टाइल लाइन डालने की विभिन्न पद्धतियॉ है। किसी भी पद्धति को अपनाने से पूर्व क्षेत्र की जल निकास समस्या, स्थाई निर्गम तथा भूमि के ढाल का ज्ञान होना आवश्यक है। आवश्यकतानुसार निम्नलिखित पद्धतियों में सें कोई भी अपनाई जा सकती है।
(क) अनियमित या स्वाभाविक पद्धतिः यदि पूरे क्षेत्र के केवल कुछ निचले भागों में ही पानी एकत्रित होता हो, तो केवल ऐसे निचले स्थानों में टाइल बिछाकर लाइने स्थाई निर्गम तक ले जाई जाती हैं, यह पद्धति आर्थिक दृष्टि से भी लाभप्रद है।
(ख) हेरिंगबोन पद्धतिः जिन क्षेत्रो मे भूमि का ढाल बीच की ओर हो, वहॉ संग्राही टाइल लाइन ढाल की सामान्य दिशा से लंबवत निचले क्षेत्र मे बिछाई जाती है। संग्राही टाइल लाइनके दोनो ओर ढाल के समांन्तर बराबर दूरी पर पार्ष्विक लाइने डाली जाती है। यह पद्धति विशे षकर ऐसे क्षेत्र मे उपयुक्त होती है जहॉ पार्श्विक टाइल लाइन की लंबाई अधिक हो।
(ग) ग्रिडायरन पद्धतिः जिन क्षेत्रो मे सामान्य ढाल एक ही ओर होता है, वहॉ संग्राही टाइल लाइन ढाल के विपरीत दिशा में खेत की निचली सीमाके साथ-साथ दी जाती है। पार्श्विक नालियॉ संग्राही नाली मे एक ओर आकर मिलती है। पार्श्विक नालियॉ एक दूसरे के समान्तर तथा समान दूरी पर होती है। हेरिगबोन पद्धति की अपेक्षा ग्रिडायरन पद्धति में संग्राही एवं पार्श्विक नालियों के जोड़ो की संख्या कम होती है। अतः आर्थिक तथ रख-रखाव की दृष्टि से ग्रिडायरन पद्धति अच्छी होती है।
(घ) अवरोधी पद्धतिः अवरोधी निकास नाली ऊपर के अधिक गीले क्षेत्र को नीचे के क्षेत्र से अलग करने के लिए दोनो के बीच में डाली जाती है। जब ऊपर के क्षेत्र में स्थित अप्रवेश्य स्तर प्रायः भूति सतह के समीप होता है तो स्वतंत्र जल भूमि मे नीचे रिसने के बजाय पार्श्विक ढंग से बह कर नीचे की भूमि मे निकलता है तथा इस भूमि की जल-निकास समस्या बढ़ जाती है। अतः ऊपर की गीली भूमि से रिसकर आने वाले स्वतंत्र जल को अवरोधी निकास नाली द्वारा निर्गम में निकाल दिया जाता है।
आवश्यकतानुसार एक ही प्रकार की टाइल पद्धति अथवा दो या अधिक पद्धतियों को सम्मिलित रूप से अपनाया जा सकता है।
स्रोत- उत्तराखण्ड uttarakrishiprabha.com
(क) अनियमित या स्वाभाविक पद्धतिः यदि पूरे क्षेत्र के केवल कुछ निचले भागों में ही पानी एकत्रित होता हो, तो केवल ऐसे निचले स्थानों में टाइल बिछाकर लाइने स्थाई निर्गम तक ले जाई जाती हैं, यह पद्धति आर्थिक दृष्टि से भी लाभप्रद है।
(ख) हेरिंगबोन पद्धतिः जिन क्षेत्रो मे भूमि का ढाल बीच की ओर हो, वहॉ संग्राही टाइल लाइन ढाल की सामान्य दिशा से लंबवत निचले क्षेत्र मे बिछाई जाती है। संग्राही टाइल लाइनके दोनो ओर ढाल के समांन्तर बराबर दूरी पर पार्ष्विक लाइने डाली जाती है। यह पद्धति विशे षकर ऐसे क्षेत्र मे उपयुक्त होती है जहॉ पार्श्विक टाइल लाइन की लंबाई अधिक हो।
(ग) ग्रिडायरन पद्धतिः जिन क्षेत्रो मे सामान्य ढाल एक ही ओर होता है, वहॉ संग्राही टाइल लाइन ढाल के विपरीत दिशा में खेत की निचली सीमाके साथ-साथ दी जाती है। पार्श्विक नालियॉ संग्राही नाली मे एक ओर आकर मिलती है। पार्श्विक नालियॉ एक दूसरे के समान्तर तथा समान दूरी पर होती है। हेरिगबोन पद्धति की अपेक्षा ग्रिडायरन पद्धति में संग्राही एवं पार्श्विक नालियों के जोड़ो की संख्या कम होती है। अतः आर्थिक तथ रख-रखाव की दृष्टि से ग्रिडायरन पद्धति अच्छी होती है।
(घ) अवरोधी पद्धतिः अवरोधी निकास नाली ऊपर के अधिक गीले क्षेत्र को नीचे के क्षेत्र से अलग करने के लिए दोनो के बीच में डाली जाती है। जब ऊपर के क्षेत्र में स्थित अप्रवेश्य स्तर प्रायः भूति सतह के समीप होता है तो स्वतंत्र जल भूमि मे नीचे रिसने के बजाय पार्श्विक ढंग से बह कर नीचे की भूमि मे निकलता है तथा इस भूमि की जल-निकास समस्या बढ़ जाती है। अतः ऊपर की गीली भूमि से रिसकर आने वाले स्वतंत्र जल को अवरोधी निकास नाली द्वारा निर्गम में निकाल दिया जाता है।
आवश्यकतानुसार एक ही प्रकार की टाइल पद्धति अथवा दो या अधिक पद्धतियों को सम्मिलित रूप से अपनाया जा सकता है।
स्रोत- उत्तराखण्ड uttarakrishiprabha.com