निर्धारित जलमार्गों का अनुसरण करते हुए बहते जल के द्वारा जो तंत्र बनाता है उसे अपवाह तन्त्र या नदी प्रणाली कहते हैं। इस अपवाह तंत्र का ज्यामितीय विन्यास यह बताता है कि यह किस प्रकार का अपवाह तंत्र है या इसका अपवाह प्रतिरूप क्या है। किसी क्षेत्र का अपवाह तंत्र उस क्षेत्र की स्थलाकृति और जलवायु पर निर्भर होता है। (विकिपीडिया)अपवाह शब्द एक क्षेत्र के नदी तन्त्र की व्याख्या करता है। भारत के भौतिक मानचित्र को देखिए। आप पाएँगे कि विभिन्न दिशाओं से छोटी-छोटी धाराएँ आकर एक साथ मिल जाती हैं तथा एक मुख्य नदी का निर्माण करती हैं, अन्ततः इनका निकास किसी बड़े जलाशय, जैसे- झील, समुद्र या महासागर में होता है। एक नदी तन्त्र द्वारा जिस क्षेत्र का जल प्रवाहित होता है उसे एक अपवाह द्रोणी कहते हैं। मानचित्र का अवलोकन करने पर यह पता चलता है कि कोई भी ऊँंचा क्षेत्र, जैसे- पर्वत या उच्च भूमि दो पड़ोसी अपवाह द्रोणियों को एक दूसरे से अलग करती है। इस प्रकार की उच्च भूमि को जल विभाजक कहते हैं।
भारत में अपवाह तन्त्र
भारत के अपवाह तन्त्र का नियन्त्रण मुख्यतः भौगोलिक आकृतियों के द्वारा होता है। इस आधार पर भारतीय नदियों को दो मुख्य वर्गों में विभाजित किया गया है-
1. हिमालय की नदियाँ तथा
2. प्रायद्वीपीय नदियाँ
भारत के दो मुख्य भौगोलिक क्षेत्रों से उत्पन्न होने के कारण हिमालय तथा प्रायद्वीपीय नदियाँ एक-दूसरे से भिन्न हैं। हिमालय की अधिकतर नदियाँ बारहमासी नदियाँ होती हैं। इनमें वर्ष भर पानी रहता है, क्योंकि इन्हें वर्षा के अतिरिक्त ऊँचे पर्वतों से पिघलने वाले हिम द्वारा भी जल प्राप्त होता है। हिमालय की दो मुख्य नदियाँ सिंधु तथा ब्रह्मपुत्र इस पर्वतीय शृंखला के उत्तरी भाग से निकलती हैं। इन नदियों ने पर्वतों को काटकर गाॅर्जों का निर्माण किया है। हिमालय की नदियाँ अपने उत्पत्ति के स्थान से लेकर समुद्र तक के लम्बे रास्ते को तय करती हैं। ये अपने मार्ग के ऊपरी भागों में तीव्र अपरदन क्रिया करती हैं तथा अपने साथ भारी मात्रा में सिल्ट एवं बालू का संवहन करती हैं। मध्य एवं निचले भागों में ये नदियाँ विसर्प, गोखुर झील तथा अपने बाढ़ वाले मैदानों में बहुत-सी अन्य निक्षेपण आकृतियों का निर्माण करती हैं। ये पूर्ण विकसित डेल्टाओं का भी निर्माण करती हैं।
अधिकतर प्रायद्वीपीय नदियाँ मौसमी होती हैं, क्योंकि इनका प्रवाह वर्षा पर निर्भर करता है। शुष्क मौसम में बड़ी नदियों का जल भी घटकर छोटी-छोटी धाराओं में बहने लगता है। हिमालय की नदियों की तुलना में प्रायद्वीपीय नदियों की लम्बाई कम तथा छिछली हैं। फिर भी इनमें से कुछ केन्द्रीय उच्चभूमि से निकलती हैं तथा पश्चिम की तरफ बहती हैं। क्या आप इस प्रकार की दो बड़ी नदियों को पहचान सकते हैं? प्रायद्वीपीय भारत की अधिकतर नदियाँ पश्चिमी घाट से निकलती हैं तथा बंगाल की खाड़ी की तरफ बहती हैं।
हिमालय की नदियाँ
सिंधु, गंगा तथा ब्रह्मपुत्र हिमालय से निकलने वाली प्रमुख नदियाँ हैं। ये नदियाँ लम्बी हैं तथा अनेक महत्त्वपूर्ण एवं बड़ी सहायक नदियाँ आकर इनमें मिलती हैं। किसी नदी तथा उसकी सहायक नदियों को नदी तन्त्र कहा जाता है।
सिंधु नदी तन्त्र
सिंधु नदी का उद्गम मानसरोवर झील के निकट तिब्बत में है। पश्चिम की ओर बहती हुई यह नदी भारत में जम्मू कश्मीर के लद्दाख जिले से प्रवेश करती है। इस भाग में यह एक बहुत ही सुंदर दर्शनीय गॉर्ज का निर्माण करती है। इस क्षेत्र में बहुत-सी सहायक नदियाँ जैसे - जास्कर, नूबरा, श्योक तथा हुँज़ा इस नदी में मिलती हैं। सिंधु नदी बलूचिस्तान तथा गिलगित से बहते हुए अटक में पर्वतीय क्षेत्र से बाहर निकलती है। सतलुज, ब्यास, रावी, चेनाब तथा झेलम आपस में मिलकर पाकिस्तान में मिठानकोट के पास सिंधु नदी में मिल जाती हैं। इसके बाद यह नदी दक्षिण की तरफ बहती है तथा अन्त में कराची से पूर्व की ओर अरब सागर में मिल जाती है। सिंधु नदी के मैदान का ढाल बहुत धीमा है। सिंधु द्रोणी का एक तिहाई से कुछ अधिक भाग भारत के जम्मू-कश्मीर, हिमाचल तथा पंजाब में तथा शेष भाग पाकिस्तान में स्थित है। 2,900 कि.मी. लम्बी सिंधु नदी विश्व की लम्बी नदियों में से एक है।
अपवाह प्रतिरूप
एक अपवाह प्रतिरूप में धाराएँ एक निश्चित प्रतिरूप का निर्माण करती हैं, जो कि उस क्षेत्र की भूमि की ढाल, जलवायु सम्बन्धी अवस्थाओं तथा अधःस्थ शैल संरचना पर आधारित है। यह द्रुमाकृतिक, जालीनुमा, आयताकार तथा अरीय अपवाह प्रतिरूप है। द्रुमाकृतिक प्रतिरूप तब बनता है जब धाराएँ उस स्थान के भूस्थल की ढाल के अनुसार बहती हैं। इस प्रतिरूप में मुख्यधारा तथा उसकी सहायक नदियाँ एक वृक्ष की शाखाओं की भाँति प्रतीत होती हैं। जब सहायक नदियाँ मुख्य नदी से समकोण पर मिलती हैं तब जालीनुमा प्रतिरूप का निर्माण करती है। जालीनुमा प्रतिरूप वहाँ विकसित करता है जहाँ कठोर और मुलायम चट्टानें समानांतर पाई जाती हैं। आयताकार अपवाह प्रतिरूप प्रबल संधित शैलीय भूभाग पर विकसित करता है। अरीय प्रतिरूप तब विकसित होता है जब केन्द्रीय शिखर या गुम्बद जैसी संरचना धारायें विभिन्न दिशाओं में प्रवाहित होती हैं। विभिन्न प्रकार के अपवाह प्रतिरूप का संयोजन एक ही अपवाह द्रोणी में भी पाया जा सकता है।