भूमि की सतह अथवा भूमि के नीचे से अतिरिक्त जल (स्वत्रंत पानी या गुरूत्वाकर्षण जल) को निकालकर पौधो को बढ़ने के लिये अच्छी परिस्थितियो को देना ही जल निकास कहलाता है। भूमि से पौधों की वृद्वि को उचित वातावरण देने के लिये आवश्यकता से अधिक जल को उचित ढंग से निकालने की प्रक्रिया को जल निकास कहते है। भूमि सतह से अतिरिक्त जल को निकालने की क्रिया को सतही या पृष्ठीय जल निकास कहते है।
अतिरिक्त जल मृदा सतह पर बहुत से प्राकृतिक और आप्रकृतिक कारणें से पाया जाता है। जिनमें अधिक वर्षा, आवश्यकता से अधिक सिंचाई, जल स्रोतों, नहर और नालों से रिसाव, बाढ़ इत्यादि मुख्य है।
मुख्यतः जल निकास की दो विधियों का उपयोग किया जाता है।
1- सतही जल निकास या खुली नालियों द्वारा जल निकास
2- अघिस्तल जल निकास या बन्द नालियों द्वारा जल निकास
सतही जल निकास- इस विधि में मृदा सतह पर स्थित अतिरिक्त जल को खुली नालियों की सहायता से प्राकृतिक स्थाई नालों में सुरक्षित रूप से निष्कासित किया जाता है। सतही जल निकास के लिए मुख्तया निम्नलिखित विधियां अपनाई जाती है।
अनियमित नाली प्रणाली- कुछ क्षेत्रों में जल गड्ढों में एकत्रित हो जाता है जिसकी निकासी आवश्यक होती है। जबकि शेष क्षेत्र में निकासी की आवश्यकता नही होती हैं गड्ढों के निकास हेतु गड्ढों को मिलती हुई नालियां बनाई जाती है। जो फालतू पानी को प्राकृतिक नाले में ले जाती है। इन नालियों की बाजू का ढाल 8:1 से 10:1 (क्षैतिज ऊँचाई ) रखा जाता है। जिससे कि कृषि यन्त्र आसानी से पार किया जा सके। नालियों का क्षेत्रफल लगभग 0.5 वर्ग मीटर रखा जाता है। और नाली को लम्बाई 0.2 से 0.4 प्रतिशत ढाल दिया जाता है।
समानान्तर प्रणाली- इस विधि को समतल तथा कम आन्तरिक निकास क्षमता वाले क्षेत्रों में अपनाया जाता है। इस प्राणाली में नालिया एक दूसरे के समानान्तर बनाई जाती है। दो नालियों के बीच की दूरी भूमि के ढाल की दिशा पर निर्भर करती है। यदि ढाल नाली के एक ओर हो तो अधिक से अधिक दूरी 200 मीटर अन्यथा 400 मीटर तक रखी जाती है। नालियों की न्यूनतम गहराई 22 सेमी तथा क्षेत्रफल 0.5 वर्ग मीटर रखा जाता है। समानान्तर नालीयां सचंय नाली में मिलती है।
बेडिंग विधि (Bedding)- इस विधि में खेत के ढाल के समानान्तर मोल्ड बोर्ड से निचत दूरी पर गहरे कूँड़ बनाये जाते है। दो कूँड़ों के बीच की चौड़ाई को बेड (Bed) कहते है। बेड का ढाल दोनों ओर के गहरे कूँड़ों की ओर होता है। खेत के किनारे एक उथली निकास नाली बना दी जाती हैं जो सब गहरे कूँड़ों का पानी एकत्रित करके प्राकृतिक नाले में पहुचाती है। कूँड़ों की गहराई 15 सेमी से 30 सेमी तक रखी जाती है। खेत की जुताई गहरे कूँड़ों के समानान्तर दिशा में करना चाहिये।
गहरी समानान्तर नाली प्रणाली- जिन क्षेत्रों में भूमिगत जल स्तर मूल क्षेत्र तक आ जाता है तथा सतही जल निकास भी आवश्यक होता है। वहां समानान्तर नालियां कम से कम 60 सेमी गहरी बनाई जाती है। नाली की बाजू का ढाल 4:1 के अनुपात में रखते है। ये गहरी नालियां भूमिगत पानी की निकासी का कार्य करती है। सतही जल निकास एकत्रित करने हेतु खेत के ढाल के विपरीत दिशा में उथली नालिया बनाई जाती हैं जो गहरी नालियों से मिला दी जाती हैं दो नालियों के बीच की दूरी लगभग 60 मीटर रखी जाती हैं ग्रीष्म ऋतु में इन नालियों में उचित दूरी पर गेट लगा दिये जाते है। जिससे कि भूमिगत पानी खेत से बाहर जाने के बजाय मूलक्षेत्र में उचित नमी बनाये रखे। इन नालियो की न्यूनतम गहराई प्रायः 1.2 मीटर रखते है। नालियों का ढाल लम्बाई में 0.1 से 0.4 प्रतिशत तक रखा जाता है।
ढाल के विपरीत नाली प्रणाली- ढालू भूमि के निकास हेतु ढाल के विपरीत दिशा में लगभग 5 0 मीटर की दूरी पर 0.5 से 0.8 वर्गमीटर क्षेत्रफल की 5 से 8 मीटर चौड़ी तथा 15 से 25 सेमी गहरी नालियां बनाई जाती है। नालियों की बाजू का ढाल 8:1 से 10:1 (क्षैतिज गहराई) तक रखना चाहिये जिससे कि कृषि यन्त्रों के लाने ले जाने में वाधा न हो। इन नालियों में लम्बाई की दिशा में 0.1 से 1 प्रतिशत तक ढाल दिया जाता है। सभी कृषि कार्य क्रास ढाल (Cross Slope) के समान्तर दिशा में करने चाहिये।
जिन क्षेत्रों में मृदा की आन्तरिक निकास क्षमता पर्याप्त होती है उनमें उपरोक्त वर्णित नाली प्रणालियों के बजाय भूमि को एक ओर अथवा दोनो ओर उचित ढाल देते हुये समतल किया जाता है। खेत की सीमा के किनारे उथली और चौड़ी निकास नाली बनाई जाती है। जो निष्कासित जल को प्राकृतिक नाले तक ले जाती है। खेत का ढाल, मृदा की कटाव क्षमता को ध्यान में रखते हुये 0.1 से 0.5 प्रतिशत तक रखा जाता है।