस्तु पर नजर रखते हैं। क्या आप जानते हैं कि इन इंफ्रारेड सेंसरों का विचार कहाँ से आया, एक बेहद जहरीले सांप रैटल स्नेक से। उसमें ताप संवेदी अंग होगा है जिससे वह अपने शिकार या खतरे को पहचानता है। इसे बायोमिमिक्री कहते हैं। लेकिन जैवविविधता का विनाश किया जा रहा है। जब हम कीटनाशक छिड़कते हैं या बाढ़ आती है या आंधी, बारिश आती है तो इनसे मिट्टी का क्षरण होता है। अब जब खाद और कीटनाशियों से भरा पानी बह कर जलाशय या सागर आदि में मिलता है तो इससे शैवाल बहुत बढ़ जाती है इसे एल्गल ब्लूम कहते हैं। और जब शैवाल ज्यादा होगी तो वह पानी से काफी ऑक्सीजन खींच लेती है और इससे जलीय जीव मर जाते हैं।
जैवविविधता के अंतर्गत प्रत्येक प्रजाति की अपनी-अपनी भूमिका होती है। लेकिन कुछ प्रजातियों की-स्टोन प्रजातियाँ होती हैं, जिनका महत्व अधिक होता है। इसे इस प्रकार समझते हैं कि कभी किसी छोटी सी चट्टान को पहाड़ी पर टिके देखा है? उसके आस-पास छोटे-छोटे पत्थर होते हैं, जिसपर वो चट्टान टिकी होती है। लेकिन सिर्फ एक पत्थर ऐसा होता है जिसके हटाने से पूरी चट्टान धरधराती हुई नीचे आ गिरती है, बस उस पत्थर को की-स्टोन कहते हैं की-स्टोन प्रजाति यानि जिसके हटाते ही पूरी चट्टान निचे गिर जाए, अरे चट्टान नहीं पूरा पारितंत्र। की-स्टोन प्रजाति पूरे पारितंत्र को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। ये प्रजातियाँ कई प्रकार की होती हैं जैसे परभक्षी, आपसी लेन-देन वाली या फिर इंजीनियर।
अब परभक्षियों में सागर में रहने वाले ऊदबिलाव को हम की-स्टोन प्रजाति में गिनते हैं। यह ऊदबिलाव सागर में मौजूद सी-अर्चिन जीव को खाते हैं इस तरह से उसकी संख्या पर नियंत्रण रखते हैं और साथ ही सागर में पाए जाने जंगलों यानी केल्प को भी बचाते हैं। सी-अर्चिन केल्प की जड़ों को खाकर उसे नष्ट कर देते हैं, अगर ऊदबिलाव न हों तो कल्प खत्म और पूरा एक सागरी पारितंत्र भी समाप्त। यह की-स्टोन प्रजाति तो बड़े काम की है। अब उत्तरी अमेरिका में रहने वाले ग्रिजली भालू को ही लीजिए, इसे पारितंत्र के इंजीनियर के रूप में की-स्टोन प्रजाति माना जाता है। ग्रिजली भालू दुनिया के सबसे बड़े भालू होते हैं। ग्रिजली भालू महासागरीय पारितंत्र से पोषक तत्वों को जंगल के पारितंत्र में पहुँचाते हैं। पहले चरण में सागर से सालमन मछली जो नाइट्रोजन, सल्फर, कार्बन और फास्फोरस से भरपूर होकर हजारों मील का नदियों में सफर तय करती है।
फिर इस सालमन को भालू पकड़ते हैं। भालू लाइन लगा कर सालमन मछली को अपने मुँह से पकड़ते हैं। बस यही भालू अपने मल के द्वारा और बची-खुची सालमन मछली के जरिए जंगल की भूमि पर सागर से लाए पोषक तत्व पहुँचा देते हैं। एक अनुमान के अनुसार भालू पकड़ी गई सालमन का आधा भाग जंगल की भूमि पर छोड़ कर उसे उपजाऊ बनाते हैं, जिस पर विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधे पनपते हैं। और अगर ग्रिजली भालू खत्म तो फिर पूरा जंगल ही खत्म हो जाएगा। तो जैवविविधता खत्म होने का पूरे समाज पर काफी बुरा प्रभाव होगा। आप खुद ही सोचे अगर भूमि बंजर तो किसान बेहाल। फिर वो मजदूरी के लिये शहर जाएगा, शहरों में आबादी का बोझ बढ़ेगा, खाद्यान्न उत्पादन कम होने से दाम बढ़ेंगे, फिर शहरी गरीबों की संख्या में वृद्धि होगी और फिर अपराध, लूटमार और अराजकता। इसलिए हमें इस जैवविविधता को सहेजना और संवारना होगा।
संदर्भ
1. मणिवासकम, एन., हवा और पानी में जहर, नेशनल बुक ट्रस्ट, आइएसबीएन 81-237-2346-66।
2. बसु, विमन (2009) अर्थस चेंजिंग क्लाइमेट, विज्ञान प्रसार, नई दिल्ली, आइएसबीएन 978-81-148-165-5।
3. ड्रीम 2047 मासिक पत्रिका, विज्ञान प्रसार, नई दिल्ली।
नवनीत कुमार गुप्ता, सी-24, विज्ञान प्रसार, कुतूब सस्थानिक क्षेत्र, नई दिल्ली-110016ngupta@vigyanprasar.gov.in